Saturday, December 12, 2015

हे शर्ट तुझे प्रणाम



एक फेसबुकिया दोस्‍त हैं। आजकल वे गुलमोहर के तले बैठकर हमारी कविताएँ पढ़ती हैं, यायावरी में जाकर यह जानने की कोशिश करती हैं कि हम क्‍या गुल खिलाते रहे हैं। और कभी-कभी गुल्‍लक के सिक्‍के उलटने-पलटने लगती हैं। मितरों चौंकिए मत ये मेरे ब्‍लागों के नाम हैं। चाहें तो आप भी यह कर सकते हैं। बहरहाल यह पीठ-ठुकाई इ‍सलिए कि एक दिन इन महाशया ने इनबॉक्‍स में टिप्‍पणी की, कुछ भी कहो, आप हैं तो बड़े स्‍टाइलो। हमें तो कुछ समझ नहीं आया। हमने पलटकर पूछा, क्‍या आशय है आपका। बोलीं कि, यही कि आप कपड़े तो बढि़या और करीने से पहनते हैं। शर्टिंग-वर्टिंग करते हैं। हमने फिर पूछा, कैसे जाना। बोलीं, ब्‍लाग और फेसबुक में आपकी तस्‍वीरें देखकर। हमने कहा, क्‍यों चने के झाड़ पर चढ़ा रही हैं। हम और करीने के कपड़े, स्‍टाइल।  

बहरहाल हम चने के झाड़ पर चढ़ गए। बीता हुआ जमाना याद आता गया। अम्‍मां बताती हैं कि हम से पहले उनकी दो संतान पैदा होने के कुछ दिनों बाद चल बसी थीं। तो जब हम गर्भ में थे तभी यह मानता मानी गई कि अब जो भी संतान होगी, उसकी केवल पहले ही बरस नहीं विवाह होने तक हर बरस हमारी छठी पूजी जाएगी।

अब हुआ यह कि हर बरस हमारे लिए दो जोड़ी नए कपड़े बनवाए जाते, एक जोड़ी जन्‍मदिन के लिए और एक जोड़ी छठी वाले दिन के लिए। तो हम चाहें या न चाहें, हर साल नवम्‍बर में यह काम हमारे विवाह होने तक बदस्‍तूर होता रहा। चुपचाप कपड़े की दुकान में जाना है, कपड़ा खरीदना है, दर्जी को नाप देना है। विवाह होने के बाद छठी की पूजा का उद्यापन कर दिया गया। शायद नए कपड़े लेने या पहनने की जो एक स्‍वाभाविक चाह होती है, वह इस पारम्‍पारिक व्‍यवस्‍था के अंदर कहीं गुम हो गई थी। सब कुछ नवम्‍बर के दो जोड़ी पर जाकर खत्‍म हो जाता था। अपनी किशोर और युवावस्‍था भी कुछ इस तरह बीती कि उत्‍सव मनाने जैसा कोई माहौल कभी बन नहीं पाया। सो वैसे भी अपन नए फैशन आदि से दूर ही रहे आए। याद है कि सत्‍तर के दशक में जब वैलबॉटम पेंट का फैशन आया था तो हमारे पिताजी ने हमारे लिए जबरन ऐसी पेंट सिलवाई थी, हमारी कोई इच्‍छा नहीं थी। जो कपड़े होते थे, उन्‍हें बस धोते, सुखाते और पहन लेते। इस्‍तरी-विस्‍तरी का कोई झंझट हमने नहीं पाला।

जब शादी हुई तो हमें अपने को थोड़ा सा बदलना पड़ा है। नीमा जी ने कहा, अपनी छोड़ो, कम से कम हमारा तो ख्‍याल करो। बात सही थी। कुछ-कुछ बदला। पर फिर भी कपड़ों के मामले में उनकी और हमारी सहमति बहुत कम बनी। एकलव्‍य में भी जब तक थे, ऐसा ही चलता रहा। हाँ, अब कपड़ों पर इस्‍तरी होने लगी थी। वह भी इसलिए, क्‍योंकि बेटों की स्‍कूल यूनीफार्म को धोनें और उन पर इस्‍तरी का जिम्‍मा अमूमन अपने ही पाले में था। सो उनके कपड़ों के साथ दो-चार हाथ हम अपने कपड़ों पर भी मार ही लेते थे। वरना एकलव्‍य में ज्‍यादातर लोगों का यह हाल था कि बकौल चकमक की साज-सज्‍जाकार साथी जयाविवेक (जिनका स्‍वयं का ड्रेस सेंस गजब का था), लगता है लोग बस बिस्‍तर से उठकर मुँह धोकर ही चले आते हैं।

