Sunday, April 1, 2012

सूखती किताबों में भीगता मन


परिवार से दूर अकेले रहने के क्‍या दुख (और सुख) हैं, यह पिछले तीन साल से मैं हर समय अनुभव कर रहा हूं। हर सुबह एक नया सबक देने के लिए मुस्‍तैद होकर आती है।

बंगलौर आया तो घर के काम करने में कोई समस्‍या नहीं आई। क्‍योंकि बचपन से अपना काम स्‍वयं करने की आदत रही है। सफाई, कपड़े धोना, प्रेस करना जैसे कामों में कोई आलस महसूस नहीं हुआ। परिवार में रहते हुए भी यह रोजमर्रा का काम था। नहीं आता था, तो खाना बनाना। केवल चाय बनाना ही सीख पाया था। कभी-कभार अकेले होने पर पराठे बनाए जो देश के विभिन्‍न प्रांतों के नक्‍शों के प्रतिरूप ही नजर आते थे। रोटी बनाने का तो सवाल ही नहीं ।

यहां हलनायकलहल्‍ली(बंगलौर) में दो किलोमीटर के दायरे में खाने की कोई दुकान नहीं है। दिन की पेट पूजा तो दफ्तर की कैंटीन में हो जाती, लेकिन शाम के वक्‍त खुद बनाने के अलावा दूजा विकल्‍प नहीं। शुरू के आठ महीने तो दो-तीन साथी मिलकर रह रहे थे, सो समस्‍या नहीं आई। सब्‍जी काटने, धोने और बरतन आदि की सफाई का ठेका अपना था। बनाने का ठेका उनके पास था। वे पकाते और हम खाते।

फिर धीरे-धीरे वे भी इधर-उधर हो गए। नतीजा यह कि रसोई के मैदान में उतरना पड़ा। कुछ दिन प्रयोग चलते रहे। एक दिन खिचड़ी बनाई तो नमक डालना भूल गया। कुकर के ढक्‍कन को नमक डालने के लिए खोला तो खिचड़ी रूठकर रसोई की छत से जा चिपकी। खैर,अब तो मैं खिचड़ी,पुलाव,रोटी,पराठे,बाटी,दाल,सब्‍जी सब बना लेता हूं। यकीन न हो तो कभी पधारें, वादा है कि भूखे पेट नहीं जाने दूंगा। मित्रो, गारंटी का तो जमाना ही नहीं रहा, इसलिए स्‍वादिष्‍ट होगा या नहीं यह मत पूछिएगा।
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लीजिए जो बताने के लिए यह पोस्‍ट शुरू की थी, वह तो बीच में ही रह गया। मैं इधर मार्च में लगभग 10 दिन उत्‍तर भारत के भ्रमण पर था। बंगलौर-दिल्‍ली-रोहतक-समालखा-दिल्‍ली-जयपुर-भोपाल-जबलपुर-दिल्‍ली-बंगलौर। यह भ्रमण भी बहुत कुछ अपने में समेटे है। इन यात्राओं का वृतांत यायावरी पर लिखूंगा।

यात्रा से 25 मार्च की रात दस बजे लौटा तो दूसरे माले पर स्थित मेरे वन बीएचके घर में बाढ़ आई हुई थी। रसोई, हाल और कमरा सब जगह पानी ही पानी था। पानी की समस्‍या तो पूरे देश में है। उससे हलनायकनहल्‍ली अछूता नहीं है। 36 फ्लैट वाले इस अपार्टमेंट में पानी की खोज में मकान मालिक ने परिसर में पिछले दो साल में एक के बाद एक, दो टयूबवैल खुदवाए हैं। एक तो पहले से ही था। पानी सुबह-शाम, आधा-एक घंटे के लिए ही आता है। ऐसे में रसोई या सप्‍पने का कौन-सा नल खुला रह जाए कह नहीं सकते। पिछले तीन साल से हर रोज अल्‍लसुबह दफ्तर के लिए निकलने से पहले मैं इस संदर्भ में खासी सावधानी बरतता रहा हूं।

