Thursday, July 12, 2012

दारासिंह के बहाने



                                                                                                         गूगल से साभार 

उन दिनों यानी 1970 के आसपास मध्‍यप्रदेश के मुरैना जिले के सबलगढ़ कस्‍बे में रहता था। कस्‍बे में केवल एक सिनेमाघर था जिसे हम लक्ष्‍मी टॉकीज के नाम से जानते थे। (इंटरनेट पर सर्च करने से पता चलता है कि वह अब भी है।) जब भी कोई नई फिल्‍म लगती, एक साइकिल रिक्‍शा कस्‍बे की गलियों में घूमता नजर आता। रिक्‍शे के दोनों तरफ दो छोटे होर्डिंग लगे होते और उस पर फिल्‍म के पोस्‍टर। अंदर बैठा एक आदमी लाउड स्‍पीकर पर फिल्‍म के बारे में, उसके अभिनेता और अभिनेत्री के बारे में अपनी स्‍टायलिश आवाज में बताता। वह उन दिनों के लोकप्रिय एनाउंसर अमीन सयानी से अपने आपको कम नहीं समझता था। जब बोलते-बोलते थक जाता तो ग्रामोफोन पर फिल्‍म के गाने भी बजा देता। सबलगढ़ ही नहीं हर कस्‍बे में लगभग इसी तरह फिल्‍म का प्रचार किया जाता था। रिक्‍शे को देखते ही पहले हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते फिल्‍म के परचे पाने के लिए और उसके बाद दौड़ पड़ते टॉकीज की ओर वहां लगे बडे होर्डिंग को देखने के लिए।


आमतौर पर फिल्‍म के दो ही शो होते थे एक शाम छह बजे और एक रात नौ बजे। किसी-किसी फिल्‍म का मैटनी शो भी रखा जाता। शो के कुछ आधा घंटे पहले से टॉकीज में लाउड स्‍पीकर पर फिल्‍मी गाने बजने लगते, जो इस बात का संकेत देते थे कि टिकट खिड़की खुल गई है। फिल्‍म शुरू होती तो गाने बंद हो जाते। रात के शो में भी यही होता था। लेकिन तब मतलब होता था कि पहला शो छूटने वाला है। दर्शक गाने की आवाज सुनने के बाद ही घर से निकलते। कस्‍बा इतना छोटा था कि उसके किसी भी कोने से अधिक से अधिक बीस मिनट में टॉकीज तक पहुंचा जा सकता था। लक्ष्‍मी टॉकीज के आपरेटर को फिल्‍म ‘गोरी’ का सुनीलदत्‍त और मुमताज पर फिल्‍माया और मोहम्‍मद रफी की आवाज में गाया गाना ‘दिल मेरा तुम्‍हारी अदाएं ले गईं,’ शायद बहुत पसंद था। क्‍योंकि यह गाना जरूर बजता था।

तब मैं छटवीं में था। मुझे हमेशा दारासिंह की फिल्‍म का इंतजार रहता। क्‍योंकि दारासिंह की फिल्‍म देखने के लिए घर से खुली छूट थी। दूसरे शब्‍दों में मारधाड़ वाली फिल्‍में हमें अच्‍छी लगती थीं और उन्‍हें हम देख सकते थे। उन दिनों फिल्‍म में दारासिंह का मतलब ही मारधाड़ होता था। कोई अन्‍य फिल्‍म होती तो पिताजी तय करते कि वह हम देख सकते हैं या नहीं। हालांकि डकैतों की कहानी पर बनी फिल्‍में भी देखने की अनुमति मिल जाती थी। उन्‍हीं दिनों ‘रेश्‍मा और शेरा’ फिल्‍म आई थी। फिल्‍म में वहीदा रहमान, सुनीलदत्‍त ,विनोद खन्‍ना और रंजीत की मुख्‍य भूमिकाएं थीं। दो दिन बाद पिताजी भी फिल्‍म देखकर आए और आते ही उन्‍होंने सवाल दागा, ‘तुम यह फिल्‍म देखने क्‍यों गए।’ असल में फिल्‍म में पद्मा खन्‍ना पर फिल्‍माया गया आशा भोंसले की आवाज में एक उत्‍तेजक गाना था। गीत के बोल थे ‘एक तो ये भरपूर जवानी, ऊपर से तन्‍हाई, तौबा तौबा मेरी तौबा।’ आप समझ ही सकते हैं पिताजी को किस बात का एतराज रहा होगा।

लेकिन जब मैं ग्‍यारहवीं में था, तो ‘गुप्‍तज्ञान’ फिल्‍म आई थी। तब पिताजी ने खासतौर पर हिदायत दी थी कि यह फिल्‍म मैं जरूर देखने जाऊं। यह भी कहा था कि अपने दोस्‍तों को भी साथ ले जाऊं। फिल्‍म कुछ हद तक किशोर उम्र की यौन समस्‍याओं पर रोशनी डालती थी।

तो बात दारासिंह की हो रही थी। लक्ष्‍मी टॉकीज में दो इंटरवल होते थे। क्‍योंकि तब फिल्‍में छोटी-छोटी रीलों में भरी होती थीं। ये रीलें एक पेटी में भरकर रेल से आती थीं। हम कई बार रेल्‍वे स्‍टेशन पर यह देखने जाते थे कि किस फिल्‍म की पेटी आई है। इन रीलों को चलाने के लिए एक बड़ी रील पर लपेटा जाता था। लेकिन यह रील भी इतनी बड़ी नहीं होती थी कि सारी छोटी रीलें उस पर एक बार में आ जाएं। एक बार ऐसा हुआ कि फिल्‍म की अंत वाली रीलें पहले इंटरवल के बाद ही दिखा दीं। फिल्‍म थी ‘चांद पर चढ़ाई’। पहले तो कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जब समझ आया तो पब्लिक ने हल्‍ला मचाना शुरू किया। ऑपरेटर को अपनी गलती पता चली। उसने रीलों को सही क्रम में लगाया और आखिरी भाग एक बार फिर से दिखाया।

