2012 तुम अब लौटकर न आना दुबारा। क्या दिया है तुमने सिवाय इस लानत और शर्मिन्दगी के। 'वह जो शेष था' वह भी नहीं रहा अब। अब तुम ही बताओ किस मुंह से..किस उम्मीद से.. हम स्वागत करें आते हुए तुम्हारे उत्तराधिकारी का..। लगता नहीं है कि वह भी कुछ लेकर आ रहा है..इस सड़ते हुए समाज के लिए..। अच्छा तो यही है कि यह जर्जर हो चुकी व्यवस्था.. जल्द से जल्द नष्ट हो जाए ताकि उसके कबाड़ से आने वाले समय के लिए उपजाऊ खाद तो बने ।
Saturday, December 29, 2012
Sunday, December 23, 2012
चन्द्रकान्त देवताले : समय का बयान
।। दो लड़कियों का पिता होते हुए ।।
पपीते के पेड़ की तरह मेरी पत्नी
मैं पिता हूं
दो चिड़ियाओं का जो चोंच में धान के कनके दबाए
पपीते की गोद में बैठी हैं
सिर्फ़ बेटियों का पिता होने से भर से ही
कितनी हया भर जाती है
शब्दों में
Saturday, November 3, 2012
प्लेटफार्म पर आर्ट गैलरी
आमतौर पर जब हम रेल्वे स्टेशन पर किसी गाड़ी की प्रतीक्षा करे रहे होते हैं
तो समय काटना मुश्किल लगने लगता है। खासकर तब जब गाड़ी देर से आने वाली हो। ऐसे
में आपके पास सिवाय मक्खियां उड़ाने के और कोई काम नहीं होता। अगर कोई आपको सीऑफ
करने आया है या आप किसी को सीऑफ करने आए हैं तब भी कई बार बातों का कोटा खत्म हो
जाता है और केवल अगल-बगल झांकते ही नजर आते हैं। वैसे आजकल रेल्वे स्टेशनों पर
टीवी स्क्रीन भी समय काटने का एक साधन होते हैं। पर वे हमारी मूक फिल्मों के
जमाने को याद दिलाते हैं। क्योंकि आमतौर पर उन पर केवल चित्र ही दिखाई देते हैं,
आवाज अगर होती भी है तो वह दो-तीन रेडियो स्टेशनों के एक-साथ चलने पर आने वाली
आवाज की तरह। बहरहाल....।
Saturday, October 13, 2012
श्रीप्रसाद : हिन्दी बालकविता की आत्मा
इसे संयोग कहूं या दुर्योग
कि लगभग 18 साल पहले मैं जयपुर में श्रीप्रसाद जी के साथ था। और 12 अक्टूबर की
शाम टोंक से जयपुर पहुंचा तो संदीप नाईक ने फोन पर यह सूचना दी कि श्रीप्रसाद जी
नहीं रहे। उनके पास भी यह सूचना एकलव्य के गोपाल राठी के मेल से पहुंची। पिछले एक
हफ्ते से इंटरनेट से दूरी सी बनी हुई थी,इसलिए बहुत नियमित रूप से मेल देख नहीं पा
रहा था। गोपाल का मेल मुझे भी आया था, खोलकर देखा तो उनके मेल पर एक और लिंक थी,
रमेश तैलंग जी के ब्लाग नानी की चिट्ठियां की। वहां इस बारे में जो जानकारी थी
उसके अनुसार उन्हें प्रकाश मनु जी ने फोन करके इस दुखद खबर के बारे में बताया था।
श्रीप्रसाद जी दिल्ली आए थे, अपने हृदय रोग की चिकित्सा के सिलसिले में। संभवत:
उन्हें वहां दिल का दौरा पड़ा और वे सबसे विदा ले गए। (फोटो रमेश तैलंग जी के ब्लाग से साभार।)
Monday, October 1, 2012
सत्याग्रह और गंदा काम
गांधी जयंती पर सबको आना था और समय पर आना था।
जो बच्चे लेट आए उन्हें सजा दी गई। स्कूल का परिसर साफ करो। कचरा बीनो और उसे कूड़ेदान में डालो।
बच्चों ने सत्याग्रह कर दिया। और जो भी करवाना हो करवाओ, पर हम यह गंदा काम नहीं करेंगे।
0राजेश उत्साही
Thursday, September 20, 2012
बर्फी : पहली फुरसत में देख डालिए
गूगल सर्च से |
पहली बात अगर आपने अब तक न देखी हो तो तुरंत देख डालिए। वैसे कहानी तो थोड़ी बहुत आप सुन या पढ़ ही चुके
होंगे।घबराइए मत मैं कहानी आपको नहीं बताऊंगा। क्योंकि ऐसी फिल्मों की कहानी एक
बार पता चल गई तो फिर सारा मजा जाता रहता है।हां कुछ क्लू जरूर दे देता हूं।गिने-चुने पात्रों के बीच घूमती प्रेम कहानी है।पर सीधी नहीं,जिंदगी की तरह
टेड़ी और जिंदगी की तरह ही जिदृदी।शायद इसीलिए उसे फिल्माने के लिए दार्जिलिंग की उतार-चढ़ाव भरी लोकेशन चुनी गई।
पहली बार परदे पर प्रियंका चोपड़ा को उस नजर से नहीं
देखा,जिस नजर से आमतौर पर उनकी फिल्मों में उन्हें देखता रहा हूं।सच कहूं तो वे
किसी भी एंगल से प्रियंका चोपड़ा लगी हीं नहीं।शुरू के कुछ दृश्यों में तो यह शक
ही होता रहा कि क्या हम सचमुच प्रियंका चोपड़ा को ही देख रहे हैं या कोई और है।यह निर्देशक अनुराग बासु का कमाल ही कहा जाएगा।पर फिर भी वे जितनी देर परदे पर
रहीं, अपने ऊपर से नजर हटाने नहीं दे रहीं थीं,यह उनके अभिनय का कमाल था।पिछले कुछ सालों में कई ग्लैमरस हीरोइनों ने यह बात साबित की है कि अगर निर्देशक में दम हो तो वह उनसे अभिनय भी करवा सकता है।
