Sunday, December 29, 2013

समीक्षा : परियां फिर लौट आईं




विष्‍णु प्रसाद चतुर्वेदी जी ने अपनी 25 विज्ञान कथाओं का संग्रह 'परियां फिर लौट आईं' मुझे जुलाई के आसपास अवलोकनार्थ भेजा था। मैं आभारी हूं।  

मैं यहा इस संग्रह पर अपना दृष्टिकोण रख रहा हूं। यह मेरी अपनी अवधारणों तथा चकमक में काम करते हुए बनी हुई समझ पर आधारित है। यह कतई जरूरी नहीं है कि सब लोग इससे सहमत हों, यह भी जरूरी नहीं है कि चतुर्वेदी जी इससे इत्‍तफाक रखते हों। उन्‍हें इसमें से जो बात उचित लगे वे उसे स्‍वीकारें, अपने लेखन में अपनाएं।

अपनी बात कहने से पहले मैं यह भी कहना चाहूंगा कि विज्ञान कथाएं सामान्‍य कथाओं से न केवल भिन्‍न होती हैं, वरन् उनका एक दायित्‍व भी बनता है कि वे विज्ञान के सर्वमान्‍य सिद्धांतों का पालन करें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश करें। यह इसलिए भी महत्‍वपूर्ण है कि उनके माध्‍यम से विज्ञान की अवधारणाएं पाठकों के बीच पहुंच रही होती हैं।

संग्रह को पढ़ते हुए पहली बात यह महसूस हुई कि वास्‍तव में यह कहानी संग्रह कम विज्ञान लेखों का संग्रह अधिक है। (बल्कि संग्रह में एक वास्‍तविक लेख भी है।) इन्‍हें पढ़ते हुए मुझे चकमक बहुत याद आई। चकमक में हम किसी अवधारणा को समझाने के लिए कथोपकथन का सराहा लेते थे। लेकिन इस बात का ध्‍यान रखते थे कि सैद्धांतिक बातें सीधे-सीधे न आ जाएं।

चतुर्वेदी जी ने विज्ञान के तथ्‍यों को समझाने के लिए कहानी तथा कथोपकथन का सहारा लिया है। लेकिन जब तथ्‍य उसमें आते हैं वहां विज्ञान की किसी पाठ्यपुस्‍तक का ही आभास होने लगता है, कहानी का नहीं। इससे यह भी पता चलता है कि लेखक के दिमाग में यह बात पहले से ही तय थी कि उसे इस तथ्‍य का उपयोग करना ही था। बाकी सारी बुनावट उसे बताने के लिए ही की गई है। पर मुश्किल यही है कि वे इस बुनावट में पूर्णत:सफल नहीं हो पाए हैं।

कुछ कहानियां जैसे अजगर हुआ पंक्‍चर, कहो कैसी रही, ऊंट से मुलाकात, चीकू मिला नेवले से, घंमडी जबरू, मटकू-झटकू की दीवाली पंचतंत्र की याद दिलाती हैं। उससे भी ज्‍यादा वे चंपक की कहानियों की याद दिलाती हैं। मैं इस बात के खिलाफ नहीं हूं कि जानवरों पर कहानियां न लिखीं जाएं। वे लिखी जाएं और उसमें उनके ही परिवेश की बातें हों। पर मुझे यह अजीब लगता है कि जानवरों का मानवीकरण किया जाए और उसमें बातें भी मानवीय परिवेश की हों। हो सकता है कि कुछ बच्‍चे इन्‍हें पढ़कर आनंदित हों। पर यह बात सभी पर लागू नहीं हो सकती।

मक्‍खीचूस,झील की मछलियां, तुम भी दोषी हो, परियां फिर लौट आईं, होली है, टुन्‍ना और तितली,पाप का फल आदि कहानियां का केन्‍द्रीय विषय पर्यावरण है। पर इनमें भी वही समस्‍या है। मुद्दा इतने कृत्रिम तरीके से सामने आता है कि वह प्रभाव ही नहीं छोड़ता। मक्‍खीचूस कुछ बेहतर है। झील की मछलियां बेहतर हो सकती थी, अगर इसमें जादूगर के स्‍थान पर किसी और चरित्र को लाया जाता। जादूगर का चरित्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ जाता है। असंगत प्रसार को समझाने के लिए बेवजह कहानी को खींचा गया है। इसी तरह कुएं का भूत में मंत्र की चर्चा करने से बचने की जरूरत थी। परियां...कहानी पढ़ने के लिए तो जैसे आपको तर्क उठाकर ताक पर रख देने की जरूरत होती है। हां इनमें भोजन का सबक सबसे बेहतर है। पर तार्किक होते हुए भी उसमें सुझाया गया तरीका व्‍यवहार में लाने के लिए नहीं उकसाता। वास्‍तव में सारी कहानियों की यह एक मूल समस्‍या है।

कोई नहीं स्थिर यहां, सब गतिमान हैं, तिथि क्‍यों टूटी, शून्‍य है पृथ्‍वी का भार, महाबली, निशानगर का राजकुमार आदि कहानियां बहुत बोझिल हैं। उनमें शुद्ध रूप से विज्ञान की अवधारणा को समझाने का प्रयत्‍न किया गया है।

सामान्‍यत: कहानियों या कविताओं के साथ जो चित्र होते हैं, उनकी भूमिका होती है कहानी या कविता के मर्म को और उभारना। एक तरह से वे पूरक का काम करते हैं। संग्रह में कहानियों के साथ चित्र भी हैं, पर चित्रकार का नाम नहीं है। अगर नाम या चित्रकार का परिचय होता तो यह समझने में मदद मिलती कि चित्रकार वास्‍तव में कितना परिपक्‍व है। इन चित्रों में तो उसका कच्‍चापन ही झलक रहा है।

