Friday, November 12, 2010

जन्‍मदिन और उमरगांठ

मुझ पर क्षुब्‍ध बारूदी धुएं की झार आती है
व उन पर प्‍यार आता है
कि जिनका तप्‍त मुख
संवला रहा है
धूम लहरों में
कि जो मानव भविष्‍यत्-युद्ध में रत हैं,
जगत् की स्‍याह सड़कों पर ।

कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्‍नोत्‍तरी की तुंग प्रतिमाएं
गिराकर तोड़ देता हूं हथौड़े से
कि वे सब प्रश्‍न कृत्रिम और
उत्‍तर और भी छलमय,

समस्‍या एक-
मेरे सभ्‍य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी,सुन्‍दर व शोषण-मुक्‍त
कब होंगे?

कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमग कर,
जन्‍म लेना चाहता फिर से
कि व्‍यक्तित्‍वान्‍तरित होकर
नए सिरे से समझना और जीना
चाहता हूं, सच।
0 मुक्तिबोध

*****
आज मेरा प्रकटीकरण दिवस यानी जन्‍मदिन है। वैसे मेरे दो जन्‍मदिन हैं। एक सरकारी और दूसरा अ-सरकारी या असर-कारी। एक मानना पड़ता है और दूसरे को मनाना। हां दोनों में ही 3 आता है। एक 30 अगस्‍त और दूसरा 13 नवम्‍बर। असल 13 नवम्‍बर है। शायद इसी तीन तेरह के चक्‍कर में घर वालों को स्‍कूल में नाम लिखाते समय 30 अगस्‍त याद रह गया। तो सरकार कहती है कि हम अगस्‍त में पैदा हुए और हम कहते हैं कि नवम्‍बर में। बहरहाल हकीकत यह है कि हम पैदा हुए हैं।  

Tuesday, November 2, 2010

संघर्ष के स्‍वर : इरोम शर्मिला की कविता

चित्र गूगल इमेज से साभार
(आयरन लेडी के नाम से विख्यात मणिपुर की इरोम शर्मिला चानू पिछले दस सालों से भूखहड़ताल पर हैं वे मणिपुर से विवादित आर्म्‍ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) 1958 हटा जाने की मांग कर रही हैं चानू की भूख हड़ताल को आज 10 साल हो ग हैं। शर्मिला का यह संघर्ष मानव जीवन अधिकारों की मांग का संघर्ष है। शर्मिला तुम्‍हें सलाम।)

कांटों की चूडि़यों जैसी बेडि़यों से
मेरे पैरों को आजाद करो
एक संकरे कमरे में कैद
मेरा कुसूर है
परिंदे के रूप में अवतार लेना

Saturday, October 30, 2010

नुमाइंदे : एक लघुकथा

शहर के लगभग बाहर पत्‍थर तोड़ने वालों की बस्‍ती में मजदूरों की दयनीय स्थिति देखकर उनके बीच कुछ काम करने की इच्‍छा हुई।
*
बस्‍ती के हमउम्र लड़के और उनसे छोटे बच्‍चे मेरी बातें रुचि और ध्‍यान से सुन रहे थे। शायद कुछ कल्‍पनाओं में अपने आपको फुटबाल,व्‍हालीबॉल खेलते हुए,पढ़ते हुए भी देखने लगे थे। उनकी सपनीली आंखों में मुझे भी वह सब नजर आ रहा था।

Tuesday, October 26, 2010

मैं कहता हूं

साधारणतया 
मौन अच्‍छा है,
किन्‍तु मनन के लिए 
जब शोर हो चारों ओर
सत्‍य के हनन के लिए 

तब तुम्‍हें अपनी बात 
ज्‍वलंत शब्‍दों में कहनी चाहिए  

सिर कटाना पड़े या न पड़े  
तैयारी तो उसकी होनी चाहिए ।  
                                                               0   भवानी प्रसाद मिश्र

Friday, October 22, 2010

विकल्‍प : एक और लघुकथा

‘डॉक्‍टर साहब!’
‘हूं।’
‘क्‍या आपको ऐसा कोई अधिकार नहीं है ?’
‘कैसा?’ डॉक्‍टर ने इंजेक्‍शन लगाते हुए पूछा।
‘कि आप मुझे दिसम्‍बर के पहले मार डालें।’

Saturday, October 16, 2010

नवरात्र, कमलेश्‍वर की याद और दो लघुकथाएं

साहित्‍य,पत्रकारिता,सिनेमा और टीवी से सरोकार रखने वाला हर व्‍यक्ति कमलेश्‍वर के नाम से वाकिफ होगा। वे सारिका के संपादक, राष्‍ट्रीय सहारा अखबार के संपादक, ‘आंधीजैसी फिल्‍म के लेखक और दूरदर्शन के महानिदेशक रहे हैं। अपने आखिरी के कुछ सालों में भी वे कितने पाकिस्‍तान लिखकर एक कालजयी रचना दे गए हैं।

Saturday, October 9, 2010

अहसान : एक लघुकथा

पठानकोट एक्सप्रेस का साधारण कम्पार्टमेंट । दरवाजे पर खड़े दो नौजवान। एक-दूसरे से अपरिचित। लेकिन एक, दूसरे की अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर।

‘टिकट दिखाइए।’ एक आवाज गूंजी।

दूसरे ही क्षण रामपुरी सामने था। यह पहले का टिकट था। वह आगे कुछ करता, इससे पहले ही दूसरे ने तुरंत चाकू छीनकर जेब के हवाले किया और रसीद किए दो हाथ। 

