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Sunday, August 7, 2011
Monday, July 18, 2011
काके लागूं पांय....
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय
फोटो:राजेश उत्साही |
चरण स्पर्श यानी पैर छूना वास्तव में किसी के प्रति आदर और श्रद्धा व्यक्त करने का तरीका है। पर विभिन्न कारणों से यह सत्ता या अपनी प्रभुता
साबित करने का भी एक जरिया बनता रहा है। हमारे समाज में इसके ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। मुझे लगता है इसकी शुरुआत घर से ही होती है।
इसके बारे में पर्याप्त चर्चा किए बिना बच्चों से यह अपेक्षा की जाती रही है कि
वे अपने से बड़ों के पैर छूएंगे, चाहे इसके लिए उनका मन गवारा करे या न करे। दूसरी
तरफ कुछ ऐसे रिश्ते-नाते भी हैं जिनमें पैर छूना अपने आप ही तय मान लिया जाता है। और अगर आप उसका पालन न करें,तो कोपभाजन के लिए तैयार रहें। महिलाओं के साथ तो जैसे यह अनिवार्य शर्त सी हो जाती है। नई-नवेली बहू का ससुराल पक्ष अगर भरा-पूरा हो तो उसकी तो झुक झुककर कमर ही टूट
जाती है।
*
बहरहाल पैर छूने की यह कवायद मेरे लिए बहुत सारी
खट्टी-मीठी यादों का सबब बन गई है। पैर छूने की कोई कट्टरता घर
में नहीं थी। हां जब किशोर हुए तो विभिन्न अवसरों पर यह अपेक्षा होने लगी कि हम
परम्परा का निर्वाह करें। जैसे जन्मदिन और दीवाली आदि पर माता-पिता,दादी और बहनों के पैर छुएं। रक्षाबंधन पर बहनों के। यह आज भी जारी है। कुछ अन्य
मौकों पर अन्य परिचितों के पैर भी छूने की अपेक्षा होती थी। पर मुझे कभी भी ऐसा नहीं लगा कि यह बहुत मन से
किया हो। या कि इनमें से किसी भी अवसर पर हम सामने वाले से इतने अभिभूत थे कि बिना
किसी आडम्बर के झुककर सायास ही पैर छू लिए हों। हर बार किसी परम्परा या लिहाज का झंडा आगे-पीछे चलता ही रहा।
*
कुछ ऐसे वाकये या मौके जरूर रहे हैं, जो बरबस याद आ जाते हैं। उत्तर भारत में आमतौर पर सास अपने दामाद के पैर छूती है। लेकिन
मेरे जमीर को यह कभी गवारा नहीं हुआ। जब ऐसा मौका आया, तो मैंने इससे हरसंभव बचने का प्रयास किया। और कई मौकों पर तो उल्टे उनके ही पैर छू लिए। सभी महिलाओं से
चाहे वे रिश्ते में जो भी लगती हों, मैं हमेशा पैर छुवाने से बचता रहा हूं। दक्षिण
भारत स्त्री-पुरुष के बजाय आयु देखी जाती है। यानी
आयु में जो भी छोटा है वह अपने से बड़े के पैर छुएगा ही। यहां बंगलौर में जब मुझे
एक बेटी मिली तो बड़ी विचित्र स्थिति पैदा हो गई। संस्कारों के चलते मुझे
उसके पैर छूने थे और उसे मेरे। अंत में हम दोनों में समझौता इस बात पर
हुआ कि कोई किसी के पैर नहीं छुएगा।
*
मुझे दो ऐसे वाकये याद आते हैं, जब सचमुच मेरा मन
किया कि सामने वाले के पैर छू लिए जाएं। पहली घटना तीन साल पहले
की है। मेरा पचासवां जन्मदिन था। भोपाल में घर के पास के बाजार में मैं कुछ सामान
खरीदने गया था। वहां अचानक जाने-माने शिक्षाविद् अनिल सद्गोपाल मिल गए। उन्हें
मैं अनिल भाई कहता हूं। 1982 के आसपास उनके साथ काम करने का मौका मिला था। उनकी
कही एक बात मेरे लिए मार्गदर्शक बन गई थी।
होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम की पत्रिका के पहले अंक की सामग्री सीमेंट की खाली बोरी में भरकर उन्होंने मुझे सौंपते हुए कहा था,' कि इसे भोपाल से छपवाकर लाना है।'