संग्रह का आवरण रंगीन है, पर उसमें भी कल्‍पनाशीलता का अभाव ही नजर आता है। आवरण बनाने वाले चित्रकार ने केवल संग्रह के नाम को ही ध्‍यान में रखा है, संग्रह की कहानियों के कथ्‍य को नहीं।  

विष्‍णुप्रसाद चतुर्वेदी जी ने संग्रह की भूमिका में लिखा है कि, कहानी की विषयवस्‍तु बच्‍चों के स्‍तर के अनुकूल हो तथा रोचक हो, उसके लिए घर में बच्चियों का एक प्राथमिक चयन दल बना हुआ है। रचना उनके अनुमोदन के बिना आगे नहीं जाती है। उनका यह प्रयोग एक नई दिशा देता है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि बच्‍चों की यह भागादीरी निष्‍पक्ष और ईमानदार तरीके से हो।
  • परियां फिर लौट आईं :विज्ञान बालकथाएं
  • लेखक : विष्‍णुप्रसाद चतुर्वेदी 
  • प्रकाशक : साहित्‍य चन्द्रिका प्रकाशन,जयपुर
  • मूल्‍य : दो सौ रूपए 
                                                0 राजेश उत्‍साही   

Thursday, December 5, 2013

शुक्रिया कबीर



अमरूदों का मैं दीवाना हूं और वे मेरे गले के दुश्‍मन। पिछले हफ्ते चालीस रुपए के आधा किलो खरीदे थे। बस दो ही खा पाया और गले में खराश और कांटे चुभना शुरू हो गए। बंगलौर का मौसम भी बदल रहा है। हल्‍की ठंड के साथ हल्‍की सी बारिश कभी-कभी। सुबह-शाम विश्‍वविद्यालय जाने के रास्‍ते में धूल,धुआं और यूकिलिप्‍टस के परागकण यानी कि एलर्जी का पक्‍का इंतजाम। अब इस सबसे बचकर जाएं तो कहां जाएं। गले ने अपना स्‍वर बदला तो सामने वाले को यह समझते देर नहीं लगती कि गले के मालिक की तबीयत नासाज है।
परसों, हर रोज की तरह कबीर को फोन लगाया तो मेरा गला घरघरा रहा था। उसने तुरंत भांप लिया पूछा, तबीयत ठीक है। मैंने कहा, हां ठीक है।
जब कल रात फोन लगाया तो गला थोड़ा अधिक घरघरा रहा था और बीच-बीच में मुझे गला साफ करना पड़ रहा था। फिर इस तरह हमारा संवाद हुआ-
-गला खराब है।
-हां।
-तो गरारे करो।
-कर रहा हूं।
फिर कुछ इधर-उधर की बात हुई। वह फिर बोला,
-बुखार भी है क्‍या।
मैं आमतौर पर ऐसे सवालों से झुंझुला जाता हूं।
मैंने लगभग उसे झिड़कते हुए कहा,
-अगर होगा भी तो तुम क्‍या करोगे।
-तो डॉक्‍टर को दिखाओ।
-हां, जरूरत होगी तो दिखा दूंगा। अपना ख्याल तो मुझे ही रखना होगा न, वरना यहां कौन है देखभाल करने वाला।
वह चुप हो गया और फोन भी।

मुझे लगा यह कुछ ज्‍यादा ही हो गया। मुझे इस तरह से प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए थी। मैंने सोचा आखिर ऐसा क्‍यों हुआ। ध्‍यान आया कि कल ही मेरी मां और कबीर की दादी भोपाल आई हुईं हैं। किसी के बीमार होने की बात उनके कानों में पड़ती है तो वे परेशान हो जाती हैं। शायद अनजाने में मैं इसी वजह से इस पर ज्‍यादा बात करने से बच रहा था।
मुझ से रहा नहीं गया,पांच मिनट बाद मैंने कबीर को दुबारा फोन लगाया। उसकी आवाज से लग रहा था कि वह मेरे व्‍यवहार से खुश नहीं है। मैंने उससे बात कहा, कि दादी के सामने इस तरह की बात न किया करो वे जबरन फिकर करने लगतीं हैं। वह बोला,
-पापा जैसे आपको हम लोगों की चिंता होती वैसे ही हमें भी आपकी चिंता होती है।
-यहां मौसम बदल रहा है इसलिए थोड़ा गला खराब है। बुखार नहीं है। जरूरत होगी तो डॉक्‍टर को दिखा दूंगा।
-गर्मपानी में नमक डालकर गरारे कर लेना।
-हां कर लूंगा।
-पास में किराने की दुकान हो तो वहां से मुलेठी ले लेना।
-हां ले लूंगा। तुम चिंता मत करो मैं ठीक हूं।
उसके बाद मैं चैन की नींद सोया, कबीर भी सोया होगा। 
                                                  0 राजेश उत्‍साही

Friday, November 29, 2013

पढ़ने-गुनने की जगह : राजेश उत्‍साही



                                                                     फोटो : राजेश उत्‍साही
स्‍कूल में हिन्‍दी की वर्णमाला सीख ली थी, लिखना भी और पढ़ना भी। यह सत्‍तर का दशक था। तब स्‍कूल की गिनी-चुनी चार-पांच किताबों के अलावा छपी हुई कोई और सामग्री आसपास नहीं होती थी। अगर कुछ थी तो वह अखबार था।

