Sunday, June 23, 2013

यादगार अठ्ठाइसवीं



उत्‍तराखंड की त्रासदी के बीच 23 जून,2013 को शादी की 28 वीं वर्षगांठ थी। संयोग देखिए कि सुबह जो सबसे पहला फोन आया वह अल्‍मोड़ा से बालप्रहरी पत्रिका के संपादक उदय किरौला का था। वे 8-9 जून को उत्‍तरकाशी में हुई राष्‍ट्रीय बाल साहित्‍य संगोष्‍ठी में शिरकत करने के लिए धन्‍यवाद दे रहे थे। उत्‍तराखंड की स्थिति पर उनसे बात हुई। पिछली रात जबलपुर से फोन पर उत्‍सव ने पूछा था, कि कहां जाने वाले हो वर्षगांठ मनाने। तब मैंने कहा था, कहां जाएंगे, अकेले। घर पर ही रहेंगे।

पर सब कुछ अपने मन का नहीं होता है न। छोटे भाई अनिल की शादी की वर्षगांठ भी आज ही होती है, सो उसे फोन किया। फिर भोपाल में नीमा को बधाई दी। अम्‍मां से बात की, उन्‍होंने आशीर्वाद दिया। कबीर ने बधाई दी। नीमा और अम्‍मां ने कहा मिठाई खा लेना। नीमा ने कहा, मंदिर भी चले जाना। वह भी शायद इसलिए कि नेपथ्‍य से अम्‍मां ने ऐसा कहा था। हामी भर तो दी पर अब अकेले आदमी के लिए मिठाई कौन खरीदने जाए। हां मंदिर सामने ही है, तो सोचा चलो, वादा किया है तो कम से कम आज के दिन का वादा तो झूठा न रहे। पर मंदिर के भगवान को पता था कि यह आदमी वैसे तो कभी मंदिर आता नहीं है, हां कोई इसे जबरदस्‍ती ले आए तो उसके साथ चला आता है। तो जब उन्‍होंने हमें आते देखा, तो अपने पुजारी को इशारा किया। पुजारी जी मंदिर के कपाट में ताला लगाकर चलते बने। अपन भी मंदिर के बाहर का चक्‍कर लगाकर आ गए। कम से कम वादा तो निभाया।

घर आकर लेपटॉप के कपाट खोले तो फेसबुक की दीवार पर दिल बैठाने वाली खबर थी। अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में सहकर्मी और मित्र चंद्रिका की बड़ी बिटिया नेहा 19 जून को एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गई थी। तुरंत चंद्रिका को फोन लगाया, बात हुई और बातों बातों में ही मैंने तय किया कि मुझे उन सबसे मिलने जाना चाहिए। अब तक चंद्रिका ने भी फेसबुक पर शादी की वर्षगांठ की पोस्‍ट पढ़ थी। बोलीं, आप आ रहे हैं तो मिठाई लेकर आइए। उनकी दोनों बेटियों नेहा और धृति को मोतीचूर के लड्डू बहुत पसंद हैं।
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नेहा अपनी एक्टिवा गाड़ी पर बंगलौर के 
जयनगर में घर के पास ही बैंक में
काम से गई थी। लौटते समय एक पेट्रोल पम्‍प के पास उसके सामने एक राहगीर आ गया जो नशे में था और सड़क पर लहराकर चल रहा था। नेहा ने उसे बचाने की कोशिश की और अपना संतुलन खो बैठी। गाड़ी स्‍पीड में थी। गिरते हुए उसने गाड़ी का हेंडिल छोड़ दिया, गाड़ी आगे जाकर गिरी। नेहा सड़क के डिवाइडर से टकराते हुए दूसरी ओर जाकर गिरी। संयोग से सड़क पर बहुत ट्रेफिक नहीं था। उसके गिरते ही सामने के गैराज से कुछ लोग मदद के लिए दौड़े, एक आटो चालक भी आ गया। एक आटो में एक महिला डॉक्‍टर वहां से गुजर रही थीं। उन्‍होंने उतरकर तुरंत नेहा को देखा। नेहा के दाएं पैर का टखना अपनी जगह से हट गया था और पंजा लगभग की पीछे और मुड़ गया था। गनीमत थी कि खून नहीं बह रहा था, न ही उसे कहीं और कोई चोट लगी थी। उसने हेलमेट पहना था, इसलिए सिर भी सही सलामत था। वहां मौजूद लोगों को डॉक्‍टर ने बताया कि नेहा को बहुत संभालकर आटो में बिठाने की जरूरत है। साथ ही उसने नेहा से कहा कि पास के अस्‍पताल में जाकर प्राथमिक चिकित्‍सा करवा ले, लेकिन उसके बाद किसी अन्‍य अच्‍छे अस्‍पताल में जहां और सुविधाएं हों वहां जाए।

