Monday, April 23, 2012

निर्मला पुतुल का सवाल


जरा सोचो,कि
तुम मेरी जगह होते
और मैं तुम्‍हारी
तो, कैसा लगता तुम्‍हें?

कैसा लगता
अगर उस सुदूर पहाड़ की तलहटी में
होता तुम्‍हारा गांव
और रह रहे होते तुम
घास-फूस की झोपडि़यों में
गाय,बैल,बकरियों और मुर्गियों के साथ
और बुझने को आतुर ढिबरी की रोशनी में
देखना पड़ता भूख से बिलबिलाते बच्‍चों का चेहरा
तो कैसा लगता तुम्‍हें?

कैसा लगता
अगर तुम्‍हारी बेटियों को लाना पडता
कोस भर दूर से ढोकर झरनों से पानी
और घर का चूल्‍हा जलाने के लिए
तोड़ रहे होते पत्‍थर
या बिछा रहे होते सड़क पर कोलतार या फिर
अपनी खटारा साइकिल पर
लकडि़यों का गठ्ठर लादे
भाग रहे होते बाजार की ओर सुबह-सुबह
नून-तेल की जुगाड़ में

कैसा लगता, अगर तुम्‍हारे बच्‍चे
गाय, बैल, बकरियों के पीछे भागते
बगाली कर रहे होते
और तुम, देखते, कंधे पर बैग लटकाए
किसी स्‍कूल जाते बच्‍चे को

जरा सोचो न, कैसा लगता ?
अगर तुम्‍हारी जगह मैं कुर्सी पर डटकर बैठी
चाय सुड़क रही होती चार लोगों के बीच
और तुम सामने हाथ बांधे खड़े
अपनी बीमार भाषा में रिरिया रहे होते
किसी काम के लिए

बताओ न कैसा लगता ?
जब पीठ थपथपाते हाथ
अचानक मांपने लगते मांसलता की मात्रा
फोटो खींचते, कैमरों के फोकस
होठों की पपडि़यों से बेखबर
केन्द्रित होते छाती के उभारों पर

सोचो,कि कुछ देर के लिए ही सोचो, पर सोचो,
कि अगर किसी पंक्ति में तुम
सबसे पीछे होते
और मैं सबसे आगे 

और तो और
कैसा लगता, अगर तुम मेरी जगह काले होते
और चिपटी होती तुम्‍हारी नाक
पांवों में बिवाईं होती ?
और इन सबके लिए कोई फब्‍ती कस
लगाता जोरदार ठहाका
बताओ न कैसा लगता तुम्‍हें?
कैसा लगता तुम्‍हें?
                           0 निर्मला पुतुल
निर्मला पुतुल की यह कविता अपने परिवेश से दो-दो हाथ करती नजर आती है। यह कविता मुझे अजेय कुमार के ब्‍लाग अजेय पर दिखाई दी।

Saturday, April 21, 2012

समझदार के लिए इशारा काफी है....

                                                                                                                                                                  डेक्‍कन हेराल्‍ड,बंगलौर  से साभार
मेरे यायावरी ब्‍लाग पर दिल्‍ली में एक दिन पोस्‍ट पर आपका स्‍वागत है। 

Monday, April 16, 2012

जो शेष है, चर्चा में है


ज्‍योतिपर्व प्रकाशन, दिल्‍ली से प्रकाशित मेरे कविता संग्रह ‘वह, जो शेष है’ पर मित्रों ने अपने ब्‍लागों पर समीक्षाएं लिखीं हैं और उसके बहाने से कुछ और चर्चाएं भी कीं हैं। संभव है कि उनकी ये पोस्‍ट आपकी नज़र में आ गई हों। जिन्‍होंने न देखीं हों उनकी सुविधा के लिए लिंक यहां दे रहा हूं। कृपया एक बार अवश्‍य देखें और अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करें।

कुछ मित्र संग्रह अभी पढ़ रहे हैं। उन्‍होंने वादा किया है कि वे भी जल्‍द ही उस पर प्रतिक्रिया लिखेंगे।