इलिना डि'क्रूज जितनी सुंदर हैं,उतनी ही सुंदरता
उनके अभिनय में भी है। दोनों ही वजहों से नजर उन्होंने भी अपने पर से हटाने नहीं दी।उनका चेहरे और आंखों में गजब की अभिव्यक्ति क्षमता है।हां,बुढ़ापे के रोल में वे प्रियंका के मुकाबले फीकी पड़
जाती हैं।पर यह दोष उनका उतना नहीं है,जितना मेकअप करने वाले का या फिर निर्देशक का।फिर भी मैं उन्हें प्रियंका के बराबर ही खड़ा करूंगा।
रणवीर कपूर ने एक बार फिर साबित किया कि उन्हें अभिनय आता है।एक छोटे से कस्बे के एक आजाद युवा की भूमिका में ,आजाद कल्पना करने वाले बर्फी के रूप में वे खूब जमे हैं।सबसे दिलचस्प बात उनके किरदार की है कि वह अपनी कमियों पर उनका अफसोस नहीं मनाता,बल्कि उनका मजाक उड़ाता है। और यह भी कि कुछ भी करने या सोचने में उन कमजोरियों को बाधा नहीं बनने देता।रणवीर ने इस किरदार में उतरकर उसे जिया है।
प्रियंका और रणवीर दोनों के हिस्से में संवाद थे ही नहीं और कहानी के मुताबिक न उनकी गुजाइंश थी। इसलिए ऐसे दृश्य रचने की जरूरत थी जो बिना संवाद के ही सब कुछ कह दें। और वे रचे गए। इन दृश्यों को जीवंत बनाने में बैकग्राउंड म्यूजिक का बहुत बड़ा हाथ है।संवाद तो इलिना के लिए भी नहीं थे,पर जो थे उन्हें उनके मुंह से सुनना अच्छा लगता है।पुलिस इंस्पेक्टर के रोल में कल्लू मामा यानी सौरभ शुक्ला भी अपनी चिरपरिचित अदाकारी के साथ मौजूद हैं।उनका मेकअप जिसने भी किया है,गजब किया है। उनकी युवावस्था और बुढ़ापे दोनों में स्पष्ट अंतर दिखता है।
दार्जिंलिंग की लोकेशन और वहां की बच्चा गाड़ी या
जिसे टॉय ट्रेन कहते हैं फिल्म की पहचान जैसी बन जाती है।निर्देशक ने हमें वह भी दिखाया जो पहले कभी हमने दार्जिलिंग की लोकेशन में नहीं देखा था।
स्वानंद किरकिरे, नीलेश मिश्रा और तमाम अन्य
गीतकार आजकल जिस तरह के गीत लिख रहे हैं,उन्हें सुनना अच्छा लगता है।इस फिल्म के गीत भी कुछ ऐसे ही हैं।पहली बार
प्रीतम का संगीत मुझे इतना शीतल लगा।फिल्मांकन बहुत अच्छा है।संपादन भी कसा हुआ।
इस बात के लिए तैयार रहिए कि इस साल के कई सारे पुरस्कार यह फिल्म बटोर सकती है।
आज की फिल्मों पर अतीत की छाया भी पड़ती दिखाई देती है। मैं उसे बुरा नहीं मानता,अगर उसे ज्यों का त्यों दोहराया नहीं जा रहा हो।यह भी कहीं कहीं कमला हसन की दो फिल्मों पुष्पक और सदमा की याद ताजा कर देती है। एक और बात इसके प्रचार-प्रसार में कहा जा रहा है कि यह एक रोमांटिक कॉमेडी है। मेरे ख्याल से यह इस फिल्म और इसकी कहानी के साथ सरासर अन्याय है। बल्कि जिन किरदारों की यह कहानी है उनका अपमान है।वे कॉमेडी के पात्र नहीं हैं। वे जिंदगी की हकीकत हैं।
आज की फिल्मों पर अतीत की छाया भी पड़ती दिखाई देती है। मैं उसे बुरा नहीं मानता,अगर उसे ज्यों का त्यों दोहराया नहीं जा रहा हो।यह भी कहीं कहीं कमला हसन की दो फिल्मों पुष्पक और सदमा की याद ताजा कर देती है। एक और बात इसके प्रचार-प्रसार में कहा जा रहा है कि यह एक रोमांटिक कॉमेडी है। मेरे ख्याल से यह इस फिल्म और इसकी कहानी के साथ सरासर अन्याय है। बल्कि जिन किरदारों की यह कहानी है उनका अपमान है।वे कॉमेडी के पात्र नहीं हैं। वे जिंदगी की हकीकत हैं।
सच कहूं तो अनुराग बासु ने कमाल की फिल्म बनाई है।
0राजेश उत्साही
Friday, September 7, 2012
शिक्षकों का ई-मंच : टीचर्स ऑफ इण्डिया
अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन द्वारा संचालित एवं राष्ट्रीय ज्ञान आयोग द्वारा समर्थित टीचर्स ऑफ इण्डिया बहुभाषी पोर्टल 5 सितम्बर यानी इस शिक्षक दिवस पर नए रंग-रूप में आ गया है। अगर आप शिक्षा में रुचि रखते हैं,पालक हैं, शिक्षक हैं या फिर शिक्षा के मुद्दों को लेकर विमर्श करते रहते हैं, तो निश्चित ही यह पोर्टल आपके लिए ही है। एक बार नहीं बार-बार इस पर आएं,देखें, सदस्य बनें,रचना सहयोग करें।
मैं इसमें हिन्दी सम्पादक के तौर पर कार्यरत हूं।
यह रही लिंक टीचर्स ऑफ इण्डिया
आपका हार्दिक स्वागत है।
0 राजेश उत्साही
0 राजेश उत्साही
Saturday, August 11, 2012
एक या अधिक !