नेहा के फोन से तुरंत चंद्रिका को फोन लगाया गया। वे एक कार्यशाला में थीं, खबर मिलते ही वे अपनी एक अन्‍य साथी के साथ तुरंत आटो से रवाना हुईं। इस बीच आटो वाला नेहा को अस्‍पताल ले गया, उसकी प्राथमिक चिकित्‍सा करवाई। वहां के डॉक्‍टरों ने उसका एक्‍सरे लिया। पता चला कि टखने के ऊपर घुटने की तरफ जाने वाली हड्डी टूट गई है। आटो चालक ने स्‍वयं अस्‍पताल का बिल चुकाया। और चंद्रिका के आने तक वहां मौजूद रहा। उधर गैराज के लोग गाड़ी को अपने गैराज में ले गए। गाड़ी को ज्‍यादा नुकसान नहीं हुआ था। मरम्‍मत के बाद वे भी गाड़ी लेकर अस्‍पताल पहुंचे।

चंद्रिका नेहा को लेकर एक अन्‍य अस्‍पताल पहुंचीं, जहां डॉक्‍टरों ने देखते ही कहा कि तुरंत ऑपरेशन करना होगा। ऑपरेशन की तैयारी हुई। टखने को अपनी जगह पर बैठाया गया। टखने के ऊपर की हड्डी को जोड़ने के लिए दो इंच की एक प्‍लेट डाली गई है। फिलहाल नेहा को 6 हफ्ते का बेडरेस्‍ट करने के लिए कहा गया है। उसके बाद टांग पर प्‍लास्‍टर चढ़ाया जाएगा।

बाएं से दाएं : करपगम (फाउंडेशन में सहकर्मी), नेहा,धृति और चंद्रिका
ऑपरेशन शुरू होने के पहले तक नेहा अपने मोबाइल से अपने घायल पैर की फोटो खींच रही थी। आखिरकार डॉक्‍टरों को उसे रोकना पड़ा। दो दिन अस्‍पताल में रहने के बाद वह घर आई है। घर में एक ही जगह बिस्‍तर पर पूरे समय पड़े-पड़े वह उस दिन को भी याद करती है,जब उसे सड़क से उठाकर अस्‍पताल ले जाया गया था। केवल दो घंटे में उसे लगभग पंद्रह तरह के स्‍ट्रेचर,व्‍हीलचेयर,टेबिल और पलंग आदि पर लिटाया या बिठाया गया था। यह पूरी कहानी खुद नेहा ने हंसते-हंसते बताई।

चंद्रिका हैरान हैं कि इतना सब हो जाने पर भी इस लड़की की आंख से एक भी आंसू नहीं गिरा। वे कहती हैं इतना बहादुर होना भी कोई अच्‍छी बात नहीं, थोड़ा सा रोना तो बनता है।....पर क्‍यूं!!!!

