आज साक्षरता दिवस है। यहां प्रस्तुत हैं तीन कविताएं। एक वरिष्ठ कवि त्रिलोचन की, दूसरी मेरे अत्यंत प्रिय कवि शरद बिल्लौर की, और तीसरी मेरी। त्रिलोचन जी और भाई शरद के साथ अपनी कविता देने की धृष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं। मैं इस दिन को कुछ अलग तरह से याद करना चाहता था, इसलिए यह प्रयास।
जीवन को देखा है
यहां कुछ और
वहां कुछ और
इसी तरह यहां-वहां
हरदम कुछ और
कोई एक ढंग सदा काम नहीं करता
तुम को भी चाहूं तो
छूकर तरंग
पकड़ रखूं संग
कितने दिन कहां-कहां
रख लूंगा रंग
अपना भी मनचाहा रूप नहीं बनता।
0 त्रिलोचन
(कविता कोश के सौजन्य से लेखक के संग्रह ‘ताप के ताये हुए दिन’ से साभार )
भाषा
पृथ्वी के अंदर के सार में से
फूट कर निकलती हुई
एक भाषा है बीज के अंकुराने की।
तिनके बटोर-बटोर कर
टहनियों के बीच
घोंसला बुने जाने की भी एक भाषा है।
तुम्हारे पास और भी बहुत-सी भाषाएं हैं,
अण्डे सेने की
आकाश में उड़ जाने की
खेत से चोंच भर लाने की।
तुम्हारे पास
कोख में कविता को गरमाने की भाषा भी है
तुम बीज की भाषा बोलीं
मैं उग आया
तुमने घोंसले की भाषा में कुछ कहा
और मैं वृक्ष हो गया।
तुम अण्डे सेने की भाषा में गुनगुनाती रहीं
और मैं आकार ग्रहण करता रहा।
तुम्हारे आकाश में उड़ते ही
मैं खेत हो गया।
तुमने चोंच भरी होने का गीत गाया
और मैं नन्हीं चोंच खोले
घोंसले में चिंचियाने लगा।
तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं
तुम्हारी कोख में गरमाती
कविता में भाषा बोल रहा हूं।
एक भाषा है बीज के अंकुराने की।
तिनके बटोर-बटोर कर
टहनियों के बीच
घोंसला बुने जाने की भी एक भाषा है।
तुम्हारे पास और भी बहुत-सी भाषाएं हैं,
अण्डे सेने की
आकाश में उड़ जाने की
खेत से चोंच भर लाने की।
तुम्हारे पास
कोख में कविता को गरमाने की भाषा भी है
तुम बीज की भाषा बोलीं
मैं उग आया
तुमने घोंसले की भाषा में कुछ कहा
और मैं वृक्ष हो गया।
तुम अण्डे सेने की भाषा में गुनगुनाती रहीं
और मैं आकार ग्रहण करता रहा।
तुम्हारे आकाश में उड़ते ही
मैं खेत हो गया।
तुमने चोंच भरी होने का गीत गाया
और मैं नन्हीं चोंच खोले
घोंसले में चिंचियाने लगा।
तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि मैं
तुम्हारी कोख में गरमाती
कविता में भाषा बोल रहा हूं।
0 शरद बिल्लौरे
(कविता कोश के सौजन्य से लेखक के कविता संग्रह ‘तय तो यही हुआ था’ से साभार)
शब्द
पता नहीं
क्या है समस्या
कहना है जो तुमसे
वह लिख-लिखकर असंख्य शब्दों में
नष्ट करता हूं बार-बार
शायद
इसलिए क्योंकि
लिखे हुए शब्दों की
अपनी होती है सत्ता, अपनी राजनीति
लिखे हुए शब्द
पढे़ जाकर हाथों में
पता नहीं कब बन जाएं
मशाल
या फिर जलाकर राख करने वाले अंगारे
इसलिए
संतोष करो
ढाई अक्षरों में ही
जो लिखे जा चुके हैं कई-कई बार ।
0 राजेश उत्साही
और अंत में आग्रह : ये कविताएं पढ़कर भाई सुभाष राय को अपनी कविता शब्द याद हो आई। यह अनुभूति में प्रकाशित हुई है। आप भी इसे शब्द पर किल्क करके पढ़ सकते हैं।
और अंत में आग्रह : ये कविताएं पढ़कर भाई सुभाष राय को अपनी कविता शब्द याद हो आई। यह अनुभूति में प्रकाशित हुई है। आप भी इसे शब्द पर किल्क करके पढ़ सकते हैं।
लिखे शब्द अलग-अलग परिवेश में अलग अलग मायनों में उभरते है...... हर रचना प्रभावशाली
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, भावपूर्ण और प्रभावशाली रचनाएँ प्रस्तुत किया है आपने! हर एक रचना लाजवाब है!