मैं अवाक था। कि मैंने ऐसा कोई काम पहले कभी नहीं किया था। हां पढ़ने-लिखने में मेरी रुचि अवश्य रही थी। मैंने कहा था, 'मुझ से यह नहीं होगा। मुझे यह काम नहीं आता है।' उन्होंने तुरंत ही वह बोरा मेरे हाथ से ले लिया और कहा था, 'अगर जिन्दगी में आगे बढ़ना है तो किसी भी काम के लिए यह मत कहना कि यह मुझे नहीं आता है। कहना कि मैं कोशिश करूंगा। अन्यथा कोई काम करने का मौका नहीं देगा।' फिर तो यह बात मैंने गांठ बांध ली। इस एक सूत्र के सहारे न जाने कितने कौशल मैंने सीखे। काम किए,जिम्मेदारियां उठाईं।
तो पचासवें
जन्मदिन पर आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए अनिल भाई से बेहतर कौन हो सकता था।
मैंने झुककर उनके पैर छू लिए। मेरे इस व्यवहार से वे भी हतप्रभ थे। पर जब मैंने
अवसर और अपना मंतव्य उन्हें बताया तो उनकी आंखों में वह चमक उभर आई जो मैं अक्सर देखता था।
*
दूसरी घटना पिछले बरस की है। मैं जयपुर की यात्रा पर
था। रमेश थानवी जी के बारे में पढ़ता और सुनता रहा था। वे राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति में पिछले कई बरसों से सक्रिय हैं। समिति की पत्रिका अनौपचारिका का संपादन कर रहे हैं। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे हैं। उनकी एक मशहूर कहानी 'घडि़यों की हड़ताल' मैंने चकमक में प्रकाशित की थी। लगभग साल भर तक अनौपचारिका के
लिए मैं एक कालम भी लिखता रहा हूं। जयपुर गया तो मैंने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की।
उन्होंने मेरे ठहरने की जगह का पता पूछा और खुद ही कार चलाते हुए मिलने चले आए।
अपने सामने उनको पाकर अनायास ही मैं उनके पैरों में झुक गया। सच कहूं तो उनका व्यक्तित्व
ही ऐसा है।
*
दो और ऐसे व्यक्ति हैं,जिनके मैंने कई अलग अलग मौकों पर बहुत आदर के साथ और मन से चरण स्पर्श किए हैं। इनका मेरे जीवन में स्थान लगभग गुरु जैसा है। एक हैं श्याम बोहरे। श्याम भाई ने मुझे ऐसे समय राह दिखाई, जब मेरे जीवन में लगभग अंधेरा छा गया था। मैं आत्मविश्वास खो चुका था। सच कहूं तो उनकी दिखाई राह पर चलकर ही यहां तक पहुंचा हूं। दूसरे हैं डॉ.सुरेश मिश्र। इन्होंने मुझे कॉलेज में कभी नहीं पढ़ाया, लेकिन मैं उन्हें 'सर' ही कहता हूं। अनजाने में ही मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे उन व्यक्तियों में से हैं जो लगातार मेरा परिचय मुझ से कराते रहे हैं।
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दो और ऐसे व्यक्ति हैं,जिनके मैंने कई अलग अलग मौकों पर बहुत आदर के साथ और मन से चरण स्पर्श किए हैं। इनका मेरे जीवन में स्थान लगभग गुरु जैसा है। एक हैं श्याम बोहरे। श्याम भाई ने मुझे ऐसे समय राह दिखाई, जब मेरे जीवन में लगभग अंधेरा छा गया था। मैं आत्मविश्वास खो चुका था। सच कहूं तो उनकी दिखाई राह पर चलकर ही यहां तक पहुंचा हूं। दूसरे हैं डॉ.सुरेश मिश्र। इन्होंने मुझे कॉलेज में कभी नहीं पढ़ाया, लेकिन मैं उन्हें 'सर' ही कहता हूं। अनजाने में ही मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा। वे उन व्यक्तियों में से हैं जो लगातार मेरा परिचय मुझ से कराते रहे हैं।
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दो घटनाएं ऐसी भी हैं, जब दो मित्रों को मैंने अपने
पैर छूते हुए पाया। 1990 के आसपास इंदौर का एक युवा जो जनसंचार की पढ़ाई कर रहा
था, छह महीने की इंटर्नशिप के लिए चकमक में आया था। उसे मेरे साथ ही काम करना
था। मेरा काम करने का तरीका कुछ ऐसा था (और शायद अब भी है), मेरी प्रतिक्रिया से लगभग