पिताजी रेल्‍वे में सहायक स्‍टेशन मास्‍टर थे। उनकी पोस्टिंग मुरैना जिले में ग्‍वालियर-श्‍योपुरकलां नैरोगेज रेल्‍वे के इकडोरी स्‍टेशन पर थी। ग्‍वालियर से रोज सुबह एक पैसेंजर गाड़ी आती थी और शाम को वापस श्‍योपुरकलां से ग्‍वालियर जाती थी। यही गाड़ी किसी एक दिन सप्‍ताह भर के अखबार एक साथ लाती थी। अखबार था हिन्‍दुस्‍तान। पिताजी तथा स्‍टेशन के अन्‍य लोग जब अखबार पढ़ लेते, तब अपना नम्‍बर आता। मैं सारे अखबार एक साथ लेकर बैठता। मैं तब तीसरी में पढ़ता था। अखबार में तीन चीजें पढ़ना मेरा शौक था। एक डैगवुड की कार्टून स्ट्रिप और दूसरी गार्थ की कॉमिक गाथा। तीसरा शौक था, अखबार के दूसरे या तीसरे पन्‍ने पर फिल्‍मों के विज्ञापन देखना। फिल्‍म के विज्ञापन के नीचे लिखा होता था कि वह दिल्‍ली के किन सिनेमाघरों में चल रही है। मुझे सिनेमाघरों के नाम और उनकी गिनती करना अच्‍छा लगता था। पक्‍के तौर पर पढ़ने और गिनने का अभ्‍यास इससे होता रहा होगा। पर तब यह उद्देश्‍य तो कतई नहीं था। खबरें पढ़ने की तब समझ नहीं थी। हां बच्‍चों के पन्‍ने पर कहानी, पहेलियां, चुटकुले और क्‍या आप जानते हैं..जैसी चीजें पढ़ लेता था। यह अखबार से परिचय की शुरुआत थी। किताबों और कॉपियों पर कवर चढ़ाने के और अलमारियों में बिछाने के काम भी वह आता ही था। अखबार के कागज और स्‍याही की गंध अब भी नथुनों में भर उठती है।


साल भर बाद ही परिवार सबलगढ़ आ गया। यहां घर पर अखबार आता था। उन दिनों किसी घर में अखबार आना उस परिवार के पढ़े-लिखे होने का सूचक होता था। साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान तथा बच्‍चों की पत्रिका नंदन भी आती थी। साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान का एक-एक पन्‍ना चाहे समझ में आए या न आए मैं चाट जाया करता था। उसमें छपने वाली कहानियां तथा उपन्‍यास भी पढ़ डालता था। शिवानी के धारावाहिक उपन्‍यास उसमें छपते थे। उसमें बच्‍चों का पन्‍ना भी होता था। पीछे के आवरण के अंदर के पृष्‍ठ पर छपने वाली रवीन्‍द्र की चित्रकथा मुसीबत है..मुझे बहुत पसंद थी। हिन्‍दुस्‍तान का आवरण और बीच में चार रंगीन पृष्‍ठ होते थे। बीच के पृष्‍ठों पर कोई कविता तथा किसी नामी व्‍यक्ति या फिल्‍मी सितारे का पोस्‍टर होता था। विभिन्‍न अंकों से इन पृष्‍ठों को निकालकर मैंने इनका एक अलबम बनाया था। उसकी हर तस्‍वीर पर अपनी और से कोई कैप्‍शन या कविता मैंने उस पर लिखी थी। जब तक दीमक ने उसे चट नहीं कर लिया तब तक वह वर्षों मेरे पास रहा। नंदन तो खैर पढ़ ही लेता था। पर शायद यह मेरे लिए काफी नहीं था।


मैं आज जो भी हूं, उसके होने में स्‍कूल या कॉलेज की पढ़ाई-लिखाई का उतना हाथ नहीं है जितना स्‍कूल के बाहर अनजाने में हुए प्रयासों का है। मेरी स्‍कूल और कॉलेज की पढ़ाई इस कदर अव्‍यवस्थित थी कि उसके होने न होने का कोई अर्थ नहीं है। अनजाने में ही मुझमें पढ़ने की रुचि पैदा करने में पहले अखबार और फिर पुस्‍तकालयों का बहुत हाथ रहा। पढ़ते-पढ़ते ही लिखने की ललक भी पैदा हुई। और वह इतनी तीव्र थी कि आठवीं में ही मैंने नाम के साथ उत्‍साही उपनाम जोड़ लिया था।  


पढ़ने की ललक मुझे खींचकर ले गई कस्‍बे के एक वाचनालय में। यह बड़ों के लिए था। वहां एक बरामदे और उसके सामने बने चबूतरे पर शाम को एक दरी पर आठ-दस अखबार फैले रहते थे। मैं उन सबमें बस वैसी ही तीन-चार चीजें देखता था जैसी हिन्‍दुस्‍तान में देखा करता था। मुझे रोज-रोज अखबार के पन्‍ने पलटते हुए और उनमें कुछ गिनते हुए देखकर वहां देखरेख करने वाले ने समझा कि मुझे पढ़ना तो आता नहीं है, सो उसने मुझे वहां बैठने से मना कर दिया। पर मैं नहीं माना। तब एक दिन उसने मेरी परीक्षा ले डाली। उसने एक अखबार से एक पैरा पढ़ने के लिए दिया। मैंने वह पढ़कर उसे बता दिया। उसके बाद वह संतुष्‍ट हो गया। इसके बाद मैं नियमित रूप से वहां जाने लगा और अब अखबार में विभिन्‍न खबरें भी पढ़ने लगा। 