इस बार भी जब यात्रा पर निकल रहा था, तो नीचे से एक बार फिर ऊपर आया और सारे नलों को जांचा कि वे बंद हैं या नहीं। पर रसोई का नल दगा दे गया। उसने बंद होने का आभास तो दिया, पर वह अपनी आदत के मुताबिक पूरी तरह बंद नहीं हुआ। पानी साफ आए, इसके लिए नल की टोंटी में एक छोटा छन्‍ना लगा रखा है। सामान्‍य तौर पर पानी सीधे ही सिंक में गिरकर नीचे चला जाता है। छन्‍ने में जम रही मिट्टी के कारण छन्‍ने ने फव्‍वारे का रूप धारण कर लिया। इससे पानी फैलकर सिंक के बाहर गिरता रहा और बाढ़ का कारण बना।

हाल के एक हिस्‍से में बड़ी चटाई पर बैठक की व्‍यवस्‍था की हुई थी। वहीं दीवार के सहारे किताबों को जमाया था। चटाई पर लगा बिस्‍तर पानी में भीगकर मन-मन भारी हो गया। रात एक बजे तक पानी उलीचने में जुटा रहा।

बिस्‍तर सूख गया। सबसे अधिक पानी किताबों ने पिया था। पिछले एक हफ्ते से सुखाने का अथक प्रयास कर रहा हूं। पूरे हाल में वे बिछी हैं, रात भर पंखे की हवा खाती हैं और दिन भर बन्‍द कमरे की गर्मी। शनिवार को दिन भर उन्‍हें छत पर लिए बैठा रहा। जैसे कोई चेहरा आसुंओं से भीगकर अपना असली रूप खो देता है, किताबों ने भी अपना असली रूप खो दिया है। सबसे ज्‍यादा नुकसान जिल्‍द यानी हार्डकवर वाली किताबों को हुआ है। उनकी जिल्‍द जो सुरक्षा के लिए बनी थी, वही उनकी विकलांगता का कारण बनी है।

इनमें सुधा भार्गव द्वारा भेंट किया कविता संग्रह ‘रोशनी की तलाश’, अनुपमा तिवाड़ी का ‘आईना भीगता है’ और वेद व्‍यथित का ‘अंतर्मन’ शामिल है। वेद जी ने बहुत आग्रह के साथ अपना नया कविता संग्रह ‘न्‍याय याचना’ भी प्रतिक्रिया हेतु मुझे भेजा था। उस पर समीक्षा लिखना लगातार टलता रहा है और अब तो वह संभव ही नहीं है। मैं वेद जी से क्षमा याचना ही कर सकता हूं। क्‍योंकि उनका कविता संग्रह कागज की लुगदी में बदल गया है। सुधा जी के घर से मैं पढ़ने के लिए राजी सेठ का उपन्‍यास तत-सम ले आया था। उसकी हालत वापस करने लायक नहीं रही है। इसके लिए भी सुधा जी से माफी ही मांगनी पड़ेगी।

‘तय तो यही हुआ था’ मेरे प्रिय कवि शरद बिल्‍लौरे का कविता संग्रह है। वह भीगने के बाद सूखकर पापड़ बन गया है। लेकिन धर्मवीर भारती का मेरा प्रिय उपन्‍यास ‘गुनाहों का देवता’ सूखने का नाम ही नहीं ले रहा है। साहित्‍य अकादमी से प्रकाशित रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के निबंध संग्रह के दो खंड भी पानी में डूबे रहे हैं। पर हार्डकवर होने के बावजूद आश्‍चर्यजनक रूप से सुरक्षित हैं। पर रवीन्‍द्रनाथ की कविताएं अब भी पानी से तरबतर हैं। नेशनल बुक ट्रस्‍ट से प्रकाशित समांतर कोश के दो खंड भी सुरक्षित हैं, हालांकि पानी के निशान उन पर भी हैं। वे किताबें जो पेपरबैक थीं जल्‍द ही सूख गईं हैं बल्कि उन्‍होंने पानी भी कम ही पिया। फहमीदा रियाज, फैज अहमद फैज, शहरयार, कतील शिफाई के संग्रह बुरी तरह भीगे हुए हैं। पहल, अन्‍यथा, कथा जैसी कुछ पत्रिकाओं के भारी भरकम अंक भी थे, वे भी सूख रहे हैं। 


