चित्रकार : एम एस मूर्ति, बंगलौर सिटी रेल्वे स्टेशन की चित्र गैलरी से |
प्रख्यात शिक्षाविद् और एनसीईआरटी के डायरेक्टर रहे
प्रोफेसर कृष्ण कुमार विभिन्न विषयों पर लिखते भी रहते हैं। शिक्षा के क्षेत्र
में कार्यरत संस्था एकलव्य ने कृष्ण कुमार के लेखों और टिप्पणियों का संग्रह ‘दीवार
का इस्तेमाल और अन्य लेख’ कुछ बरस पहले प्रकाशित किया था।
उसके विमोचन के अवसर पर मैंने संग्रह की एक टिप्पणी
को आधार बनाते हुए एक लेख लिखा था,लेकिन वह कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। गौहाटी की
घटना से वह लेख याद हो आया। लेख का संपादित अंश यहां प्रस्तुत है।
(यह लेख 9 अगस्त को नई दुनिया में एंग्री युवा और ट्रेंडस शीर्षक से इस ब्लाग से लेकर प्रकाशित किया गया है।)
(यह लेख 9 अगस्त को नई दुनिया में एंग्री युवा और ट्रेंडस शीर्षक से इस ब्लाग से लेकर प्रकाशित किया गया है।)
संग्रह में एक टिप्पणी है ‘उदास लड़कों का राज’। टिप्पणी शहरी लड़कों की संस्कृति पर
है। तमाम विष्लेषण के बाद टिप्पणी का अंत कुछ इस तरह है, ‘‘इलाहाबाद आती हुई रेल
में गंगा के पुल के पहले कोई दस लड़के प्रथम श्रेणी के एक डिब्बे में घुस गए। वे
गलियारे में तेज आवाजें(जो साफ दिखाती थीं कि भाषा का संस्कार उन्हें नहीं मिला)
पैदा करते हुए और दरवाजों को धक्का देते हुए घूमने लगे। यात्री अपने सीनों को
बांहों में बांधकर बैठ गए। एक बोला, ‘पुल भर निकल जाए, फिर
कोई बात नहीं।' एक और बोला, ‘इण्टर कॉलेज के पास सब उतर जाएंगे।' लड़के
जोर-जोर से दरवाजों दस्तक देते रहे, पर किसी ने उनकी चुनौती नहीं
स्वीकारी। खीझकर या शायद अपनी योजना के अनुसार पुल पार होने के बाद उन्होंने गाड़ी
रोकी और उतर गए। फिर अचानक एक आदमी पर पिल पड़े। पास की गुमटी पर चाय पीता एक पुलिस
वाला दौड़ा तो सब भाग गए। डिब्बे में बैठे एक सज्जन बोले, ‘इन्हें गोली मार देनी
चाहिए।’’
कृष्ण कुमार का जो लेखन है या कि संग्रह में जो और
टिप्पणियां हैं उनसे यह अंत मेल नहीं खाता। यह अटपटा लगता है। उनसे किसी टिप्पणी
का ऐसा समापन अपेक्षित नहीं है। मुझे लगा संपादन-प्रकाशन के दौरान कहीं कुछ छूट
गया है। विमोचन कार्यक्रम में जब किताब पर चर्चा चली तो मुझसे रहा नहीं गया। मैंने
पूछ ही लिया कि, ‘क्या यह टिप्पणी यहीं समाप्त होती है या कुछ छूट गया है।’ कृष्ण
कुमार जी ने लगभग आश्चर्य से मुझे देखा और फिर कहा वास्तव में इसका यही अंत है।
उन्होंने बताया यह टिप्पणी दिनमान में प्रकाशित हुई
थी। तब रघुवीर सहाय संपादक थे। उन्होंने यह राज भी खोला कि ऐसी छोटी टिप्पणियां
लिखने के लिए रघुवीर सहाय ही प्रेरित किया करते थे। वे कहते थे कि तुम जो देखते हो
उसे लिखो भी। (यानी आज से लगभग पठ्ठाईस साल पहले।) इस जानकारी से दो बातें स्पष्ट
हुईं। पहली यह कि यह टिप्पणी कृष्ण कुमार जी ने तब लिखी थी जब देश में ‘एंग्रीमैन’ यानी
अमिताभ बच्चन की फिल्मों का बोलबाला था। टिप्पणी के आरंभ को बहुत ध्यान से पढ़ने पर
यह स्पष्ट हो पाता है कि कृष्ण कुमार उस समय लगभग पैंतालीस साल के थे। संभवतः ऐसी
घटनाओं को एक नाटकीय अंत पर लाकर छोड़ देना उस समय के उनके सोचने के तरीके को
परिलक्षित करता है। दूसरी बात यह कि रेलगाड़ियों में युवाओं की हुड़दंग लीला तबसे
चली आ रही है। और आश्चर्य कि बात यही है कि हमारी रेलगाड़ियां भले ही विकसित हो