टिकट चेकर की आंखों में कृतज्ञता झलक आई। दूसरे ने एक नजर पहले को देखा और फिर टिकट चेकर को दूसरे दरवाजे की ओर ले जाकर धीरे से कहा, ‘बाबूजी,टिकट तो मेरे पास भी नहीं है।’
                                                                                                        0 राजेश उत्‍साही 

बम्‍बई यानी आज की मुम्‍बई से रामावतार चेतन के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका रंग-चकल्‍लस के नवम्‍बर-दिसम्‍बर,1981 अंक में प्रकाशित । 

Thursday, September 23, 2010

अनुयायी : एक लघुकथा

वह आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था। बहुत सारे अनुयायी थे उसके। कुछ पक्के सिद्धांतवादी और कुछ कोरे अंध-भक्त। वे सब उसकी एक आवाज पर मर मिटने को तैयार रहते।
वह कहता,’...............।‘ सब हा‍थ उठाकर उसका समर्थन करते।

*** 

उन सबकी यानी उसकी प्रगति  की राह में एक खाई थी। मंजिल पर पहुंचने के लिए उस खाई को पाटना जरूरी था।

उसने  कहा, ‘यह खाई हमारी प्रगति में बाधा नहीं बन सकती। हमारी हिम्मत और दृढ़ निश्चय के आगे यह टिक नहीं सकेगी। साथियो, देखते क्या हो आगे बढ़ो।‘

देखते ही देखते वे सब उस खाई में समा गए।

उसने मुस्कराकर एक नजर लाशों से पटी खाई पर डाली और फिर उन पर चलते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ गया।
                                                                                                                            0 राजेश उत्साही
(प्रज्ञा,साहित्यिक संस्था , रोहतक द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 1980-81 में पुरस्कृत । प्रज्ञा द्वारा प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘स्वरों का आक्रोश’ में संकलित ।)

Tuesday, September 7, 2010

भाषा और शब्‍द : तीन कविताएं

आज साक्षरता दिवस है। यहां प्रस्‍तुत हैं तीन कविताएं। एक वरिष्‍ठ कवि त्रिलोचन की, दूसरी मेरे अत्‍यंत प्रिय कवि शरद बिल्‍लौर की, और तीसरी मेरी। त्रिलोचन जी और भाई शरद के साथ अपनी कविता देने की धृष्‍टता के लिए क्षमा चाहता हूं।  मैं इस दिन को कुछ अलग तरह से याद करना चाहता था, इसलिए यह प्रयास।

Saturday, September 4, 2010

जीवन शिक्षा

दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर कक्षा में आए। उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं।
उन्होंने एक कांच की बडी़ बरनी को मेज पर रखा।  उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालना शुरू किया और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। उन्होंने छात्रों से पूछा , ‘ क्या बरनी पूरी भर गई ?’
‘ हां ..।‘. आवाज आई।
*

Monday, August 23, 2010

पीपली से रूबरू : धीमी गति के समाचार-दूसरी किस्त

पीपली पर पहली टिप्पणी  पीपली से रूबरू: कुछ बेतरतीब नोट्स  में मैंने धीमी गति के समाचार का जिक्र किया है। किसी समय आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इस धीमी गति के समाचार को सुनने के लिए एक तरह के कौशल और धैर्य की जरूरत होती थी।
*

Saturday, August 21, 2010

पीपली से रूबरू : कुछ बेतरतीब नोट्स-पहली किस्‍त

पीपली लाइव देख कर नहीं जी कर आया हूं।
*
फिल्म शुरू होते ही  हावी हो जाती है। बहुत जल्द ही हम फिल्म के पात्रों से अपने आपको जोड़ लेते हैं। नामी-गिरामी कलाकारों का न होना शायद इसका एक बड़ा कारण है। जाने-माने चर्चित कलाकारों की पहले से बनी छवि से हमें मुक्त होने में समय लगता है। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। फिल्म का केन्द्रीय पात्र नत्था हमारे लिए उतना ही अनजान है जितना उसके लिए हम। नसीर जैसे कलाकार भी केन्द्रीय मंत्री की भूमिका में है, इसलिए उनका होना या नहीं होना बहुत मायने नहीं रखता।  वे हमें हमारे केन्‍द्रीय मंत्रियों की तरह ही नजर आते हैं। और रघुवीर यादव उन सबके बीच ऐसे खो जाते हैं कि हम केवल यह समझते हैं कि ये रघुवीर यादव का कोई हमशक्ल भर है।
*

Saturday, August 14, 2010

'उत्‍सव' हमारे घर में


पंद्रह अगस्‍त यानी स्‍वतंत्रता दिवस। हमारे घर में इसे दो और वजहों से याद किया जाता है। पहली वजह यह है कि इसी दिन 1977 में मेरे छोटे भाई सुनील का चौदह साल की अल्‍पायु में ही निधन हो गया था। कई वर्षों तक जब जब पंद्रह अगस्‍त आता, सब तरफ उल्‍लास और उत्‍सव का माहौल होता, लेकिन हमारे घर में उदासी छा जाती। कई बार ऐसा होता कि रक्षाबंधन का त्‍यौहार भी उसके आसपास ही आता। वह भी हमारी उदासी दूर नहीं कर पाता।