पिछले दिनों ही मैंने रश्मिप्रभा जी की कविताओं के दो संग्रह 'अनुत्‍तरित' और 'शब्‍दों का रिश्‍ता' तथा उनके द्वारा संपादित कविता संग्रह 'अनुगूंज' फिल्‍पकार्ट के माध्‍यम से खरीदे थे। ये तीनों ही किताबें ऊपर चित्र में दिख रहे छोटे से रैक में रखीं थीं। वे बच गईं। इन्‍हें तो मैं अभी पढ़ ही नहीं पाया था। 

सबसे अधिक क्षति मेरी अपनी कविताओं को हुई है। 1978 से लेकर 1987 के आसपास तक जो कविताएं मैंने लिखी थीं, वे तीन कॉपियों में लिपिबद्ध थीं, स्‍याही से। वे मेरे ब्‍लाग गुलमोहर पर भी नहीं हैं। दो कॉपियों में स्‍याही इस कदर फैल गई है, कि मुझे अपनी स्‍मृति पर जोर देकर याद करना पड़ेगा कि वहां क्‍या लिखा था। शायद वे भी वहां पड़े-पड़े उकता गई थीं और चाहती थीं कि उन पर ध्‍यान दिया जाए। पहली ही फुरसत में उन्‍हें कम्‍प्‍यूटर पर लाने की कोशिश करूंगा।

छत पर सूखती हुई किताबों को उलटते-पलटते 'पहल' के 90 वें अंक में प्रकाशित इस गीत ने मन को अंदर तक भिगो दिया। पढ़ें, शायद आपकी अनुभूति भी यही हो-

सोने से पहले : अवध बिहारी श्रीवास्‍तव

दरवाजे खिड़कियां देख लूं
आने से पहले बिस्‍तर पर

दूध उबलने को रक्‍खा है
उबल जाए रख दूं ,तो आऊं
अम्‍मा जी का पैर दुख रहा,
जाकर थोड़ी देर दबाऊं

जूठे बरतन पड़े हुए हैं
आती हूं चौके को धोकर

छोड़ो हाथ, अभी देवर जी
आए कहां शहर से पढ़कर
बाहर बाबू जी बैठे हैं
’बहू जागते रहना’ कहकर

चार गरम रोटियां सेंक लूं
बस आती हूं उन्‍हें खिलाकर

पैर पटकना बंद करो अब
एक मिनट आओ आंगन में
टंगे हुए कपड़े उतार लो
बाहर भींगेंगे सावन में

चलती तो हूं साथ तुम्‍हारे
लेकिन चूर हुई हूं थककर
***
                                       0 राजेश उत्‍साही 

33 comments:

  1. क्या कहूँ.............
    बहुत खूब तो कहा नहीं जा सकता.....
    :-)

    मगर आप सच्चे कवि/लेखक हैं......
    विपरीत परिस्थियों में भी लेखन से बाज नहीं आये....
    आशा है आपकी मुश्किलें जल्द समाप्त हों....
    सादर
    अनु

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  2. लिखा बढ़िया है, लेकिन हुआ ख़राब है. याद रखियेगा आगे से.... आपके यायावरी सुनने की प्रतीक्षा है...

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  3. ओह!! ये तो बहुत बड़ा नुकसान हो गया...खासकर खुद की लिखी, कविताओं की स्याही फ़ैल जाना...बहुत मेहनत करनी पड़ेगी आपको..दुबारा लिखने में..

