पिछले दिनों घर में आई बाढ़ से निपटते हुए, पुराने
कागजों में यह तस्वीर हाथ आ गई। तस्वीर देखते ही मुझे ब्रजेश परसाई बहुत याद आए।
वे एक तरह से मेरे पहले साहित्यिक गुरु थे मैं यह कह सकता हूं। साहित्य की बारीकियों को
देखने का तरीका मैंने उनसे सीखा। मेरा पहला कविता संग्रह 'वह, जो शेष है' प्रकाशित हो
गया है। लेकिन देखिए मैं उसमें ब्रजेश भाई का उल्लेख करने से चूक गया। वे कविताएं नहीं लिखते थे, पर होशंगाबाद में वे पहले
व्यक्ति थे जिनसे में नई कविता पर बात कर सकता था। तीन लोग और ऐसे हैं जिनके बारे
में जिक्र नहीं करुं तो अच्छा नहीं लगेगा। एक संतोष रावत जिनकी आटा चक्की पर
बैठकर हमने न जाने कितनी साहित्यिक चर्चाएं की होंगी। चक्की वे खुद चलाते थे। आजकल बैंक में मैनेजर हैं। दूसरा नाम है महेश
मूलचंदानी का। यूं तो वे जूते की दुकान चलाते हैं, पर उनकी क्षणिकाएं भी जूतों से
कम नहीं होती थीं। तीसरे सुखदेव मखीजा। सुखदेव बाद में भोपाल आ गए थे, और राजनीति
में उतरकर छुटभैये नेता भी बने। 1979 से लेकर 84 के अंत तक का समय कुछ ऐसा था, जिसका
अधिकांश हिस्सा हमने साहित्य पढ़ने-लिखने और चर्चा करने में गुजारा। हम चार लोग
मिलकर एक लायब्रेरी भी चलाते थे, जिसमें आपस में चंदा करके पत्रिकाएं बुलवाते थे और
पढ़ते थे। इन सबके साथ कैसा समय गुजरा यह फिर कभी लिखूंगा।
अभी मैं बात कर रहा था ब्रजेश परसाई की। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने पाठकमंच की योजना शुरू की
थी। इसके तहत प्रदेश के लगभग हर जिला मुख्यालय पर पाठक मंच का गठन किया गया था। जब
भी कोई नई किताब प्रकाशित होती, परिषद उसकी दो प्रतियां हर पाठक मंच में भेजती।
वहां उस पर पाठक मंच का कोई एक सदस्य समीक्षा लिखता और फिर उस पर चर्चा होती। संभवत: पाठक मंच योजना अब भी जारी है। उन दिनों होशंगाबाद में पाठक मंच के संयोजक ब्रजेश परसाई थे। वर्षों तक उन्होंने पाठक मंच
का कुशल संचालन किया। पेशे से वे बैंक कर्मचारी थे। नए-नए खुले क्षेत्रीय ग्रामीण
बैंक में वे नौकरी करते थे। उनके बड़े भाई कैलाश परसाई कांग्रेस नेता के रूप में
पहचाने जाते थे।
मेरी शाम अक्सर उनके घर पर साहित्य और दुनिया जहान
की चर्चा और बहस करते हुए बीतती थी। शनिचरा मोहल्ले में होली चौक से थोड़ा आगे गली में
उनका घर था। उनके घर से कुछ पचास कदम दूर पर नर्मदा बहती है। नर्मदा किनारे सुंदर
सेठानी घाट है। कई बार हम घाट पर जाकर बैठ जाते और घंटों बतियाते रहते। घाट तो अब भी
हैं, नर्मदा भी बह रही है। पर ब्रजेश भाई नहीं हैं। 2005 में हार्टअटैक से उनका
निधन हो गया।
ब्रजेश भाई ठिगने कद के लेकिन भारी शरीर के मालिक
थे। चलते तो लगता जैसे कोई गोलमटोल गुड्डा लुढ़कता हुआ चला आ रहा हो। अपनी
अलंकारित भाषा में शहर के किसी भी व्यक्ति से लेकर देश के नामवर लोगों की खिल्ली उड़ाना उनका प्रिय शगल था। पर उनकी
