इसे संयोग कहूं या दुर्योग
कि लगभग 18 साल पहले मैं जयपुर में श्रीप्रसाद जी के साथ था। और 12 अक्टूबर की
शाम टोंक से जयपुर पहुंचा तो संदीप नाईक ने फोन पर यह सूचना दी कि श्रीप्रसाद जी
नहीं रहे। उनके पास भी यह सूचना एकलव्य के गोपाल राठी के मेल से पहुंची। पिछले एक
हफ्ते से इंटरनेट से दूरी सी बनी हुई थी,इसलिए बहुत नियमित रूप से मेल देख नहीं पा
रहा था। गोपाल का मेल मुझे भी आया था, खोलकर देखा तो उनके मेल पर एक और लिंक थी,
रमेश तैलंग जी के ब्लाग नानी की चिट्ठियां की। वहां इस बारे में जो जानकारी थी
उसके अनुसार उन्हें प्रकाश मनु जी ने फोन करके इस दुखद खबर के बारे में बताया था।
श्रीप्रसाद जी दिल्ली आए थे, अपने हृदय रोग की चिकित्सा के सिलसिले में। संभवत:
उन्हें वहां दिल का दौरा पड़ा और वे सबसे विदा ले गए। (फोटो रमेश तैलंग जी के ब्लाग से साभार।)
एकलव्य छोड़ने के
बाद से पिछले लगभग तीन साल से मेरा उनसे नियमित संपर्क नहीं रहा था। लेकिन उसके
पहले उनसे जो संबंध था, वह लगभग बीस साल का रहा होगा।
मुझे याद पड़ता है,
उनसे पहली मुलाकात 1987 में दिल्ली में मस्तराम कपूर द्वारा आयोजित बालसाहित्य
के एक कार्यक्रम में हुई थी। जिसमें निरंकार देव सेवक और हरिकृष्ण देवसरे जी भी
थे। उसके बाद चकमक के कारण उनसे जो संबंध बना वह अब तक जारी है। 1994 में कानपुर के
राष्ट्रबंधु जी ने उनकी संस्था अखिल भारतीय बाल कल्याण परिषद की ओर से कई अन्य
लोगों के साथ उन्हें तथा मुझे भी सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया था।
कार्यक्रम राजस्थान पत्रिका के साथ संयुक्त रूप से जयपुर में आयोजित किया गया
था। यात्रा का कार्यक्रम कुछ ऐसा बना कि आगरा से हम से दोनों एक ही बस में जयपुर
आए थे। और फिर दो दिन साथ ही रहे। बल्कि एक दिन बरकतनगर में शशि सबलोक (आजकल चकमक
में संपादकीय टीम की सदस्य हैं) और विजय विद्रोही(शशि के भाई) के घर में
साथ-साथ रहे थे।
फिर बीजापुर,कर्नाटक
में आयोजित एक बालसाहित्य कार्यक्रम में हम साथ-साथ थे।
1997 के आसपास उनके
सुपुत्र आनंद वर्द्धन की नियुक्ति महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में भोपाल
में हुई। तब तक वे भी वाराणसी के डॉ.सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय,वाराणसी से प्राध्यापक
के पद से सेवानिवृत हो चुके थे। उसके बाद तो वे लगभग हर वर्ष कम से कम एक महीने के
लिए भोपाल प्रवास पर आ जाते थे। जब समय होता तो वे एकलव्य के कार्यालय आ जाते, और
कभी मैं उनके घर पहुंच जाता। सफेद झक कुर्ता और धोती उनका एक मात्र लिबास था। सुबह
लगभग दो घंटे नियमित रूप से लिखना उनकी दिनचर्या में शामिल था।
बालसाहित्य पर वे
घंटों बात करते। उन्होंने अपने लेखन को बालसाहित्य के लिए समर्पित कर दिया था।
यूं उन्होंने कहानियां और नाटक भी लिखे, पर उनकी पहचान बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं के लिए ही होती है। दस हजार से अधिक कविताएं उन्होंने लिखी होंगी।
हिन्दुस्तान के हर हिन्दी अखबार के साप्ताहिक पन्ने पर उनकी कविताएं प्रकाशित
होती रही हैं। पिछले कुछ सालों में शायद ही कोई ऐसा रविवार रहा हो, जब उनकी कविता
न प्रकाशित हुई हो। संदीप ने बताया पिछले रविवार (7 अक्टूबर,2010) को ही जनसत्ता
में उनकी दो कविताएं थीं। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी के साथ वे बांग्ला के भी
जानकार थे।
चकमक में मैंने उन्हें बहुत सम्मान के साथ
बहुत बार प्रकाशित किया। उनके साथ भी कई बार असहमतियां बनीं। सबसे अच्छी बात यह
थी कि वे संवाद करते थे। वे इलाहाबाद के इंडियन प्रेस की पत्रिका बालसखा के जमाने