लेकिन फिर 1991 में यह उदासी जैसे सदा के लिए दूर हो गई। पंद्रह अगस्‍त की ही भोर में उत्‍सव का आगमन हुआ। उत्‍सव यानी हमारा छोटा बेटा। हालांकि उसके जन्‍म के पहले तक हमें नहीं पता था कि पैदा होने वाला शिशु बेटा होगा या बेटी। लेकिन हमने नाम पहले ही सोच रखे थे। बेटा होगा तो उत्‍सव, बेटी होगी तो नेहा। हमारा पहला बच्‍चा बेटा था, लेकिन हम उसका नाम उत्‍सव नहीं रख सके, उसका नाम कबीर है।

यह संयोग ही है कि उस साल भी 14 अगस्‍त को नागपंचमी का त्‍यौहार था। नागपंचमी की रात बीत रही थी और पंद्रह अगस्‍त की तारीख शुरू हो रही थी। उन दिनों हम भोपाल के साढ़े छह नम्‍बर बस स्‍टाप के पास अंकुर कालोनी में रहते थे। मेरी पत्‍नी नीमा ने प्रसव वेदना महसूस की और कहा कि अस्‍पताल ले चलो। रात के एक बज रहे थे। मेरे पास तब सायकिल हुआ करती थी। सायकिल पर अस्‍पताल ले जाना संभव नहीं था। मैं सायकिल लेकर आटो ढूंढने निकला।

Thursday, August 12, 2010

एक थी 'दोस्त' : भूले-बिसरे दोस्त (6)

तुम पता नहीं अब कहां हो। पर मैं भूला नहीं हूं। मैं कह सकता हूं कि तुम मेरी पहली स्‍त्री दोस्त थीं।*  ऐसी दोस्त जिसके साथ मैं दुनिया भर की बातें कर सकता था,बिना किसी झिझक के। तुम भी स्कूल या कॉलेज की दोस्त नहीं थीं। हम दोनों साथ-साथ काम करते थे, एक ही दफ्तर में।

तुम अपने तीन भाईयों की अकेली बहन थीं। वे सब शादीशुदा थे। तुम्हारी हैसियत उनके बीच नौकरानी जैसी थी। तुम्हें घर का सारा काम करना होता था। अपने भाई-भाभियों के कपड़े धोने होते थे, यहां तक कि उनके अंत:वस्त्र भी। बूढ़ी मां और रिटायर पिता यह सब देखकर दुखी होते थे। फिर मां ने ही तुम्हें  उकसाया था कि तुम कहीं बाहर निकल जाओ। मास्टर डिग्री थी तुम्हारे पास इतिहास की।

Tuesday, August 10, 2010

उदय ताम्‍हणे : भूले-बिसरे दोस्‍त (5)

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इस सूची में उदय तुम्‍हारा नाम भी आ ही जाता है। हालांकि तुम से पिछली मुलाकात कुछ साल भर पहले ही हुई थी। पर अब हम जिस तरह से मिलते हैं, वह भूले-बिसरे मिलना ही है। हमारी दोस्‍ती भी स्‍कूल या कॉलेज की दोस्‍ती नहीं थी। बल्कि वह भी इस ब्‍लाग जगत की तरह अस्‍सी के दशक में अखबार की दुनिया में पैदा हुई एक लहर की दोस्‍ती थी।

Sunday, August 8, 2010

सुरेन्‍द्रसिंह पवार : भूले-बिसरे दोस्‍त (4)

1985 में पवार 
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बिसरा जरूर गए हैं,पर भूले नहीं हैं हम-एक दूसरे को। अभी-अभी तो चंद साल पहले ही मिले थे हम-तुम। इतना मुझे पता है भोपाल के बैरागढ़ इलाके में ही बस गए हो तुम। शिक्षक तो तुम बन ही गए थे। किसी स्‍कूल के हेडमास्‍टर बनने वाले थे। यह भी खबर है कि एक बेटा तुम्‍हारा पढ़ रहा है डॉक्‍टरी और एक इंजीनियरी।

मोबाइल फोन ने कुछ आसानियां की हैं तो कुछ परेशानियां भी। अब देखो न तुम्‍हारा लैंडलाइन नम्‍बर मेरे पास हुआ करता था। पर अचानक ही एक दिन वह इस दुनिया से विदा हो गया। पक्‍के तौर पर तुमने मोबाइल ले लिया होगा और उसको कटवा दिया होगा। तुमसे सम्‍पर्क करना भी मुश्किल।  

Thursday, August 5, 2010

शतरंज के खिलाड़ी : भूले-बिसरे दोस्त(3)

मोहन पटेल यही नाम याद रह गया है ग्यारहवीं कक्षा के छोर पर। वह भी इसलिए क्योंकि तुम दोस्त तो थे ही, रिश्ते में चाचा भी थे। पर हम दोनों हमउम्र थे सो चचा-भतीजे वाली बात तो कहीं आती ही नहीं थी। मेरे पिता और दादी और तुम्हारे माता-पिता इटारसी की गरीबी लाइन में साथ-साथ रहते थे। एक ही बिरादरी के थे। दोनों परिवारों के पूर्वज बुन्देलखंड के छतरपुर जिले से आजीविका के सिलसिले में दशकों पहले इटारसी आ बसे थे। बस यहीं से एक नया रिश्ता पनप गया था। पिताजी तो अपनी दो बहनों के अकेले भाई थे। पर तुम छह भाइयों में सबसे छोटे थे।