बहरहाल इस पूरी कहानी का उजला पक्ष यह है कि राहगीर, आटो चालक, आसपास के लोग और वहां से गुजरती डॉक्‍टर ने तुरंत जो भी मदद की जरूरत थी, वह दी। इन सबका नाम मैं नहीं जानता, पर इतना जानता हूं कि ये सचमुच इस महादेश के जिम्‍मेदार नागरिक हैं और साधुवाद के पात्र हैं। इसमें पुलिस की एंट्री भी हुई, पर नेहा ने कहा कि पहली बात तो उस राहगीर को मैं जानती नहीं, जो गाड़ी के सामने आया था, और फिर ऐसा कोई कारण मुझे नजर नहीं आता कि उसके खिलाफ रपट लिखवाऊं।

इसमें कोई शक नहीं है कि इसका सकारात्‍मक प्रभाव नेहा पर भी पड़ा है। वह दुर्घटना के बाद घटे इस सुखद घटनाक्रम को याद करते करते अपना दर्द भूल जाती है।

पर अपन शादी की 28 वीं वर्षगांठ दो वजहों से कभी नहीं भूलेंगे। पहली यह कि इस दिन हिम्‍मती नेहा के साथ बैठकर दाल, चावल,रोटी,सब्‍जी और रायते की दावत उड़ाई और फिर मोतीचूर के लडडू का स्‍वाद लिया। दूसरी यह कि इस दिन की रात सुपरमून की रात है।
                                     0 राजेश उत्‍साही        

Monday, June 10, 2013

मिलना दो 'फैन' का


उत्‍तराखंड में भगीरथी नदी के किनारे बसे उत्‍तरकाशी के नगरपालिका भवन में तीन दिवसीय राष्‍ट्रीय बाल साहित्‍य संगोष्‍ठी का आयोजन था 7 से 9 जून,2013 तक। आयोजन बाल पत्रिका बाल प्रहरी तथा अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन ने मिलकर किया था।

कवियत्री रेखा चमोली के साथ उत्‍तरकाशी में: फोटो-प्रमोद पन्‍यूली
मैं देहरादून से अपने अन्‍य साथियों के साथ लगभग 4 बजे शाम को पहुंचा था। फाउंडेशन के कार्यालय में अपना सामान रखकर आयोजन स्‍थल पर पहुंचा। अंदर हाल में बच्‍चों का काव्‍य पाठ आरंभ होने वाला था। बाहर स्‍वागत कक्ष में रखे रजिस्‍टर में अपना नाम लिखना था। रजिस्‍टर का पेज भर चुका था। वहां बैठी एक महिला ने जल्‍दी-जल्‍दी अगले पेज पर कालम बनाए और एक अन्‍य किताब की मदद से उसमें लाइनें खीचीं । इस बीच एक और महिला कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आ पहुंची। मैं अपना नाम लिख रहा था, वे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहीं थीं। नाम लिखकर ज्‍यों ही मैं पलटा। उनके दोनों हाथ नमस्‍कार की मुद्रा में जुड़ गए।
- मैं आपकी कविताओं की बहुत बड़ी फैन हूं।....यह कहते हुए उनके होंठो पर मुस्‍कराहट तैर रही थी। चेहरे पर एक अजीब तरह की खुशी नजर आ रही थी। ऐसी खुशी शायद जिसे अपने पाठक के चेहरे पर देखने के लिए एक रचनाकार सदा प्रतीक्षारत रहता है।
- कौन-सी कविताएं?
- हाथ दवा है, हाथ दुआ है।
- अच्‍छा ।
- मैं अपने स्‍कूल में बच्‍चों को पढ़ाती हूं। वे बहुत आनंद लेते हैं।
- आपका शुभनाम?
- रेखा चमोली।
- अच्‍छा तो आप हैं रेखा चमोली।
मैं नाम से रेखा को जानता था। पर उनसे यहां और इस तरह मुलाकात होगी इसका अंदाजा नहीं था। 
अंदर कार्यक्रम शुरू हो गया था। आयोजक मुझे भी बुलाने आ गए थे। इसलिए मैंने कहा कि बाद में मिलते हैं।
रेखा चमोली उत्‍तराखंड की युवा कवियत्री के रूप में अपनी पहचान बना चुकी हैं। साहित्यिक पत्रिका "समकालीन सूत्र " द्वारा बस्‍तर के लोककवि स्‍वर्गीय ठाकुर पूरनसिंह की स्‍मृति में दिया जाने वाला सूत्र सम्‍मान 2012 के लिए उन्‍हें दिया गया है। हाल ही मैं उनका पहला कविता संग्रह "पेड़ बनी स्त्री" खासा चर्चित हुआ है। इस संग्रह की शीर्षक कविता कुछ इस तरह है -    
।।पेड़ बनी स्त्री।।
एक पेड़ उगा लिया है मैंने
अपने भीतर
तुम्हारे प्रेम का
उसकी शाख़ाओं को फैला लिया है
रक्तवाहिनियों की तरह
जो मज़बूती से थामे रहती हैं मुझे