से लिख रहे थे। तब तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था।
चकमक के लिए आईं रचनाएं अस्वीकृति की स्थिति में लौटाते हुए मैं अपनी तरफ से यथासंभव बहुत विनम्रता से यह व्यक्त करता कि उनका चकमक में उपयोग क्यों नहीं हो पाएगा। किंतु फिर भी कई रचनाकारों को लगता कि मैं उनका अनादर कर रहा हूं। पर इसके उलट श्रीप्रसाद जी मेरे इस दुस्साहस की प्रशंसा करते थे। वेबालसखा के संपादकों को याद करते हुए (खासकर महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को) वे कहते थे कि उन्होंने जो काम किया वह आज कोई नहीं कर रहा। वह काम है लेखकों को समसामयिक लेखन के लिए एक दिशा देना। लेखक के नाम से प्रभावित हुए बिना उनकी रचनाओं की समालोचना करना। आज की तारीख में आप यह काम कर रहे हैं, इसके लिए हम लेखकों को आपका धन्यवाद करना चाहिए। उनका यह कथन मेरे लिए आज भी एक धरोहर है।
चकमक के लिए आईं रचनाएं अस्वीकृति की स्थिति में लौटाते हुए मैं अपनी तरफ से यथासंभव बहुत विनम्रता से यह व्यक्त करता कि उनका चकमक में उपयोग क्यों नहीं हो पाएगा। किंतु फिर भी कई रचनाकारों को लगता कि मैं उनका अनादर कर रहा हूं। पर इसके उलट श्रीप्रसाद जी मेरे इस दुस्साहस की प्रशंसा करते थे। वेबालसखा के संपादकों को याद करते हुए (खासकर महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को) वे कहते थे कि उन्होंने जो काम किया वह आज कोई नहीं कर रहा। वह काम है लेखकों को समसामयिक लेखन के लिए एक दिशा देना। लेखक के नाम से प्रभावित हुए बिना उनकी रचनाओं की समालोचना करना। आज की तारीख में आप यह काम कर रहे हैं, इसके लिए हम लेखकों को आपका धन्यवाद करना चाहिए। उनका यह कथन मेरे लिए आज भी एक धरोहर है।
वे कविताओं में छंद के
पक्षधर थे। अतुकांत कविताएं उन्हें नहीं भाती थीं। पर वे उसके विरोधी भी नहीं थे। मैंने उनसे आग्रह किया था कि वे चकमक के लिए कविता लेखन पर एक लेखमाला लिखें।
इसकी शुरुआत भी हुई थी। पर अन्यान कारणों से केवल एक ही लेख प्रकाशित हो पाया।
उनकी कविताओं में परम्परागत रूप से आने वाले बिम्ब तो आते ही हैं, पर उन्होंने कुछ नए प्रतिमान भी गढ़े। उनकी कविता हाथी हौदा चलमचलम बहुत प्रसिद्ध हुई है। उनकी कविताओं पर अलग से लिखा जाना ही बेहतर होगा।
उनकी कविताओं में परम्परागत रूप से आने वाले बिम्ब तो आते ही हैं, पर उन्होंने कुछ नए प्रतिमान भी गढ़े। उनकी कविता हाथी हौदा चलमचलम बहुत प्रसिद्ध हुई है। उनकी कविताओं पर अलग से लिखा जाना ही बेहतर होगा।
श्रीप्रसाद जी
बालसाहित्य के उन पुरोधाओं में शामिल रहे हैं, जिन्होंने अपना शोधकार्य
बालसाहित्य पर किया है। उनका शोधकार्य 'हिन्दी बालसाहित्य की रूपरेखा' नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ है। लेकिन वे
इस बात से दुखी रहे हैं कि बालसाहित्य में भी गुटबंदी ने बालसाहित्य को बहुत नुकसान
पहुंचाया है। कई शोधपत्रों में और किताबों में उनका उल्लेख ही नहीं किया गया है।
श्रीप्रसाद जी शशरीर अब
हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी आत्मा के हिन्दी बालकविता में हमेशा बसी रहेगी। हिन्दी बालकविता में किए गए उनके प्रयोगों को आगे बढ़ाना ही उन्हें सच्ची
श्रद्धांजलि होगी। 0 राजेश उत्साही
(यह पोस्ट 14 अक्टूबर,2012 को जयपुर से दिल्ली जाते हुए डबलडेकर ट्रेन में लैपटॉप चलाने के लिए मिली विद्युत कनेक्शन की सुविधा के कारण लिख पाया। धन्यवाद भारतीय रेल और इंटरनेट कंपनी का।)
आपकी कलम की स्याही पुरे सम्मान से भरी होती है - श्रीप्रकाश जी को श्रद्धांजलि
ReplyDeletedil se shradhhanjali!!