Tuesday, August 3, 2010

बनवारी रे...: भूले-बिसरे दोस्‍त (2)

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‘बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे...’ सुमन कल्‍याणपुर द्वारा गाया यह गीत मेरे प्रिय गीतों में से रहा है। इसलिए भी कि इसे सुनकर मुझे बनवारी यानी बनवारी लाल श्रीवास्‍तव तुम्‍हारी याद हो आती है। तुम यकीन करोगे कि मैं सुमन कल्‍याणपुर को तुम्‍हारे नाम से ही याद रखता हूं।

Monday, August 2, 2010

दामोदर तुम कहां हो : भूले-बिसरे दोस्त(1)

दामोदर यानी दामोदर प्रसाद शर्मा।

हम दोनों 1973-74 में मप्र मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्कूल के सहपाठी हुआ करते थे। तुम्हें याद है न मैं रेल्वे स्टेशन मास्टर का बेटा वहां संटर नम्बर तीन में रहा करता था। तुम पुलिस हवलदार के बेटे थे,सो बीटीआई रोड पर पुलिस लाइन में रहते थे। हमारा स्कूल भी पुलिस लाइन के आगे ही पड़ता था। इसलिए रोज आते-जाते समय तुम्हारे घर आना तो होता ही था।

Monday, July 12, 2010

हमारा कबीर


मैं
और
नीमा
जब लड़ते हैं
आपस में बात करते हैं
जोर जोर से

ढाई साल का कब्‍बू
दोनों के बीच
आकर खड़ा होता है
और कहता है जोर से
तुम दोनों गंदे हो....।

हम
सुनकर
झेंपते हैं और
अपने को अच्‍छा साबित
करने की कोशिश करने लगते हैं।

 कब्‍बू
जैसा कि आप समझ ही गए होंगे, यह कविता हमारे बेटे कब्‍बू के बारे में है। आज इस कविता के नायक यानी कब्‍बू के लिए एक महत्‍वपूर्ण तारीख है। 13 जुलाई को वह पच्‍चीसवें साल में प्रवेश कर रहा है। यह हमारा बड़ा बेटा है जिसे हम प्‍यार से गोलू भी कहते हैं। वास्‍तव में नाम उसका कबीर है। देखते ही देखते इतना समय बीत गया कि ढाई साल का कब्‍बू अब ढाई दशक का युवक होने जा रहा है।

हमने अपने पहले बच्‍चे का नाम तो नेहा या उत्‍सव सोचा था। लेकिन यह संभव नहीं हुआ। मेरा परिवार होशंगाबाद में था। शायद वह गर्भ का सातवां महीना था जब होशंगाबाद की एक महिला चिकित्‍सक की दवा से नीमा को पूरे शरीर पर एलर्जी हो गई थी। इस घटना से हम सब बुरी तरह घबरा गए थे। इस कारण प्रसव के लिए नीमा इंदौर के काछी मोहल्‍ले में लाल कुएं के पास अपनी बड़ी बहन के घर में थीं।

कब्‍बू और नीमा का पहला फोटो
मुझे याद है कि 12 जुलाई की शाम को नीमा को पास के एक प्राइवेट नर्सिग होम में भर्ती करवाया गया। मैं भी वहां पहुंच गया था। नीमा की बड़ी बहन और बहनोई तो वहां थे ही। नीमा की मां भी सेंधवा से आ गईं थीं। रात भर नीमा दर्द से परेशान रही। डाक्‍टर चाहते थे कि ऑपरेशन करने की नौबत न आए। प्रसव टेबिल पर लेटे-लेटे और टेबिल पकड़कर लगातार जोर लगाने से नीमा की बांहों में सूजन आ गई थी। सुबह चार बजे के लगभग अंतत: बच्‍चे का जन्‍म हुआ। गर्भनाल उसके गले में लिपटी हुई थी। वह रोया नहीं। डॉक्‍टर ने उसे तुरंत ऑक्‍सीजन पर रख दिया। ए‍क बिलांत से कुछ बड़ा बच्‍चा अपनी नानी की गोद में पड़ा था। उसकी हालत देखकर मैं आशंका से भर उठा। नीमा बेसुध थी। मैं मायूस हो गया। नीमा के बहनोई साहब ने मेरी हालत देखी तो मुझे समझाते हुए घर ले गए। कहा सब ठीक हो जाएगा। 

लगभग तीन घंटे बाद मैं दुबारा नर्सिंग होम पहुंचा। नीमा को होश आ चुका था। बच्‍चा अभी भी ऑक्‍सीजन पर ही था। डॉक्‍टर से बात हुई। उन्‍होंने आश्‍वस्‍त किया कि घबराने की कोई बात नहीं। ऐसा होता रहता है। नीमा ने कहा, 'उत्‍सव आ गया है।' मैंने कहा, 'बच्‍चे की ऐसी हालत है, इसे उत्‍सव कैसे कहें। उत्‍सव हमें महसूस ही नहीं हो रहा।' नीमा ने प्रश्‍नवाचक निगाहों से मुझे देखा जैसे पूछ रहीं हों तो फिर। अचानक मैंने नीमा से कहा, 'इसे हम कबीर कहें तो कैसा रहे। यह कबीर की ही तरह अभी अपनी जिंदगी बचाने के लिए लड़ रहा है।' नीमा धीरे से मुस्‍करा दीं। बस हमने तय कर लिया। शायद कबीर नाम ने भी हमें एक हौंसला दिया और अनजाने ही उस बच्‍चे को एक तरह की जीवटता भी।


