Saturday, January 4, 2014

जाते-आते साल का ‘संदेश’


2013 का अंत जिस सुखद ढंग से हुआ, उसका जिक्र मैंने फेसबुक पर कुछ इस तरह से किया था-
बीते इतवार (दिसम्‍बर के आखिरी इतवार) को सुधा भागर्व जी से मिलना हुआ। वैसे हम लोग हर दो-तीन महीने में मिलते रहते हैं। हर मुलाकात में साहित्‍य पर उनसे चर्चा होती है। पर इस बार यह खास काम था कि उनकी रचनाओं को पढ़कर अपनी समीक्षात्‍मक राय देनी थी। (उनसे पहली मुलाकात के बारे में आप यहां पढ़ सकते हैं।)

तो लगभग तीन घंटे की बैठक में मैंने उनकी ताजा तरीन पांच बाल कहानियां, दो लघुकथाएं, एक बाल उपन्‍यास, कनाडा यात्रा के कुछ अंश और डायरी के कुछ अंश पढ़े और अपनी राय दी। सुधा जी की सबसे अच्‍छी बात यह है कि वे एक अच्‍छे विद्यार्थी की तरह पूरी बात को ध्‍यान से सुनती हैं। और जो बातें उन्‍हें उचित लगती हैं, उसे स्‍वीकार भी करती हैं। इस बार मेरी उपलब्धि यह रही कि बाल कहानियों, लघुकथाओं और बाल उपन्‍यास पर मेरी राय उन्‍हें उचित जान पड़ी। उनकी कनाडा यात्रा के संस्‍मरण इतने जीवंत हैं कि मुझे लगा उनकी तो तुरंत ही कोई किताब प्रकाशित होनी चाहिए।

नया सीखने और अपनी रचनाओं में नए-नए प्रयोग करने का जो जज्‍बा उनमें दिखता है उससे यह कहीं महसूस ही नहीं होता कि वे सत्‍तर पार कर चुकीं हैं।

बहरहाल इस बार दोपहर के स्‍वादिष्‍ट भोजन (जिसमें भजिए वाली कढ़ी भी थी) के अलावा आते हुए बरस के लिए उनकी शुभकामनाएं भी मिलीं..उनकी बनाई इस पेंटिंग के साथ। हां..वे एक चित्रकार भी हैं। शुक्रिया सुधा जी।

नए साल के पहले ही दिन उनका एक ईमेल आया... आपने फेसबुक पर सब अच्छा -अच्छा ही लिखा जो मुझे भी पसंद आया। पर...पर एक चूक हो गई। आप अपने हिस्से का संदेश खाना भूल गए। 

सचमुच मैं संदेश खाना भूल गया था। पर उनका यह संदेश पढ़ते हुए तो मैं एक क्षण के लिए तो घबरा गया कि मैं कहां चूक गया। पर जब अगली लाइन पढ़ी तो जान में जान आई। यह नहीं मालूम था कि संदेश खाने का मौका एक बार फिर से इतनी जल्‍दी मिलेगा।

दिल्‍ली के कथाकार और ब्‍लागर मित्र बलराम अग्रवाल दिसम्‍बर से बंगलौर में विराजमान हैं। उनकी बिटिया और बेटा बंगलौर में ही है। जब वे बंगलौर आ रहे थे, तो हमारी योजना बनी थी कि किसी शानिवार की शाम वे मेरे घर आ जाएंगे और फिर हम आराम से बैठकर साहित्‍य पर गप्‍प-सड़ाका करेंगे, मिलकर खाना पकाएंगे( बलराम जी स्‍वादिष्‍ट सब्जियां बनाते हैं) और जाहिर है कि खाएंगे।
वे सुधा जी के भी परिचित हैं। मेरी उनसे पहली मुलाकात कैसे हुई इसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं। लेकिन उनकी पारिवारिक व्‍यस्‍तताओं के चलते मुलाकात का संयोग नहीं बन रहा था। हालांकि वे 15 जनवरी तक बंगलौर में रहने वाले हैं। पर इस बीच मेरा उदयपुर की यात्रा का कार्यक्रम बन गया। बलराम जी ने तय कि अब कुछ भी हो जाए, मुलाकात करनी ही है..सो वे 2 जनवरी को सुधा जी के आशियाने पहुंच गए। और फिर दोनों ने मिलकर मेरे लिए फरमान जारी किया कि हम दोनों के अलावा संदेश आपका इंतजार (साल भर से) कर रहा है..तुरंत हाजिर हों।

अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जब दो बड़े मिलकर फरमान जारी करें, तो उसकी अवहेलना करने से पहले चार बड़ी बातें भी सोचनी पड़तीं हैं। अच्‍छी बात यह रही है कि चूंकि मुझे 3 जनवरी को यात्रा पर निकलना था, सो मैं तैयारी आदि करने के लिए 2 जनवरी को घर से काम कर रहा था। सुधा जी का घर मेरे घर से ज्‍यादा दूर नहीं है। तो मुझे हाजिरी लगाने में ज्‍यादा मुश्किल पेश नहीं आई।
जब तक मैं पहुंचता तब तक सुधा जी और बलराम जी अपनी गप्‍प का कोटा पूरा कर चुके थे। वहां पहुंचकर संदेश प्राप्‍त हुआ कि संदेश तो मिलेगा, लेकिन रात के खाने के बाद। बहरहाल अपन को क्‍या, नेकी और पूछ-पूछ।

तो फिर जैसा कि होता है पत्रिकाएं, ब्‍लाग, फेसबुक से लेकर एक-दूसरे के फेस पर आते-जाते हाव-भावों पर हमारी चर्चाएं चलती रहीं और बीच में सुधा जी की चाय और वाय भी। इस बीच दिल्‍ली विधानसभा में घमासान मचा हुआ था। कहीं से वह भी हमारी चर्चा में आ गई। यह देखने के लिए कि वहां क्‍या हो रहा है, टीवी खोला गया। अरविंद केजरीवाल जवाब दे रहे थे..मत विभाजन हुआ..और आप की सरकार बन गई। अब आप कह सकते हैं कि संदेश इस मौके के लिए बचा हुआ था।  



बलराम जी और मैं चर्चा में व्‍यस्‍त थे, सुधा जी रसोई में बिला गईं। आदत से मजबूर अपन से नहीं रहा गया, हम यह कहते हुए कि कोई मदद करनी हो तो बताइए, रसोई में पहुंच गए। बलराम जी कहां पीछे रहने वाले थे। वे तो कथा के साथ-साथ खाना बनाने में भी उस्‍ताद हैं। देखा कि वहां चूल्‍हे पर कढ़ाई चढ़ी हुई है, आटा गुंथा हुआ रखा है। समझते देर नहीं लगी कि पूड़ी बनाने की तैयारी है। सुधा जी ने बाकी की लगभग व्‍यवस्‍था पहले से कर ली थी। बलराम जी को आगे करके अपन पीछे खिसक लिए। असल में फोटो भी तो खींचनी थीं। अब दो से ज्‍यादा लोगों की तो वैसे भी वहां जरूरत नहीं थी। तो सुधा जी ने पूडि़या बेलीं और बलराम जी ने तलीं..और हम तीनों के पेट में जाकर वे गलीं। उनके साथ पनीर, मटर और गोबी-आलू की जायकेदार सब्‍जी थी। पूडि़या डकारने के बाद आइसक्रीम का ऑफर भी था। पर कम्‍बख्‍त गले के कारण अपन इसका फायदा नहीं उठा पाए। दोनों ने हमें चिढ़ा-चिढ़ाकर आइसक्रीम के चटकारे लिए। पर हम कहां पीछे रहने वाले थे...हमारे पास संदेश जो था।


चर्चा,परिचर्चा, बातें, गप्‍प और खाना सब कुछ का कोटा अब समाप्‍त हो चुका था और समय का भी। वह कह रहा था कि अब सुधा जी के आराम का समय है..आप दोनों महानुभाव यहां से खिसक लो। हमने समय की बात मानते हुए सुधा जी से औपचारिक विदा ली। इस सुखद मुलाकात, भोजन और संदेश के लिए उन्‍हें एक अदद धन्‍यवाद दिया और वहां से दफा हो लिए।

जैसा कि पहले से तय था, बलराम जी रात हमारे डेरे में बिताने वाले थे, सो हम कुछ रास्‍ता बस से और कुछ कदमों से तय करते हुए हलनायकनहल्‍ली के अपने डेरे में पहुंचे..और कुछ ही समय बाद एक-दूसरे को शुभ रात्रि बोलकर निंदिया रानी से मिलने चले गए। 
                                               0 राजेश उत्‍साही