गईं हों या कि तेज चलने लगीं हों लेकिन हमारा युवा मन वहीं का वहीं आदिम युग में
है। निश्चत ही लोग बदल गए हैं, पर युवा मानसिकता वही है। हालिया
घटनाएं यही बताती हैं। इस कार्यक्रम में ही कृष्ण कुमार ने बताया कि शैक्षिक दौरे
पर गईं दिल्ली की छात्राओं को पिछले हफ्ते ही वापसी में रेल में दुर्व्यवहार का शिकार
होना पड़ा।
*
हिम्मत करने पर ऐसे हादसों को रोका भी जा
सकता है। ऐसी दो घटनाएं मुझे याद आती हैं।
*
मैं शायद दस साल का रहा होऊंगा। अपने दो छोटे भाई बहनों और मां के साथ इटारसी से नागपुर अपनी नानी के यहां जा रहा था। हम एक पैसेंजर गाड़ी में महिलाओं के लिए आरक्षित द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में थे। संयोग से उस डिब्बे में हमारे अलावा केवल एक व्यक्ति और था। मुझे केवल इतना याद है कि मां उस व्यक्ति की उपस्थिति से कुछ परेशान हो रही थीं। जब एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो मां ने दरवाजे पर पहुंचकर जोर-जोर से हल्ला मचाना शुरू किया। हल्ला होते ही वह व्यक्ति डिब्बे से उतरकर भाग निकला। मां ने उसका सामान उठाकर प्लेटफार्म पर फेंक दिया। फिर उन्होंने डिब्बे के चारों दरवाजे अंदर से बंद किए और उन्हें नागपुर तक नहीं खोला।
*
कुछ साल पहले की ऐसी ही घटना है। एकलव्य में कार्यरत उमा महानदी एक्सप्रेस
में भोपाल से रायपुर जा रहीं थीं। वे शौचालय जाने के लिए प्रतीक्षा कर रही थीं।
भोपाल से इटारसी के बीच डिब्बे के गलियारों में घूमते हुए लड़कों में से एक ने
उन्हें छेड़ते हुए भद्दे तरीके से कहा, मुझसे शादी करोगी। और फिर भद्दा
इशारा करते हुए आगे निकल गया। उन्होंने लगभग अनसुना कर दिया। अपनी बारी आने पर वे
शौचालय चली गईं। जब बाहर आईं तो उन्हीं लड़कों को वहां खड़े पाया। उनमें से एक ने
फिर वैसा ही कुछ कहा। इस बार उन्होंने आव देखा न ताव लपककर उस लड़के की कलाई पकड़ ली
और कहा, ‘हां, तुझसे शादी करूंगी। चल!’ लड़का
उनके इस अप्रत्याशित कदम से घबरा गया। वह अपने को छुड़ाने की कोशिश करने लगा। लम्बी
और दुबली उमा की पकड़ इतनी मजबूत थी कि लड़का सफल नहीं हुआ। उसके साथी वहां से भाग
खडे़ हुए। उमा उसे लगभग घसीटते हुए अपनी सीट तक ले गईं। आसपास के अन्य यात्रियों
ने भी उत्सुकता जाहिर की कि क्या हुआ है। लड़के की हालत देखने लायक थी। वह अब
दीदी-दीदी कहकर छोड़ देने की बात कर रहा था। लगातार माफी मांग रहा था। लेकिन उमा ने
उसकी कलाई नहीं छोड़ी। तब तक इटारसी स्टेशन आ चुका था। वे उसे लेकर प्लेटफार्म पर
उतर गईं। इस बीच होशंगाबाद से रेल के दूसरे डिब्बे में सवार हुए उमा के साथी उनका
हालचाल पूछने वहां आ पहुंचे।
उमा इस बात पर अड़ी थीं कि इसे पुलिस के हवाले किया
जाए। इस बीच लड़के ने ही यह जानकारी दी कि वह इंदौर के एक प्रमुख प्रबंधन संस्थान
का छात्र है। और अपने उन्नीस अन्य साथियों के साथ शैक्षणिक भ्रमण पर जा रहा है।
हंगामा इतना बढ़ चुका था कि रेल्वे पुलिस भी वहां आ गई। स्टेशन पर उस लड़के के
साथियों के नाम एनाउंसमेंट किया गया। एक-एक करके सारे लड़के वहां पहुंचे। उन्होंने
भी उमा से माफी मांगी। लेकिन उमा रिपोर्ट से कम में मानने को तैयार नहीं हुईं।
अंततः उस लड़के के खिलाफ रेल्वे थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई गई और उसे पुलिस के