कबीर,आरती बुआ,मां और छोटे भाई उत्‍सव के साथ
बचपन उसका और बच्‍चों की तरह ही बीता। वह पढ़ने-लिखने में एक औसत छात्र ही रहा। न बहुत तेज न बहुत कमजोर। पर उसकी पढ़ाई को लेकर मेरे अंदर आज भी एक अपराध बोध है। शुरू-शुरू में उसे एक अंग्रेजी माध्‍यम स्‍कूल में भर्ती करवाया था। कक्षा दो में उसे एक ऐसी अध्यापिका मिली,जो लगातार बोल-बोलकर प्रताडि़त करती रहती थी। हमारे घर में अंग्रेजी का माहौल नहीं था और न ही हम पति-पत्‍नी बहुत अच्‍छी अंग्रेजी जानते हैं। नतीजा यह कि कबीर अंग्रेजी भाषा में स्‍कूल की कसौटियों पर खरा नहीं उतर रहा था। बदले में उसे कुछ इस तरह की बातें सुननी पड़ती थीं कि क्‍यों अपने मां-बाप का पैसा बरबाद कर रहे हो। यह सब बातें वह घर आकर सुनाता तो हमारा भी मन कड़वा जाता।

हमें लगा कि ऐसा न हो कि बच्‍चा कुंठित हो जाए और अपनी भाषा भी भूल जाए। तीसरी कक्षा में उसे एक हिन्‍दी माध्‍यम स्‍कूल में भर्ती किया। यह स्‍कूल अपनी अन्‍य कसौटियों पर खरा नहीं उतरा। पांचवी तक वहां पढ़ाई के बाद छठवीं में फिर एक अन्‍य स्‍कूल में भर्ती किया। वहां उसने जैसे-तैसे दसवीं पास की। वहां से निकलकर फिर एक और स्‍कूल में भर्ती हुआ। शुक्र है कि इस स्‍कूल में उसने 72 प्रतिशत अंकों के साथ बोर्ड बारहवीं की परीक्षा पास की। उसके बाद भोपाल के सबसे अच्‍छे कॉलेज से बीकॉम किया। और अभी एमबीए कर रहा है। पर मैं सोचता हूं कि अगर इतने स्‍कूल नहीं बदले होते तो शायद उसकी स्थिति और बेहतर होती।

फुटबॉल खेलने का उसे शौक है। भोपाल के एक क्‍लब की तरफ से बरेली में आयोजित एक टूर्नामेंट में भाग लेने गया था। भोपाल के स्‍थानीय टूर्नामेंटों में भाग लेता ही रहता है। घर की दाल-रोटी उसे बहुत पसंद है। बचपन में तो केवल बिस्‍कुट ही खाया करता था। जो कपड़े हमने बनवा दिए वह पहन लिए। साल भर हुआ तब हम उसे एक मोटर साइकिल खरीद कर दे पाए। वरना वह साइकिल या अपने दोस्‍तों के साथ ही उनकी गाडि़यों पर बैठकर स्‍कूल-कालेज जाता रहा। फिजूलखर्ची या अनुचित मांग करते मैंने उसे कभी नहीं देखा। जब वह बरेली गया था तो मैंने जेबखर्च के लिए चार सौ रूपए दिए। वहां से लौटा तो उसने मेरे हा‍थ में बचे हुए तीन सौ रूपए रख दिए। मैं देखकर अचंभित था।

मैंने अपने केरियर की शुरुआत में केवल सफेद कालर वाले कामों को ही अहमियत नहीं दी थी। जो काम हाथ में आया उसे करता चला गया। कबीर को मैंने यही दृष्टि देने की कोशिश की। उसने इस बात को समझा और अपनी पढ़ाई के साथ-साथ जो भी छोटे-मोटे काम मिले उन्‍हें करता गया। अभी भी करता है। मैं समझता हूं हम उसे उस जगह पर लाने में कामयाब हुए हैं, जहां से वह अपनी जिंदगी आत्‍मनिर्भर होकर जी सकता है।

मुझे कबीर पर लिखी एक और कविता याद आ रही है-

कब्‍बू
अब हो गया है
ढाई साल का
ढाई साल का
कब्‍बू समझता है
दफ्तर का काम
काम के पैसे
और पैसों का अर्थशास्‍त्र

समझता है वह पगार
और यह कि उसी से
आते हैं बिस्‍कुट,दूध,दाल,रोटी और गाजर
हवाई जहाज, जीप
आइसक्रीम और टमाटर
पापा जाते हैं दफ्तर
काम करने
पैसा लाने

ढाई साल का
कब्‍बू सब समझता है।

सचमुच कबीर यह सब समझता रहा है और अब भी समझ रहा। तभी तो जब मैं पिछले डेढ़ साल से मैं यहां बंगलौर में हूं, वह भोपाल में घर की सारी जिम्‍मेदारियां उठा रहा है। 
तो कबीर बेटे जन्‍मदिन की चौबीसवीं वर्षगांठ और पच्‍चीसवें साल में प्रवेश बहुत-बहुत मुबारक।   
                                                        * राजेश उत्‍साही

Monday, June 28, 2010

बिखरा कथानक : शादी लड्डू(5)