                                      0 राजेश उत्‍साही 

Tuesday, April 10, 2012

मेरे पहले साहित्यिक गुरु : ब्रजेश परसाई


पिछले दिनों घर में आई बाढ़ से निपटते हुए, पुराने कागजों में यह तस्वीर हाथ आ गई। तस्‍वीर देखते ही मुझे ब्रजेश परसाई बहुत याद आए। वे एक तरह से मेरे पहले साहित्यिक गुरु थे मैं यह कह सकता हूं। साहित्य की बारीकियों को देखने का तरीका मैंने उनसे सीखा। मेरा पहला कविता संग्रह 'वह, जो शेष है' प्रकाशित हो गया है। लेकिन देखिए मैं उसमें ब्रजेश भाई का उल्‍लेख करने से चूक गया। वे कविताएं नहीं लिखते थे, पर होशंगाबाद में वे पहले व्‍यक्ति थे जिनसे में नई कविता पर बात कर सकता था। तीन लोग और ऐसे हैं जिनके बारे में जिक्र नहीं करुं तो अच्‍छा नहीं लगेगा। एक संतोष रावत जिनकी आटा चक्‍की पर बैठकर हमने न जाने कितनी साहित्‍यिक चर्चाएं की होंगी। चक्‍की वे खुद चलाते थे। आजकल बैंक में मैनेजर हैं। दूसरा नाम है महेश मूलचंदानी का। यूं तो वे जूते की दुकान चलाते हैं, पर उनकी क्षणिकाएं भी जूतों से कम नहीं होती थीं। तीसरे सुखदेव मखीजा। सुखदेव बाद में भोपाल आ गए थे, और राजनीति में उतरकर छुटभैये नेता भी बने। 1979 से लेकर 84 के अंत तक का समय कुछ ऐसा था, जिसका अधिकांश हिस्‍सा हमने साहित्‍य पढ़ने-लिखने और चर्चा करने में गुजारा। हम चार लोग मिलकर एक लायब्रेरी भी चलाते थे, जिसमें आपस में चंदा करके पत्रिकाएं बुलवाते थे और पढ़ते थे। इन सबके साथ कैसा समय गुजरा यह फिर कभी लिखूंगा। 

अभी मैं बात कर रहा था ब्रजेश परसाई की। मध्‍यप्रदेश साहित्‍य परिषद ने पाठकमंच की योजना शुरू की थी। इसके तहत प्रदेश के लगभग हर जिला मुख्यालय पर पाठक मंच का गठन किया गया था। जब भी कोई नई किताब प्रकाशित होती, परिषद उसकी दो प्रतियां हर पाठक मंच में भेजती। वहां उस पर पाठक मंच का कोई एक सदस्‍य समीक्षा लिखता और फिर उस पर चर्चा होती।  संभवत: पाठक मंच योजना अब भी जारी है। उन दिनों होशंगाबाद में पाठक मंच के संयोजक ब्रजेश परसाई थे। वर्षों तक उन्‍होंने पाठक मंच का कुशल संचालन किया। पेशे से वे बैंक कर्मचारी थे। नए-नए खुले क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में वे नौकरी करते थे। उनके बड़े भाई कैलाश परसाई कांग्रेस नेता के रूप में पहचाने जाते थे।

मेरी शाम अक्‍सर उनके घर पर साहित्‍य और दुनिया जहान की चर्चा और बहस करते हुए बीतती थी। शनिचरा मोहल्‍ले में होली चौक से थोड़ा आगे गली में उनका घर था। उनके घर से कुछ पचास कदम दूर पर नर्मदा बहती है। नर्मदा किनारे सुंदर सेठानी घाट है। कई बार हम घाट पर जाकर बैठ जाते और घंटों बतियाते रहते। घाट तो अब भी हैं, नर्मदा भी बह रही है। पर ब्रजेश भाई नहीं हैं। 2005 में हार्टअटैक से उनका निधन हो गया। 