हर तीसरे-चौथे दिन वह रोने को हो आता। उसकी आंखें भर आतीं। मैं अपनी प्रतिक्रिया को हरसंभव बहुत सहज
तरीके से व्यक्त करने की कोशिश करता। पर गलत को गलत कहने से बचना मेरे लिए संभव
नहीं था। बहरहाल धीरे-धीरे दिन बीतते रहे। आखिरकार उसके जाने का समय आ गया। चलते
समय औपचारिक अभिवादन के बाद जब सचमुच वह विदा होने लगा तो उसने झुककर मेरे पैर छू
लिए। इस बार आंखें भर आने की मेरी बारी थी। उसने कहा, 'जितना मैंने आपसे इन छह
महीनों में सीखा है, वह शायद छह साल में भी नहीं सीख पाऊंगा।' आज वह इंदौर में जनसंचार पढ़ाता है। हो सकता है वह मुझे भूल गया हो, पर संदीप पारे मैं
तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊंगा।
*
एकलव्य के भोपाल केन्द्र का प्रभारी होने के
साथ-साथ मैं एकलव्य की अकादमिक परिषद का सचिव भी था। इस नाते मेरी दोहरी जिम्मेदारी
थी। एकलव्य में 1997 के आसपास एक नए साथी ने प्रवेश किया। साल भर के बाद जब अकादमिक
परिषद में उनके काम और मानदेय आदि की समीक्षा के बाद पुनर्निधारण हुआ तो वे उससे
संतुष्ट नजर नहीं आए। एक शाम को लगभग दो घंटे इस संबंध में मेरी और उनकी गहन
चर्चा हुई। मैंने संस्था के कार्यकर्त्ता के रूप में, केन्द्र प्रभारी के रूप
में, परिषद के सचिव के रूप में और उससे कहीं आगे बढ़कर एक दोस्त के नाते अपनी बात
उनके सामने रखी। पता नहीं मेरे किस रूप ने यह किया कि चर्चा के बाद वे मुझे एक हद
तक संतुष्ट से लगे। अंतत: जब वे चलने लगे तो उन्होंने झुककर मेरे पैर छू लिए। अनायास
ही किया गया उनका वह अभिवादन आज भी मेरी थाती है। मैं अब एकलव्य में नहीं हूं,
लेकिन राकेश खत्री हैं।
*
सत्ताइस साल का लम्बा अरसा एकलव्य में गुजारने के
बाद अब मैं यहां बंगलौर में हूं। लेकिन जब भी भोपाल जाना होता है, एकलव्य जाता
ही हूं। वहां के दो साथी शिवनारायण गौर और अम्बरीष सोनी जब मिलते हैं तो मेरे पैर
छुए बिना नहीं मानते। पता नहीं उन्होंने मुझमें ऐसा क्या पाया है या मुझसे
क्या पाया है कि वे अचानक ही मुझे जमीन से कुछ ऊपर उठा देते हैं।
0 राजेश उत्साही
Thursday, August 12, 2010
एक थी 'दोस्त' : भूले-बिसरे दोस्त (6)
तुम पता नहीं अब कहां हो। पर मैं भूला नहीं हूं। मैं कह सकता हूं कि तुम मेरी पहली स्त्री दोस्त थीं।* ऐसी दोस्त जिसके साथ मैं दुनिया भर की बातें कर सकता था,बिना किसी झिझक के। तुम भी स्कूल या कॉलेज की दोस्त नहीं थीं। हम दोनों साथ-साथ काम करते थे, एक ही दफ्तर में।
तुम अपने तीन भाईयों की अकेली बहन थीं। वे सब शादीशुदा थे। तुम्हारी हैसियत उनके बीच नौकरानी जैसी थी। तुम्हें घर का सारा काम करना होता था। अपने भाई-भाभियों के कपड़े धोने होते थे, यहां तक कि उनके अंत:वस्त्र भी। बूढ़ी मां और रिटायर पिता यह सब देखकर दुखी होते थे। फिर मां ने ही तुम्हें उकसाया था कि तुम कहीं बाहर निकल जाओ। मास्टर डिग्री थी तुम्हारे पास इतिहास की।
तुम अपने तीन भाईयों की अकेली बहन थीं। वे सब शादीशुदा थे। तुम्हारी हैसियत उनके बीच नौकरानी जैसी थी। तुम्हें घर का सारा काम करना होता था। अपने भाई-भाभियों के कपड़े धोने होते थे, यहां तक कि उनके अंत:वस्त्र भी। बूढ़ी मां और रिटायर पिता यह सब देखकर दुखी होते थे। फिर मां ने ही तुम्हें उकसाया था कि तुम कहीं बाहर निकल जाओ। मास्टर डिग्री थी तुम्हारे पास इतिहास की।
Tuesday, August 10, 2010