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि
ReplyDeleteश्री प्रसाद जी को मैंने चकमक के माध्यम से ही जाना । बाल-साहित्यकार के रूप में वे अविस्मरणीय ही रहेंगे । मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ।
ReplyDeleteppppppp
ReplyDeletevinarm shradhanjali.
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि|
ReplyDeleteश्रीप्रसादजी को श्रद्धांजलि। सचमुच बाल कविता पर उनका काम अनूठा है। हम जैसे कितने ही लोगों को उन्होंने लिखने की प्रेरणा दी। मैं उनसे कभी मिला तो नहीं लेकिन बाल चिरैया से लेकर राष्ट्रीय सहारा और सहारा समय साप्ताहिक में उनकी रचनाएं बहुत छापी। उन दिनों उनसे पत्र व्यवहार भी हुआ। बाल साहित्य पर उनका शोध आज भी बेजोड़ है। पिछले दिनों पिपरिया प्रवास के दौरान गोपाल राठी ने ही श्रीप्रसादजी के निधन की खबर दी थी। लौटने पर तुम्हारे ब्लाग पर उन्हें पढ़ना अच्छा लगा।
ReplyDeleteडा. श्रीप्रसाद जी की स्मृति में लिखकर आपने हम सब ऒर बाल साहित्य पर बड़ा उपकार किया हॆ। अभी-अभी में श्री आनन्द वर्धन शर्मा जी को लिख कर बॆठा था। निरंकार देव सेवक, जयप्रकाश भारती जॆसे साहित्यकारों की कड़ी में श्रीप्रसाद जी बालक ऒर बाल-साहित्य के प्रति अत्यंत (पूरी तरह) समर्पित, निष्ठावान ऒर सक्रिय थे। उन्होंने साधक का जीवन जीया। बहुत ही सहज व्यक्तित्व के धनी थे वे। कितना कुछ बांटते थे मिलने वालों से। वाराणसी जाता तो उनसे अवश्य मिलता । मॆं उनसे कहता कि आप की उपस्थिति में आपका घर मेरे लिए मंदिर जॆसा हॆ। सुनकर वे भाव विभोर हो जाते। क्या-क्या याद करूं। उनके द्वारा भेंट की हुई पुस्तकें दोबारा पढ़कर ही संतोष करना होगा। अपना उत्कृष्ट देने वाले इस साहित्यकार से अब भी बहुत अपेक्षित था बाल-साहित्य-समाज। विनम्र श्रद्धांजलि।
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ReplyDeleteडॉ. श्रीप्रसाद जी कालजयी रचनाकार हैं। वे बाल साहित्य के आकाश में सदैव ज्योतिर्मान रहेंगे।
इस उत्कृष्ट आलेख के माध्यम से बाल साहित्य के अग्रगण्य हस्ताक्षर को भावांजलि प्रस्तुत करने हेतु आपको सादर नमन।
वाह ! यह तो शानदार है। इस पर नज़र नहीं गई थी। इसे ध्यान से पढ़ता हूँ फिर लिखता हूँ। सादर,
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