बाएं से पहले शंकर पुणतांबेकर हैं , दूसरे का नाम याद नहीं तीसरे संभवत: सतीश दुबे हैं। चौथे वेद हिमांशु,पांचवे,छठवें का नाम भी याद नहीं। सातवें सनत कुमार हैं। आठवें बलराम,नौवें का नाम भी याद नहीं, दसवें हर‍ि जोशी । ग्‍यारहवें कन्‍हैयालाल नंदन,बारहवीं  महिला  हैं, पर उनका नाम भी याद नहीं। तेरहवें शकील,चौदहवें संतोष रावत और पंद्रहवें कैलाश परसाई। बाएं से बैठे हुए अखिल पगारे, राजेश उत्‍साही और ब्रजेश परसाई।  होशंगाबाद,मप्र में 22 एवं 23 नवम्‍बर,1980 को आयोजित इस कार्यक्रम के आयोजन का श्रेय ब्रजेश परसाई को जाता है। 

ब्रजेश भाई ठिगने कद के लेकिन भारी शरीर के मालिक थे। चलते तो लगता जैसे कोई गोलमटोल गुड्डा लुढ़कता हुआ चला आ रहा हो। अपनी अलंकारित भाषा में शहर के किसी भी व्‍यक्ति से लेकर देश के नामवर लोगों की खिल्‍ली उड़ाना उनका प्रिय शगल था। पर उनकी खिल्‍ली सुनकर कतई बुरा नहीं लगता था। उनके चेहरे पर हमेशा मुस्‍कान रहती थी। बात करते हुए उनकी आंखें कुछ इस तरह फैल जातीं कि जैसे आपने ध्‍यान नहीं दिया तो बाहर ही आ जाएंगी। उनकी हंसी ऐसी थी जैसे किसी कांच के मर्तबान से कंचे एक-एक करके बाहर आते हुए आवाज कर रहे हों। वे हमेशा अप-टू-डेट रहते।

समकालीन साहित्‍य के बारे में वे जितना पढ़ते थे शायद उन दिनों शहर में कोई और नहीं पढ़ता था। इसलिए मुझे उनके पास बैठना, बात करना अच्‍छा लगता था। मशहूर लघुपत्रिका 'पहल' मैंने पहली बार उनके घर में ही देखी थी। तमाम अन्‍य साहित्‍य पत्रिकाएं उनके यहां आती थीं। मैं उनसे पत्रिकाएं और किताबें लेकर पढ़ता था। पाठक मंच में मैंने भी दो किताबों की समीक्षा लिखी थी। ये मेरी पहली-पहली समीक्षाएं थीं। एक थी भगवत रावत की कविताओं की ‘किताब दी हुई दुनिया।’ दूसरी किताब रमाकांत श्रीवास्‍तव की कहानियों का संग्रह था।

यह समय लघुकथा का था। लघुकथा आंदोलन चल रहा था। ब्रजेश भाई भी लघुकथाएं लिखते थे और मैं भी। उनके कहने पर ही मैंने एक अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में भाग लिया था। प्रतियोगिता में मेरी लघुकथा 'अनुयायी' को भी चुनी हुई लघुकथाओं में शामिल किया गया था। ब्रजेश भाई ने अपने प्रयासों से लघुकथाओं पर केन्द्रित दो अखिल भारतीय कार्यक्रम होशंगाबाद में करवाए। जिनमें उस समय के कई मशहूर लघुकथाकार शामिल हुए थे। इनमें कन्‍हैयालाल नंदन,बलराम,शंकर पुणतांबेकर,सतीश दुबे, मालती महावर,हरि जोशी,विक्रम सोनी,कृष्‍ण कमलेश,भगीरथ जैसे कई नाम शामिल थे। मैं भी इन आयोजनों का हिस्‍सा था। 2010 में लघुकथाकार बलराम अग्रवाल बंगलौर आए तो उनसे चर्चा में इन आयोजनों का जिक्र निकला। उन्‍होंने बताया कि इन आयोजनों और इनमें हुई चर्चा का लघुकथा आंदोलन में खासा महत्‍व है। 