इस हरे-भरे पेड़ को लिए
डोलती फिरती हूँ
संसार भर में
इसकी तरलता नमी हरापन
बचाए रखता है मुझमें
आदमी भर होने का अहसास

एक पेड़ की तरह मैं
बन जाती हूँ
छाँव, तृप्ति, दृढ़ता, बसेरा
 **
अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन ने भी उनकी एक कविता 'भाषा' का पोस्‍टर प्रकाशित किया है।
कार्यक्रम समाप्‍त होने पर हमारी मुलाकात फिर से हुई। रेखा ने बताया रूम टू रीड द्वारा प्रकाशित मेरी पांचों कविताएं उन्‍हें बहुत अच्‍छी लगती हैं। उन्‍हें हर कविता का शीर्षक याद था। इनमें आलू मिर्ची चाय जी, कौन कहां से आए जी भी शामिल है। वे उन्‍हें बच्‍चों के बीच लगातार उपयोग करती हैं। शुरू में उन्‍हें लगा कि 'हाथ' कविता अपने शब्‍दों की वजह से बच्‍चों को कठिन लगेगी,पर जब उन्‍होंने इसे हावभाव के साथ बच्‍चों के बीच पढ़ा, तो अब वे भी इसे इसी तरह गुनगुनाते हैं। रेखा ने बताया कि पिछले दिनों रमणीक मोहन जी(पोर्टल में मेरे सहयोगी) उत्‍तरकाशी आए थे, तब उन्‍होंने उनसे भी इन कविताओं का जिक्र किया था और उनकी मार्फत धन्‍यवाद भी भेजा था। पर वह मुझ तक नहीं पहुंचा। रमणीक जी थोड़े भुलक्‍कड़ हैं, सो भूल गए होंगे। सोचता हूं अगर वे नहीं भूलते तो आज रेखा से ही सीधे अपनी कविताओं के बारे में सुनकर जो संतोष हुआ वह शायद नहीं होता।
मैं अपनी कविताओं की फैन से मिलकर अभिभूत था। मैंने कहा, आप मेरी कविताओं की फैन हैं और मैं आपकी कविताओं का।' 
और जब आपकी कविताओं का कोई फैन आपके सामने हो तो आप  उसे अपना कविता संग्रह (अगर कोई है तो) उसे भेंट न करें, यह कैसे हो सकता है। तो 'वह जो शेष है..' की प्रति मैंने रेखा को भेंट की। ऐसे मौकों के लिए मैं संग्रह की एक प्रति यात्रा के दौरान अपने साथ रखता हूं।
मेरे लिए उत्‍तरकाशी की इस पहली यात्रा की कुछ गिनी-चुनी उपलब्धियां हैं, उनमें से एक रेखा से मिलना भी है।
जिन्‍दगी में ऐसे खूबसूरत संयोग गाहे-बगाहे ही होते हैं, पर होते हैं।
                                     0 राजेश उत्‍साही