खिल्ली सुनकर कतई बुरा नहीं लगता था। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी। बात करते हुए उनकी आंखें कुछ इस तरह फैल जातीं कि जैसे आपने ध्यान
नहीं दिया तो बाहर ही आ जाएंगी। उनकी हंसी ऐसी थी जैसे किसी कांच के मर्तबान से
कंचे एक-एक करके बाहर आते हुए आवाज कर रहे हों। वे हमेशा अप-टू-डेट रहते।
समकालीन साहित्य के बारे में वे जितना पढ़ते थे
शायद उन दिनों शहर में कोई और नहीं पढ़ता था। इसलिए मुझे उनके पास बैठना, बात करना
अच्छा लगता था। मशहूर लघुपत्रिका 'पहल' मैंने पहली बार उनके घर में ही देखी थी।
तमाम अन्य साहित्य पत्रिकाएं उनके यहां आती थीं। मैं उनसे पत्रिकाएं और किताबें
लेकर पढ़ता था। पाठक मंच में मैंने भी दो किताबों की समीक्षा लिखी थी। ये मेरी पहली-पहली समीक्षाएं थीं। एक थी भगवत
रावत की कविताओं की ‘किताब दी हुई दुनिया।’ दूसरी किताब रमाकांत श्रीवास्तव की
कहानियों का संग्रह था।
यह समय लघुकथा का था। लघुकथा आंदोलन चल रहा था।
ब्रजेश भाई भी लघुकथाएं लिखते थे और मैं भी। उनके कहने पर ही मैंने एक अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में भाग लिया था। प्रतियोगिता में मेरी लघुकथा 'अनुयायी' को भी चुनी हुई लघुकथाओं में शामिल किया गया था। ब्रजेश भाई ने अपने प्रयासों से
लघुकथाओं पर केन्द्रित दो अखिल भारतीय कार्यक्रम होशंगाबाद में करवाए। जिनमें उस
समय के कई मशहूर लघुकथाकार शामिल हुए थे। इनमें कन्हैयालाल नंदन,बलराम,शंकर
पुणतांबेकर,सतीश दुबे, मालती महावर,हरि जोशी,विक्रम सोनी,कृष्ण कमलेश,भगीरथ जैसे
कई नाम शामिल थे। मैं भी इन आयोजनों का हिस्सा था। 2010 में लघुकथाकार बलराम अग्रवाल बंगलौर आए तो उनसे चर्चा में इन आयोजनों का जिक्र निकला। उन्होंने बताया कि इन आयोजनों और इनमें हुई चर्चा का लघुकथा आंदोलन में खासा महत्व है।
नाटकों में भी उनकी खासी रुचि थी। भोपाल में उन
दिनों भारत भवन नया-नया बना था। उसके साहित्यिक कार्यक्रमों को देखने-सुनने वे अक्सर
जाया करते थे। जब वे लौटते तो उनसे मैं उन कार्यक्रमों के बारे में सुनता।
वे मुझ से लगभग तीन साल बड़े थे पर मेरी शादी उनसे
पहले हुई। शादी पर जब वे घर आए और मेरी पत्नी निर्मला वर्मा से मिले तो कहा, ‘अब
आप इन्हें निर्मल वर्मा बना दें।’ यह बात मुझे अब भी याद है। उन दिनों निर्मला
हिन्दी साहित्य की प्राध्यापिका थीं। ब्रजेश भाई नहीं हैं पर उनका मुस्कराता
चेहरा आज भी मेरी आंखों में बसा है।
0 राजेश उत्साही
कुछ लोग हमेशा साथ रहते हैं इसी तरह ... भावमय करती प्रस्तुति
ReplyDeleteयह पोस्ट ब्रजेश परसाई को तो याद करती ही है, उनके बहाने एक वक़्त को भी याद करती है। वह समय ऐसा ही जीवंत था। यह सब था जो कस्बों-शहरों को एक रचनात्मक ऊर्जा से भरे रखता था। वो शामें, वो रातें, वो दिन कमोबस लगभग हर शहर-कस्बे के हिस्से में आई थीं, हर जगह के अपने परसाई, उत्साही थे।
ReplyDeleteब्रजेश जी को जानकर अच्छा लगा.........