राजेश उत्साही |
एक आवासीय स्कूल में बच्चों के लिए फल रख हुए
थे। वहां एक तख्ती लगी थी कि,‘केवल एक ही फल लें। क्योंकि भगवान इस बात की
निगरानी कर रहे हैं कि कौन एक से अधिक से लेता है।’
एक दूसरी जगह बच्चों के लिए चॉकलेट रखीं थीं।
वहां भी यही चेतावनी लिखी थी। लेकिन वहां किसी बच्चे ने अपनी तोतली हस्तलिपि में
लिखकर लगा दिया था,'एक से अधिक चॉकलेट ली जा सकती हैं,क्योंकि भगवान फिलहाल फल
की निगरानी में व्यस्त हैं।’
*
एक दोस्त ने यह एसएमएस भेजा था। पढ़ने में
वह एक चुटकुले की तरह और मासूमियत भरा लगता है।पर उसमें कितनी तर्कसंगत बात छुपी
है,जिसे हम धीरे-धीरे भूलते जाते हैं। और बस मान लेते हैं कि जो कहा जा रहा है वह
सही है।
0 राजेश उत्साही
Sunday, August 5, 2012
सायना : कहना था ‘न'
राजेश उत्साही |
सायना तुमने जिंदगी में पता नहीं कितनी बार अनचाही चीजों के लिए न कहा होगा।
एक दृढ़निश्चय के साथ न कहा होगा। तभी तुम इस मुकाम पर पहुंच सकी हो।
*
तुम्हें इस बार भी न कहना चाहिए था।
*
तुम्हें इस बार भी न कहना चाहिए था।
तुमने शायद कहा भी।
पर तुम्हें स्पष्ट रूप से न कहना चाहिए था।
*
तुम्हें यह पदक स्वीकार नहीं करना चाहिए था।
तुम्हें यह पदक स्वीकार नहीं करना चाहिए था।
तुम वह नहीं जीती हो जिसके जीतने पर यह पदक मिलता है।
यह पदक केवल भारत के लिए एक संख्या है।
जहां तक इतिहास की बात है तो तुम वह तो पहले ही रच चुकी थीं,जब सेमीफायनल में
पहुंची थीं। ओलम्पिक खेलों में भारत की तरफ से बैडमिंटन प्रतियोगिता के सेमीफायनल
में पहुंचने वाली तुम पहली खिलाड़ी बन ही गईं थीं।
*
*
एक खिलाड़ी,भारतीय खिलाड़ी,के तौर पर तुम सचमुच सर्वश्रेष्ठ हो। पदक न लेंती, तब भी रहतीं।
एक व्यक्ति के तौर पर तुम्हारा कद कहीं और ऊंचा होता,काश तुमने न कहा होता।
न कहना तुम्हें और गौरव देता सायना। 0 राजेश उत्साही
Saturday, August 4, 2012
????????
राजेश उत्साही |
-अन्ना ने बहुत बुरा किया।
-हां यार सचमुच।
-अब कैसे मिटेगा भ्रष्टाचार इस देश से।
-उनसे ही कुछ उम्मीद थी।
दोनों राज्य परिवहन की बस में सवार थे। टिकट टिकट.... कंडक्टर ने आवाज लगाई।
-दो टिकट कोदंडराम नगर।
-चौदह रूपए।
पहले ने बीस का नोट आगे किया।
कंडक्टर ने दस का नोट वापस किया और आगे बढ़ गया।
-भाई साहब टिकट..।
-अरे छोड़ो न यार,क्या करोगे।...कंडक्टर मुस्कराया।
और दोनों फिर से चर्चा में डूब गए।
-बहुत भ्रष्टाचार है इस देश में।...पहला बड़बड़ाया।
-कैसे जाएगा ये।...दूसरे ने फिर चिंता जताई।
-कैसे जाएगा ये।...दूसरे ने फिर चिंता जताई।
0 राजेश उत्साही
Tuesday, July 17, 2012
अराजक मानसिकता
चित्रकार : एम एस मूर्ति, बंगलौर सिटी रेल्वे स्टेशन की चित्र गैलरी से |
प्रख्यात शिक्षाविद् और एनसीईआरटी के डायरेक्टर रहे
प्रोफेसर कृष्ण कुमार विभिन्न विषयों पर लिखते भी रहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र
में कार्यरत संस्था एकलव्य ने कृष्ण कुमार के लेखों और टिप्पणियों का संग्रह ‘दीवार
का इस्तेमाल और अन्य लेख’ कुछ बरस पहले प्रकाशित किया था।
उसके विमोचन के अवसर पर मैंने संग्रह की एक टिप्पणी
को आधार बनाते हुए एक लेख लिखा था,लेकिन वह कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। गौहाटी की
घटना से वह लेख याद हो आया। लेख का संपादित अंश यहां प्रस्तुत है।
(यह लेख 9 अगस्त को नई दुनिया में एंग्री युवा और ट्रेंडस शीर्षक से इस ब्लाग से लेकर प्रकाशित किया गया है।)
(यह लेख 9 अगस्त को नई दुनिया में एंग्री युवा और ट्रेंडस शीर्षक से इस ब्लाग से लेकर प्रकाशित किया गया है।)
Sunday, July 15, 2012
सत्यमेव जयते
यहां बंगलौर में घर में टीवी नहीं है। एक पड़ोसी
दोस्त के यहां सत्यमेव जयते देख रहा हूं। 15 जुलाई का एपीसोड बुजुर्गों पर था।
नेशनल प्रोग्राम में अनजाने में किस तरह गलत मूल्य
या परम्परा को मजबूत करने वाले संदेश चले जाते हैं यह शायद सब समझ ही नहीं पाते।
प्रोग्राम बनाने वाले भी नहीं।
Thursday, July 12, 2012
दारासिंह के बहाने
गूगल से साभार |
उन दिनों यानी 1970 के आसपास मध्यप्रदेश के मुरैना
जिले के सबलगढ़ कस्बे में रहता था। कस्बे में केवल एक सिनेमाघर था जिसे हम लक्ष्मी
टॉकीज के नाम से जानते थे। (इंटरनेट पर सर्च करने से पता चलता है कि वह अब भी है।)
जब भी कोई नई फिल्म लगती, एक साइकिल रिक्शा कस्बे की गलियों में घूमता नजर आता।