    मेरे यहाँ भी ऐसे हादसे हुए हैं..जब मैं मायके गयी थी और पानी की कमी की वजह से समय से पानी आता था...
    लौट कर आने पर पता चला..रोज ही घर में बाढ़ आई होती थी..और पतिदेव और कामवाली दोनों अलग-अलग मुझसे कहते कि मैने नहीं....दूसरे ने नल खुला छोड़ दिया था :):)

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  4. बहुत बुरा हुआ मगर हौसला बरकरार है तो नये आसमान जल्द बनेंगे।

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  5. आपका यह वाकया सुन-पढ़कर मुझे दो घटनाएँ याद आईं। पहली के बारे में हमारे बीच फोन पर बातचीत हो चुकी है। जून 2004 की बात है। अपने मित्र अशोक भाटिया के निवास पर करनाल गया था। शाम के समय वहाँ पहुँचा। गर्मी से निजात पाने हेतु नहाने के लिए उनके बाथरूम में घुसा। नल खोला तो पानी नहीं। भाटिया ने कहा--प्रेशर आने पर उस नल से डायरेक्ट पानी आता है। प्रेशर नहीं है। उसे बन्द कर दो और दूसरे वाला नल खोल लो, मैं मोटर चलाता हूँ। मैंने दूसरा नल तो खोल लिया, पहले वाले को बन्द करना भूल गया। नहाकर बाहर निकल आया। खाना खाकर, गप्प लड़ाकर हम सो गए। रात को पानी का प्रेशर जैसे आना था, वैसे आया। बाथरूम वाला नल खुला हुआ था। पानी चलता रहा और ड्राइंगरूम में पड़े कीमती कालीन वगैरह को भिगोता रहा। सवेरे तक सारा ड्राइंग रूम पानी-पानी; और जागने पर, उस सबको देख उससे भी ज्यादा मैं पानी-पानी। भले ही भाटिया और उनकी पत्नी ने बार-बार मुझसे कहा--कोई बात नहीं। उस घटना को मैं आज भी जब याद करता हूँ, खुद पर बेहद शर्मिंदा होता हूँ। दूसरी घटना पानी की नहीं है लेकिन है यादगार और आपकी इस टिप्पणी से जुड़ी है कि डायरियों में लिखी आपकी कविताएँ शायद--'वहां पड़े-पड़े उकता गई थीं और चाहती थीं कि उन पर ध्‍यान दिया जाए।' हुआ यह कि हंसराज रहबर के निधन का समाचार पाकर मैं एक दिन उनके घर गया और उनके बेटे विजय गोयल से यह इच्छा जाहिर की रहबर साहब की कुछ अप्रकाशित सामग्री भी मिल जाएँ तो मैं अपनी पत्रिका 'वर्तमान जनगाथा' का प्रस्तुत अंक उन पर केन्द्रित करना चाहूँगा। जवाब में उन्होंने मुझे दीवार में बनी एक अलमारी के सामने जा खड़ा किया। रहबर साहब की हस्तलिखित काफी सामग्री व अन्य पुस्तकें उसमें रखी थीं जिन्हें 'दीमक' चाट चुकी थी। विजय गोयल ने कहा--घर में किसी भी व्यक्ति को वे अपनी सामग्री को हाथ लगाने लायक नहीं समझते थे…।
    मैं दीमक लगी उस सामग्री में से ही कुछ चीजें लाया और अंक निकाला जिसका विमोचन बाबा नागार्जुन ने किया था।
    बहरहाल, यह तय है कि जीवन्त साहित्य को अपनी उपेक्षा अधिक दिनों तक बर्दाश्त नहीं होती है और अपने त्राण का कोई न कोई तरीका वह खोज निकालता है। आप आगे के लिए सावधान हो जाइए।

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    1. बलराम जी कैसे कैसे हादसों से गुजरते हैं हम। हादसे ही हमें‍ सिखाते हैं। सावधान तो हर वक्‍त ही रहते हैं,फिर हादसे हैं कि हो ही जाते हैं।

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    2. सच ये हादसे ---हादसे ही तो जीने का गुर सिखाते हैं I

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  6. अरे यह क्या हो गया. बहुत ही अफ़सोस जनक. आपके हौसले की तो तारीफ करनी होगी. स्थितियां संवर जायेंगी.

