Sunday, June 24, 2012

चूं चूं का मुरब्‍बा यानी गैंग्‍स ऑफ वासेपुर

दो हफ्ते पहले मैं कुछ खरीदने एक मॉल में चला गया। रिलीज से पहले ही वहां ‘गैंग्‍स ऑफ वासेपुर’ की सीडी मौजूद थी। कीमत थी 130 रुपए। तीन बार उसे उठाया,उल्‍टा-पलटा और फिर रख दिया।

इस बीच वासेपुर की चर्चा जहां-तहां पढ़ने को मिलती रही। 22 जून को वह रिलीज भी हो गई। 23 जून को शादी की सालगिरह थी। मैं बंगलौर में अकेला था। सोचा चलो इस फिल्‍म को देखकर ही सालगिरह को यादगार बना लिया जाए।

मारुतहल्‍ली रोड पर एक मल्‍टीप्‍लैक्‍स में बालकनी का 180 का टिकट लेकर फिल्‍म देखने पहुंचा। फिल्‍म शुरू होने के पहले ही दर्शकों की सीटियां और आवाजें सुनने को मिलने लगीं। पिछले तीन साल में बंगलौर में देखी जाने वाली मेरी यह दसवीं या बारहवीं फिल्‍म होगी। पहली बार मैं यह दृश्‍य देख रहा था। दर्शकों में ज्‍यादातर नौजवान और उत्‍तरभारतीय ही नजर आ रहे थे।  


फिल्‍म शुरू हुई, बिलकुल नए अंदाज में। दृश्‍य में टीवी बहू स्‍मृति ईरानी दर्शकों को अपनी तरफ बुलाती नजर आ रही थीं। पड़ोस के दर्शक ने अपने साथी से कहा,‘यह शायद एड है।’ धीरे-धीरे स्‍मृति ईरानी हमसे दूर होती गईं और समझ आया कि दृश्‍य में किसी घर में टीवी चल रहा है। और अगले ही पल एक विस्‍फोट की आवाज के साथ टीवी फट गया। उसके बाद लगभग पांच-सात मिनट तक जिस तरह का दृश्‍य रहा वह या तो दिवाली पर नजर आता है या फिर वीडियो गेम में। गोलियां ऐसे चल रहीं थीं जैसे फूल बरसाए जा रहे हों। मजे की बात यह कि इस दृश्‍य को देखकर दर्शकों में हंसी फूट रही थी।

फिल्‍म थोड़ी आगे बढ़ी तो लगा हम किसी लोककथा को देख या सुन रहे हैं। पर यह भ्रम जल्‍द ही टूट गया। लगा कि हम किसी ऐसी कक्षा में बैठे हैं जहां स्‍क्रीन पर इतिहास पढ़ाया जा रहा है। पर यह भ्रम भी देर तक नहीं रहा। लगने लगा कि हम शायद धनबाद के आसपास की कोई डाक्‍युमेंटरी देख रहे हैं। इस अहसास पर टिके रहना भी देर तक संभव नहीं हुआ। क्‍योंकि उसमें फिक्‍शन यानी कहानी की शुरुआत हो चुकी थी। लेकिन फिल्‍म बीच-बीच में डाक्‍युमेंटरी की याद दिलाती रही।

फिल्‍म की कहानी आजादी के पहले सुल्‍ताना डाकू से लेकर आज तक फैली हुई है। यानी साठ-सत्‍तर साल का लंबा कालक्रम। धनबाद के पास की कोयला खदानों से लेकर वासेपुर के कुरैशी और पठानों के बीच की लड़ाई और उस लड़ाई का फायदा उठाते राजनीतिक तत्‍वों की कहानी। वह कहीं इतनी अधिक बिखरी हुई है कि उसके तार जोड़ने मुश्किल हो जाते हैं और कहीं इतनी सीधी है कि सब कुछ आइने की तरफ साफ लगता है। फिल्‍म बनाने के बाद निर्देशक भी शायद यह बात समझ रहा था इसीलिए बीच में बीच में तार जोड़ने के लिए सूत्रधार की आवाज आती है। पर उससे भी बात बनती नहीं है। फिल्‍म में जो बातें प्रतीक के रूप में कही जा सकती थीं, उन्‍हें विस्‍तार से फिल्‍माया गया है और वास्‍तव में जहां विस्‍तार की जरूरत थी वहां प्रतीक आते है।

कुछ दृश्‍य ऐसे हैं कि अगर वे फिल्‍म में न भी होते तो भी कहानी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जैसे मनोज बाजपेयी और रीमा सेन का बोरवेल पर कपड़े धोना या कि मनोज बाजपेयी का नहाना, रियाजुद्दीन और उसकी प्रेमिका का तालाब के किनारे मिलना,पार्टी में रियाजुद्दीन का कल्‍पना में सोचना आदि।

