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Saturday, June 13, 2009

दास्‍तान दाढ़ी की


बंगलौर आया तो दिनचर्या पूरी बदल गई। सुबह उठकर रोजमर्रा के कामों से निपटकर साढ़े आठ बजे तक दफ्तर पहुंचने की जल्‍दी। उधर शाम को छह बजे दफ्तर से निकलने पर खरामा-खरामा कदमों से घर पहुंचना। साथी जो कुछ भी खाना बना रहे हों, उनकी मदद करना। खाना और बस एफएम रेडियो या विविध भारती सुनते हुए सो जाना।

सुबह उठकर फिर वही क्रम। इस क्रम में शुरू के दिनों में जो शामिल था, वह था दाढ़ी बनाना। कई बार दाढ़ी बनाने का समय ही नहीं होता । एक दिन साथ रह रहे निराग ने उकसाया। अरे आप रोज-रोज समय क्‍यों बरबाद करते हैं। आप तो दाढ़ी बढ़ाईए। आप पर फबेगी। फिर आप तो कवि हैं। आपको दाढ़ी रखनी चाहिए। उसके तर्कों में दम नहीं था।