एक मित्र का पत्र
प्रिय राजेश भाई
शादी के लड्डू तथा तब तक छब्बीस.. देखा और पढ़ा।
मुझे लगा मैं गुलशन नंदा या रानू के उपन्यास पढ़ रहा हूं।
सरकारी नौकरी वाले दामाद की चाहत, गौ जैसी बहू की चाह, लड़के और घर वालों की पसंद का मेल न खाना, बेबस लड़का जैसे मुद्दे तो सच्चाई हैं लेकिन मुझे लगा कि आप लगातार इन मुद्दों को डायलूट करके, थोड़ा मसाले का पुट देते चल रहे हैं।
यदि यह खुद पर या सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है तो उसे भी मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं।
यह टिप्पणी ब्लाग के लिए नहीं है। इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे इस अपेक्षा के साथ।

यह टिप्पणी एक मित्र ने ईमेल से भेजी है। मित्र मैं माफी चाहता हूं कि इसे मैं अपने तक सीमित नहीं रख पा रहा हूं। क्योंकि यह टिप्पणी ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री पर है और ब्लाग तो सार्वजनिक है। हां मैं आपका नाम यहां नहीं दे रहा हूं।

Thursday, June 17, 2010

एक रुका हुआ फैसला: शादी लड्डू(4)


दिल टूट चुका था। टुकड़ों को समेटना और फिर से दिल लगाना, बहुत हिम्‍मत जुटानी पड़ी। दूसरी भोपाल की थीं। रेल्‍वे स्‍टेशन के पास एक थियेटर हुआ करता था-किशोर। उसके पास ही उनका घर था। पिता केन्‍द्रीय विभाग में थे। मां गृहणी थीं, पर कवियत्री के रूप में उनकी पहचान थी।

हम सपरिवार उनके घर गए। पहली ही नजर में वे हमें भा गईं और हम उनको। वैसे हम को तो सब पहली ही नजर में भाती रहीं हैं। हिन्‍दी साहित्‍य में एमए थीं और सचमुच का साहित्‍य पढ़ने में भी उनकी रुचि थी। पर यहां मामला थोड़ा टेढ़ा था। बात कुछ ऐसी थी कि हमें तो पसंद थीं, पर रंग और नैन नक्‍श में वे हमारे घर वालों की कसौटी पर खरी नहीं उतर रहीं थीं। पर औपचारिक बातचीत के बाद परिवार की भी लगभग सहमति बन गई। के माता‍-पिता होशंगाबाद आए। दिन भर हमारे घर रहे। नर्मदा में स्‍नान किया। हमारा घर बार उन्‍हें भी पसंद आया। की माताजी ने कहा हमारी बि‍टिया यहां सुखी रहेगी। 

Wednesday, June 16, 2010

‘अ’ का जादू: शादी लड्डू(3)

छब्बीस में से दो रिश्ते इतनी दूर तक चले गए थे कि उनके टूटने की आवाज मुझे अभी तक कहीं अंदर सुनाई देती है। यह अजब संयोग है कि दोनों के नाम से शुरू होते हैं और इतना ही नहीं नाम भी एक ही है। बस इतना फर्क है कि इनमें से एक भोपाल से थी, तो दूसरी! चलिए अब शहर के नाम में क्या रखा है। कुछ भी रख लीजिए। एक  का रिश्ता हमारे घर वालों ने तोड़ा तो दूसरी का उनके घर वालों ने। दोनों में ही मैंने अपने आपको बहुत दुखी पाया। 

Sunday, June 13, 2010

तब तक छब्‍बीस : शादी लड्डू-(2)


जी हां मैं ही हूं।
जी हां हमने शहीद होने से पहले छब्‍बीस लड़कियों का सामना किया है। यह अलग बात है कि रिजेक्‍ट हमने नहीं, उन्‍होंने या उनके घर वालों ने हमें किया था। शक्‍ल और अक्‍ल तो हमारी ठीक ठाक ही थी, पर हम किसी ऐसी नौकरी में नहीं थे, जिसकी आय से अपनी होने वाली बीवी और बच्‍चों का पेट पाल सकें, ऐसा रिजेक्‍ट करने वालों का कहना था। नौकरी थी एकलव्‍य संस्‍था में। संस्‍था को बने भी तीन साल ही हुए थे। आगे क्‍या होगा कुछ पता नहीं था। सरकार से अनुदान मिलता था। हमसे पूछा जाता कि जब संस्‍था को पैसा सरकार दे रही है तो आगे चलकर तो वह सरकारी ही हो जाएगी न। हम ठहरे सत्‍यवादी हरिशचंद्र। हमसे झूठ नहीं बोल जाता। हम कहते जी नहीं ऐसी कोई संभावना नहीं है। इतना ही नहीं जो नहीं पूछते उन्‍हें हम खुद ही उपत कर बता देते।

अब छब्‍बीस में से सबके नाम-पते तो याद नहीं। लेकिन कुछ हैं जिन्‍हें भुला नहीं सके हैं। सब कुछ तो यहां नहीं लिखा जा सकता न। पर कुछ कुछ है जो आपके साथ भी बांटा जा सकता है।

पहला प्रस्‍ताव
हमारे जमाने में लड़का या लड़की खोजने का काम घर के बुजुर्ग ही किया करते थे। कोशिश हमने भी की पर सफलता हाथ नहीं लगी। पहला प्रस्‍ताव ही अपने से चार साल बड़ी कन्‍या के सामने रख दिया। हां तब तक हम एकलव्‍य में नहीं आए थे। एक दूसरे दफ्तर में थे,जहां कन्‍या हमारी सहयोगी