यह दौर था जब हम देखी हुई फिल्‍मों की गिनती रखते थे। तो मेरे हिसाब से मैंने ऐसी साठ फिल्‍में देखीं जिनमें दारासिंह हीरो थे। ये लगभग सब श्‍वेत श्‍याम फिल्‍में ही थीं। पंजाबी उच्‍चारण वाली हिंदी में उनकी संवाद अदायगी ऐसी थी कि कई बार कुछ समझ ही नहीं आता कि वे क्‍या बोल रहे हैं। लेकिन सुनने की जरूरत भी नहीं होती थी। उसके लिए उनके हावभाव ही पर्याप्‍त होते थे। विलेन को पड़ते हुए मुक्‍के के साथ स्‍क्रीन पर आवाज आती थी ढिशुम ढिशुम। साफ समझ आता था कि कोई मुंह से बोल रहा है। उधर स्‍क्रीन पर आवाज आती और इधर हॉल में चारों तरफ दर्शक ढिशुम ढिशुम चिल्‍लाते।  

फिल्‍म देखने का मजा तो था ही उससे भी ज्‍यादा मजा आता था अगले दिन अपने दोस्‍तों को फिल्‍म की कहानी विस्‍तार से सुनाने में। दोस्‍तों के बीच भी इस बात की होड़ लगती कि कौन पहले देखकर आता है। और जब कभी ऐसा होता कि दो लोग एक साथ देखकर आए हैं तो वे एक-दूसरे को बीच बीच में काटते हुए कहानी सुनाना जारी रखते।

दारासिंह के समकालीन एक और पहलवान थे चंदगीराम। अपन पढ़ने में बहुत कमजोर थे, सो अक्‍सर पिताजी से यह जुमला सुनने को मिलता रहता था कि, ‘अगर पढ़ना-लिखना नहीं है तो कुछ वर्जिश-फर्जिश करो और दारासिंह-चंदगीराम की तरह नाम कमाओ।’ दारासिंह का नाम सुनकर तो आंखों में चमक आ जाती, अपने आपको फिल्‍म के परदे पर देखने लगते। पर चंदगीराम का नाम सुनते ही सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती। अपन दोनों ही नहीं बन सके। और जो बन सके उसी की बदौलत दारासिंह को याद कर रहे हैं।                                                                          0 राजेश उत्‍साही  


7 comments:

  1. राजेश जी, ऐसे संस्मरण पढ़ना मुझे कितना अच्छा लगता है बता नहीं सकता आपको....दारा सिंह जी को मैंने पहली बार देखा था मर्द फिल्म में...उसके पहले बस कहानियां सुनता था उनकी...और पहली बार उन्हें परदे पर देख कर कितनी खुशी हुई थी ये मैं बता नहीं सकता...बचपन में वो फिल्म देखी थी मैंने और उसी समय वो मेरे सबसे बड़े हीरो बन गए थे...दारा सिंह के निधन की जब समाचार मिली तब सच में लगा की मेरा एक हीरो चला गया...

    आपसे एक आग्रह है की आपने जो जिक्र किया है की फ़िल्में आप कैसे देखते थे...बचपन में क्या उत्साह रहता था फिल्मों के देखने के लिए...उसके बारे में भी एक पोस्ट जरूर लिखिए...अगर समय मिले आपको तो....
    मुझे वो सब सुनना बड़ा अच्छा लगता है की उन दिनों लोगों का फिल्मों के प्रति किस तरह का उत्साह था...जैसे कौन सी फिल्म की रील आई है उसे देखने के लिए रेलवे स्टेशन जाना या फिर दोस्तों में फिल्म की कहानी सुनानी की होड़ लगना..ऐसा अब कहाँ होता है....

    बहुत पसंद आई ये पोस्ट मुझे...

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  2. किसी फिल्म सी ही फिल्म देखने की रोचक कथा...ये सब नया था मेरे लिए...
    हमने तो रामायण के हनुमान रोल में ही दारा सिंह को देखा...पर उनकी स्टंट फिल्मो की चर्चा खूब सुनी थी...अब तो पता भी चल गया बच्चों/किशोरों के बीच कितने लोकप्रिय थे वे.
    विनम्र श्रद्धांजलि

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  3. चंदगीराम भी आए एकाध फिल्‍मों में.

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  4. विनम्र श्रद्धांजलि..

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  5. हमने भी अपने बचपन से बड़े होने तक दारा सिंह की कई फिल्मे देखी है , नहीं थियेटर में नहीं दूरदर्शन की कृपा से टीवी पर देखा करते थे , मुमताज के साथ ही उनकी ज्यादातर फिल्मे थी | पर उनकी शुरू की फिल्मो से लेकर उनकी आखरी फिल्म जब वी मेट तक उनका स्टाइल हमेसा ही एक जैसा था कड़क पहलवान वाली | फेसबुक पर उन्हें श्रधांजलि देते हुए एक कार्टून चल रहा है की स्वर्गके द्वार पर स्वयं हनुमान जी उनका स्वागत करने के लिए दौड़ कर आगे बढ़ रहे है, मुझे वो अच्छा लगा |

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  6. बेहतरीन यादें....फिल्मी परदे ने कई लोगो से जुड़ने का जो एहसास भारतीयों को दिया है..वो बेहतरीन है।

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  7. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
    स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत
    में पंचम का प्रयोग भी किया
    है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.
    .. वेद जी को अपने संगीत
    कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती
    है...
    My web site हिंदी

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