सबलगढ़ में घर किराये का था। रेल के डिब्‍बे की तरह। बाहर की तरफ जो कमरा था, उसकी बाहरी दीवार तीन दरवाजों से बनी थी और दरवाजे थे पटियों से बने। उनमें संध होती थी। एक दोपहर मैंने दरवाजे की संध में फंसा हुआ एक अखबार देखा। यह रोज सुबह आने वाले अखबार के अलावा था। यह शायद कोई स्‍थानीय अखबार था। मैंने अगले आधा-पौने घंटे में चार पन्‍ने का वह अखबार पूरा पढ़ डाला। अगली दोपहर दरवाजा बंद करके मैं अखबार की प्रतीक्षा करने लगा। पर अखबार नहीं आया। मैं रोज प्रतीक्षा करता, पर अखबार नहीं आता। और फिर एक दोपहर अखबार आया। तब मुझे समझ आया कि वह रोज का नहीं साप्‍ताहिक अखबार था। अब तक पढ़ने की अच्‍छी-खासी लत लग चुकी।


घर में खड़ी बोली में राधेश्‍याम कृत रामायण थी। गाहे-बगाहे उसे पढ़ डालता था। मां हरतालिका तीज का उपवास करती थीं, जिसमें पूरी रात उन्‍हें जागना होता था। तब यह राधेश्‍याम कृत रामायण बहुत काम आती थी। रामचरित मानस से पहला परिचय इसी रूप में हुआ था। मंदिरों में अखण्‍ड रामायण के आयोजन होते थे। वहां लगातार पढ़ने वालों की जरूरत होती थी। लगातार पढ़ने का कौतुहल एक-दो बार वहां भी खींचकर ले गया। घर में शाम को आरती होती थी, उस बहाने आरती संग्रह को उलटने-पलटने का मौका मिलता था। बाजार से किराना अक्‍सर अखबार से बने लिफाफों में आता। जब वे खाली हो जाते तो फेंके जाने से पहले खोलकर पढ़े जाते थे।     


यह जमाना था रानू और गुलशन नंदा के रोमांटिक और कर्नल रंजीत के जासूसी उपन्‍यासों का। रामकुमार भ्रमर और मनमोहन कुमार तमन्‍ना द्वारा डाकुओं की पृष्‍ठभूमि पर लिखे उपन्‍यास भी उन दिनों खूब लोकप्रिय थे। पिताजी को इनका शौक था। जब वे घर में नहीं होते तो इनके पाठक अपन होते। इन्‍हें पढ़ने का ऐसा चस्‍का लगा कि दसवीं तक पहुंचते-पहुंचते लगभग छह-सात सौ उपन्‍यास पढ़ डाले होंगे। उपन्‍यास पढ़ने का तरीका भी अलग था। मैं अंत के दस-पंद्रह पेज पहले पढ़ता, अगर उसमें कोई रोचकता नजर आती तो फिर उसे आरंभ से पढ़ता था। गर्मियों में जब स्‍कूल की छुट्टियां लग जातीं तो दोपहरी काटने के लिए आसपड़ोस के घरों से किताबें मांगने का सिलसिला शुरू होता। फिर जिसके घर से जो मिलता, वह अपन पढ़ ही डालते। इनमें उपन्‍यासों के अलावा गोरखपुर की गीता प्रेस की मासिक पत्रिका कल्‍याण भी होती थी और दिल्‍ली प्रेस की पत्रिकाएं भी। शिवानी, गुरुदत्‍त के उपन्‍यास भी मौजूद थे। लोटपोट, मायापुरी,धर्मयुग,माधुरी,रंगभूमि जैसी पत्रिकाएं भी।


पड़ती गई आदत पढ़ने की...  

1974 में परिवार इटारसी आ गया। मैं ग्‍यारहवीं में था। यहां पढ़ने के लिए आसपास जो मिला, वह था मनोहर कहानियां और सत्‍य कथाएं। इस दौरान वे किताबें भी हाथ आईं, जिन्‍हें पढ़ना हमारे लिए निषेध था, पर फिर भी हमने पढ़ डालीं। पराग भी मैंने यहीं देखी। अपनी पहली कहानी लिखकर पराग में यहीं से भेजी। हालांकि वह प्रकाशित नहीं हुई।


साल भर बाद मैंने खण्‍डवा के एक कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां के बाम्‍बे बाजार में प्रसिद्ध गायक किशोर कुमार के पैतृक घर के बगल में माणिक्‍य वाचनालय एवं पुस्‍तकालय है। माणिक्‍य वाचनालय बहुत बड़ा है, दो मंजिला। उन दिनों उसमें हिन्‍दी, अंग्रेजी,मराठी, गुजराती के दैनिक अखबार आते थे। हिन्‍दी की तमाम पत्रिकाएं जिनमें साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर फिल्‍मी पत्रिकाएं भी थीं। कॉलेज के बाद लगभग हर शाम मेरी इस पुस्‍तकालय में बीतती थी। दिल्‍ली प्रेस की सरिता, मुक्‍ता, टाइम्‍स प्रकाशन के दिनमान, धर्मयुग, माधुरी,सारिका और हिन्‍दुस्‍तान प्रकाशन का साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान, कादम्बिनी, भारतीय विद्याभवन की नवनीत, जागरण की कंचनप्रभा और माया प्रेस इलाहाबाद की माया, मनोहर कहानियां और तमाम अन्‍य पत्रिकाएं। मैं अपने साथ एक कॉपी रखता था, जो जरूरी लगता उसे कॉपी में उतार लेता। हां यहां किताबें घर ले जाकर पढ़ने की सुविधा तो थी, पर समय नहीं था।