ReplyDeleteBahut khubsurat sandeshpurn aur manniy rachna. teeno rachnaye uchch koti ki aur bhawnamayi hain. Thanks
ReplyDeleteराजेश, बहुत अच्छा. मुझे तुम्हारा ये प्रयास देखकर अपनी एक कविता याद आयी, शब्द. अनुभूति पर छपी थी. चाहो तो उसका लिंक भी यहां लगा सकते हो. यहां प्रस्तुत तीनों कवितायें अच्छी हैं लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि शब्द अब अपनी सामर्थ्य खोने लगे हैं. यह इसलिये कि उनका प्रयोग करने वाले खुद ही उन पर भरोसा नहीं करते, उनके साथ नहीं चलते. जैसे-जैसे ऐसे लोग लेखन औए कविता में घुसपैठ करते जायेंगे, शब्दों की विश्वसनीयता घटती जायेगी. यह चिन्तन का विषय है पर कोई अभी इस पर सोच नहीं रहा.
ReplyDelete.
ReplyDeleteइसलिए
संतोष करो
ढाई अक्षरों में ही
जो लिखे जा चुके हैं कई-कई बार ।
..
Beautiful ending.
Words are indeed losing its meaning, because they are misused quite often.
Thanks for sharing the three beautiful creations with us.
Regards,
.
तीनों ही कवितायें अलग अलग संदेश देती हुयी…………………भाव संयोजन और विषय वस्तु भी गज़ब की है……………आभार पढवाने का।
ReplyDeleteराजेश जी . ए़क सन्दर्भ. तीन कविता. लेकिन तीनों कविताओं में ए़क स्वर मुखरित होता हुआ. शब्दों और भाषाओँ का भी वही लक्ष्य है.. मन के भावों का समप्रेषण. जहाँ त्रिलोचन जी की कविता बिम्ब में प्रेम की बात कह रहे हैं वहीँ शरद जी की कविता में जीवन की भाषा जो सदैव शब्दों में संप्रेषित नहीं होती को बखूबी कहा है... अंकुर और चिड़िया के माध्यम से . वहीँ आपने शब्दों के व्यापक आयाम और वहीँ शब्दों की सीमा के बात करी है .. जब आप कहते हैं:
ReplyDelete"पता नहीं
क्या है समस्या
कहना है जो तुमसे
वह लिख-लिखकर असंख्य शब्दों में
नष्ट करता हूं बार-बार"... लगता है शब्द आप के मन की बात कहने में असमर्थ हो रहे हैं. है भी सही. बड़ी बात कह रहे हैं आप.
शब्द क्या कुछ कर सकते हैं.. शब्दों में सिमटी संभावनाओं की बात कर रहे हैं आप इन पंक्तियों में ...
"शायद
इसलिए क्योंकि
लिखे हुए शब्दों की
अपनी होती है सत्ता, अपनी राजनीति
लिखे हुए शब्द
पढे़ जाकर हाथों में
पता नहीं कब बन जाएं
मशाल
या फिर जलाकर राख करने वाले अंगारे"....
और अंत में ... जो कहना चाहते हैं हम बस ढाई आखर में कह दिया जाता है...
"इसलिए
संतोष करो
ढाई अक्षरों में ही
जो लिखे जा चुके हैं कई-कई बार ।"....
