Saturday, February 26, 2011

संवाद


।।एक।।
मैंने उससे कहा, ‘तुम बहुत सुंदर हो।’
‘जानती हूं’, वह बोली।
मैं निरुत्‍तर था।
*
मैंने कहा, ‘इस साड़ी में बहुत सुंदर लग रही हो।’
‘तो यह साड़ी पत्‍नी के लिए दे दूं?’
मैं अवाक था।

।।दो।।
मैंने उससे कहा, ‘तुम बहुत सुंदर हो।’
‘धन्‍यवाद।’ वह बोली।
मैं निरुत्‍तर था।
*
मैंने कहा, ‘इस साड़ी में बहुत सुंदर लग रही हो।’
‘तो ऐसी ही एक साड़ी मुझे देंगे?’
मैं अवाक था।
0 राजेश उत्‍साही 


Friday, February 18, 2011

मैंने चाहा तो बस इतना : शिवराम

शिवराम  (23.12.1949-1.10.2010)

मैंने चाहा तो बस इतना
कि बिछ सकूं तो बिछ जाऊं
सड़क की तरह
दो बस्तियों के बीच

दुर्गम पर्वतों के आर-पार
बन जाऊं कोई सुरंग

फैल जाऊं
किसी पुल की तरह
नदियों समंदरों की छाती पर

मैंने चाहा
बन जाऊं पगडंडी
भयानक जंगलों के बीच

एक प्‍याऊ
उस रास्‍ते पर
जिससे लौटते हैं
थके-हारे कामगार

बहूं पुरवैया की तरह वहां
जहां सुस्‍ता रहें हैं
पसीने से तरबतर किसान

सितारा आसमान का
चांद या सूरज
कब बनना चाहा मैंने

मैंने चाहा तो बस इतना
कि,जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊं मैं
बेसहारों का सहारा।

(राजस्‍थान के कामगारों के बीच काम करते हुए जीवन बिताने वाले रंगकर्मी और कवि थे शिवराम।  उन्‍होंने पिछले अक्‍टूबर में 61 वर्ष की आयु में सबसे विदा ले ली। उनकी यह कविता तथा रेखाचित्र 'अनौपचारिका' पत्रिका के जनवरी,2011 अंक से साभार।)                       0 राजेश उत्‍साही 

Sunday, February 13, 2011

प्रेम


प्रेम
समय की टहनी
पर खिला गुलाब है
भर सको
तो भर लो
आंखों में उसके रंग
फेफड़ों में सुगंध
झड़ जाएंगी
पखुंडियां प्रेम की।

प्रेम
जल है
बहती नदी का
अंजुरी भर
धोओ अपनी आंखें
अपना चेहरा और आत्‍मा भी
प्रेम पवित्र करता है ।

प्रेम
दरअसल
व्‍यक्‍त करने की नहीं
महसूसने की चीज है ।

0 राजेश उत्‍साही