पीपली लाइव देख कर नहीं जी कर आया हूं।
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फिल्म शुरू होते ही हावी हो जाती है। बहुत जल्द ही हम फिल्म के पात्रों से अपने आपको जोड़ लेते हैं। नामी-गिरामी कलाकारों का न होना शायद इसका एक बड़ा कारण है। जाने-माने चर्चित कलाकारों की पहले से बनी छवि से हमें मुक्त होने में समय लगता है। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। फिल्म का केन्द्रीय पात्र नत्था हमारे लिए उतना ही अनजान है जितना उसके लिए हम। नसीर जैसे कलाकार भी केन्द्रीय मंत्री की भूमिका में है, इसलिए उनका होना या नहीं होना बहुत मायने नहीं रखता। वे हमें हमारे केन्द्रीय मंत्रियों की तरह ही नजर आते हैं। और रघुवीर यादव उन सबके बीच ऐसे खो जाते हैं कि हम केवल यह समझते हैं कि ये रघुवीर यादव का कोई हमशक्ल भर है।
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आमतौर पर जब हम कोई अच्छी कहानी पढ़ते हैं तो वह हमारी आंखों में घटने लगती है। लेकिन पहली बार मैंने ऐसी फिल्म देखी जिसके दृश्यों को मैं उसके संवादों के साथ सुनकर पढ़ भी रहा था। सचमुच एक सुगठित कहानी पढ़ने का अहसास हो रहा था। कथ्य के कारण मुझे बार-बार प्रेमचंद की कफन याद आ रही थी। पीपली जैसे उसका आज का संस्करण है। रघुवीर यादव और नत्था का दारू पीकर घर लौटना कफन की याद दिला ही जाता है। हर कदम पर श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी के पात्र भी सामने आकर खड़े हो जा रहे थे।
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कहानी का केन्द्रीय पात्र भले ही नत्था यानी एक किसान है,लेकिन केन्द्रीय थीम किसान या उसकी आत्महत्या नहीं है। केन्द्रीय थीम तो हमारी आज की मीडिया की नौटंकी है। और यह भी क्या विडम्बना है कि अनुषा रिजवी जो पहले एनडीटीवी में रह चुकी हैं खुद इस नौटंकी को हमारे सामने रखती हैं। टीवी पर दिखाई जाने वाली संवदेनशील कहानियां कितनी संवेदनहीनता के साथ तैयार होती हैं, पीपली यह बताने का प्रयत्न है ।
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हमारी तमाम फिल्में स्त्रियों को कमजोर चरित्र के रूप में ही पेश करती रहीं हैं। लेकिन इस फिल्म में स्त्री को पहले ही फ्रेम से एक ताकतवर चरित्र के रूप में पेश किया गया है।
पूरी फिल्म में धनिया बेधड़क बिना किसी डर और संकोच के अपनी बात कहती है। पति हो,जेठ हो,सास हो,पुलिस वाला हो,बच्चे हों कि कोई भी तोपचंद। धनिया किसी से नहीं घबराती। इन परिस्थितियों में भी उसके चेहरे पर तनाव नहीं एक आक्रोश दिखाई देता है। और यह आक्रोश केवल शब्दों से नहीं उसके हाव भाव में भी झलकता है। धनिया केवल बात नहीं करती वह लगातार काम करती हुई,सक्रिय दिखाई देती है। हां, एक पल को यह बात समझ नहीं आती कि फिल्म के अंत में उसे अचानक ही इतना विनम्र और चुप रहने वाला क्यों बना दिया गया। पर अगले ही पल हमें धनिया की चुप्पी और विनम्रता जैसे काटने को दौड़ने लगती है। धनिया ग्रामीण स्त्री का वह चेहरा भी है जिसका सामना करने की हिम्मत मीडिया के पास नहीं है। इसीलिए नत्था के गायब हो जाने पर उसकी पत्नी के तौर पर किसी और को घूंघट डालकर खड़ा किया जाता है। जो बार-बार पूछने पर भी कुछ नहीं कहती। क्योंकि वह असली धनिया नहीं,मीडिया द्वारा गढ़ी गई धनिया है। असली धनिया जो कहेगी उसे मीडिया सुनेगा नहीं और मीडिया जो कहलवाना चाहता है वह धनिया कहेगी नहीं।