अब तक पढ़ने के साथ-साथ लिखने की लत भी लग चुकी थी। मुक्‍ता के स्‍तंभों में कुछ अनुभव प्रकाशित हो चुके थे, बदले में कुछ अच्‍छी किताबें भी उपहार में प्राप्‍त हुईं थीं। किशोर उम्र के प्रेम का अहसास भी जागृत हो चुका था। नतीजा यह कि अभिव्‍यक्ति कविता के रूप में होने लगी थी। साल भर बाद मैं होशंगाबाद आ गया। अखबार तो घर में आता ही था। अखबार पढ़ने का चस्‍का कुछ ऐसा था कि कई बार सुबह ब्रश बाद में करता, पहले अखबार की सुर्खियां देख डालता। इसका एक कारण यह भी था कि उन दिनों संपादक के नाम पत्र लिखने का जुनून सवार था। लगभग हर रोज एक पोस्‍टकार्ड या अंतर्देशीय पत्र लिखा ही जाता था। तो सुबह सबसे पहले अखबार में अपना पत्र और उसके नीचे अपना नाम देखने की तमन्‍ना होती थी। शाम होते-होते आसपड़ोस में जो अखबार आते थे, वे भी मांगकर पढ़ डालता।


यहां भी मैंने दो वाचनालय एवं पुस्‍तकालय खोज लिए। एक था इतवारा बाजार में दुकानों के पीछे एक पुराना पुस्‍तकालय जिसे यहां की नगरपालिका संचालित करती थी। उसकी अलमारियों में किताबें पता नहीं कब से बंद थीं। वहां देखरेख करने वाले ने मेरे आग्रह पर कई अलमारियों को खोला। किताबों के अंदर लगी इश्‍यू स्लिप से पता चलता था कि कितने लोगों ने उसे पढ़ा है। अब तक मेरी रुचि थोड़ी परिष्‍कृत हो गई थी। पढ़ने के साथ-साथ लिखने में रुचि आरंभ से रही थी। अब रूझान साहित्य की ओर हो चला था। यह पुस्‍तकालय तो जैसे साहित्‍य का खजाना था। अज्ञेय, प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, वृंदावनलाल वर्मा, राहुल सांकृत्‍यायन, आचार्य चतुरसेन, यशपाल आदि  और बंगला लेखक शरत, बंकिम के हिंदी अनुवाद यहां उपलब्‍ध थे। सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना, भवानी प्रसाद मिश्र  के कविता संग्रह भी। कविता, कहानी, उपन्‍यास जो मेरे हाथ लगा, मैंने एक सिरे से पढ़ना शुरू कर दिया। वयं रक्षाम्, वैशाली की नगरवधू जैसे भारी भरकम उपन्‍यास जिन्‍हें पढ़ने में दस से बारह दिन लगे, मैंने यहीं से लेकर पढ़े। पर यहां पत्रिकाएं नहीं आती थीं। वे मिलीं मुझे जिला वाचनालय एवं पुस्‍तकालय में। नर्मदा किनारे मंगलवारा में बहुउद्देशीय शासकीय उच्‍चतर माध्‍यमिक शाला के परिसर में यह पुस्‍तकालय स्थित था। यहां से मैं किताबें इश्‍यू करवाकर घर भी ले जाता था।


मेरे पास घर में भी लगभग चालीस-पचास उपन्‍यास थे। उन सबको मैंने कवर चढ़ाकर, हरेक की जिल्‍द को धागे से सिल दिया था। मोटी किताबों को सिलना बहुत मुश्किल का काम होता था। इसके लिए मैं मोची से जूता सिलने वाला सूजा खरीदकर लाया था। उसके बाद भी मोटी किताबों को सिलने के लिए जुगत भिड़ानी होती थी। उसके लिए पहले कील और हथौड़े से किताबों की जिल्‍द पर छेद करता और फिर सूजे की मदद से उन्‍हें सिलता। पुरानी किताबों की दुकानों से भी किताबें खरीदने का चाव मुझे था। तब हिन्‍द पाकेट बुक्‍स दो-दो रुपए कीमत के उपन्‍यास छापता था और वे पुरानी किताबों की दुकानों में आधी कीमत में मिल जाते थे। कृश्‍न चंदर के बहुत सारे उपन्‍यास मैंने ऐसी ही दुकानों से खरीदे। ये सब किताबें गमिर्यों के अवकाश में आसपास के घरों के लोग पढ़ने के लिए मांगकर ले जाते थे। आप कह सकते हैं मेरे पास एक छोटा-मोटा पुस्‍तकालय था। उन दिनों किराए की लायब्रेरी का मोहल्‍ले में चलन था। चवन्‍नी-अठ्ठनी के किराए पर तरह-तरह की पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने को मिल जाती थीं। हालांकि मैं कभी भी ऐसी लायब्रेरी का सदस्‍य नहीं बना। न ही मैंने अपनी किताबें किराए पर दीं।


ऐसी लागी लगन...   