नाटकों में भी उनकी खासी रुचि थी। भोपाल में उन दिनों भारत भवन नया-नया बना था। उसके साहित्यिक कार्यक्रमों को देखने-सुनने वे अक्‍सर जाया करते थे। जब वे लौटते तो उनसे मैं उन कार्यक्रमों के बारे में सुनता।

वे मुझ से लगभग तीन साल बड़े थे पर मेरी शादी उनसे पहले हुई। शादी पर जब वे घर आए और मेरी पत्‍नी निर्मला वर्मा से मिले तो कहा, ‘अब आप इन्‍हें निर्मल वर्मा बना दें।’ यह बात मुझे अब भी याद है। उन दिनों निर्मला हिन्‍दी साहित्‍य की प्राध्‍यापिका थीं। ब्रजेश भाई नहीं हैं पर उनका मुस्‍कराता चेहरा आज भी मेरी आंखों में बसा है।
                                 0 राजेश उत्‍साही  

Sunday, April 1, 2012

सूखती किताबों में भीगता मन


परिवार से दूर अकेले रहने के क्‍या दुख (और सुख) हैं, यह पिछले तीन साल से मैं हर समय अनुभव कर रहा हूं। हर सुबह एक नया सबक देने के लिए मुस्‍तैद होकर आती है।

बंगलौर आया तो घर के काम करने में कोई समस्‍या नहीं आई। क्‍योंकि बचपन से अपना काम स्‍वयं करने की आदत रही है। सफाई, कपड़े धोना, प्रेस करना जैसे कामों में कोई आलस महसूस नहीं हुआ। परिवार में रहते हुए भी यह रोजमर्रा का काम था। नहीं आता था, तो खाना बनाना। केवल चाय बनाना ही सीख पाया था। कभी-कभार अकेले होने पर पराठे बनाए जो देश के विभिन्‍न प्रांतों के नक्‍शों के प्रतिरूप ही नजर आते थे। रोटी बनाने का तो सवाल ही नहीं ।

यहां हलनायकलहल्‍ली(बंगलौर) में दो किलोमीटर के दायरे में खाने की कोई दुकान नहीं है। दिन की पेट पूजा तो दफ्तर की कैंटीन में हो जाती, लेकिन शाम के वक्‍त खुद बनाने के अलावा दूजा विकल्‍प नहीं। शुरू के आठ महीने तो दो-तीन साथी मिलकर रह रहे थे, सो समस्‍या नहीं आई। सब्‍जी काटने, धोने और बरतन आदि की सफाई का ठेका अपना था। बनाने का ठेका उनके पास था। वे पकाते और हम खाते।

फिर धीरे-धीरे वे भी इधर-उधर हो गए। नतीजा यह कि रसोई के मैदान में उतरना पड़ा। कुछ दिन प्रयोग चलते रहे। एक दिन खिचड़ी बनाई तो नमक डालना भूल गया। कुकर के ढक्‍कन को नमक डालने के लिए खोला तो खिचड़ी रूठकर रसोई की छत से जा चिपकी। खैर,अब तो मैं खिचड़ी,पुलाव,रोटी,पराठे,बाटी,दाल,सब्‍जी सब बना लेता हूं। यकीन न हो तो कभी पधारें, वादा है कि भूखे पेट नहीं जाने दूंगा। मित्रो, गारंटी का तो जमाना ही नहीं रहा, इसलिए स्‍वादिष्‍ट होगा या नहीं यह मत पूछिएगा।
 **
लीजिए जो बताने के लिए यह पोस्‍ट शुरू की थी, वह तो बीच में ही रह गया। मैं इधर मार्च में लगभग 10 दिन उत्‍तर भारत के भ्रमण पर था। बंगलौर-दिल्‍ली-रोहतक-समालखा-दिल्‍ली-जयपुर-भोपाल-जबलपुर-दिल्‍ली-बंगलौर। यह भ्रमण भी बहुत कुछ अपने में समेटे है। इन यात्राओं का वृतांत यायावरी पर लिखूंगा।