रिक्शे के दोनों तरफ दो छोटे होर्डिंग लगे होते और उस पर फिल्म के पोस्टर। अंदर
बैठा एक आदमी लाउड स्पीकर पर फिल्म के बारे में, उसके अभिनेता और अभिनेत्री के
बारे में अपनी स्टायलिश आवाज में बताता। वह उन दिनों के लोकप्रिय एनाउंसर अमीन
सयानी से अपने आपको कम नहीं समझता था। जब बोलते-बोलते थक जाता तो ग्रामोफोन पर
फिल्म के गाने भी बजा देता। सबलगढ़ ही नहीं हर कस्बे में लगभग इसी तरह फिल्म का
प्रचार किया जाता था। रिक्शे को देखते ही पहले हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते फिल्म
के परचे पाने के लिए और उसके बाद दौड़ पड़ते टॉकीज की ओर वहां लगे बडे होर्डिंग को
देखने के लिए।
Sunday, June 24, 2012
चूं चूं का मुरब्बा यानी गैंग्स ऑफ वासेपुर
दो हफ्ते पहले मैं कुछ खरीदने एक मॉल में चला गया। रिलीज
से पहले ही वहां ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की सीडी मौजूद थी। कीमत थी 130 रुपए। तीन
बार उसे उठाया,उल्टा-पलटा और फिर रख दिया।
इस बीच वासेपुर की चर्चा जहां-तहां पढ़ने को मिलती
रही। 22 जून को वह रिलीज भी हो गई। 23 जून को शादी की सालगिरह थी। मैं बंगलौर में अकेला
था। सोचा चलो इस फिल्म को देखकर ही सालगिरह को यादगार बना लिया जाए।
मारुतहल्ली रोड पर एक मल्टीप्लैक्स में बालकनी का
180 का टिकट लेकर फिल्म देखने पहुंचा। फिल्म शुरू होने के पहले ही दर्शकों की सीटियां और आवाजें सुनने को मिलने लगीं। पिछले तीन साल में बंगलौर में देखी जाने वाली मेरी यह दसवीं या बारहवीं फिल्म होगी। पहली बार मैं यह दृश्य देख रहा था। दर्शकों में ज्यादातर
नौजवान और उत्तरभारतीय ही नजर आ रहे थे।
Saturday, June 23, 2012
शहीदी दिवस उर्फ साथ साथ सत्ताईस
23 जून, 1985 : नीमा संग राजेश : सेंधवा,मप्र |
1986 : होशंगाबाद |
और यह सच भी है। सत्ताईस में से लगभग साढ़े तेईस साल हम साथ रहे हैं। फिर ऐसा समय आया कि दूर-दूर रहने को विवश होना पड़ा।
आजीविका के पीछे मैं बंगलौर चला आया और नीमा रह गईं वहीं भोपाल में बेटों के साथ।
Friday, June 1, 2012
गुबार बनाम गुब्बारे
फोटो गूगल इमेज से साभार |
मेले में गुब्बारे बेचने वाला अपने गुब्बारों को बेचने के लिए बहुत प्रयत्न
कर रहा था लेकिन उसके गुब्बारों को किसी ने नहीं खरीदा। वह निराश नहीं हुआ।
प्रसन्न मन से उसने अपने गुब्बारों के साथ खेलना शुरू कर दिया। खेल-खेल में
उसने अपने कुछ गुब्बारे आसमान में उड़ा दिए।
बच्चों ने उसे गुब्बारे उड़ाते और आसमान में उड़ते हुए गुब्बारों को
देखकर आनंद लेते हुए देखा तो वे भी मचल उठे। बच्चे उसे घेरकर खड़े हो गए। देखते
ही देखते उसके गुब्बारे बिकने लगे।
एक बच्ची ने पूछा, ‘अंकल, क्या आप काले रंग के गुब्बारे को भी इसी तरह उड़ा
सकते हैं जिस तरह से इन रंग-बिरंगे गुब्बारों को उड़ा रहे हैं?’
गुब्बारे वाले ने जवाब दिया, ‘बिटिया, उड़ने की शक्ति इन गुब्बारों के रंगों
में नहीं है, बल्कि इनके भीतर भरी हुई उस गैस में है जो साधारण हवा से हल्की होती
है।’
*
पते की बात यह है कि यदि गुब्बारे वाला अपने गुब्बारे न बिकने की सूरत में
अपने मन पर निराशा का बोझ लाद लेता तो क्या उसके गुब्बारे बिकते? शायद नहीं।
गुब्बारे न बिकने पर भी उसने निराशा को अपने मन पर हावी नहीं होने दिया और गुब्बारों
के साथ खेलते हुए अपना मन हल्का रखा। शायद उसकी यह प्रसन्नता ही उसकी सफलता का
कारण बन गई।
*
(ब्रह्मदत्त त्यागी द्वारा संपादित एवं ग्राम हथवाला,जिला पानीपत से
प्रकाशित 'बौद्धिक सलाहकार' नामक एक 16 पेजी पत्रिका के मई,2012 अंक से साभार। यह मूल
कथा का संपादित रूप है।)
Thursday, May 17, 2012
परीक्षा परिणाम और हम
फोटो : राजेश उत्साही |
Tuesday, May 15, 2012
एक पत्र डॉ.अंबेडकर का
प्रो. पालिस्कर आपके कार्यालय में
तथाकथित रिपब्लिकन पार्टी के चार सदस्यों द्वारा मेरे कार्टून को लेकर जो तोड़फोड़ की गयी उसके लिए मुझे बहुत खेद
है। मुझे
विश्वास है कि शायद वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या किया है। इसलिए आप उन्हें
माफ़ कर दें। उनके इस कृत्य पर मैं भी बहुत दुखी हूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। मैं समझ नहीं पा रहा
हूँ कि ऐसा करके उन्होंने मेरे कौन से आदर्श
की पूर्ति की है।
Saturday, May 12, 2012
एक कार्टून कितना कुछ कहता है..