फैजल को अपनी मां को दादा की उम्र के व्‍यक्ति के साथ देखना और फिर उस दंश से जीवन भर जूझना अपने आप में एक पूरी फिल्‍म का विषय है। एक किशोर बच्‍चे पर ऐसी बात का क्‍या असर होता है, सूत्रधार केवल दो लाइन में कहकर इसे एक झटके में निपटा देता है। फैजल और उसके भाई का रेलगाडी के डिब्‍बे में झाडू़ लगाना और पखाना साफ करने का एक मिनट से भी कम का दृश्‍य कहानी का हिस्‍सा नहीं नजर आता। ऐसे कई दृश्‍य हैं जहां फिल्‍म बिखर जाती है।

जहां तक अभिनय का सवाल है तो मनोज बाजपेयी अपने को कई बार साबित कर चुके हैं,यह फिल्‍म उन्‍हें उससे आगे तो नहीं ले जाती। हां इस फिल्‍म में इतना जरूर है कि उनके सामने कोई और नजर नहीं आता है। हां,पीयूष मिश्रा और रामाधीर सिंह का किरदार निभाने वाले तिग्‍मांशु धूलिया ने उन्‍हें जबरदस्‍त टक्‍कर दी है। नगमा और दुर्गा के किरदार निभाने वाली महिलाओं क्रमश: रिचा चढ्ढा और रीमा सेन के लिए जो सीन लिखे गए हैं,वे स्‍वाभाविक रूप से कहानी का हिस्‍सा नहीं लगते हैं। उनके किरदार उभरते नहीं हैं। वे अपने दृश्‍य की वजह से ही याद रह पाती हैं। पर अभिनय के लिहाज से उन्‍होंने अपना काम बखूबी निभाया है। जयदीप अहलावत शाहीद खान के रूप में प्रभाव छोड़ते हैं। पर फिल्‍म शुरू होते ही दर्शक उनमें ही मनोज बाजपेयी को ढूंढने लगते हैं,क्‍योंकि दाढ़ी में छिपा उनका चेहरा मनोज बाजपेयी की तरह ही नजर आता है। बाकी कलाकारों के लिए कुछ खास करने को नहीं था।

फिल्‍म में संगीत का शोर है। अलबत्‍ता पहला गीत ‘एक बगल में चांद होगा और एक बगल में रोटी’ सुनना सुकून देता है। लोकधुन पर आधारित जेल में गाया गीत भी ध्‍यान खींचता। जबकि ‘वुमनिया’ सुनकर ऐसा लगता है जैसे कोई सिर पर हथौड़ा मार रहा हो। फिल्‍म ‘तेरी तो कह के लूंगा’ भी अपने द्विअर्थी शब्‍दों के बावजूद दम तोड़ता नजर आता है। और अंत में ‘जियो बिहार के लाला’ तो जैसे फिल्‍म पर डाक्‍युमेंटरी का ठप्‍पा ही लगा देता है।  लगभग दो घंटे तीस मिनट लंबी फिल्‍म में कुल जमा दस मिनट के संवाद होंगे जिनमें गालियों का उपयोग किया गया है। लेकिन फिल्‍म के प्रचार में उन्‍हें ही ज्‍यादा सामने रखा गया।
पुरुष तो खैर इन गालियों का आनंद उठा ही रहे थे मेरे सामने वाली लाइन में बैठी तीन महिलाएं भी इसमें पीछे नहीं थीं। अगर मैं कहूं कि फिल्‍मों की गालियां दर्शकों को फिल्‍म की ओर खींच रही हैं तो इसमें कोई अति‍श्‍योक्ति नहीं होगी। पोस्‍टर पर लिखा गया है ‘तेरी तो कह के लूंगा।’ निश्चित रूप से अनुराग कश्‍यप इसमें तो सफल रहे हैं।

कुछ दृश्‍यों में चुटीले संवाद हैं,जो दर्शकों का मनोरंजन करते हैं, लेकिन उस मनोरंजन में उन संवादों को बोलने वालों और जिन्‍हें उनमें संबोधित किया गया है,उनका अभिनय गुम हो जाता है। वास्‍तव में उसे सिनेमा हाल की भीड़ में महसूस नहीं किया जा सकता। उसके लिए फिल्‍म आपको अपने घर में देखनी होगी,जहां सन्‍नाटा होगा। वैसे भी अगर फिल्‍म से सचमुच कुछ निकालना है तो उसे रिबाउंड करके दो-तीन बार देखना होगा।

फिल्‍म खत्‍म होती है तो स्‍क्रीन पर लिखा आता है ‘... कहानी अभी बाकी है।’ मैंने सुना कोई कह रहा था,‘रामाधीरसिंह तो मरा ही नहीं और सरदार खान भी नहीं।’ दूसरे ने कहा,‘मरते भी कैसे। अनुराग कश्‍यप को इसका दूसरा भाग जो बनाना है। इसीलिए फिल्‍म को खींच-खींचकर लंबा किया है।’  

