Monday, August 23, 2010

पीपली से रूबरू : धीमी गति के समाचार-दूसरी किस्त

पीपली पर पहली टिप्पणी  पीपली से रूबरू: कुछ बेतरतीब नोट्स  में मैंने धीमी गति के समाचार का जिक्र किया है। किसी समय आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इस धीमी गति के समाचार को सुनने के लिए एक तरह के कौशल और धैर्य की जरूरत होती थी।
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Saturday, August 21, 2010

पीपली से रूबरू : कुछ बेतरतीब नोट्स-पहली किस्‍त

पीपली लाइव देख कर नहीं जी कर आया हूं।
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फिल्म शुरू होते ही  हावी हो जाती है। बहुत जल्द ही हम फिल्म के पात्रों से अपने आपको जोड़ लेते हैं। नामी-गिरामी कलाकारों का न होना शायद इसका एक बड़ा कारण है। जाने-माने चर्चित कलाकारों की पहले से बनी छवि से हमें मुक्त होने में समय लगता है। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। फिल्म का केन्द्रीय पात्र नत्था हमारे लिए उतना ही अनजान है जितना उसके लिए हम। नसीर जैसे कलाकार भी केन्द्रीय मंत्री की भूमिका में है, इसलिए उनका होना या नहीं होना बहुत मायने नहीं रखता।  वे हमें हमारे केन्‍द्रीय मंत्रियों की तरह ही नजर आते हैं। और रघुवीर यादव उन सबके बीच ऐसे खो जाते हैं कि हम केवल यह समझते हैं कि ये रघुवीर यादव का कोई हमशक्ल भर है।
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Saturday, August 14, 2010

'उत्‍सव' हमारे घर में


पंद्रह अगस्‍त यानी स्‍वतंत्रता दिवस। हमारे घर में इसे दो और वजहों से याद किया जाता है। पहली वजह यह है कि इसी दिन 1977 में मेरे छोटे भाई सुनील का चौदह साल की अल्‍पायु में ही निधन हो गया था। कई वर्षों तक जब जब पंद्रह अगस्‍त आता, सब तरफ उल्‍लास और उत्‍सव का माहौल होता, लेकिन हमारे घर में उदासी छा जाती। कई बार ऐसा होता कि रक्षाबंधन का त्‍यौहार भी उसके आसपास ही आता। वह भी हमारी उदासी दूर नहीं कर पाता।

लेकिन फिर 1991 में यह उदासी जैसे सदा के लिए दूर हो गई। पंद्रह अगस्‍त की ही भोर में उत्‍सव का आगमन हुआ। उत्‍सव यानी हमारा छोटा बेटा। हालांकि उसके जन्‍म के पहले तक हमें नहीं पता था कि पैदा होने वाला शिशु बेटा होगा या बेटी। लेकिन हमने नाम पहले ही सोच रखे थे। बेटा होगा तो उत्‍सव, बेटी होगी तो नेहा। हमारा पहला बच्‍चा बेटा था, लेकिन हम उसका नाम उत्‍सव नहीं रख सके, उसका नाम कबीर है।

यह संयोग ही है कि उस साल भी 14 अगस्‍त को नागपंचमी का त्‍यौहार था। नागपंचमी की रात बीत रही थी और पंद्रह अगस्‍त की तारीख शुरू हो रही थी। उन दिनों हम भोपाल के साढ़े छह नम्‍बर बस स्‍टाप के पास अंकुर कालोनी में रहते थे। मेरी पत्‍नी नीमा ने प्रसव वेदना महसूस की और कहा कि अस्‍पताल ले चलो। रात के एक बज रहे थे। मेरे पास तब सायकिल हुआ करती थी। सायकिल पर अस्‍पताल ले जाना संभव नहीं था। मैं सायकिल लेकर आटो ढूंढने निकला।

Thursday, August 12, 2010

एक थी 'दोस्त' : भूले-बिसरे दोस्त (6)

तुम पता नहीं अब कहां हो। पर मैं भूला नहीं हूं। मैं कह सकता हूं कि तुम मेरी पहली स्‍त्री दोस्त थीं।*  ऐसी दोस्त जिसके साथ मैं दुनिया भर की बातें कर सकता था,बिना किसी झिझक के। तुम भी स्कूल या कॉलेज की दोस्त नहीं थीं। हम दोनों साथ-साथ काम करते थे, एक ही दफ्तर में।

