जरा सोचो,कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्हारी
तो, कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्हारा गांव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपडि़यों में
गाय,बैल,बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्चों का चेहरा
तो कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता
अगर तुम्हारी बेटियों को लाना पडता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकडि़यों का गठ्ठर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल की जुगाड़ में
कैसा लगता, अगर तुम्हारे बच्चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते, कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्कूल जाते बच्चे को
जरा सोचो न, कैसा लगता ?
अगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगों के बीच
और तुम सामने हाथ बांधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
बताओ न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक मांपने लगते मांसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होठों की पपडि़यों से बेखबर
केन्द्रित होते छाती के उभारों पर
सोचो,कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे
और तो और
और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्हारी नाक
पांवों में बिवाईं होती ?
और इन सबके लिए कोई फब्ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्हें?
कैसा लगता तुम्हें?
0 निर्मला
पुतुल
निर्मला पुतुल की यह कविता अपने परिवेश से दो-दो हाथ करती नजर आती है। यह कविता मुझे अजेय कुमार के ब्लाग अजेय पर दिखाई दी।
निर्मला पुतुल की यह कविता अपने परिवेश से दो-दो हाथ करती नजर आती है। यह कविता मुझे अजेय कुमार के ब्लाग अजेय पर दिखाई दी।
आपकी कविता "चक्की पर" का विस्तार लग रही है यह कविता!! जहां दो मित्र आपस में बात कर रहे हैं उस औरत के बारे में.. और आज वही औरत सवाल पूछ रही है..
ReplyDeleteकविता बहुत ही भावपूर्ण है.. पुतुल जी को बधाई!!
बेहद भावपूर्ण रचना............
ReplyDeleteदिल को छू गयी....
सांझा करने का शुक्रिया सर.
अनु
मार्मिक रचना..
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना निशब्द कर दिया
ReplyDeleteसच को कहती सार्थक रचना
ReplyDeleteजरा सोचो न, कैसा लगता ?
ReplyDeleteअगर तुम्हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगों के बीच
और तुम सामने हाथ बांधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए
......
मन को छू जाने वाली बेहद संवेदनशील रचना ..
निर्मला पुतुल जी रचना प्रस्तुति के लिए आभार !
इतनी अच्छी कविता पढवाने का शुक्रिया
ReplyDeleteराजेश जी, कविता बेहद पसंद आई और एकदम सटीक सवाल किया गया है..
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविता आपने पढवाई है!
putul ji ki dil se nikli yah kavita badi pasand aai. ..
ReplyDeleteapka dhanyavad sir