बहुत खूब उत्साही जी ... आपने तो प्रेम की भाषा याद करा दी आज के मतलबी संसार में .... सच है भाषा का कोई मेल नही है यह अक्सर मशाल बन जाती है फिर कभी प्रेम का झरना .....
ReplyDeleteशरद जी ने बहुत ही प्रभावी तरीके से भाषा के विभिन्न रूपों को रक्खा है .... और कवि त्रिलोचन ज्जई की रचना तो सीधे अंदर तक असर करती है ...
ReplyDeleteशरद बिल्लोरे और आपकी रचनाओं ने बहुत प्रभावित किया. क्षमा करें, त्रिलोचन जी की रचना शायद मेरे सर के ऊपर से गुजर गयी. सच बोलने की आदत है, इस लिए झूट बोल कर खुश करना नहीं आता.
ReplyDeleteलिखे हुए शब्द
पढे़ जाकर हाथों men
पता नहीं कब बन जाएं
मशाल
या फिर जलाकर राख करने वाले अंगारे
क्या कमाल के शब्द हैं. आपकी रचनाओं का तो पहले से ही मुरीद हूँ.
एक चीज़ आपके व्यक्तित्व तो और भी महानता प्रदान करती है और वो है, दूसरे रचनाकारों की प्रतिभा का सम्मान. आज के युग में, लगभग सभी रचनाकार स्व-प्रशंसा में लीन हैं और आप हैं कि दूसरों की रचनाएँ अन्य लोगों को न सिर्फ पढवा रहे हैं बल्कि मुक्त कंठ से उनकी प्रशंसा भी कर रहे हैं.
आप किस युग के पुरुष हैं भाई!
शुक्रगुजार हूं सर्वत भाई।
ReplyDeleteशरद बिल्लौरे सशरीर हमारे बीच अब नहीं हैं। युवावस्था(1955-1980) में ही वे चल बसे थे। उनके अवसान के बाद उनकी कविताओं का एक संग्रह आया है -तय तो यही हुआ था- । यह कविता कोश पर है। गुल्लक में मैंने पहले भी उनकी कविताएं दी हैं। सचमुच वे बहुत अदृभुत कवि हुए।
जी त्रिलोचन की कविता पर तो कुछ कहने के अपन अधिकारी नहीं हैं। बहरहाल मुझे अच्छी लगी तो दे दी।
सर्वत भाई कहते हैं कि यह तो कलियुग है। सो हैं तो हम भी कलियुगी ही।
प्रत्येक कविता भावपूर्ण एवं प्रभावशाली है...सुभाष जी की कविता भी प्रभावित करने वाली है...बहुत खूब
ReplyDeleteसाक्षरता दिवस पर तीनों ही रचनाएँ पढ़कर मन आनन्दित हो उठा. आपका आभार इस सारगर्भित रचनाओं को लाने का.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteराजेश जी, ऑफिस से लौटते ही जम गया फोड़ने को गुल्लक , पता था एक से एक शातिर पहले से ही जमे होंगे और हुआ भी वही.. बड़े भाई सर्वत साहब ( बुज़ुर्ग कहने को मना किया है उन्होंने, फोन पर भी और मेल पर भी, उमर बता दी इसलिए बड़ा भाई कहने से तो वो भी नहीं रोक सकते) को उनके रंगमें देखकर ख़ुशी हुई.
ReplyDeleteत्रिलोचन जी की कविता की अंतिम पंक्तियों में कुछ खटक रहा है,शब्द वियास, वाक्य विन्यास या कुछ और..पर रुकावट है..
स्व. शरद जी की कविताओं के विषय में कहना मेरे सामर्थ्य के बाहर है..एक पूरा जीवन चित्रांकित कर दिया है उन्होंने.. एक स्केच!!
और अपकी कविता आपकी शैली के अनुरूप ढाई अक्षर तक जाते जाते वैचारिक क्रांति पैदा करती है!
एक अच्छा प्रयोग और बेहतर प्रस्तुति.
