Monday, May 31, 2010

नज़र साहब और उनकी शायरी को सलाम

तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह
दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे

जी नहीं। यह कलाम मेरा नहीं है। पर फिर न जाने क्यों मुझे लगता है जैसे शायर ने मुझ पर लिखा है। मैं 27 साल तक बस एक ही जगह बैठा रहा, यानी काम यानी नौकरी करता रहा। आज जब वहां से विस्थापित हुआ तो कुछ ऐसा ही लगता है जैसा इस शेर में कहा गया है। जब से मैंने इसे पढ़ा है उठते-बैठते,सोते-जागते बस यही दिमाग में घूमता रहता है। जैसे किसी ने आइना दिखा दिया हो। असल में एक अच्‍छे शायर की शायद यही खूबी है कि वो जो लिखे वो पढ़ने वाले को अपना ही लगे।
नज़र एटवी

यह कलाम है एटा,उप्र के मशहूर शायर नज़र एटवी साहब का। मेरे लिए यह अफसोस की बात है कि उनसे यानी उनकी शायरी से मुलाकात तब हुई जब वे इस दुनिया से रुखसत कर चुके हैं। उनकी शायरी पढ़कर मुझे दुष्यंत याद आ गए। मैं यहां तुलना नहीं कर रहा। पर जिस सादगी से दुष्यंत अपनी बात कह गए हैं वही नज़र साहब की गज़लों में नजर आती है। एक और शेर देखिए-

खाई है कसम तुमने वापिस नहीं लौटोगे
       कश्ती को जला देना जब पार उतर जाना 
                   (आगे पढ़ने के लिए नीचे बाएं Read More पर क्लिक करें।)

Tuesday, May 25, 2010

अनुभव की गुल्लक में जो है उसे बांट रहा हूं

लिखने के दौरान मेरे जो अनुभव रहे हैं, मैंने जो सीखा है वह मैं औरों तक पहुंचाने की कोशिश करता रहा हूं। इस बात का जिक्र मैंने अपनी एक पोस्ट नसीम अख्तर की कविताओं के बहाने में भी किया है। पिछले दिनों किसी एक ब्लॉग पर मैं अपनी आदत के मुताबिक टिप्पणी करके आ गया। अगले‍ दिन यह देखकर सुखद आश्चर्य से भर उठा कि उस ब्लॉगर ने मेरी बात को गंभीरता से लिया था और मुझे इमेल करके अपनी कविताओं के संदर्भ में मदद मांगी थी। साथ में अपनी एक अप्रकाशित कविता भी भेजी थी। मैंने अपनी तरफ से उस कविता में आवश्यक संपादन करके उसे वापस प्रेषित कर दिया। जवाब में मुझे जो मेल मिला उसका संपादित अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

Wednesday, May 19, 2010

वियोग में एक प्रयोग


ये चार पंक्तियां किसी खास परिस्थिति में ज़ेहन में आईं थीं। जब उनसे उलझने लगा तो कुछ इस तरह से हर बार नए रूप में सामने आ खड़ी हुईं। आपको जो पसंद हो वह चुन लीजिए।

Wednesday, May 12, 2010

मंटो : एक जेबकतरा कहानीकार

चित्र : गूगल इमेज से साभार
बीती 11 मई को जानेमाने कथाकार सदाअत हसन मंटो का जन्म दिन था। 1912 में जन्‍मे मंटो 42 साल की चढ़ती उम्र में ही सबसे विदा ले गए। लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने जो लिखा उसका आकलन हम अभी तक कर रहे हैं और आने वाले न जाने कितने वर्षों तक करते रहेंगे। उनके भोगे और‍ लिखे को आज पचास साल बाद एक लेखक के तौर पर जब मैं पढ़ता हूं तो लगता है क्या सब लेखक एक ही तरह से सोचते हैं।
आइए देखें कि मंटो ऐसे ही एक सवाल के जवाब में क्या कहते हैं।

मैं क्यों लिखता हूं?

Sunday, May 2, 2010

शरद बिल्‍लौरे की तीन और कविताएं

मजदूर दिवस बीते अभी दो दिन ही हुए हैं। आज भाई शरद बिल्लौरे की पुण्य तिथि है। मजदूर दिवस को याद करते हुए उनकी बैल कविता पढ़ना नए अर्थ देता है। जब तुम शहर में नहीं हो कविता कवि की एक अलग ही दुनिया के बारे में बताती है। और तीसरी कविता तुम मुझे उगने तो दो उनके संघर्ष का जीवंत बयान है।