Sunday, August 4, 2013

बढ़ता विषाद,घटता विषाद



                                                                                              फोटो: राजेश उत्‍साही

शनिवार को फाउंडेशन के साथी शमशाद के साथ बंगलौर की सड़कों पर भटक रहा था। उन्‍हें ईद के लिए कपड़े खरीदने थे। इसी सिलसिले में हम लोग बंगलौर के एमजी रोड के पास गरूड़ा मॉल पहुंचे। खरीदारी करने से निपटे तो भूख महसूस हुई। मॉल के अंदर खाने का माल अपनी जेब की पहुंच से बाहर था। इसलिए मॉल के बाहर ही कुछ ढूंढा जाना था।

बाहर निकले तो खाने की एक छोटी सी दुकान नजर आई। वहां तरह तरह के रोल थे, उनमें वेजरोल भी था। हमने भी दो वेजरोल  आर्डर किए और इंतजार करने लगे। हमसे पहले वहां दो और लोग खड़े थे। एक पुरुष और एक स्‍त्री, दोनों विदेशी थे। दुकानदार ने उन्‍हें भी रोल दिए। पुरुष ने भुगतान के लिए पांच सौ का नोट दिया। दुकानदार ने नोट ले लिया लेकिन साथ ही कहा, 'एट्टी रूपीस चेंज प्‍लीज।'

महिला ने अपने पर्स से सौ-सौ के दो नोट निकाले और दुकानदार की तरफ बढ़ाए। मुझे समझ नहीं आया कि दुकानदार तो केवल अस्‍सी मांग रहा है..महिला ने दो सौ क्‍यों दिए। दुकानदार भी नोट लेते हुए...लगभग दस सेंकड के लिए रूका और फिर उसने दोनों नोट अपने ड्रायर में डाल दिए। फिर वह हमारी तरफ मुखातिब हुआ और बोला, 'सेंवटी रूपीस प्‍लीज।' मेरे पास भी सौ-सौ के दो और एक दस का नोट था। शमशाद ने अपनी जेब टटोली, उनके पास चिल्‍लर साठ रुपए थे, दस मैंने मिलाए और दे दिए। हमारा एक वेजरोल पैंतीस का था। दुकानदार ने ड्रायर से पांच सौ का नोट निकाला और उसमें बीस रुपए मिलाकर पुरुष को दे दिए। वे पैसे लेकर चले गए।

मैंने सोचा, बिल तो केवल अस्‍सी का हुआ था और इस बंदे ने एक सौ अस्‍सी ले लिए उनसे। यह तो गलत बात है। मेरा मन हुआ कि दुकानदार से पूछूं कि भई माजरा क्‍या है। फिर लगा हो सकता है बिल वास्‍तव में इतना ही हुआ हो। दुकान में रेट लिस्‍ट भी बहुत साफ साफ लिखी हुई थी। पर किसी भी तरह के रोल का दाम इतना नहीं था कि बिल एक सौ अस्‍सी होता। फिर सोचा आखिर ग्राहक की जिम्‍मेदारी भी तो बनती है कि वह ठीक से रेट लिस्‍ट देखे..और उसके अनुसार भुगतान करे।

अब वे तो विदेशी थे। ससुरे हमारे रुपए की कीमत जिस तरह से गिर रही है, उससे तो लगता है उनके लिए सौ के दो नोटों की कोई कीमत ही न होगी। शमशाद जी का ध्‍यान इस ओर नहीं था। बाद में मैंने उनसे कहा तो कहने लगे, उसी समय बताना था, अपन जरूर ही दुकानदार को डांट लगाते कि ऐसा तो नहीं करना चाहिए। मैंने कहा बात तो सही है, पर पक्‍का नहीं है न। जो भी हो मन विषाद से भर गया। अपनी आदत के मुताबिक मैं लगातार उसी के बारे में सोचता रहा।

वापसी के लिए हम बंगलौर सेंट्रल के पास से जी-2 बस में सवार हुए। बस चलने में देर थी। दरवाजे के पास आमने-सामने की सीट पर दो युवा जोड़े बैठे थे। अचानक एक युवक के बैग पर उसने चार-पांच खटमलों को चलते देखा। उसके साथ की युवती के मुंह से तो चीख ही निकल गई। युवक ने उन खटमलों को ठिकाने लगाया। फिर अगले चार-पांच मिनट तक वे खटमलों के बारे में अपने अनुभव बताते रहे। टिकट की बात चली तो एक युवक ने कहा, हम दोनों के पास मंथली पास हैं तुम भी बोल देना कि पास है। पर दोनों युवतियों ने कहा क्‍यों भला, और पकड़े गए तो, हम तो टिकट लेंगे। मेरा विषाद और भारी होते-होते बचा।  

थोड़ी देर बाद दूसरे युवक ने अपने बैग से एक केला निकाला। उनकी बातों से पता चला उनके पास एक ही केला था, जो किसी दुकान पर पांच रुपए की चिल्‍लर न होने के कारण उन्‍हें दिया गया था। युवक ने केला छीला और बाकी तीनों से पूछा कि कौन शेयर करेगा। दोनों युवतियों ने बुरा सा मुंह बनाया और कहा हमें तो केले से एलर्जी है। युवक के दूसरे साथी ने आधा केला लिया।

मैंने सोचा बस अब ये केले का छिलका खिड़की से बाहर सड़क के किनारे फेंक देगा। मैं अपने विषाद को और बढ़ता हुआ पाने की कल्‍पना करने लगा। छिलका लड़के के हाथ में था।

ड्रायवर ने बस चालू कर दी थी, अचानक मैंने देखा एक युवती उस युवक को रोक रही है और युवक है कि बिजली की गति से बस से उतरकर पीछे की तरफ भागकर गया है। बस चल दी..लेकिन युवक ने दौड़कर पकड़ भी ली। युवक केले का छिलका सड़क के किनारे रखे कचरे के डिब्‍बे में डालने गया था। उधर उसके चेहरे पर संतोष का भाव था और इधर मेरे मन पर छाया विषाद अब छंटने लगा था।                                                                            0 राजेश उत्‍साही