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  8. बड़े भाई! आपके जैसा डिसिप्लिंड आदमी से भी इस तरह की भयंकर भूल हो सकती है, यह देखकर ही लगता है कि अपवाद ही सिद्धांत को सिद्ध करते हैं.. कहीं ये पहली अप्रैल की दास्तान तो नहीं!!
    खैर मजाक अलहदा, जो हुआ वो सचमुच बुरा हुआ. कितना खोया वापस पाया जा सकता है.. इसी बहाने एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली!!

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    1. सलिल जी इसीलिए तो दुबारा आकर जांचा था। लेकिन क्‍या करूं। यह वैसा ही है जैसे सड़क पर बाएं चलते हुए भी कोई आपको टक्‍कर मारकर चला जा जाए। और देखिए यह भी मैं भुगत चुका हूं। एक बार पैदल जा रहा था,बिलकुल सड़क से उतरकर तभी पीछे से एक कार ने टक्‍कर मार दी। गनीमत थी कि कार की गति धीमी थी। चोट तो आई थी मेरे पैर में। कार चालक महाश्‍य अपने दो साल के बच्‍चे को आगे की सीट पर बैठाकर सैर कराने निकले थे। बच्‍चा सीट से नीचे उतर गया था, बस वे उसी को संभाल रहे थे कि कार नियंत्रण से बाहर हो गई और हम से जा भिड़ी।
      भैया आज एक अप्रैल जरूर है। पर दोनों घटनाएं एकदम सच्‍ची हैं,जैसे कि आज एक अप्रैल है।

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  9. सही स्थिति ... आपके साथ तो बहुत धोखा हुआ . पर खाना ज़रूर खायेंगे , नीमा जी के साथ

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    1. हाल ही में आपकी किताबें फिल्‍पकार्ट के माध्‍यम से बुलवाईं थीं। संयोग से वे छोटे से रैक में रखीं थीं,इसलिए बच गईं। उन्‍हें तो मैं अभी पढ़ ही नहीं पाया था।

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  10. राजेश जी
    सूखती किताबों में भीगते मन की थाह लेते ही मैं व्याकुल हो उठी और मुझे वह दिन याद हो आया जब चंद दिनों की अनुपस्थिति में ही मेरी विशाल अलमारी की किताबों का संग्रह एक लाएब्रेरी को भेंट हो गया था ..आपने तो बड़ी सरलता से अपनी पीड़ा को शब्दों का जामा पहना दिया ,धैर्य और हिम्मत की दाद देना पड़ेगी पर रचना संसार में बसी आत्मा की कुलबुलाहट को रोकना कठिन सा हो जाता है .आजकल मैं कानपुर में हूँ .बैंगलोर में होती तो शायद . आपकी कोई मदद कर पाती

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  11. इसका मतलब अभी आप गृह कार्य में दक्ष नहीं हुए . :)
    नीचे वाले पडोसी ने पुलिस तो नहीं बुलाई ?
    उनकी छत बच गई होगी .