कार्टूनिस्ट : शंकर। चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट के सौजन्य से |
एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित कक्षा 11 वीं की ‘ भारत का संविधान- सिद्धांत और व्यवहार’ के पहले अध्याय-संविधान:क्यों और
कैसे?- में यह कार्टून प्रकाशित किया गया है। कार्टून के नीचे लिखा है- संविधान
बनाने की रफ्तार को घोंघे की रफ्तार बताने वाला कार्टून। संविधान के निमार्ण में
तीन वर्ष लगे। क्या कार्टूनिस्ट इसी बात पर टिप्पणी कर रहा है? संविधान सभा को
अपना कार्य करने में इतना समय क्यों लगा?
Tuesday, May 8, 2012
सवाल उठाता एक खुला खत
फोटो : राजेश उत्साही |
द हिंदुस्तान टाइम्स की एक घोषणा ने हमारा ध्यान
खींचा,जिसमें यह मंशा जताई गई थी कि अखबार की हरेक प्रति से होने वाली आय में से
पांच पैसा भारत के गरीब बच्चों की शिक्षा पर खर्च किया जाएगा। हालांकि यह साफ
नहीं है कि यह राशि किस तरह खर्च की जानी है। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि
बच्चों की शिक्षा गाहे-बगाहे किया जाने वाला काम नहीं है। स्कूलीकरण एक ऐसा
समग्र अनुभव है जो पाठ्यचर्या की बुनावट के जरिए बहुत सारे व चुनिंदा घटकों से
मिलकर बना होता है,जिसमें ऐसे शैक्षिक लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिश की जाती
है ,जिसे कोई भी समाज अलग-अलग वक्तों पर अपने लिए खुद तय करता है।
Monday, April 23, 2012
निर्मला पुतुल का सवाल
जरा सोचो,कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गांव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपडि़यों में
गाय,बैल,बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा
तो कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पडता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकडि़यों का गठ्ठर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल की जुगाड़ में
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते, कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को
जरा सोचो न, कैसा लगता ?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगों के बीच
और तुम सामने हाथ बांधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओ न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक मांपने लगते मांसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होठों की पपडि़यों से बेखबर
केन्द्रित होते छाती के उभारों पर
सोचो,कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे
और तो और
और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवों में बिवाईं होती ?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता तुम्हें?
0 निर्मला
पुतुल
निर्मला पुतुल की यह कविता अपने परिवेश से दो-दो हाथ करती नजर आती है। यह कविता मुझे अजेय कुमार के ब्लाग अजेय पर दिखाई दी।
निर्मला पुतुल की यह कविता अपने परिवेश से दो-दो हाथ करती नजर आती है। यह कविता मुझे अजेय कुमार के ब्लाग अजेय पर दिखाई दी।
Saturday, April 21, 2012
समझदार के लिए इशारा काफी है....
डेक्कन हेराल्ड,बंगलौर से साभार |
Monday, April 16, 2012
जो शेष है, चर्चा में है
ज्योतिपर्व प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित मेरे कविता संग्रह ‘वह, जो शेष है’ पर मित्रों ने अपने ब्लागों पर समीक्षाएं
लिखीं हैं और उसके बहाने से कुछ और चर्चाएं भी कीं हैं। संभव है कि उनकी ये पोस्ट
आपकी नज़र में आ गई हों। जिन्होंने न देखीं हों उनकी सुविधा के लिए लिंक
यहां दे रहा हूं। कृपया एक बार अवश्य देखें और अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करें।
- सलिल वर्मा यानी ‘चला बिहारी ब्लागर बनने' ने संग्रह पर विस्तृत समीक्षा की है-तीन दशक और वह, जो शेष है।
- मनोज कुमार जी ने ‘राजभाषा हिन्दी’ पर पुस्तक परिचय शृंखला में संग्रह की समीक्षा की है- वह, जो शेष है।
- मनोज जी ने अपने एक अन्य ब्लाग ‘फुरसत में’ मेरे संग्रह की एक कविता ‘इतनी जल्दी नहीं मरूंगा’ को आधार बनाते हुए अपनी कुछ यादें सबके साथ बांटी हैं।
- अभिषेक ने अपने ब्लाग ‘मेरी बातें’ पर सबसे पहले संग्रह की समीक्षा की थी- 'वह, जो राजेश जी को कहना है' । इसे आप पढ़ ही चुके हैं।
- विवेक रस्तोगी भी अपने ब्लाग 'कल्पतरू यानी कल्पनाओं के वृक्ष' पर राजेश उत्साही से एक मुलाकात में संग्रह के बारे में कुछ कह रहे हैं।
- सतीश सक्सेना जी ने अपने ब्लाग 'मेरे गीत' पर शारदा पुत्र : राजेश उत्साही शीर्षक से संग्रह की चर्चा की है।
कुछ मित्र संग्रह अभी पढ़ रहे हैं। उन्होंने वादा किया है कि वे भी जल्द ही
उस पर प्रतिक्रिया लिखेंगे।
0 राजेश उत्साही
Tuesday, April 10, 2012