2009 में एकलव्‍य को विदा कहकर भोपाल से बंगलौर आने की तैयारी कर रहा था। मुझे अपने पुराने कपड़े सम्‍हालते देख उत्‍सव ने कहा,‘पापा बंगलौर जा रहे हो, वहाँ तो जरा तरीके के कपड़े लेकर जाओ। बात तो उसकी कुछ-कुछ सही ही थी। तब तक हमारी कल्‍पना में बंगलौर हमारे लिए विदेश से कम नहीं था। लेकिन इतना समय नहीं था कि नए कपड़े सिलवाए जा सकें। उत्‍सव ने कहा, ये दर्जी-वर्जी का चक्‍कर छोड़ो, रेडीमेड कपड़े लो। नीमा जी और कबीर ने भी उसका साथ दिया। तब उत्‍सव ग्‍यारहवीं में आ गया था। उसमें ड्रेस सेंस आने लगी थी। (आज की तारीख में तो वह हमारे परिवार में इस मामले में वह सबसे ज्‍यादा जागरूक माना जाता है।)

और फिर वह मुझे रेडीमेड कपड़ों की ब्रांडेड दुकानों में लेकर गया। एक दुकान से दूसरी, दूसरी से तीसरी। लेकिन कि मामला था कि कुछ जम ही नहीं रहा था। और यह इसलिए नहीं कि मुझे पसंद नहीं आ रहे थे, इसलिए कि मुझे वे बहुत महँगे लग रहे थे। हारकर उत्‍सव ने कहा, पापा, आप तो रहने ही दो। आप अपने वही झंगा,पजामा टाइप पैंट पहनो। वह कुछ-कुछ नाराज और कुछ-कुछ रूआँसा होने को आया था।

मैंने उससे कहा ठीक है एक और दुकान में चलते हैं, बस। फिर जिस दुकान में हम घुसे वहाँ से दो जोड़ी कपड़े लेकर ही बाहर निकले। उस समय उनकी कीमत कुछ बाइस सौ रुपए थी। कपड़ा खरीदकर सिलवाने में इतने में चार जोड़ी आसानी से बन जाते। पर अंतत: इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि उत्‍सव की पसंद थी गजब की। जो कपड़े मैंने खरीदे वे भी मजबूत इतने निकले कि उनका रंग जरूर उड़ गया,पर फटने का नाम नहीं लिया।

आज...उनमें से ही एक शर्ट अंतत: अपने अवसान पर पहुँची और उसने हमारे घर के पौंछे का रूप धारण कर लिया। यह चमकता हुआ घर उसी की बदौलत है। हे शर्ट तुझे प्रणाम।

अरे हाँ, जिनके छेड़ने से यह पोस्‍ट लिखी गई उनका नाम है अर्चना तिवारी।
                                                 0 राजेश उत्‍साही 