यह 1978 की बात है। तब तक मैं कॉलेज में स्‍नातक होने की कोशिश कर रहा था। होशंगाबाद के सतरास्‍ते पर पोस्‍ट आफिस से लगी एक आटा चक्‍की थी चन्‍द्रप्रभा फ्लोरमिल। यह मेरे एक मित्र संतोष रावत की ही थी, वही इसे चलाते थे। एमएससी,एलएलबी करने के बाद भी जब उन्‍हें कोई नौकरी नहीं मिली तो उन्‍होंने यह काम चुना। वे भी पढ़ने-लिखने में रुचि रखते थे। हमारे दो और साथी थे। हम चारों इस चक्‍की पर बैठते, बहसें करते, एक-दूसरे से किताबें और पत्रिकाएं मांगकर पढ़ते। अखबारों में सम्‍पादक के नाम पत्र लिखते। हम सब तरह-तरह की पत्रिकाएं पढ़ना चाहते थे। उन्‍हें हर माह व्‍यक्तिगत रूप से खरीदना हमारे लिए संभव नहीं था। किराए की लायब्रेरी में वे उपलब्‍ध थीं, पर जब तक हाथ में आतीं पुरानी हो चुकी होतीं। हम उन्‍हें ताजा-ताजा पढ़ना चाहते थे। तो हम चारों ने मिलकर एक पुस्‍तकालय बनाया-अंकुर पुस्‍तकालय। मिलकर पत्रिकाएं खरीदते और फिर बारी-बारी से उन्‍हें पढ़ते। पहल और सारिका मैं नियमित रूप से खरीदने लगा था।


1979 में नेहरू युवक केन्‍द्र में काम करना शुरू किया। केन्‍द्र के समन्‍वयक श्‍याम बोहरे स्‍वयं साहित्‍य में रुचि रखते थे। सो कार्यालय में भी एक छोटा सा पुस्‍तकालय था। यहां परिचय हुआ हरिशंकर परसाई की किताबों से। श्रीलाल शुक्‍ल के रागदरबारी से। यहीं मुझे मिली अब तक की सबसे प्रिय पुस्‍तक, यह है शरतचन्‍द्र के जीवन पर आधारित विष्‍णु प्रभाकर का उपन्‍यास आवारा मसीहा । मुझे याद है कि इसे पहली बार पढ़ने में चौदह दिन का समय लगा था। दिनमान यहां नियमित रूप से आता था। केन्‍द्र में ही काम करते हुए बनखेड़़ी की स्‍वयंसेवी संस्‍था किशोर भारती के सम्‍पर्क में आना हुआ। किशोर भारती में एक बड़ा पुस्‍तकालय था। इस पुस्‍तकालय में साहित्‍य का एक बड़ा खण्‍ड था। इसमें मुझे मिलीं उपेन्‍द्रनाथ अश्‍क और अमृतराय की किताबें।


1982 में एकलव्‍य का गठन हुआ और मैं नेहरू युवक केन्‍द्र से एकलव्‍य में आ गया। होशंगाबाद में उसका पहला ऑफिस खुला। इसमें हमने बच्‍चों के लिए एक पुस्‍तकालय की शुरुआत की। पहले ही साल गर्मियों की छुट्टियों में बच्‍चों की भीड़ देखने लायक थी। पुस्‍तकालय का समय शाम चार से छह बजे तक होता था। पर बच्‍चे हैं कि तीन बजे से ही जमा होने लगते थे। लम्‍बी लाइन लगती, लगभग साठ-सत्‍तर बच्‍चों की। हर पन्‍द्रह-बीस मिनट के बाद हरेक को एक नई किताब चाहिए होती थी। उन्‍हें संभालना मुश्किल हो जाता। पर किसी भी बच्‍चे को मना नहीं किया जाता था। आखिर किताबें तो पढ़ने के लिए ही होती हैं न। बाद में एकलव्‍य में बड़ों के लिए भी एक अध्‍ययन केन्‍द्र की शुरुआत की गई थी। होशंगाबाद के मालाखेड़ी कस्‍बे के पास एकलव्‍य के परिसर में यह आज भी जारी है। हालांकि पाठकों की संख्‍या सीमित ही है। 


1985 में जब चकमक शुरू हुई तो किताबों से बिलकुल अलग तरह का रिश्‍ता शुरू हुआ। एकलव्‍य के भोपाल कार्यालय में एक बहुत बड़ा पुस्‍तकालय था, आज भी है। इंटरनेट उस समय तक इतना विकसित और लोकप्रिय नहीं हुआ था। हर महीने चकमक के लिए सामग्री जुगाड़ने, तैयार करने के लिए घंटों इस पुस्‍तकालय में लगाने होते थे। जो भी पढ़ना, गंभीरता से पढ़ना। लेकिन जब से चकमक के संपादन से नाता टूटा है, तब से पढ़ना कम होता गया है, खासकर किताबें। लेकिन पढ़ने की इच्‍छा अंदर से इतनी बलवती होती है कि मैं आज भी कई सारी पसंदीदा पत्रिकाएं खरीदता हूं, भले ही उन्‍हें पूरा न पढ़ पाऊं। बरसों से खरीदी गईं कई पत्रिकाएं इस उम्‍मीद में जमा करके रखीं हैं कि कभी तो उन्‍हें पढ़ने का समय मिलेगा। इसी क्रम में किताबों का संग्रह भी है।


तो यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि पढ़ने-लिखने ही नहीं, मेरे पूरे व्‍यक्तित्‍व को विकसित करने में वाचनालय और पुस्‍तकालयों का बहुत बड़ा हाथ रहा है।          0 राजेश उत्‍साही
                                                                     
(यह लेख रूम टू रीड की अनियतकालीन पत्रिका भाषा बोली अंक 1, 2013 में प्रकाशित हुआ है। )

              