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    1. शायद कुछ ज्‍यादा ही दक्ष हो गया हूं। अन्‍यथा ऐसी गड़बड नहीं होती।

      नीचे वाले पड़ोसी भी मेरे साथ ही यात्रा पर थे। और हम साथ साथ ही लौटे। वे मेरे ही कार्यालय में हैं और अभी अभी आए हैं। सो उनके कमरे में भी सामान नहीं था, सिवाय एक बिस्‍तर के। जो कोने में था,इसलिए बच गया। वरना मेरे फर्श यानी उनकी छत से पानी टपक ही रहा था।

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  12. ओह यह तो बहुत बुरा हुआ, यदि ज्ञात होता कि आपकी व्यस्तता का यही कारण था तो आकर हाथ बटा देता।

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    1. शुक्रिया प्रवीण जी। वास्‍तव वह अपरिहार्य व्‍यस्‍तता यही थी। पूरे घर की सफाई की उस दिन और किताबों को छत पर फैलाया। पूरा‍ दिन बस इसी में लगा रहा, इसीलिए आपसे मिलने का कार्यक्रम स्‍थगित करना पड़ा।

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  13. bachpan mein kiya kaam aaj kaam aane laga hai yah achhi baat hai... sach apna ghar apna hi hota hai, phir bhi aapki koshish bahut achhi prernaprad hai..
    ..ek chhoti see bhool nal ka khula rahna sach mein apoorniya kshati aur dukhdayee hai.. lekin shayad upar waale ki yahi marji rahi hogi.. aapko phir se navnirman ki shakti mile yahi shubhkamna hai..
    saadar

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  14. अवध बिहारी श्रीवास्तव की कविता से परिचय कराने के लिए धन्यवाद, सचमुच मन को छूने वाली है.

    नयी किताबें तो मिल जायेंगी, पराने कागज़ और यादें खोने का दुख अधिक होगा!

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  15. किसी भी तरह की किताबों का गीला होना मन को भींगो देता है..गलती से बी खराब किताबें होती हैं तो दिल लरज ही जाता है। साल से ज्यादा होने को है पर पिताजी के संजोई हुई किताबें निकाल कर बेच पा रहा हूं। ज्यादातर तो खैर सरकारी महकमों की रिपोर्ट हीं थी ..पर जानकारी तो उसमें होती है उसे पढ़ने का जो आनंद है वो कंप्यूटर पर पढ़ने पर भी नहीं मिलता। अक्सर सोचता हूं कि जिंदगी इतनी आसान होती कि खाली घूमता और किताबें पढ़ता तो कितना अच्छा होता..पर पर ....

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  16. कमाल है आज तो आपने किचिन दिखा दी , बंगलौर आकर एक दिन आपके हाथ का खाना है राजेश भाई ....
    किस दिन बाढ़ आने का खतरा न हो बताना :-)

    अंत में कविता पढ़कर मन भीग सा गया उत्साही जी , आपकी बाढ़ ने ही कम नहीं भिगोया था जो यह रचना और पढ़ा दी ! आपकी पीड़ा अच्छे से महसूस की है मैंने ...
    चलती तो हूँ साथ तुम्हारे
    लेकिन थक कर चूर हुईं हूँ

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  17. नुकसान तो सालता ही है, अफ़सोस!

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  18. आने में विलम्‍ब हो गया ... इस पोस्‍ट को पढ़कर अच्‍छा नहीं लगा .. निश्चित तौर पर मन भीग जाता है .. आपकी नई पोस्‍ट को पढ़कर जाना बाढ़ का कारण ..

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  19. अब सूख गयीं होंगी किताबें। कवितायें भी शायद नया आकार ग्रहण कर लें। अवध बिहारी जी की कविता सुन्दर लगी। :)

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    1. किताबें सूख गईं,पर उन्‍होंने अपना आकार खो दिया है। हां,कविताओं को नया आकार ग्रहण करना ही होगा।

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  20. aapki anmol kritiyan bheeng gayeen.....bahut bura lag raha hai....jitna kuch yadon men ho likh lijiye,iske alawa koi upay bhi to nahin.

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  21. thankyou and nice to meet you at the Foundation.

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  22. SHRIWASTAV JI KI KAVITA SAMAYANOOSAR PRASTOOT KI HAI AAPNE.
    AAPKI SMRUTI BHI ACHCHHI HAI,KAVITYE NAYA AAKAR PA JAYEGI.

    UDAY TAMHANE

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...