तीनों कवितायें बहुत सुन्दर हैं।
ReplyDeleteतीनों कविताएं अच्छी हैं। ये अटल सत्य है कि ‘ाब्द में असीमित ताकत है। लेकिन यह भी सही है कि ‘ाब्दों के अत्यधिक और गलत प्रयोग से ‘ाब्द घिसते भी हैं अपनी चमक खोते भी हैं। एक समर्थ रचनाकार ही ‘ाब्दों में जान फूंकता है। मैंने कई बार महसूस किया है कि एक भ्रश्ट व्यक्ति ईमानदारी पर जब भाशण देता है तो उसके ‘ाब्दों में कोई जान नहीं होती। जबकि एक साहित्यकार या ईमानदार व्यक्ति उन्हीं ‘ाब्दों के द्वारा जनमानस को अन्दर तक आंदोलित कर डालता है।
ReplyDeleteअद्भुत ... खूबसूरत कविताएँ।
ReplyDeleteराजेश जी, साक्षरता दिवस पर इतनी सशक्त रचनायें पढ़वाने के लिये आभार स्वीकारें। हेमन्त
ReplyDeleteसभी रचनाएँ बहुत प्रभावशाली हैं ..बहुत आभार पढाने का .
ReplyDeleteजबरदस्त है तीनों ही रचनाएं। ये दुर्भाग्य है कि त्रिचोलच जी से मिल नहीं पाया, दिल्ली में रहते हुए। उनकी भी वही दशा थी जो आमतौर पर हिंदी के कवियों की होती है। शरद बिल्लौरे जी के बारे में ज्यादा नहीं जानता। हां आपको जानने का काम सतत चल रहा है..जितना आप अपने को बताते चलेंगे....
ReplyDeleteपहली दो.... ओवरहैड ट्रांसमिशन हो गयीं!
ReplyDeleteतीसरी.... यानी आपकी..... छोटे मगज में फिट आयी!
इसलिए
संतोष करो
ढाई अक्षरों में ही
जो लिखे जा चुके हैं कई-कई बार ।
और इन पंक्तियों ने दिमाग को विस्तार दिया!
बाउजी,
बहुत अच्छे!
आशीष
--
बैचलर पोहा पर आपकी टिपण्णी का उत्तर देने की हिमाकत की है! देख लीजियेगा!
जीवन को देखा है
ReplyDeleteयहां कुछ और
वहां कुछ और
इसी तरह यहां-वहां
हरदम कुछ और
कोई एक ढंग सदा काम नहीं करता
राजेश जी...बेहतरीन कहूँगा ..बिल्कुल सच्ची बात कही कुछ एक सा कहीं नही रहता है...भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए धन्यवाद
तिनके बटोर-बटोर कर
ReplyDeleteटहनियों के बीच
घोंसला बुने जाने की भी एक भाषा है।
बहुत बढ़िया प्रस्तुति...जीवन के रंग के बाद आपने भाषा के लिए जो अभिव्यक्ति दी है बेहतरीन है..बहुत आकर्षण...
शब्द पर भी लिखी कविता बेहतरीन...भावनाओं का सागर है आपके पास और शब्दों की भी कमी नही सो कविता लाज़वाब बन जाती है...बधाई
ReplyDeleteत्रिलोचन जी कि यह पंक्तियाँ ..
ReplyDeleteजीवन को देखा है
यहां कुछ और
वहां कुछ और
इसी तरह यहां-वहां
हरदम कुछ और
कोई एक ढंग सदा काम नहीं करता
... और शरद जी कि यह पंक्तियाँ
तिनके बटोर-बटोर कर
टहनियों के बीच
घोंसला बुने जाने की भी एक भाषा है।
और आपकी ये पंक्तियाँ
लिखे हुए शब्द
पढे़ जाकर हाथों में
पता नहीं कब बन जाएं
मशाल
या फिर जलाकर राख करने वाले अंगारे
इसलिए
संतोष करो
ढाई अक्षरों में ही
जो लिखे जा चुके हैं कई-कई बार
....बहुत प्रभावकारी लगी.
कविताओं में भाव सम्प्रेषण बहुत ही सारगर्भित ढंग से हुआ है..