मेरे पहले साहित्यिक गुरु : ब्रजेश परसाई
पिछले दिनों घर में आई बाढ़ से निपटते हुए, पुराने
कागजों में यह तस्वीर हाथ आ गई। तस्वीर देखते ही मुझे ब्रजेश परसाई बहुत याद आए।
वे एक तरह से मेरे पहले साहित्यिक गुरु थे मैं यह कह सकता हूं। साहित्य की बारीकियों को
देखने का तरीका मैंने उनसे सीखा। मेरा पहला कविता संग्रह 'वह, जो शेष है' प्रकाशित हो
गया है। लेकिन देखिए मैं उसमें ब्रजेश भाई का उल्लेख करने से चूक गया। वे कविताएं नहीं लिखते थे, पर होशंगाबाद में वे पहले
व्यक्ति थे जिनसे में नई कविता पर बात कर सकता था। तीन लोग और ऐसे हैं जिनके बारे
में जिक्र नहीं करुं तो अच्छा नहीं लगेगा। एक संतोष रावत जिनकी आटा चक्की पर
बैठकर हमने न जाने कितनी साहित्यिक चर्चाएं की होंगी। चक्की वे खुद चलाते थे। आजकल बैंक में मैनेजर हैं। दूसरा नाम है महेश
मूलचंदानी का। यूं तो वे जूते की दुकान चलाते हैं, पर उनकी क्षणिकाएं भी जूतों से
कम नहीं होती थीं। तीसरे सुखदेव मखीजा। सुखदेव बाद में भोपाल आ गए थे, और राजनीति
में उतरकर छुटभैये नेता भी बने। 1979 से लेकर 84 के अंत तक का समय कुछ ऐसा था, जिसका
अधिकांश हिस्सा हमने साहित्य पढ़ने-लिखने और चर्चा करने में गुजारा। हम चार लोग
मिलकर एक लायब्रेरी भी चलाते थे, जिसमें आपस में चंदा करके पत्रिकाएं बुलवाते थे और
पढ़ते थे। इन सबके साथ कैसा समय गुजरा यह फिर कभी लिखूंगा।
अभी मैं बात कर रहा था ब्रजेश परसाई की। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने पाठकमंच की योजना शुरू की
थी। इसके तहत प्रदेश के लगभग हर जिला मुख्यालय पर पाठक मंच का गठन किया गया था। जब
भी कोई नई किताब प्रकाशित होती, परिषद उसकी दो प्रतियां हर पाठक मंच में भेजती।
वहां उस पर पाठक मंच का कोई एक सदस्य समीक्षा लिखता और फिर उस पर चर्चा होती। संभवत: पाठक मंच योजना अब भी जारी है। उन दिनों होशंगाबाद में पाठक मंच के संयोजक ब्रजेश परसाई थे। वर्षों तक उन्होंने पाठक मंच
का कुशल संचालन किया। पेशे से वे बैंक कर्मचारी थे। नए-नए खुले क्षेत्रीय ग्रामीण
बैंक में वे नौकरी करते थे। उनके बड़े भाई कैलाश परसाई कांग्रेस नेता के रूप में
पहचाने जाते थे।
मेरी शाम अक्सर उनके घर पर साहित्य और दुनिया जहान
की चर्चा और बहस करते हुए बीतती थी। शनिचरा मोहल्ले में होली चौक से थोड़ा आगे गली में
उनका घर था। उनके घर से कुछ पचास कदम दूर पर नर्मदा बहती है। नर्मदा किनारे सुंदर
सेठानी घाट है। कई बार हम घाट पर जाकर बैठ जाते और घंटों बतियाते रहते। घाट तो अब भी
हैं, नर्मदा भी बह रही है। पर ब्रजेश भाई नहीं हैं। 2005 में हार्टअटैक से उनका
निधन हो गया।
ब्रजेश भाई ठिगने कद के लेकिन भारी शरीर के मालिक
थे। चलते तो लगता जैसे कोई गोलमटोल गुड्डा लुढ़कता हुआ चला आ रहा हो। अपनी
अलंकारित भाषा में शहर के किसी भी व्यक्ति से लेकर देश के नामवर लोगों की खिल्ली उड़ाना उनका प्रिय शगल था। पर उनकी
खिल्ली सुनकर कतई बुरा नहीं लगता था। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी। बात करते हुए उनकी आंखें कुछ इस तरह फैल जातीं कि जैसे आपने ध्यान
नहीं दिया तो बाहर ही आ जाएंगी। उनकी हंसी ऐसी थी जैसे किसी कांच के मर्तबान से
कंचे एक-एक करके बाहर आते हुए आवाज कर रहे हों। वे हमेशा अप-टू-डेट रहते।
समकालीन साहित्य के बारे में वे जितना पढ़ते थे
शायद उन दिनों शहर में कोई और नहीं पढ़ता था। इसलिए मुझे उनके पास बैठना, बात करना
अच्छा लगता था। मशहूर लघुपत्रिका 'पहल' मैंने पहली बार उनके घर में ही देखी थी।
तमाम अन्य साहित्य पत्रिकाएं उनके यहां आती थीं। मैं उनसे पत्रिकाएं और किताबें
लेकर पढ़ता था। पाठक मंच में मैंने भी दो किताबों की समीक्षा लिखी थी। ये मेरी पहली-पहली समीक्षाएं थीं। एक थी भगवत
रावत की कविताओं की ‘किताब दी हुई दुनिया।’ दूसरी किताब रमाकांत श्रीवास्तव की
कहानियों का संग्रह था।
यह समय लघुकथा का था। लघुकथा आंदोलन चल रहा था।
ब्रजेश भाई भी लघुकथाएं लिखते थे और मैं भी। उनके कहने पर ही मैंने एक अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में भाग लिया था। प्रतियोगिता में मेरी लघुकथा 'अनुयायी' को भी चुनी हुई लघुकथाओं में शामिल किया गया था। ब्रजेश भाई ने अपने प्रयासों से
लघुकथाओं पर केन्द्रित दो अखिल भारतीय कार्यक्रम होशंगाबाद में करवाए। जिनमें उस
समय के कई मशहूर लघुकथाकार शामिल हुए थे। इनमें कन्हैयालाल नंदन,बलराम,शंकर
पुणतांबेकर,सतीश दुबे, मालती महावर,हरि जोशी,विक्रम सोनी,कृष्ण कमलेश,भगीरथ जैसे
कई नाम शामिल थे। मैं भी इन आयोजनों का हिस्सा था। 2010 में लघुकथाकार बलराम अग्रवाल बंगलौर आए तो उनसे चर्चा में इन आयोजनों का जिक्र निकला। उन्होंने बताया कि इन आयोजनों और इनमें हुई चर्चा का लघुकथा आंदोलन में खासा महत्व है।
