Thursday, January 24, 2013

इसे क्‍या नाम दें..!



किशोरों का एक दल हवाओं और ठिठुरा देने वाले मौसम से जूझते हुए एक खड़ी चट्टान पर रेंगता हुआ ऊपर चढ़ रहा था। ऊँचे हिमालय के पिछवाड़े एक सँकरी चट्टानी दरार के आर-पार हवाएँ साँय-साँय करते हुए गुजर रही थीं। उस खड़ी चट्टान पर टिके-टिके जब वे एक दूसरे को दुफन्दी गांठ लगाते हुए रस्सी से खुद की सुरक्षा का इन्तजाम कर रहे थे, जज्बात अपने उफान पर थे, उत्तेजना भी अपने शबाब पर थी। तभी एक पर्वतारोही जोर से चिल्लाया, “टेंशन!”, यानी मुझे कसके पकड़े रहो, वर्ना मैं गिर सकता हूँ!और सब-के-सब उसकी मदद को जुट गए। होंठ भिंच गए, शरीर सुन्न पड़ गए और चेहरे सुर्ख हो चले। अगले पाँच मिनट सन्नाटे में बीते। इसी दौरान कगार पर लटका वह संकटग्रस्त पर्वतारोही अपने पूरे जीवट के बूते कगार के ऊपर जा पहुँचा। उसकी इस कोशिश के पूरा होते ही पूरी टीम खुशी से सराबोर हो गई। सबके चेहरों से राहत और उल्लास छलके जा रहे थे। अन्दर का तूफान अब थम चला था। उनका सहपाठी सुरक्षित था और वे अपनी संयुक्तविजय मना रहे थे। अपने पीछे खड़ी एक लड़की को मैंने उसकी दोस्त से यह कहते हुए सुना, “कितना अजीब है न - शशांक को कगार के ऊपर चढ़ते देख मैंने राहत महसूस की। इस ट्रिप के पहले मैं उसे अपने आसपास बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। लेकिन आज, उसे सुरक्षित देख मुझे बहुत अच्छा लगा।
उसकी इस बात से सहसा मुझे कर्ट हाह्न की बात याद हो आई, “संकट में पड़े अपने किसी साथी की मदद करने का अनुभव, या ऐसी मदद कर पाने के लिए हासिल यथार्थवादी प्रशिक्षण का अनुभव भी, एक युवा मन के भीतरी शक्ति-सन्तुलन को कुछ इस तरह बदलने लगता है कि संवेदना, प्रधान प्रेरणा बन जाती है।वाकई कितनी सही थी यह बात!
(अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित लर्निंग कर्व पत्रिका के 'शिक्षा में खेल' अंक में प्रकाशित निधि तिवारी के लेख से साभार।)
                                                             0 राजेश उत्‍साही

Saturday, January 5, 2013

कल, आज और कल



यह जैसे कल ही की तो बात है। कुछ भी तो नहीं बदला है।
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यह 1978 की फरवरी की रात है। बहुत ठंड है। बाहर भी और घर में भी। रेल्‍वे कॉलोनी में एस्बस्‍टास की छत वाले इस घर में तो और भी ज्‍यादा ठंड लगती है।  छोटी बहन रीता को अस्‍थमा की शिकायत है। ठंड बढ़ती है तो उसकी तकलीफ भी बढ़ने लगती है। शाम से बढ़ने लगी है। कोयले की सिगड़ी के चारों तरफ जमा हम सब भाई-बहन रीता को संभालने की कोशिश कर रहे हैं। दादी कह रही है, अरे विक्‍स मल दो छाती में। न हो तो जरा ब्रांडी की मालिश कर दो। अभी आराम लग जाएगा। मां कह रही हैं, मुन्‍ना कुछ कर भैया। इसकी हालत ठीक नहीं है।

पिताजी घर में नहीं हैं। घर में क्‍या वे शहर में ही नहीं हैं। वे अपनी एक ट्रेंनिग के सिलसिले में भुसावल गए हैं।  

रात के आठ बज रहे हैं। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है। ठंड के कारण सब लोग सई शाम से घरों में बंद हो जाते हैं। मैं साइकिल लेकर अपने एक दोस्‍त से सलाह करने निकल पड़ा हूं। उसने सलाह दी है कि रीता को अस्‍पताल ले जाना चाहिए, तुरंत सरकारी अस्‍पताल। अब प्राइवेट अस्‍पताल तो कोई है ही नहीं।  