Sunday, June 21, 2015

योग का संयोग



योग दिवस तो बीत जाएगा, फिर आएगा। पर जो यादें हैं वे भला पीछा कब छोड़ती हैं, वे सदा साथ रहती हैं। 1999 का समय रहा होगा। मैं एकलव्‍य में था। कबीर और उत्‍सव स्‍कूल जा रहे थे। नीमा कॉलेज में लगभग पांच साल से तदर्थ प्राध्‍यापिका थीं, पर विवाह के बाद स्‍थानांतरण न हो पाने के कारण उन्‍हें इस्‍तीफा देना पड़ा था। सोचा था कि बच्‍चे स्‍कूल जाने लगेंगे, तो वे भी कुछ न कुछ काम करने लगेंगी। कुछ नहीं तो किसी निजी स्‍कूल में शिक्षक हो जाएंगी। पर जब काम तलाशने निकले तो गहरी निराशा हाथ लगी। काम तो दिन भर करना था, पर वेतन के नाम इतनी कम राशि की आने-जाने के किराए में ही खर्च हो जाए। नीमा ने काम के बारे में सोचना छोड़कर घर में बच्‍चों पर ही ध्‍यान लगाना शुरू किया। पर शायद दिमाग से बात गई नहीं। इस बीच विभिन्‍न कारणों से हमें कबीर का स्‍कूल भी बदलना पड़ा था। ऐसे सब कारणों के चलते नीमा धीरे-धीरे गहरे डिप्रेशन का शिकार हो गईं। नींद नहीं आती थी। रात को उठकर बैठ जातीं। मुझे जगाकर कहतीं, श्रीमान जी नींद नहीं आ रही है मैं अपनी गोद में सिर लेकर थपकी देता, सुलाने की कोशिश करता। कभी सफल होता, कभी नहीं। कई बार वे मुझे भी नहीं उठातीं, अकेली ही बैठी रहतीं।

एक समय ऐसा आया कि वे लगभग हफ्ते भर ठीक से नहीं सो सकीं। मैं उन्‍हें लेकर अपने फैमिली फिजिशियन के पास गया। उन्‍होंने सबसे पहले नींद के लिए काम्‍पोज का एक इंजेक्‍शन लगाया और अपने नर्सिंग होम में ही उन्‍हें सुला दिया। मुझसे कहा, घर जाइए और चार-पांच घंटे बाद आइए। मैं घर चला गया। लौटा तब भी नीमा सो ही रही थीं। शाम हो चली थी और कबीर और उत्‍सव घर में अकेले थे। मैंने नीमा को जैसे-तैसे जगाया, वह अब भी नींद में ही थीं। आटो में लेकर घर आया। घर पर वे पूरी रात सोती रहीं। अगले दिन कुछ बेहतर लगा।

डिप्रेशन के दिनों में ही नीमा गरदन में दर्द की शिकायत करती थीं। लेटे-लेटे ही अचानक चक्‍कर आने लगता। डाक्‍टर ने कहा कि स्‍पोंडिलाइटिस है। दवा दी, पर आराम नहीं हुआ। एक्‍सरे करवाया। सब ठीक था वे बोले, इन्‍हें किसी मनोचिकित्‍सक के पास ले जाओ। पता भी बताया। मनोचिकित्‍सक ने ध्‍यान से सुना। नीमा को शाम होते ही यह डर सताने लगता था कि अगर रात को नींद नहीं आएगी तो क्‍या होगा?  डाक्‍टर ने कहा, नींद न आए तो कोई बात नहीं। रात को जब भी नींद खुल जाए, कोई किताब लेकर पढ़ने बैठ जाओ। दवा भी दी। पर साथ ही कहा कि दवा इलाज नहीं है। इसकी आदत मत डालना। दवा की मात्रा धीरे-धीरे कम करना है। मनोचिकित्‍सक ने कहा बेहतर होगा, आप योग करें। इस बीच मौसेरी बहन आरती ने लगभग महीने भर साथ रहकर दोनों बच्‍चों की देखभाल की। बिना उसके वे दिन नहीं कट सकते थे। 

जिंदगी फिर धीरे-धीरे चलने लगी। पर योग तो शुरू नहीं हो पाया था। अपने मन से घर में नहीं कर सकते थे। मैंने नीमा से कहा कम से कम सुबह घूमने ही निकल जाया करो। उन्‍होंने बात मानी। एक दिन वे लौंटी, तो बताया कि उन्‍होंने एक योग केन्‍द्र ढूंढ लिया है। भोपाल में हम साढ़े छह नम्‍बर बस स्‍टाप के पास रहते थे। वहां से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर प्रगति पेट्रोल पम्‍प है। उसके पीछे एक प्राकृतिक योग साधना केन्‍द्र था। उसे परोपकारिणी महिला मंडल संचालित करता था। नीमा ने वहां जाना शुरू कर दिया। महीने भर में ही असर दिखने लगा। वे पहले से कहीं अधिक स्‍वस्‍थ्‍य, अधिक ऊर्जावान दिखने लगीं। 