तुम अपने तीन भाईयों की अकेली बहन थीं। वे सब शादीशुदा थे। तुम्हारी हैसियत उनके बीच नौकरानी जैसी थी। तुम्हें घर का सारा काम करना होता था। अपने भाई-भाभियों के कपड़े धोने होते थे, यहां तक कि उनके अंत:वस्त्र भी। बूढ़ी मां और रिटायर पिता यह सब देखकर दुखी होते थे। फिर मां ने ही तुम्हें  उकसाया था कि तुम कहीं बाहर निकल जाओ। मास्टर डिग्री थी तुम्हारे पास इतिहास की।

Tuesday, August 10, 2010

उदय ताम्‍हणे : भूले-बिसरे दोस्‍त (5)

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इस सूची में उदय तुम्‍हारा नाम भी आ ही जाता है। हालांकि तुम से पिछली मुलाकात कुछ साल भर पहले ही हुई थी। पर अब हम जिस तरह से मिलते हैं, वह भूले-बिसरे मिलना ही है। हमारी दोस्‍ती भी स्‍कूल या कॉलेज की दोस्‍ती नहीं थी। बल्कि वह भी इस ब्‍लाग जगत की तरह अस्‍सी के दशक में अखबार की दुनिया में पैदा हुई एक लहर की दोस्‍ती थी।

Sunday, August 8, 2010

सुरेन्‍द्रसिंह पवार : भूले-बिसरे दोस्‍त (4)

1985 में पवार 
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बिसरा जरूर गए हैं,पर भूले नहीं हैं हम-एक दूसरे को। अभी-अभी तो चंद साल पहले ही मिले थे हम-तुम। इतना मुझे पता है भोपाल के बैरागढ़ इलाके में ही बस गए हो तुम। शिक्षक तो तुम बन ही गए थे। किसी स्‍कूल के हेडमास्‍टर बनने वाले थे। यह भी खबर है कि एक बेटा तुम्‍हारा पढ़ रहा है डॉक्‍टरी और एक इंजीनियरी।

मोबाइल फोन ने कुछ आसानियां की हैं तो कुछ परेशानियां भी। अब देखो न तुम्‍हारा लैंडलाइन नम्‍बर मेरे पास हुआ करता था। पर अचानक ही एक दिन वह इस दुनिया से विदा हो गया। पक्‍के तौर पर तुमने मोबाइल ले लिया होगा और उसको कटवा दिया होगा। तुमसे सम्‍पर्क करना भी मुश्किल।  

Thursday, August 5, 2010

शतरंज के खिलाड़ी : भूले-बिसरे दोस्त(3)

मोहन पटेल यही नाम याद रह गया है ग्यारहवीं कक्षा के छोर पर। वह भी इसलिए क्योंकि तुम दोस्त तो थे ही, रिश्ते में चाचा भी थे। पर हम दोनों हमउम्र थे सो चचा-भतीजे वाली बात तो कहीं आती ही नहीं थी। मेरे पिता और दादी और तुम्हारे माता-पिता इटारसी की गरीबी लाइन में साथ-साथ रहते थे। एक ही बिरादरी के थे। दोनों परिवारों के पूर्वज बुन्देलखंड के छतरपुर जिले से आजीविका के सिलसिले में दशकों पहले इटारसी आ बसे थे। बस यहीं से एक नया रिश्ता पनप गया था। पिताजी तो अपनी दो बहनों के अकेले भाई थे। पर तुम छह भाइयों में सबसे छोटे थे।

Tuesday, August 3, 2010

बनवारी रे...: भूले-बिसरे दोस्‍त (2)

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‘बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे...’ सुमन कल्‍याणपुर द्वारा गाया यह गीत मेरे प्रिय गीतों में से रहा है। इसलिए भी कि इसे सुनकर मुझे बनवारी यानी बनवारी लाल श्रीवास्‍तव तुम्‍हारी याद हो आती है। तुम यकीन करोगे कि मैं सुमन कल्‍याणपुर को तुम्‍हारे नाम से ही याद रखता हूं।

Monday, August 2, 2010

दामोदर तुम कहां हो : भूले-बिसरे दोस्त(1)

दामोदर यानी दामोदर प्रसाद शर्मा।

हम दोनों 1973-74 में मप्र मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्कूल के सहपाठी हुआ करते थे। तुम्हें याद है न मैं रेल्वे स्टेशन मास्टर का बेटा वहां संटर नम्बर तीन में रहा करता था। तुम पुलिस हवलदार के बेटे थे,सो बीटीआई रोड पर पुलिस लाइन में रहते थे। हमारा स्कूल भी पुलिस लाइन के आगे ही पड़ता था। इसलिए रोज आते-जाते समय तुम्हारे घर आना तो होता ही था।