मैं दोस्‍त के साथ घर वापस आता हूं। तांगा करता हूं। मां और मैं दोनों रीता को तांगे में बिठाकर जिला चिकित्‍सालय ले जा रहे हैं। अस्‍पताल में जगह नहीं है। पहली मंजिल के बरामदे में उसे फर्श पर भरती कर लिया गया है। डॉक्‍टर ने परचा बना दिया है। नर्स ने दवा बाजार से लाने के लिए परची बना दी है।

मां और दोस्‍त को वहां छोड़कर, दवा लेने दौड़ पड़ा हूं। दवा की दुकान में भीड़ है। दुकानदार कह रहा है, जरा सब्र रखो। जल्‍दी है तो दूसरी दुकान पर चले जाओ।

लौटकर देखता हूं रीता चुपचाप लेटी है। ऑक्‍सीजन की नली उसकी नाक में ठुंसी हुई है। दोस्‍त अपने दोनों हाथ सीने पर बांधकर एक किनारे खड़ा हुआ है। दोस्‍त बताता है नली की अकबकाहट ने रीता की सांस को और उखाड़ दिया था। और वह ऐसी उखड़ी कि उसके प्राण ले उड़ी। मां, उसके सिरहाने बैठीं अपनी रूलाई रोकने की कोशिश कर रही हैं।

डाक्‍टर कह रहा है..घर ले जाओ..कुछ नहीं बचा है अब। रोना,गाना घर जाकर करो। यहां और मरीजों को तकलीफ होगी।

मैं अपनी आंख में अंगारे भरे, तेरह साल की रीता की ठंडी देह को अपने दोनों हाथों में उठाए सीढि़यां उतर रहा हूं। मां रेलिंग का सहारा लेकर उतर रही हैं।

दोस्‍त सीने पर हाथ बांधे आगे-आगे दूरी बनाकर चल रहा है।  

मृतदेह को ले जाने के लिए तांगेवाले भी तैयार नहीं हैं। मां को रीता के शव के पास बिठाकर कुछ इंतजाम करने निकलता हूं। आखिर एक परिचित का हाथ ठेला मिलता है, उसी पर उसका शव लेकर लौटता हूं।
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कल की तो बात है।
इन बीते सालों में कितनी बार यह घटना याद आती रही। हर बार मैं सोचता हूं, आखिर दोस्‍त ने रीता की मृत देह को हाथ क्‍यों नहीं लगाया? उसे अस्‍पताल की पहली मंजिल से नीचे लाने में मेरी मदद क्‍यों नहीं की? क्‍यों नहीं उसने डाक्‍टर को उसकी असंवेदनशीलता के लिए बुरा-भला कहा? क्‍यों उसने किसी तांगे वाले को डांटकर अपने कर्त्‍तव्‍य की याद नहीं दिलाई? क्‍यों नहीं वह कुछ और इंतजाम होने तक वहां रूका ?

आज फिर से सोच रहा हूं। जैसे यह कल की नहीं आज ही की तो बात है।                            0 राजेश उत्‍साही
                                                             
  

Tuesday, January 1, 2013

नीमा के बहाने



                                   मैसूर वृदांवन गार्डन : जून 2010
मित्रो आज मेरी पत्‍नी नीमा का जन्‍मदिन है। दो साल पहले अपने विवाह की पच्‍चीसवीं वर्षगांठ पर मैंने नीमा को केंद्र में रखकर एक लम्‍बी कविता लिखी थी। यह कविता चार भागों में मेरे कविता ब्‍लाग गुलमोहर पर प्रकाशित हुई थी। यह कविता मेरे पहले संग्रह वह जो शेष है.. में भी संकलित है।

हम आज जिस अजाब से गुजर रहे हैं, उसमें चल रही बहस के बीच मैं अपनी पत्‍नी में बसी स्‍त्री को किस तरह देखता हूं, यह इस कविता में कहने की कोशिश की है। आपमें से बहुत से साथियों ने उस समय भी इसे पढ़ा था, अपनी प्रतिक्रिया दी थी। एक बार फिर मैं उस कविता को यहां आप सबके सामने रख रहा हूं। 


यह कविता नीमा के प्रति मेरी एक सार्वजनिक आदरांजलि है। बहुत संभव है इसका कोई साहित्यिक महत्‍व न हो।



मेरी
जीवनसंगिनी
यानी कि पत्‍नी का नाम
निर्मला है
यह असली नाम है
बदला हुआ या काल्‍पनिक नहीं
पर हां प्‍यार से
या समझ लीजिए सुविधा से
मैं नीमा कहकर बुलाता हूं।