उदय ताम्हणे : भूले-बिसरे दोस्त (5)
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इस सूची में उदय तुम्हारा नाम भी आ ही जाता है। हालांकि तुम से पिछली मुलाकात कुछ साल भर पहले ही हुई थी। पर अब हम जिस तरह से मिलते हैं, वह भूले-बिसरे मिलना ही है। हमारी दोस्ती भी स्कूल या कॉलेज की दोस्ती नहीं थी। बल्कि वह भी इस ब्लाग जगत की तरह अस्सी के दशक में अखबार की दुनिया में पैदा हुई एक लहर की दोस्ती थी।
Sunday, August 8, 2010
सुरेन्द्रसिंह पवार : भूले-बिसरे दोस्त (4)
1985 में पवार |
बिसरा जरूर गए हैं,पर भूले नहीं हैं हम-एक दूसरे को। अभी-अभी तो चंद साल पहले ही मिले थे हम-तुम। इतना मुझे पता है भोपाल के बैरागढ़ इलाके में ही बस गए हो तुम। शिक्षक तो तुम बन ही गए थे। किसी स्कूल के हेडमास्टर बनने वाले थे। यह भी खबर है कि एक बेटा तुम्हारा पढ़ रहा है डॉक्टरी और एक इंजीनियरी।
मोबाइल फोन ने कुछ आसानियां की हैं तो कुछ परेशानियां भी। अब देखो न तुम्हारा लैंडलाइन नम्बर मेरे पास हुआ करता था। पर अचानक ही एक दिन वह इस दुनिया से विदा हो गया। पक्के तौर पर तुमने मोबाइल ले लिया होगा और उसको कटवा दिया होगा। तुमसे सम्पर्क करना भी मुश्किल।
Thursday, August 5, 2010
शतरंज के खिलाड़ी : भूले-बिसरे दोस्त(3)
मोहन पटेल यही नाम याद रह गया है ग्यारहवीं कक्षा के छोर पर। वह भी इसलिए क्योंकि तुम दोस्त तो थे ही, रिश्ते में चाचा भी थे। पर हम दोनों हमउम्र थे सो चचा-भतीजे वाली बात तो कहीं आती ही नहीं थी। मेरे पिता और दादी और तुम्हारे माता-पिता इटारसी की गरीबी लाइन में साथ-साथ रहते थे। एक ही बिरादरी के थे। दोनों परिवारों के पूर्वज बुन्देलखंड के छतरपुर जिले से आजीविका के सिलसिले में दशकों पहले इटारसी आ बसे थे। बस यहीं से एक नया रिश्ता पनप गया था। पिताजी तो अपनी दो बहनों के अकेले भाई थे। पर तुम छह भाइयों में सबसे छोटे थे।
Tuesday, August 3, 2010
बनवारी रे...: भूले-बिसरे दोस्त (2)
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‘बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे...’ सुमन कल्याणपुर द्वारा गाया यह गीत मेरे प्रिय गीतों में से रहा है। इसलिए भी कि इसे सुनकर मुझे बनवारी यानी बनवारी लाल श्रीवास्तव तुम्हारी याद हो आती है। तुम यकीन करोगे कि मैं सुमन कल्याणपुर को तुम्हारे नाम से ही याद रखता हूं।
Monday, August 2, 2010
दामोदर तुम कहां हो : भूले-बिसरे दोस्त(1)
दामोदर यानी दामोदर प्रसाद शर्मा।
हम दोनों 1973-74 में मप्र मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्कूल के सहपाठी हुआ करते थे। तुम्हें याद है न मैं रेल्वे स्टेशन मास्टर का बेटा वहां संटर नम्बर तीन में रहा करता था। तुम पुलिस हवलदार के बेटे थे,सो बीटीआई रोड पर पुलिस लाइन में रहते थे। हमारा स्कूल भी पुलिस लाइन के आगे ही पड़ता था। इसलिए रोज आते-जाते समय तुम्हारे घर आना तो होता ही था।
हम दोनों 1973-74 में मप्र मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्कूल के सहपाठी हुआ करते थे। तुम्हें याद है न मैं रेल्वे स्टेशन मास्टर का बेटा वहां संटर नम्बर तीन में रहा करता था। तुम पुलिस हवलदार के बेटे थे,सो बीटीआई रोड पर पुलिस लाइन में रहते थे। हमारा स्कूल भी पुलिस लाइन के आगे ही पड़ता था। इसलिए रोज आते-जाते समय तुम्हारे घर आना तो होता ही था।
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