नंदिता भी एक सख्त मिजाज चरित्र है। यह सख्ती उसे अपने प्रोफेशन से मिली है। बिना उसके शायद वह वहां जिंदा नहीं रह सकती। ठीक वैसे ही जैसे धनिया अपने इस चरित्र के बिना उन परिस्थितियों में जीवित नहीं रह सकती। मीडिया के बीच वह अलग ही नजर आती है। उसके आगे पुरुष मीडिया कर्मी किस तरह बेबस हैं, यह दीपक की खीज में झलकता है, जब वह कहता है कि औरतों पर तो मीडिया में काम करने पर पाबंदी लगा देना चाहिए।
तीसरी औरत अम्मां है। वह भले ही पूरे समय खटिया पर पड़ी रही हैं,पर उनकी आवाज में एक तरह की दबंगता है। वह यह आभास दिलाती है कि कभी इस परिवार में मातृसत्ता रही होगी। अगर हम सर्तक हों तो देख सकते हैं कि धनिया अम्मां का नया रूप है और संभव हुआ तो धनिया उसे आगे ले जाएगी।
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यह भी एक संयोग ही है कि पूरी फिल्म जो एक नही अनेक त्रासदियों की कहानी है स्त्री को रोता हुआ नहीं दिखाती है। अम्मां विलाप जरूर करती है पर उसमें रोना नहीं है, वह मर्सिया पढ़ना है,अफसोस जताना है। फिल्म में आंसू वहां भी नहीं गिरे जहां गिरने चाहिए थे और वहां भी नहीं जहां गिराए जा सकते थे। सच तो यह है कि आंसू बचे ही कहां?
हां रघुवीर यादव जरूर एक सीन में रोते हैं, पर उनका रोना बनावटी लगता है, कहानी की मांग के हिसाब से वो था भी बनावटी ।
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यह बहुत स्पष्ट है कि अनुषा अपने ऊपर यानी मीडिया पर व्यंग्य करने से बिलकुल हिचकिचाई नहीं हैं। इसीलिए उन्हें एक संवाददाता का नाम दीपक रखने में भी कोई गुरेज नहीं हुआ। कुमार दीपक नाम केवल नाम से बल्कि अपने काम से भी मुझे दीपक नामके ही एक मश्ाहूर संवाददाता की याद दिला रहे थे।
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गांवों में भजन मंडली और लोकगीत गायकों की मंडलियां अपना एक स्थान रखती हैं। उनमें ऐसे गुणीजन होते हैं कि किसी नई फिल्म के हिट गाने की तर्ज के आधार पर चौबीस घंटे के अंदर अपना भजन या गीत बना डालते हैं। मंहगाई डायन खाए जात गाना गाने वाली मंडली में इसी की झलक मिलती है।
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संवादों में जो भदेसपन और तथाकथित गालियां हैं, वह सिनेमाघर में बैठे तमाम लोगों को केवल हंसी का पर्याय लगती हैं। पर हंसने वाले भूल जाते हैं कि यह भदेसपन ही उस स्थिति की अभिव्यक्ति है जो वहां जी जा रही है। यहां भाषा ही ऐसा मुहावरा है जिसका कोई एक अकेला शब्द ही हमारी तथाकथित सभ्य भाषा के हजार-पांच सौ शब्दों पर भारी पड़ता है। उसके इस्तेमाल भर से सारी स्थिति सुनने वाले और सुनाने वाले के सामने स्पष्ट हो जाती है।
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आमतौर पर प्रचलित मुहावरों और कहावतों को उपयोग अब फिल्मों में बहुत कम होता है। पर इस फिल्म में मुझे एक लोक मुहावरा और एक बनाया गया लोक मुहावरा सुनाई दिया। लोक मुहावरा है, हमारे तेल को पटा और तुम्हारे तेल को कड़ाई। बनाया गया लोक मुहावरा है धीमी गति का समाचार। एक समय था जब टेलीविजन ने इस तरह पैर नहीं पसारे थे,न इंटरनेट इस कदर पसरा था। तब रेडियो पर आकाशवाणी से कस्बों के छोटे अखबारों के लिए धीमी गति के समाचारों का एक बुलेटिन प्रसारित होता था। जिसमें समाचार वाचक समाचार इतनी धीमी गति से पढ़ता था कि उन्हें सुनकर लिखा जा सके । यह मुहावरा वहीं से आया है। अपने घर में हम इसे उन्हीं दिनों से इस्तेमाल करते रहे हैं।