यह शायद सच भी है। विकीपीडिया के मुताबिक कुल फिल्‍म पांच घंटे की है। उसे संपादित करके दो भागों में बांटा गया है। दूसरे भाग में फैजल खान यानी रियाजुद्दीन सिद्दकी लीड रोल में सामने आएंगे। तो इंतजार कीजिए,शायद अगली बार असली मुरब्‍बा चखने को मिले।
                                     0 राजेश उत्‍साही 
    

16 comments:

  1. बहुत अच्छी समीक्षा .............
    बच गए हमारे तो १८० रूपए और ढाई घंटे.....
    :-)

    शुक्रिया

    अनु

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  2. अच्छा किया आपने कि चेता दिया, हमने तो देखने का मन बना लिया था।

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  3. आपके उत्‍कृष्‍ट लेखन और प्रस्‍तुतिकरण की वजह से समीक्षा बहुत अच्‍छी लगी .. आभार

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  4. मजेदार समीक्षा ... अभी तक तो देखने का मन है ... अब देखिये क्या होता है ...

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  5. समीक्षा पढ़कर देखने का मूड जाता रहा .

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    1. दलाल जी एक जमाने में हम अच्‍छी फिल्‍में इसलिए देखते थे कि वे अच्‍छी हैं। लेकिन खराब फिल्‍में भी देखते थे यह जानने के लिए कि वे कितनी खराब हैं। तो आप भी यह फिल्‍म इस आधार को ध्‍यान में रखकर दे सकते हैं।

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  6. काफी पढ़ा है फिल्म के बारे में अभिनय की भी तारीफ हुई है किन्तु जैसा की फिल्म का प्रचार किया जा रहा है की " अनुराग की फिल्म में सब विलेन ही विलेन कोनो हीरो ना है " ऐसी फिल्मो को देखने से बचती हूं जहा पर नकारात्मक अपराधी किरदारों को हीरो बना का प्रस्तुत किया जाता है एक तरह से ये दिखाने का प्रयास किया जाता है की इन में इनके जीवन में भी नायक तत्व है , जो मुझे ठीक नहीं लगता है इसलिए ऐसी फिल्मो से दूरी ही भली | इन फिल्मो की सफलता कई और अपराधियों को हीरो बना कर पर्दे पर प्रस्तुत करने के लिए बढ़ावा देगी |

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    1. हालांकि यह फिल्‍म ऐसा कोई प्रयास नहीं करती है। पर हमारे न चाहते हुए भी मनोज बाजपेयी दर्शकों की सहानुभूति बटोरते हुए हीरो बन ही जाते हैं। फिल्‍म में विलेन ही विलेन होना इसलिए बताया जा रहा है कि जितने भी अभिनेता फिल्‍म में हैं उनमें से किसी की भी छवि हीरो की नहीं है।

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  7. रिलीज़ से पहले तो तारीफों का ऐसा समां बंधा हुआ था...कि लग रहा था कोई नायाब फिल्म होगी....एक सोची-समझी स्ट्रेटजी लग रही थी..असलियत अब सामने आ रही है..जब आम दर्शक देख रहे हैं..बस चुनिन्दा..फिल्म क्रिटिक कम दोस्त नहीं.

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    1. अपन तो प्रोफेशनल समीक्षक नहीं हैं। जो एक आम दर्शक की तरह महसूस हुआ वह लिख दिया। लेकिन जो जाने-माने समीक्षक हैं वे तो फिल्‍म का गुणगान कर ही रहे हैं। आप खुद देखकर भी अपनी राय बना सकती हैं।

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  8. इस फिल्म की काफी चर्चाएं पढ़ ली हैं...देखने का मन बिलकुल नहीं है ..फिर भी देखनी ही है.कि अनुराग कश्यप ने क्या बनाया है.आपने तो लाइव टेलेकास्ट ही कर दिया सिनेमा हॉल का. अलग सी समीक्षा ..उत्कृष्ट.

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    1. जरूर देखें। फिल्‍म आपको टुकड़ों-टुकड़ों में अच्‍छी लगेगी। अनुराग कश्‍यप अपनी पहले की फिल्‍मों में पूरी फिल्‍म के लिए याद किए जाते हैं। मेरे हिसाब से यहां वे इसमें सफल नहीं हो पाए हैं।

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  9. बहुत ही बढ़िया फिल्म समीक्षा प्रस्तुति के लिए आभार!..
    चलो इसी बहाने हमने भी फिल्म समझ ली ..१०-१२ साल से तो हम किसी टाकिज में जा ही नहीं पाए ..सीडी से कंप्यूटर में देखने का समय भी नहीं मिलता .. बस इधर उधर से फिल्म के बारे में चर्चा सुनने को मिल जाती हैं तो लगता है बस देख लिया.....
    सादर .

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  10. वैसे मुझे फिल्म बेहद पसंद आई थी :)

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  11. AAPKI FILM SAMIKSHA PADHKAR ACHHI JANKARI MILI.
    YO TO AB 10-12 VARSH SE THIYETAR ME FILM DEKHANA TO HOTA HI NAHI.

    UDAY TAMHANE

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...