मेरी भी सांस में सांस आई। इस केन्‍द्र में योग गुरु गांगुली जी से प्रशि‍क्षित महिलाएं और पुरुष योग करवाते थे। धीरे-धीरे नीमा सारे आसान सीख लिए। जल्‍द ही उन्‍होंने वहां एक प्रशिक्षक का स्‍थान प्राप्‍त कर लिया। जब भी कोई नियमित प्रशिक्षक अवकाश पर जाता या किसी वजह से नहीं आ पाता तो नीमा को योग कक्षा संचालित करने की जिम्‍मेदारी दी जाती। लगभग दो साल सब कुछ ठीक चलता रहा।

गले मिलतीं हेमलता सिंघई और शोभा बोन्द्रिया जी। पास ही हैं नीमा।
फिर हमें वह घर छोड़ना पड़ा। हमारा नया आवास अरेरा कालोनी के सेक्‍टर 7 में था। वहां से यह केन्‍द्र लगभग तीन किलोमीटर दूर था। साढ़े छह नम्‍बर से तो नीमा पैदल ही केन्‍द्र तक चली जाती थीं। पर यहां से पैदल जाना सम्‍भव नहीं था। न बस आदि का कोई सुविधाजनक साधन था। नतीजा यह हुआ कि अपनी डयूटी लगी। सुबह नीमा उठकर पहले बच्‍चों के लिए नाश्‍ता आदि तैयार करतीं। फिर मैं स्‍कूटर से लेकर उनको केन्‍द्र तक छोड़ने जाता। लौटता, तब तक उत्‍सव स्‍कूल जाने के लिए तैयार हो चुकता। फिर उसे लेकर स्‍कूल जाता। कबीर का स्‍कूल पास ही था। वह खुद चला जाता। नीमा केन्‍द्र से लौटते समय आसपास रहने वाले अन्‍य कुछ योगार्थियों के साथ उनकी कार में आ जातीं। वे घर के निकट छोड़ देते। जिस दिन वे नहीं आते, उस दिन कुछ दूर चलकर बस ले लेतीं। यह क्रम भी लगभग साल भर चला होगा। फिर कुछ ऐसा हुआ कि वह केन्‍द्र वहां से स्‍थानांतरित होकर थोड़ा और दूर यानी गौतम नगर में चला गया। वहां मैं उन्‍हें छोड़ तो सकता था, पर वहां से स्‍वयं वापस आना थोड़ा मुश्किल था। 

नीमा को स्‍वस्‍थ करने में योग का सचमुच बहुत योगदान था, इसलिए वे उसको बिलकुल छोड़ना नहीं चाहती थीं। अब क्‍या करें। नीमा ने हिम्‍मत नहीं हारी। वे घर में करने लगीं। फिर आसपास की महिलाओं से चर्चा में योग और उसके फायदे आदि की बात निकली। जिस घर में हम रहते थे, उसका एक हिस्‍सा खाली पड़ा था। मकान मालकिन आशा जी ने भी योग करने में रुचि दिखाई। उस खाली हिस्‍से के एक छोटे से कमरे में चार महिलाएं नीमा के देखरेख में योग करने लगीं। मोहल्‍ले में बात फैलते देर नहीं लगी। संख्‍या बढ़कर दस के करीब पहुंच गई। घर के सामने रहने वाली दलाल आंटी ने जो स्‍वयं भी योग करने में शामिल थीं, अपना हाल इसके लिए दे दिया। फिर वहां से एक अन्‍य योगार्थी रजनी गुप्‍ता के घर में गए। उनके सामने रहने वाले आहूजा परिवार का एक फ्लैट खाली पड़ा था। योग कक्षाएं वहां लगने लगीं। फिर सबको लगा कि घर में यह बहुत दिन तक नहीं चल सकता। कोई सार्वजनिक जगह होनी चाहिए।