यात्रा से 25 मार्च की रात दस बजे लौटा तो दूसरे माले पर स्थित मेरे वन बीएचके घर में बाढ़ आई हुई थी। रसोई, हाल और कमरा सब जगह पानी ही पानी था। पानी की समस्‍या तो पूरे देश में है। उससे हलनायकनहल्‍ली अछूता नहीं है। 36 फ्लैट वाले इस अपार्टमेंट में पानी की खोज में मकान मालिक ने परिसर में पिछले दो साल में एक के बाद एक, दो टयूबवैल खुदवाए हैं। एक तो पहले से ही था। पानी सुबह-शाम, आधा-एक घंटे के लिए ही आता है। ऐसे में रसोई या सप्‍पने का कौन-सा नल खुला रह जाए कह नहीं सकते। पिछले तीन साल से हर रोज अल्‍लसुबह दफ्तर के लिए निकलने से पहले मैं इस संदर्भ में खासी सावधानी बरतता रहा हूं।

इस बार भी जब यात्रा पर निकल रहा था, तो नीचे से एक बार फिर ऊपर आया और सारे नलों को जांचा कि वे बंद हैं या नहीं। पर रसोई का नल दगा दे गया। उसने बंद होने का आभास तो दिया, पर वह अपनी आदत के मुताबिक पूरी तरह बंद नहीं हुआ। पानी साफ आए, इसके लिए नल की टोंटी में एक छोटा छन्‍ना लगा रखा है। सामान्‍य तौर पर पानी सीधे ही सिंक में गिरकर नीचे चला जाता है। छन्‍ने में जम रही मिट्टी के कारण छन्‍ने ने फव्‍वारे का रूप धारण कर लिया। इससे पानी फैलकर सिंक के बाहर गिरता रहा और बाढ़ का कारण बना।

हाल के एक हिस्‍से में बड़ी चटाई पर बैठक की व्‍यवस्‍था की हुई थी। वहीं दीवार के सहारे किताबों को जमाया था। चटाई पर लगा बिस्‍तर पानी में भीगकर मन-मन भारी हो गया। रात एक बजे तक पानी उलीचने में जुटा रहा।

बिस्‍तर सूख गया। सबसे अधिक पानी किताबों ने पिया था। पिछले एक हफ्ते से सुखाने का अथक प्रयास कर रहा हूं। पूरे हाल में वे बिछी हैं, रात भर पंखे की हवा खाती हैं और दिन भर बन्‍द कमरे की गर्मी। शनिवार को दिन भर उन्‍हें छत पर लिए बैठा रहा। जैसे कोई चेहरा आसुंओं से भीगकर अपना असली रूप खो देता है, किताबों ने भी अपना असली रूप खो दिया है। सबसे ज्‍यादा नुकसान जिल्‍द यानी हार्डकवर वाली किताबों को हुआ है। उनकी जिल्‍द जो सुरक्षा के लिए बनी थी, वही उनकी विकलांगता का कारण बनी है।

इनमें सुधा भार्गव द्वारा भेंट किया कविता संग्रह ‘रोशनी की तलाश’, अनुपमा तिवाड़ी का ‘आईना भीगता है’ और वेद व्‍यथित का ‘अंतर्मन’ शामिल है। वेद जी ने बहुत आग्रह के साथ अपना नया कविता संग्रह ‘न्‍याय याचना’ भी प्रतिक्रिया हेतु मुझे भेजा था। उस पर समीक्षा लिखना लगातार टलता रहा है और अब तो वह संभव ही नहीं है। मैं वेद जी से क्षमा याचना ही कर सकता हूं। क्‍योंकि उनका कविता संग्रह कागज की लुगदी में बदल गया है। सुधा जी के घर से मैं पढ़ने के लिए राजी सेठ का उपन्‍यास तत-सम ले आया था। उसकी हालत वापस करने लायक नहीं रही है। इसके लिए भी सुधा जी से माफी ही मांगनी पड़ेगी।