नाटकों में भी उनकी खासी रुचि थी। भोपाल में उन
दिनों भारत भवन नया-नया बना था। उसके साहित्यिक कार्यक्रमों को देखने-सुनने वे अक्सर
जाया करते थे। जब वे लौटते तो उनसे मैं उन कार्यक्रमों के बारे में सुनता।
वे मुझ से लगभग तीन साल बड़े थे पर मेरी शादी उनसे
पहले हुई। शादी पर जब वे घर आए और मेरी पत्नी निर्मला वर्मा से मिले तो कहा, ‘अब
आप इन्हें निर्मल वर्मा बना दें।’ यह बात मुझे अब भी याद है। उन दिनों निर्मला
हिन्दी साहित्य की प्राध्यापिका थीं। ब्रजेश भाई नहीं हैं पर उनका मुस्कराता
चेहरा आज भी मेरी आंखों में बसा है।
0 राजेश उत्साही
Sunday, April 1, 2012
सूखती किताबों में भीगता मन
परिवार से दूर अकेले रहने के क्या दुख (और सुख) हैं,
यह पिछले तीन साल से मैं हर समय अनुभव कर रहा हूं। हर सुबह एक नया सबक देने के लिए
मुस्तैद होकर आती है।
बंगलौर आया तो घर के काम करने में कोई समस्या नहीं
आई। क्योंकि बचपन से अपना काम स्वयं करने की आदत रही है। सफाई, कपड़े धोना, प्रेस
करना जैसे कामों में कोई आलस महसूस नहीं हुआ। परिवार में रहते हुए भी यह रोजमर्रा
का काम था। नहीं आता था, तो खाना बनाना। केवल चाय बनाना ही
सीख पाया था। कभी-कभार अकेले होने पर पराठे बनाए जो देश के विभिन्न प्रांतों के
नक्शों के प्रतिरूप ही नजर आते थे। रोटी बनाने का तो सवाल ही नहीं ।
यहां हलनायकलहल्ली(बंगलौर) में दो किलोमीटर के दायरे
में खाने की कोई दुकान नहीं है। दिन की पेट पूजा तो दफ्तर की कैंटीन में हो जाती,
लेकिन शाम के वक्त खुद बनाने के अलावा दूजा विकल्प नहीं। शुरू के आठ महीने तो
दो-तीन साथी मिलकर रह रहे थे, सो समस्या नहीं आई। सब्जी काटने, धोने और बरतन आदि
की सफाई का ठेका अपना था। बनाने का ठेका उनके पास था। वे पकाते और
हम खाते।
फिर धीरे-धीरे वे भी इधर-उधर हो गए। नतीजा यह कि
रसोई के मैदान में उतरना पड़ा। कुछ दिन प्रयोग चलते रहे। एक दिन खिचड़ी
बनाई तो नमक डालना भूल गया। कुकर के ढक्कन को नमक डालने के लिए खोला तो खिचड़ी
रूठकर रसोई की छत से जा चिपकी। खैर,अब तो
मैं खिचड़ी,पुलाव,रोटी,पराठे,बाटी,दाल,सब्जी सब बना लेता हूं। यकीन न हो तो
कभी पधारें, वादा है कि भूखे पेट नहीं जाने दूंगा। मित्रो, गारंटी का तो जमाना ही
नहीं रहा, इसलिए स्वादिष्ट होगा या नहीं यह मत पूछिएगा।
लीजिए जो बताने के लिए यह पोस्ट शुरू की थी, वह तो बीच में ही रह गया। मैं इधर मार्च में लगभग 10 दिन उत्तर भारत के
भ्रमण पर था। बंगलौर-दिल्ली-रोहतक-समालखा-दिल्ली-जयपुर-भोपाल-जबलपुर-दिल्ली-बंगलौर। यह भ्रमण भी बहुत कुछ अपने में समेटे है। इन यात्राओं का वृतांत यायावरी पर लिखूंगा।
यात्रा से 25 मार्च की रात दस बजे लौटा तो दूसरे
माले पर स्थित मेरे वन बीएचके घर में बाढ़ आई हुई थी। रसोई, हाल और कमरा सब जगह
पानी ही पानी था। पानी की समस्या तो पूरे देश में है। उससे हलनायकनहल्ली
अछूता नहीं है। 36 फ्लैट वाले इस अपार्टमेंट में पानी की खोज में मकान मालिक ने परिसर
में पिछले दो साल में एक के बाद एक, दो टयूबवैल खुदवाए हैं। एक तो पहले से ही था।
पानी सुबह-शाम, आधा-एक घंटे के लिए ही आता है। ऐसे में रसोई या सप्पने का
कौन-सा नल खुला रह जाए कह नहीं सकते। पिछले तीन साल से हर रोज अल्लसुबह दफ्तर के लिए निकलने
से पहले मैं इस संदर्भ में खासी सावधानी बरतता रहा हूं।
इस बार भी जब यात्रा पर निकल रहा था, तो नीचे से एक
बार फिर ऊपर आया और सारे नलों को जांचा कि वे बंद हैं या नहीं। पर रसोई का नल दगा
दे गया। उसने बंद होने का आभास तो दिया, पर वह अपनी आदत के मुताबिक पूरी तरह बंद नहीं हुआ। पानी साफ आए, इसके लिए नल की टोंटी में एक छोटा छन्ना लगा रखा है। सामान्य तौर पर पानी सीधे ही सिंक में गिरकर नीचे चला जाता है।
छन्ने में जम रही मिट्टी के कारण छन्ने ने फव्वारे का रूप धारण कर लिया। इससे
पानी फैलकर सिंक के बाहर गिरता रहा और बाढ़ का कारण बना।
हाल के एक हिस्से में बड़ी चटाई पर बैठक की व्यवस्था
की हुई थी। वहीं दीवार के सहारे किताबों को जमाया था। चटाई पर लगा बिस्तर
पानी में भीगकर मन-मन भारी हो गया। रात एक बजे तक पानी उलीचने में जुटा रहा।
बिस्तर सूख गया। सबसे अधिक पानी किताबों ने पिया
था। पिछले एक हफ्ते से सुखाने का अथक प्रयास कर रहा हूं। पूरे हाल में वे बिछी
हैं, रात भर पंखे की हवा खाती हैं और दिन भर बन्द कमरे की गर्मी। शनिवार को दिन भर
उन्हें छत पर लिए बैठा रहा। जैसे कोई चेहरा आसुंओं से भीगकर अपना असली रूप खो
देता है, किताबों ने भी अपना असली रूप खो दिया है। सबसे ज्यादा नुकसान जिल्द
यानी हार्डकवर वाली किताबों को हुआ है। उनकी जिल्द जो सुरक्षा के लिए बनी थी,
वही उनकी विकलांगता का कारण बनी है।
इनमें सुधा भार्गव द्वारा भेंट किया