हवाले कर दिया गया। कार्यवाही के बाद ही रेल आगे रवाना हुई। उमा और उनके साथी उसी
गाड़ी से रायपुर गए। पर लड़के इतने घबराए और शर्मिन्दा थे कि आगे की यात्रा इस रेल
से करने की उनकी हिम्मत ही नहीं हुई। वे सामान लेकर इटारसी में ही उतर गए।
*
यही सही है कि कई बार भीड़ के सामने ऐसी स्थिति में
हम अकेले पड़ जाते हैं। पर अगर थोड़ी हिम्मत अपने में पैदा कर लें तो ऐसी घटनाओं से
कैसे निपटा जाए इसका यह एक उदाहरण है। लेकिन असली चिंता अब भी ज्यों कि त्यों है।
इस अराजक मानसिकता का क्या किया जाए ? 0 राजेश उत्साही
कुछ ऐसा ही मै भी कहा रही हूं अपनी पोस्ट में की एक बार आप मुकाबला कीजिये ये भीड़ बहादुर खुद भाग जायेंगे बस आप मानसिक रूप से मजबूत हो | इस आराजक मानसिकता का क्या किया जाये, ये तो मुझे भी नहीं पता है , संस्कार दिये जाये सिखाया जाये कई उपाय सुन रही हूं पर नहीं लगता है की कुछ भी काम का होगा क्योकि जब आप ये कहते है की तीन दशक पहले भी युवा ऐसे ही था तब तो और भी निराशा होती है भाई तब तो लोगों को संस्कारी माना जाता था |
ReplyDeleteवाकई इस तरह की परिस्थितियों में पड़कर हारने से अच्छा है कि इनसे दो दो हाथ कर लिये जायें, तभी ऐसी अराजक मानसिकता से निपटा जा सकेगा ।
ReplyDeleteसच कहा आपने, विरोध शीघ्रातिशीघ्र करना चाहिये, संशय दुष्टों को बल देता है..
ReplyDeleteकृष्ण कुमार जी हिसाब से शायद वह टिप्पणी सही होगी ..सबका अपना अपना विचार होता है ..
ReplyDeleteमाँ ने भी बड़ी हिम्मत से वही काम किया जो उस समय उचित था ...उमा जी ने हिम्मत जो साहस दिखाया आज के समय में वैसी ही हिम्मत और साहस की जरुरत है ...अगर हम समर्पण या हार मान लेते हैं या किसी अप्रिय घटना को टाल लेते हैं सामने वालों के बेवजह हौसले बुलंद हो जाते हैं और फिर उन्हें अच्छा खासा मौका मिल जाता है तो इससे पहले सामने वाला अपने को कमजोर समझ बैठ बदतमीजी पर उतारे उसकी बदसलूकी का माकूल जवाब उमा जी की तरह ही देने में मैं भी विश्वास करती हूँ ... और मेरे हिसाब से सबको अपनी आत्मसम्मान की रक्षा पहले खुद ही बढ़कर करनी चाहिए यदि ऐसा होता है तो बाकी लोग अपने साथ बाद में साथ हो लेते हैं ..
बहुत बढ़िया प्रेरणाप्रद प्रस्तुति के लिए आभार!
उत्साहित करने वाला आलेख।
ReplyDeleteजो जैसा व्यवहार करता है यदि उसको उसकी भाषा में ही थोड़ी हिम्मत करके समझा दिया जाय तो वह जल्दी समझ जाता है और यदि सार्वजानिक स्थलों पर ऐसे बदमिजाज किस्म के प्राणियों से दो चार होना पड़े तो उन्हें माकूल जवाब देना बहुत जरुरी है क्योंकि ऐसे जगह पर बाद में अनकूल सपोर्ट मिल जाता है....उमा जी ने जिस बहादुरी से सामना किया ऐसा सबको करना चाहिए. ऐसे उदाहरण अनुकर्णीय हैं .... मैं भी स्कूल-कालेज के दिनों में कई बार ऐसी हरकत वाले बदमिजाज किस्म के लोगों से दो चार हुयी हूँ और मैं कभी भी उनको उनकी औकात दिखने में पीछे नहीं रही ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक प्रस्तुति के लिए आभार ..
शायद मेरा पूर्व का कमेन्ट Spam में चला गया होगा ...
टिप्पणी का विश्लेषण बहुत बारीकी से किया आया है जो उचित लगा |साहसी उदाहरणों से ऊर्जा मिली |हिम्मत वाला ही जीता है चाहे घर हो या बाहर |
ReplyDeleteउत्साही जी
ReplyDeleteमुझे abstract painting बहुत अच्छी लगी |लगा -कितने ही विचारों का ताना- बाना इसके चारों ओर बुना हुआ है |