Wednesday, November 27, 2013

माँ का पत्र बच्‍चों के नाम




पत्र लेखिका बेजी जैसन
मेरे प्यारे बच्चो,
बस कल ही गुड़िया मुझसे यह सवाल पूछ रही थी, " मम्मी यौन उत्पीड़न का मतलब क्या होता है?"  मैंने खुद को संयत करने की कोशिश की थी। मैं अपने चेहरे पर जोएल(बेटे) की आँकती हुई नजर को महसूस कर सकती थी। वह मेरे भीतर चलते द्वन्द्व को भाँप रहा था। मैं मन ही मन जूझ रही थी। क्या मुझे तुम्हें इन बातों के बारे में जानकारी देनी चाहिए, तुम्हारी मासूमियत को इस तरह झकझोरना क्या जरूरी है या तुम्हें अपने आँचल में खींचकर इस दुनिया की हर चोट से सुरक्षित होने का विश्वास करवाना चाहिए।

किन्‍तु मेरी बच्ची, तुम्हारी दुनिया यहीं शुरु होती है, घर में। और मैं तुम्हें हर बात से सुरक्षित रखने में शायद हमेशा सफल ना हो सकूँ। मैं तुम्हें पहले भी इस उम्र और इसमें होने वाले शारीरिक, मानसिक और आन्‍तरिक बदलाव के बारे में बता चुकी हूँ। तुम्हारी कौतुक भरी आँखों में तब भी कई सवाल थे किन्‍तु तब तुमने मुझसे कुछ भी पूछा नहीं था।

शायद जिस जोश और भावुकता के साथ मैं समाचार चैनल उलट पुलट रही थी, और जिस तरह लड़की, सेक्स, यौन उत्पीड़न, खून, साजिश,  (और विभिन्‍न लोगों के नाम).........बार बार दोहराए जा रहा थे, तुमसे रहा नहीं गया। और यह मुश्किल सवाल तुमने पूछ लिया। काश मेरे पास ऐसी कोई परिभाषा होती, कोई सही गलत की निश्चित नियमावली होती , जिसे मैं तुम्हें सौंपकर आश्वस्त हो जाती।

किन्‍तु मेरे पास ऐसे कोई दिशानिर्देश नहीं हैं। और इसीलिए जरूरी है कि हम आपसी संवाद से अपनी समझ बना सकें।

तुम एक व्यक्ति हो। स्वतंत्र। तुम्हारे शरीर और तुम्हारे मन पर तुम्हारा ही अधिकार है। किसी को भी तुम्हारी अनुमति के बिना इन दोनों की सीमा लाँघने का अधिकार नहीं है। कौन कब तुम्हारी अनुमति के बिना यह सीमा पार कर रहा है, यह समझना तुम्हारे लिये हमेशा आसान नहीं होगा। मेरी एक छोटी सी बात गाँठ बाँध लो, जो स्पर्श, जो बात तुम्हें असहज करती हो, तुम्हें तुरन्‍त उससे दूर हो जाना चाहिए। कोई भी व्यक्ति जो तुम्हारी कद्र करता है, वह तुम्हारे मन, शरीर और भावना को आहत नहीं करना चाहेगा। दूर होने के बाद तुम शान्‍त मन से इस बात का विश्लेषण कर सकती हो। सबसे पहले खुद को सुरक्षित कर लेना जरूरी है। हर ऐसी ....और कैसी भी छोटी-बड़ी बात तुम मुझसे साझा करो। तुम मुझसे हर तरह की बात कह सकती हो। ऐसी बात भी जिसे सही शब्दों और वाक्य में तुम बाँधना नहीं जानती।

तुम्हारा अपने शरीर के निजी हिस्सों के संरक्षण को लेकर सजग होना सही ही नहीं, जरूरी भी है। यह तुम्हारा अधिकार है। इतना ही नहीं बल्कि तुम्हें गंदे स्पर्श, पकड़ और कुत्सित अश्लील इशारों की समझ भी बनानी होगी। और खुद को इनसे बचाना भी होगा। ऐसे किसी भी सन्दर्भ में तुम चिल्ला सकती हो, भीड़ इकट्ठा कर सकती हो, दूर हो सकती हो, अपने बचाव में ऐसे लोगों को आहत कर सकती हो। बिना हिचकिचाये या डरे तुम लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच सकती हो। अक्सर इस प्रकार के लोग कायर होते हैं और तुम्हारा इतना करना उन्हें दूर करने के लिए पर्याप्त होगा।

फिर भी जीवन में कभी, ऐसा दुर्योग तुम्हारे या किसी और के साथ घट जाए तो याद रखना इससे लड़की कभी भी कम खूबसूरत या पापिन या अधूरी या बेबस और बेचारी नहीं बनती। वह आहत तो हो सकती है किन्‍तु यह ऐसी कोई बात नहीं है जिसके लिए मुँह छिपाकर चलना पड़े।

तुमने छठी इंद्रीय के बारे में सुना होगा। यह वाकई में होती है। अपनी अन्तर्दृष्टि से दुनिया देखना सीखो। अपनी शंका और आभास को पहचानो। अगर तुम सजग रहीं तो सुरक्षित रहोगी।

तुम उम्र के जिस पड़ाव पर हो, वहाँ जीवन में सब धुँधला दिखता है। जीवन के रंग गहरे और स्वप्न सुन्‍दर। तुम अपने निर्णय समझ से कम और भावुकता से ज्यादा लेती हो। तुम्हारे लिए यह बात जानना और इस तथ्य को पहचानना जरूरी है। ताकि तुम अपने सभी निर्णय समझ की कसौटी में तोल सको।

तुम्हें मालूम ही होगा एक स्त्री और पुरुष , एक लड़के और लड़की के बीच आकर्षण होना स्वाभाविक है। हम खुद को समाज के नियमों से जोड़ते हैं। चेतना और विवेक से काम लेते हैं। हम अपने जीवन के लक्ष्य की तरफ केन्द्रित होते हैं। एक- दूसरे को सम्मान देते हैं और समानता की दृष्टि से देखते हैं।