Thursday, June 10, 2010

शादी का लड्डू : खाए वो पछताए, न खाए वो भी पछताए


कहते हैं शादी एक ऐसा लड्डू है जो खाए वो भी पछताए और जो न खाए वो भी । तो जनाब हमने भी वही किया और करते-करते इतने दिन बीते कि लड्डू खाने के ऐतिहासिक दिन की पच्‍चीसवीं सालगिरह आन पहुंची है। हां, इस महीने की 23 तारीख को हमारा शहीदी दिवस है। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। हम तो घर में इस दिन को इसी तरह याद करते हैं। इस लड्डू तक हम किस तरह पहुंचे यह बताने का हमारा बहुत मन है। बहुत कहानियां हैं आगे-पीछे की। चलिए शुरुआत करते हैं निमंत्रण से।


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तो यह रहा हमारा शादी का निमंत्रण पत्र। एकलव्‍य में आए जुम्‍मा-जुम्‍मा तीन साल ही हुए थे। उसके पहले नेहरू युवक केन्‍द्र में थे। वहां सायक्‍लोस्‍टाइल मशीन चलाने और उस पर नए-नए प्रयोग (आगे पढ़ने के लिए Read More बांए नीचे पर क्लिक करें)

Saturday, June 5, 2010

सुभाष उवाच

बात -बेबात के भाई सुभाष जी से इन दिनों ब्‍लागिंग के बारे में लगातार विमर्श हो रहा है। मेरे एक मेल के जवाब में उन्‍होंने लिखा है-
प्रिय भाई , एक बार किसी कवि ने बड़ी निराशा में हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा, लिखने-पढने का क्या फायदा, हम जितना लिखते हैं, समाज उतना ही बुरा बनता चला जाता है। फिर किसके लिए लिखते हैं हम। लिखना क्यों न बंद कर दिया जाए। द्विवेदी जी ने कहा, उस एक पाठक के लिए, जिसके द्वारा तुम्हारी रचना पढ़े जाने की संभावना है। हम लिखने वाले लोगों को इतना धैर्य रखना चाहिए। वक्त खुद भी कचरा साफ करता है। जो अच्छा करते हैं, अच्छा लिखते हैं, वही समय की शिला पर अंकित होते हैं।
इसलिए हमेशा आशा से भरे रहो और अच्छा से अच्छा लिखने का प्रयास करो। तुम्हारे अन्दर आग है और उसे जलाये रखना ही तुम्हारी जिम्मेदारी है।
हौंसला देने के लिए शुक्रिया सुभाष भाई। पर्यावरण दिवस की बीतती हुई रात पर ब्‍लाग की दुनिया में फैल रहे प्रदूषण को साफ करने का संकल्‍प लेकर एक आशा भरी सुबह की उम्‍मीद की जा सकती है। ऐसे में मुझे मेरी एक पुरानी कविता याद आ रही है-

अधेड़ पेड
फिर हरा हो रहा है
आ रही हैं नई पत्तियां
हरियाली में संचित हो रही है ऊर्जा

जन्‍म ले रही कोशिकाएं
बन रहा है प्‍लाज्‍मा
सक्रिय हो रहा है
केन्‍द्रक
अधेड़ पेड़ में ।
                       **राजेश उत्‍साही

Thursday, June 3, 2010

अर्चना जी कहती हैं.........

अर्चना रस्‍तोगी एकलव्‍य,भोपाल की पुरानी साथी हैं। वे मेरे ब्‍लाग पढ़ती रहती हैं। कभी मेल पर या फोन पर बात होती है तो अपनी प्रतिक्रिया देती हैं। मैंने उनसे कई बार आग्रह किया कि वे अपनी प्रतिक्रियाएं पोस्‍ट के नीचे टिप्‍पणी करके दें तो और लोग भी पढ़ पाएंगे । उन्‍हें यह झंझट का काम लगता है। मैंने कहा चलिए एक मेल में ही लिख दीजिए। मैं आभारी हूं कि उन्‍होंने एक संक्षिप्‍त टिप्‍पणी लिख ही डाली। उनकी अनुमति से उसे यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं
 * पहले तो शुक्रिया कि काफी बड़े आकार की तस्‍वीर से रूबरू होने से अब छुट्टी मिली। शुरू में तो बड़ी उमंग से आपके ब्‍लाग पर जाती थी। पर जब आपने अपनी विशाल तस्‍वीर लगा ली थी तो कुछ समय तो यही सोचने में निकल जाता था कि इतनी बड़ी तस्‍वीर क्‍यों डाल रखी है। कुछ शायद कोफ्त भी हुई। पर आपको बताना मेरे लिए आसान नहीं था। लगता था ब्‍लाग पर लिखा किसी और ने है और तस्‍वीर किसी और की है। यह मेरी अपनी राय बन गई थी बचकानी-सी। अब आपका ब्‍लाग काफी सुंदर बन गया है जो कि आपकी लेखन प्रतिभा से काफी मेल खा रहा है। 
 * देखिए आपके लिए लिखना काफी आसान है। क्‍योंकि यह आपका जुनून है। पढ़ने के बाद मेरे जैसे कई लोग चाहते तो होंगे की कुछ लिखें,टिप्‍पणी करें। पर वो कुछ ऐसा ही लगता है कि जैसे....(आगे पढ़ने के लिए बाएं तरफ नीचे Read More पर क्लिक करें।)