ReplyDeleteआपका कविता संग्रह उनकी रूह तक पहुंचेगा अवश्य.....
शुभकामनाएँ.
सादर.
बहुत बार किसी ख़ुशी के अवसर पर ऐसे ही होता है जो सबसे करीब होता है उसे याद करना भूल जाते है ... खैर आपने अपने पहले साहित्यिक गुरु की याद में इतना कुछ खंगाल डाला यह क्या कम है .... इतनी पुरानी तस्वीर और नाम भी लिख डाले ...तो फिर भूले कहाँ है आप..
ReplyDeleteयादों के झरोखे से निकली सुन्दर प्रस्तुति हेतु आभार!
ब्रजेश जी के बारे में जानकार अच्छा लगा. उन्हें याद करने का आपका अंदाज़ भी अच्छा लगा.
ReplyDeleteआप बहुत संवेदनशील हैं, अपनों को न भुलाने वाले ...
ReplyDeleteशुभकामनायें राजेश भाई !
आत्मीय परिचय... इस चित्र में भूले बिसरे श्री शंकर पुणताम्बेकर जी के भी दर्शन हुए!! और सादर इतना ही कहूँगा कि चित्र में आप बिलकुल कबीर की तरह लग रहे हैं!! :)
ReplyDeleteऔर एक बात, बाद के पानी में कुछ लिखा धुंधला हो जाता है, ये तो सुना था.. लेकिन कुछ यादें सामने आ जाती हैं यह भी देख लिया!!
देखिये, घर में आयी बाढ़ ने स्मृतियों को सामने ला दिया।
ReplyDeleteईश्वर की कृपा ही समझो कि आपके पहले माले पर स्थित आवास में बाढ़ आ गई। न आती तो शायद यह अति महत्वपूर्ण तस्वीर न जाने कब तक पुस्तकों में दबी-ढकी पड़ी रहती--पुरुषवादी समाज में हजार तरह के परदों/पन्नो में छिपा रखी निरीह नारी सी। मालूम कीजिए उक्त महिला तब की मालती महावर और अब की मालती वसंत(यह इन दिनों शायद भोपाल में ही हैं) तो नहीं हैं।
ReplyDeleteबलराम जी इतना तो तय है कि मालती बसंत और मालती महावर दो अलग-अलग व्यक्ति हैं। मालती बसंत की एक या दो कहानियां मैंने चकमक में प्रकाशित की हैं और उनसे मैं मिला भी हूं। हां वे रहती भोपाल में ही हैं।
Deleteराजेश जी, इस बार भोपाल जाएँ तो यह खुलासा पाने के लिए एक बार और मिलें।
Deleteइस सम्मेलन में मैंने भी शिरकत की थी लघुकथा पाठ भी हुआ था।
ReplyDeleteशुक्रिया भगीरथ जी। मैंने आपका जिक्र किया भी है। क्या आप चित्र में हैं और हैं तो कहां बताने का कष्ट करें,ताकि मैं वहां आपका नाम लिख सकूं।
Deleteकिसी की याद आने का एक बहाना वाढ भी हो सकती है शुभकामनायें
ReplyDeleteकुछ लोगों का होना बहुत अहमियत रखता है, और न होनी बहुत बड़ी कमी।
ReplyDeleteयादों के झरोखे से आपने बहुत ही भावपूर्ण प्रसंग उकेरा है। नमन।
सच में बहुत ही आत्मीय पोस्ट..
ReplyDeleteमुझे ऐसे संस्मरण पढ़ना बहुत अच्छा लगता है..
अफ़सोस की मेरे आसपस कोई भी ऐसा नहीं जिसे मैं साहित्य की चर्चा या बात कर सकूँ..
संस्मरण पढ़कर एहसास हो रहा है कि यह चित्र कितना दुर्लभ है।
ReplyDeleteबहुत आत्मीय संस्मरण लिखा आपने। नंदनजी की फोटो देखकर उनसे जुड़ी तमाम बातें याद आ गयीं।
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