कविता संग्रह ‘रोशनी की तलाश’, अनुपमा तिवाड़ी का ‘आईना भीगता है’ और
वेद व्यथित का ‘अंतर्मन’ शामिल है। वेद जी ने बहुत आग्रह के साथ
अपना नया कविता संग्रह ‘न्याय याचना’ भी प्रतिक्रिया हेतु मुझे भेजा था। उस पर
समीक्षा लिखना लगातार टलता रहा है और अब तो वह संभव ही नहीं है। मैं वेद जी से क्षमा
याचना ही कर सकता हूं। क्योंकि उनका कविता संग्रह कागज की लुगदी में बदल गया है। सुधा
जी के घर से मैं पढ़ने के लिए राजी सेठ का उपन्यास तत-सम ले आया था। उसकी हालत वापस करने लायक नहीं रही है। इसके लिए भी सुधा जी से माफी ही मांगनी पड़ेगी।
‘तय तो यही हुआ था’ मेरे प्रिय कवि शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह है। वह भीगने के बाद सूखकर पापड़ बन गया है। लेकिन धर्मवीर भारती का मेरा प्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सूखने का नाम ही नहीं ले रहा है। साहित्य अकादमी से प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध संग्रह के दो खंड भी पानी में डूबे रहे हैं। पर हार्डकवर होने के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित हैं। पर रवीन्द्रनाथ की कविताएं अब भी पानी से तरबतर हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित समांतर कोश के दो खंड भी सुरक्षित हैं, हालांकि पानी के निशान उन पर भी हैं। वे किताबें जो पेपरबैक थीं जल्द ही सूख गईं हैं बल्कि उन्होंने पानी भी कम ही पिया। फहमीदा रियाज, फैज अहमद फैज, शहरयार, कतील शिफाई के संग्रह बुरी तरह भीगे हुए हैं। पहल, अन्यथा, कथा जैसी कुछ पत्रिकाओं के भारी भरकम अंक भी थे, वे भी सूख रहे हैं।
पिछले दिनों ही मैंने रश्मिप्रभा जी की कविताओं के दो संग्रह 'अनुत्तरित' और 'शब्दों का रिश्ता' तथा उनके द्वारा संपादित कविता संग्रह 'अनुगूंज' फिल्पकार्ट के माध्यम से खरीदे थे। ये तीनों ही किताबें ऊपर चित्र में दिख रहे छोटे से रैक में रखीं थीं। वे बच गईं। इन्हें तो मैं अभी पढ़ ही नहीं पाया था।
‘तय तो यही हुआ था’ मेरे प्रिय कवि शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह है। वह भीगने के बाद सूखकर पापड़ बन गया है। लेकिन धर्मवीर भारती का मेरा प्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सूखने का नाम ही नहीं ले रहा है। साहित्य अकादमी से प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध संग्रह के दो खंड भी पानी में डूबे रहे हैं। पर हार्डकवर होने के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित हैं। पर रवीन्द्रनाथ की कविताएं अब भी पानी से तरबतर हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित समांतर कोश के दो खंड भी सुरक्षित हैं, हालांकि पानी के निशान उन पर भी हैं। वे किताबें जो पेपरबैक थीं जल्द ही सूख गईं हैं बल्कि उन्होंने पानी भी कम ही पिया। फहमीदा रियाज, फैज अहमद फैज, शहरयार, कतील शिफाई के संग्रह बुरी तरह भीगे हुए हैं। पहल, अन्यथा, कथा जैसी कुछ पत्रिकाओं के भारी भरकम अंक भी थे, वे भी सूख रहे हैं।
पिछले दिनों ही मैंने रश्मिप्रभा जी की कविताओं के दो संग्रह 'अनुत्तरित' और 'शब्दों का रिश्ता' तथा उनके द्वारा संपादित कविता संग्रह 'अनुगूंज' फिल्पकार्ट के माध्यम से खरीदे थे। ये तीनों ही किताबें ऊपर चित्र में दिख रहे छोटे से रैक में रखीं थीं। वे बच गईं। इन्हें तो मैं अभी पढ़ ही नहीं पाया था।
सबसे अधिक क्षति मेरी अपनी कविताओं को हुई है। 1978
से लेकर 1987 के आसपास तक जो कविताएं मैंने लिखी थीं, वे तीन कॉपियों में लिपिबद्ध
थीं, स्याही से। वे मेरे ब्लाग गुलमोहर पर भी नहीं हैं। दो कॉपियों में स्याही
इस कदर फैल गई है, कि मुझे अपनी स्मृति पर जोर देकर याद करना पड़ेगा कि वहां क्या
लिखा था। शायद वे भी वहां पड़े-पड़े उकता गई थीं और चाहती थीं कि उन पर ध्यान दिया
जाए। पहली ही फुरसत में उन्हें कम्प्यूटर पर लाने की कोशिश करूंगा।
छत पर सूखती हुई किताबों को उलटते-पलटते 'पहल' के 90
वें अंक में प्रकाशित इस गीत ने मन को अंदर तक भिगो दिया। पढ़ें, शायद आपकी
अनुभूति भी यही हो-
सोने से पहले : अवध बिहारी श्रीवास्तव
दरवाजे खिड़कियां देख लूं
आने से पहले बिस्तर पर
दूध उबलने को रक्खा है
उबल जाए रख दूं ,तो आऊं
अम्मा जी का पैर दुख रहा,
जाकर थोड़ी देर दबाऊं
जूठे बरतन पड़े हुए हैं
आती हूं चौके को धोकर
छोड़ो हाथ, अभी देवर जी
आए कहां शहर से पढ़कर
बाहर बाबू जी बैठे हैं
’बहू जागते रहना’ कहकर
चार गरम रोटियां सेंक लूं
बस आती हूं उन्हें खिलाकर
पैर पटकना बंद करो अब
एक मिनट आओ आंगन में
टंगे हुए कपड़े उतार लो
बाहर भींगेंगे सावन में
चलती तो हूं साथ तुम्हारे
लेकिन चूर हुई हूं थककर
***
0 राजेश उत्साही
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