Monday, May 31, 2010

नज़र साहब और उनकी शायरी को सलाम

तुम तो ठहरे ही रहे झील के पानी की तरह
दरिया बनते तो बहुत दूर निकल सकते थे

जी नहीं। यह कलाम मेरा नहीं है। पर फिर न जाने क्यों मुझे लगता है जैसे शायर ने मुझ पर लिखा है। मैं 27 साल तक बस एक ही जगह बैठा रहा, यानी काम यानी नौकरी करता रहा। आज जब वहां से विस्थापित हुआ तो कुछ ऐसा ही लगता है जैसा इस शेर में कहा गया है। जब से मैंने इसे पढ़ा है उठते-बैठते,सोते-जागते बस यही दिमाग में घूमता रहता है। जैसे किसी ने आइना दिखा दिया हो। असल में एक अच्‍छे शायर की शायद यही खूबी है कि वो जो लिखे वो पढ़ने वाले को अपना ही लगे।
नज़र एटवी

यह कलाम है एटा,उप्र के मशहूर शायर नज़र एटवी साहब का। मेरे लिए यह अफसोस की बात है कि उनसे यानी उनकी शायरी से मुलाकात तब हुई जब वे इस दुनिया से रुखसत कर चुके हैं। उनकी शायरी पढ़कर मुझे दुष्यंत याद आ गए। मैं यहां तुलना नहीं कर रहा। पर जिस सादगी से दुष्यंत अपनी बात कह गए हैं वही नज़र साहब की गज़लों में नजर आती है। एक और शेर देखिए-

खाई है कसम तुमने वापिस नहीं लौटोगे
       कश्ती को जला देना जब पार उतर जाना 
                   (आगे पढ़ने के लिए नीचे बाएं Read More पर क्लिक करें।)

Tuesday, May 25, 2010

अनुभव की गुल्लक में जो है उसे बांट रहा हूं

लिखने के दौरान मेरे जो अनुभव रहे हैं, मैंने जो सीखा है वह मैं औरों तक पहुंचाने की कोशिश करता रहा हूं। इस बात का जिक्र मैंने अपनी एक पोस्ट नसीम अख्तर की कविताओं के बहाने में भी किया है। पिछले दिनों किसी एक ब्लॉग पर मैं अपनी आदत के मुताबिक टिप्पणी करके आ गया। अगले‍ दिन यह देखकर सुखद आश्चर्य से भर उठा कि उस ब्लॉगर ने मेरी बात को गंभीरता से लिया था और मुझे इमेल करके अपनी कविताओं के संदर्भ में मदद मांगी थी। साथ में अपनी एक अप्रकाशित कविता भी भेजी थी। मैंने अपनी तरफ से उस कविता में आवश्यक संपादन करके उसे वापस प्रेषित कर दिया। जवाब में मुझे जो मेल मिला उसका संपादित अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

Wednesday, May 19, 2010

वियोग में एक प्रयोग


ये चार पंक्तियां किसी खास परिस्थिति में ज़ेहन में आईं थीं। जब उनसे उलझने लगा तो कुछ इस तरह से हर बार नए रूप में सामने आ खड़ी हुईं। आपको जो पसंद हो वह चुन लीजिए।

Wednesday, May 12, 2010

मंटो : एक जेबकतरा कहानीकार

चित्र : गूगल इमेज से साभार
बीती 11 मई को जानेमाने कथाकार सदाअत हसन मंटो का जन्म दिन था। 1912 में जन्‍मे मंटो 42 साल की चढ़ती उम्र में ही सबसे विदा ले गए। लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने जो लिखा उसका आकलन हम अभी तक कर रहे हैं और आने वाले न जाने कितने वर्षों तक करते रहेंगे। उनके भोगे और‍ लिखे को आज पचास साल बाद एक लेखक के तौर पर जब मैं पढ़ता हूं तो लगता है क्या सब लेखक एक ही तरह से सोचते हैं।
आइए देखें कि मंटो ऐसे ही एक सवाल के जवाब में क्या कहते हैं।

मैं क्यों लिखता हूं?

Sunday, May 2, 2010

शरद बिल्‍लौरे की तीन और कविताएं

मजदूर दिवस बीते अभी दो दिन ही हुए हैं। आज भाई शरद बिल्लौरे की पुण्य तिथि है। मजदूर दिवस को याद करते हुए उनकी बैल कविता पढ़ना नए अर्थ देता है। जब तुम शहर में नहीं हो कविता कवि की एक अलग ही दुनिया के बारे में बताती है। और तीसरी कविता तुम मुझे उगने तो दो उनके संघर्ष का जीवंत बयान है।

Thursday, April 22, 2010

पृथ्‍वी दिवस :शरद बिल्‍लौरे की दो कविताएं


आज यानी 22 अप्रैल को पृथ्‍वी दिवस है। ऐसे में शरद बिल्‍लौरे की दो कविताएं बहुत याद आ रही है। पहली कविता सहजता से एक सवाल करती है और उसका जवाब देती है। दूसरी कविता हमें धरती के नायाब अंग से परिचित कराती है।

Thursday, April 15, 2010

देखूं कोई बच्चा तो उसकी ही झलक आए

कपड़ों से मुझे अपने बिटिया की महक आए
घर भर के नशेमन से बिटिया की चहक आए