‘तय तो यही हुआ था’ मेरे प्रिय कवि शरद बिल्‍लौरे का कविता संग्रह है। वह भीगने के बाद सूखकर पापड़ बन गया है। लेकिन धर्मवीर भारती का मेरा प्रिय उपन्‍यास ‘गुनाहों का देवता’ सूखने का नाम ही नहीं ले रहा है। साहित्‍य अकादमी से प्रकाशित रवीन्‍द्रनाथ टैगोर के निबंध संग्रह के दो खंड भी पानी में डूबे रहे हैं। पर हार्डकवर होने के बावजूद आश्‍चर्यजनक रूप से सुरक्षित हैं। पर रवीन्‍द्रनाथ की कविताएं अब भी पानी से तरबतर हैं। नेशनल बुक ट्रस्‍ट से प्रकाशित समांतर कोश के दो खंड भी सुरक्षित हैं, हालांकि पानी के निशान उन पर भी हैं। वे किताबें जो पेपरबैक थीं जल्‍द ही सूख गईं हैं बल्कि उन्‍होंने पानी भी कम ही पिया। फहमीदा रियाज, फैज अहमद फैज, शहरयार, कतील शिफाई के संग्रह बुरी तरह भीगे हुए हैं। पहल, अन्‍यथा, कथा जैसी कुछ पत्रिकाओं के भारी भरकम अंक भी थे, वे भी सूख रहे हैं। 


पिछले दिनों ही मैंने रश्मिप्रभा जी की कविताओं के दो संग्रह 'अनुत्‍तरित' और 'शब्‍दों का रिश्‍ता' तथा उनके द्वारा संपादित कविता संग्रह 'अनुगूंज' फिल्‍पकार्ट के माध्‍यम से खरीदे थे। ये तीनों ही किताबें ऊपर चित्र में दिख रहे छोटे से रैक में रखीं थीं। वे बच गईं। इन्‍हें तो मैं अभी पढ़ ही नहीं पाया था। 

सबसे अधिक क्षति मेरी अपनी कविताओं को हुई है। 1978 से लेकर 1987 के आसपास तक जो कविताएं मैंने लिखी थीं, वे तीन कॉपियों में लिपिबद्ध थीं, स्‍याही से। वे मेरे ब्‍लाग गुलमोहर पर भी नहीं हैं। दो कॉपियों में स्‍याही इस कदर फैल गई है, कि मुझे अपनी स्‍मृति पर जोर देकर याद करना पड़ेगा कि वहां क्‍या लिखा था। शायद वे भी वहां पड़े-पड़े उकता गई थीं और चाहती थीं कि उन पर ध्‍यान दिया जाए। पहली ही फुरसत में उन्‍हें कम्‍प्‍यूटर पर लाने की कोशिश करूंगा।

छत पर सूखती हुई किताबों को उलटते-पलटते 'पहल' के 90 वें अंक में प्रकाशित इस गीत ने मन को अंदर तक भिगो दिया। पढ़ें, शायद आपकी अनुभूति भी यही हो-

सोने से पहले : अवध बिहारी श्रीवास्‍तव

दरवाजे खिड़कियां देख लूं
आने से पहले बिस्‍तर पर

दूध उबलने को रक्‍खा है
उबल जाए रख दूं ,तो आऊं
अम्‍मा जी का पैर दुख रहा,
जाकर थोड़ी देर दबाऊं

जूठे बरतन पड़े हुए हैं
आती हूं चौके को धोकर

छोड़ो हाथ, अभी देवर जी
आए कहां शहर से पढ़कर
बाहर बाबू जी बैठे हैं
’बहू जागते रहना’ कहकर

चार गरम रोटियां सेंक लूं
बस आती हूं उन्‍हें खिलाकर

पैर पटकना बंद करो अब
एक मिनट आओ आंगन में
टंगे हुए कपड़े उतार लो
बाहर भींगेंगे सावन में

चलती तो हूं साथ तुम्‍हारे
लेकिन चूर हुई हूं थककर
***
                                       0 राजेश उत्‍साही