नीमा चूंकि अपने पुराने योगार्थी साथियों से एक तरह से बिछ़ुड़ गईं थी। पर जैसा कि नाम है योग, अगर ईमानदारी से किया जाए तो वास्‍तव में वह लोगों को आपस में जोड़ता है। परोपकारणी महिला मंडल की कर्ताधर्ता हेमलता सिंघई और शोभा बोन्द्रिया जी लगातार नीमा के सम्‍पर्क में थीं। डॉ. रमेश चन्‍द्र सिंघई जो कैंसर से ग्रस्‍त थे, पर नियमित रूप से योग करते थे। उससे ही वे जीने की ऊर्जा प्राप्‍त करते थे। उन्‍होंने भी हौसला बढ़ाया और कहा कि कोई सार्वजनिक जगह ढूंढो तो मंडल भी अपना बैनर दे देगा, मदद भी करेगा।

मोहल्‍ले में सरस्‍वती शिशु मंदिर स्‍कूल था। सब महिलाएं मिलकर वहां गईं। उसके प्रबंधकों से बात की। परोपकारिणी महिला मंडल का बैनर साथ था ही। वे कुछ नाम मात्र के शुल्‍क पर अपना हाल देने को राजी हो गए। पर शाम के लिए। सुबह तो उनका स्‍कूल ही लगता था। परोपकारी महिला मंडल ने एक अलमारी वहां रखवा दी। योगार्थियों के लिए कम्‍बल भी दे दिए। सौ रुपए प्रति योगार्थी का शुल्‍क तय किया गया। मंडल ने तय किया कि जो सहयोग राशि आए, उसमें से आधी बतौर प्रशिक्षक  मानदेय के रूप में नीमा रख लें और शेष आधी से हाल का किराया दें, साफ-सफाई करवाएं। जो बच जाए, वह मंडल में जमा कर दें। कोई छह-सात महीने वहां योग कक्षाएं चली। फिर स्‍कूल को कुछ समस्‍या हुई तो ठप्‍प हो गया। मोहल्‍ले में अशोका  हाऊसिंग सोसायटी का एक कम्‍युनिटी हाल भी है। सब महिलाएं एक बार मिलकर फिर वहां पहुंची। इस हाल के प्रबंधक राजी हो गए, बाकायदा किराए पर देने के लिए। एक बार फिर योग कक्षाएं चलने लगीं। यह केन्‍द्र केवल महिलाओं के लिए ही था।

2005 से लेकर 2011 तक नीमा की देखरेख में यह केन्‍द्र चलता रहा। फिर समय आया जब उत्‍सव इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए जबलपुर गया। वहां होस्‍टल आदि की समस्‍या के चलते नीमा ने तय किया कि वहां अलग से घर लेकर रहें, वे उसके साथ रहेंगी। नीमा जबलपुर चली गईं। मैं बेंगलूरु था।

इस बीच उन्‍होंने योग कक्षा में आने वाली महिलाओं में से कुछ को प्रशिक्षक के बतौर प्रशिक्षित कर दिया था। तो योग केन्‍द्र बदस्‍तूर चलता रहा, अभी भी चल रहा है। बल्कि हुआ यह है कि वहां की एक योगार्थी ने अलग होकर अब निजी रूप से दो स्‍वतंत्र केन्‍द्र शुरू कर दिए हैं। जबलपुर मैं उनका योग अभ्‍यास घर में ही जारी रहा। वहां कोशिश की कि सार्वजनिक रूप से कुछ कक्षाएं वहां लग पाएं, पर बात बनी नहीं। इस बीच नीमा जब भी भोपाल आती थीं, तो योग कक्षाओं में शामिल होती रही हैं। 

हाल ही में उत्‍सव की पढ़ाई खत्‍म हो गई और जबलपुर का प्रवास भी। नीमा भी वापस भोपाल आ गई हैं। और फिलहाल तो भोपाल में ही हैं। पर योग कक्षा में जाना आरंभ नहीं किया है। मैं उनसे कह रहा हूं कि जाना शुरू करो, उनकी पुरानी सखियां भी आग्रह कर रही हैं। हां, वे कुछ अभ्‍यास तो घर में करती ही रहती हैं। अब देखते हैं उनका योग कक्षा में फिर ये योग होने का संयोग कब होता है।

                                                          0 राजेश उत्‍साही