फिर भी हो सकता है कि इस बीच तुम किसी की ओर आकर्षित हो जाओ। अपनी नजरों और अदाओं से ध्यान खींचना चाहो। तुम्हारा आकर्षण तुम्हारी आँखों, शब्दों, इशारों और संकेतों में झलकने लगे।ऐसे  में सचेत रहना, क्योंकि सामने वाला भी तुम्हारी ओर आकर्षित हो सकता है। उसकी अभिव्यक्ति का तरीका शायद तुम्हें स्वीकार्य ना हो। अगर तुम ऐसे आकर्षण में उलझना नहीं चाहतीं तो तुम्हें खुद को संयत तरीके से व्यक्त करना सीखना होगा। याद रखो अगर तुम मर्यादा की सीमा पार करोगी तो तुम्हें मर्यादा की उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए। ऐसे में कुछ घट जाने के बाद छूने-छेड़ने के सबूत ढूँढना फिजूल ही नहीं, बल्कि नैतिकता के तौर पर गलत भी।

और तुम जोएल, तुम्हें स्‍त्रीत्व का सम्मान करना आना चाहिए। तुम्हें भी सहज और असहज स्पर्श का फर्क मालूम होना चाहिए। अपने साथियों, बहन, उसकी दोस्तों, छोटों और बड़ों से व्यवहार करना आना चाहिए। कभी भी अपनी भाषा या व्यवहार से किसी को ठेस मत पहुँचाना।

काश, मैं तुम्हें आश्वासन दे सकती कि अगर तुम सज्जनता के नियमों का पालन करोगे तो तुम्हारे साथ हरदम सब ठीक होगा। आज के युग में जहाँ नारी कँधा से कँधा मिलाने की कोशिश कर रही है वहाँ रोज ऐसे नए सन्‍दर्भ बन सकते हैं। तुम उन्हे अपने सहकर्मी, सहयोगी, बॉस....किसी भी रूप में पा सकते हो। ताकत, आकर्षण, जरूरत, मोह, लोभ, संयोग, सन्‍दर्भ...इनके मिले-जुले पारस्परिक प्रभाव में अनेक संभावनाए बन जाती हैं। तुम्हारा विनम्र और सुशील बने रहना जरूरी है। कभी भी किसी भी व्यक्ति के निजी स्पेस का उल्लंघन मत करना। न शब्द से, न व्यवहार से। ऐसा कोई भी उल्लंघन भुलाया नहीं जाता है, देर-सबेर उसे दोषी ठहराया जाता है और सजा भी मिलती है। बरसों बाद हमारा समाज स्त्री पर हो रहे अत्याचारों की तरफ़ सजग हुआ है। अधिकतर नियमों का झुकाव स्त्री की तरफ  है। ऐसे में अगर तुम किसी संदिग्ध सन्दर्भ में पाए जाओगे, तो अपना निर्दोष होना साबित करना तकरीबन नामुमकिन होगा। मैं तुम्हें ऐसे सन्दर्भ से दूर रहने की ही सलाह दूगी।

यह ध्यान में रहे , अगर कोई तुम्हारे पिता की तरह लगता है तो वह तुम्हारा पिता नहीं हो जाता। कोई लड़की को देख तुम्हें अपनी बहन सी प्रतीत होती हो, वह बहन नहीं बन जाती।

खुद को समझो। पहचानो। अजनबी के साथ उन्हें, जानने, पहचानने का पूर्वाग्रह मत पालो। खुद का और दूसरों का सम्मान करो।

मैं दुनिया की समझ जिस तरह दे रही हूँ, यह काफी बदरंग और भयावह जगह प्रतीत होती है। पर ऐसा भी नहीं है। आज भी प्यार करना और पाना दुनिया की , जीवन की सबसे खूबसूरत अनुभूति है। पर तुम्हें स्नेह, प्रेम, काम, आसक्ति में फर्क पहचानना होगा।
जिस रूहानी मोहब्बत की बात तुम पढ़ते-सुनते हो, वह भी इस जीवन में सम्भव है। आगे जाकर तुम्हें उसका भी अनुभव होगा। किन्‍तु तब तक देह की उत्तेजना को प्यार समझने की भूल मत करना।

सरल सन्‍दर्भ में जीना आसान होता है। जटिल सन्‍दर्भ में विवेक का होना आवश्यक है। ऐसे में तुम्हें अपनी आवाज दबने नहीं देनी है। निडर और निर्भय होकर अपनी बात कहना। सही करने में, कहने में हिचकना मत।

सत्यनिष्ठा रखना। सत्य कहने और स्वीकार करने में संकोच मत करना। खुद के प्रति ईमानदार रहना।

मैं दुआ माँगती हूँ कि ऐसा भी हो जब तुम सही होने से ज्यादा उदार होने का चयन करो।

सजग रहना, समय को भांपने और सही निर्णय लेने में देर नहीं करना, न्याय करने और सजा देने में जल्दबाजी नहीं करना, और खुद से सवाल पूछते रहना। खुद के ग़लत होने पर वह भी स्वीकार करना।

गौरव और गर्व के साथ, हमेशा खुद से ईमानदार रहना।

सस्नेह

मम्मी

(बेजी जैसन की फेसबुक वॉल से उनकी अनुमति से साभार प्रकाशित। लेखिका सूरत,गुजरात में रहती हैं और पेशे से बाल रोग विशेषज्ञ हैं।)