..सार्थक प्रस्तुति के लिए आभार..
सुन्दर रचना।
ReplyDeleteयहाँ भी पधारें :-
No Right Click
तीनों ही कवितायें पढ़वाने के लिये आभार .......
ReplyDeleteभावपूर्ण प्रस्तुति के लिए धन्यवाद स्वीकारें
bohot khoob Rajesh ji... bohot acchha laga ye teeno kavitaaye padh kar... uplabdh karane ke liye dhanyawaad...
ReplyDeleteवाह जी.. आपने अनजाने में बोली मेरी भाषा, मेरा नाम और मैं समझ गया ये भाषा भी.. उग आया मैं भी झाड़-झंकड़ के मानिंद इस पोस्ट पर.. खर-पतवार की तरह नीचे रेंगती टिप्पणी का सा..
ReplyDeleteतीनों कविताएं अच्छी हैं।
ReplyDeleteभगवान श्री गणेश आपको एवं आपके परिवार को सुख-स्मृद्धि प्रदान करें! गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें!
ReplyDeleteलिखे हुए शब्द
ReplyDeleteपढे़ जाकर हाथों में
पता नहीं कब बन जाएं
मशाल
या फिर जलाकर राख करने वाले अंगारे
.चंद शब्दों में ही,बहुत ही गहरी बात कह दी है....
तीनो ही कविताएँ बहुत ही प्रभावशाली हैं...दिनों तक मन में गूंजने वाले...पढवाने का शुक्रिया
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
ReplyDeleteतीनो कविताएं श्रेष्ठ हैं. तीनों में प्रेम का संदेश है।
..आभार।
sir...teeno hi rachnaayen apne aap mein sandeshvahak hai...aur vo bhi us anubhuti ki jisko shbdon se pare hi samjha jata hai...so nice!
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletebahut hi sashkt avam prabhavshali rachnaaye prastut ki hai aapne teeno hi kavitaye ek se badh kar ek hai. in mahan vibhutiyon ko mera hardik naman.
poonam
राजेश जी, पोस्ट दो बार प्रकाशित हो जाने में पूनम जी की गलती नहीं है। दरअसल उनकी पोस्ट भी मैं ही प्रकाशित करता हूं।फ़ाण्ट और कलर की सेटिंग करते समय यह दोबारा छप गयी और उसी समय बिजली भी अनियतकालीन चली गयी---अभी अभी मैं कार्यालय से आया तो यह त्रुटि सुधार रहा हूं। उस पोस्ट पर आदरणीया निर्मला कपिला जी की एक टिप्पणी थी उसे भी इधर लगाने की कोशिश करता हूं। आपको हिन्दी दिवस की शुभकामनायें।-------------हेमन्त कुमार
ReplyDeleteधन्यवाद
ReplyDeletehttp://techtouchindia.blogspot.com
अच्छी पंक्तिया ........
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग कि संभवतया अंतिम पोस्ट, अपनी राय जरुर दे :-
http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html
कृपया विजेट पोल में अपनी राय अवश्य दे ...
.
ढाई आखर की बात करने वाली आपकी रचना विलक्षण है राजेश जी...क्या कहूँ बस आनंद आ गया...त्रिलोचन जी और बिल्लोरी जी की रचनाएँ अप्रतिम हैं...
ReplyDeleteनीरज
आपकी तीनों रचनाये बहुत सुन्दर लगी ..
ReplyDeleteतीनो रचनायें दिल मे उतर गयी बस निशब्द हूँ। धन्यवाद और बधाई।
ReplyDeleteराजेश जी, में ब्लॉग जगत में केवल गजेन्द्र जी का ही मित्र नहीं हूँ, में मित्र हूँ उन सभी लोगो का जिनके ब्लॉग में पढता हूँ, और अब तो आप भी उनमे से एक है ... अभी ब्लॉग की दुनिया में नया हूँ, अभी तक केवल पढने का ही कार्य कर रहा हूँ, ........ जल्द ही कुछ लिखना भी सुरु करूँगा .................
ReplyDelete