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फिल्म देखते हुए लगता है जैसे यह फिल्म भी एक धीमी गति के समाचार की तरह है,जिसमें मूल संदेश दर्शक तक आते-आते अपना वजूद ही खो बैठता है। और इसीलिए फिल्म खत्म होने पर आंकड़े लिखकर किसानों की दुदर्शा के बारे में बताना पड़ता है ।याद दिलाना पड़ता है कि यह फिल्म किन के बारे में है।
(पीपली में एक और कहानी भी है ... अगली टिप्पणी में पढ़ें।)
0 राजेश उत्साही
फिल्म देखते हुए लगता है जैसे यह फिल्म भी एक धीमी गति के समाचार की तरह है,जिसमें मूल संदेश दर्शक तक आते-आते अपना वजूद ही खो बैठता है।
ReplyDeleteअभी तक इस फ़िल्म पर अनेक समीक्षाएं पढने कि मिली।
मेरे हिसाब से यह उम्दा प्रस्तुति है।
इतनी सुंदर समीक्षा। आपके शब्दों और शैली ने चार चांद लगा दिए हैं।
ReplyDelete*** राष्ट्र की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है।
आपने तो घर बैठे ही फिल्म दिखा दी। अच्छी समीक्षा की है आपने, बधाई। अब लगता है कि फिल्म देखनी पड़ेगी।
ReplyDeleteबेहतरीन नोट ....महिला चरित्र का अचानक सौम्य हो उठना उसकी अंततःहताशा को इंगित करता है -पति की मौत की सूचना और घर के बहार दौड़ धूप करने को बस उसका जेठ बचता है और उसके प्रति अब वह विनम्र हो उठती है -यद् है वह दृश्य जब जेठ के लौटने पर पहली बार घड़े से ठंडा पानी का गिलास लेकर वह झटपट उसके पास पहुँचती है ..जीवन बिना आस केर संभव नहीं ...
ReplyDeleteयहाँ भी देखें -
http://mishraarvind.blogspot.com/2010/08/blog-post_21.html
आज देखने का मन बनाया था लेकिन नहीं देख पाया. आपकी समीक्षा को देखने के बाद ठीक से पढ़ुंगा...
ReplyDeleteगुरुदेव! आप गुल्लक के साइज के हिसाब से सबकुछ समेट दिए हैं.. अच्छा है. फिल्म के बारे में त आम राय भी एही बन रहा है कि फिल्म ईमानदारी से सब बयान करती है.. इस फिल्म का जो सबसे बड़ा खुबसूरती है ऊ त आप लिखबे किए हैं कि इसका नॉन ग्लैमरस होना ही फिल्म को सुंदर बनाता है..काहे कि फिल्म में हर तंत्र का बदसूरती एतना खूबसूरती से देखाया गया है कि कहा नहीं जा सकता...
ReplyDeleteआपका सारा बात से 200% सहमत हैं हम... ई सब बात हमा लोग अपना ब्लॉग पर काफी दिन से लिख रहे थे, इसलिए फिल्म हमको अपना ब्लॉग का वीडियो रूपांतर लगा... आप जो सस्पेंस पर ई पोस्ट को छोड़े हैं, उससे जिज्ञासा बढ गया है... हमरा अगिला एपिसोड मंगलवार को अऊर अंतिम एपिसोड उसके बाद आएगा.
फिल्म का गाली, श्रीलाल शुक्ल अऊर एनिमल फार्म, संगीत, अदाकारी आदि की चर्चा अंतिम एपिसोड में.. अपके लिए तो यह फिल्म घर आँगन के जईसा अनुभव होगा... जारी रखिए!! जुड़े रहिए!!!
फिल्म अभी देखी नहीं है ,लेकिन अब देखने का मन हो गया है ।
ReplyDeleteRajesh bhaai, maine peepali ke baare men bahut sunaa, padhaa. dekhane ka man bhee hai par abhee tak dekh nahee paaya. aap ke is note ne itanaa kuchh bataa diyaa ki ab agar use n bhee dekh paaoon to bhee man men kasak nahee rahegee.
ReplyDeleteइस पिक्चर पर आपकी समीक्षा बहुत अच्छी लगी ...आभार
ReplyDeleteआपके अंदाज से पीपलि को दुबारा दिमाग़ में रिव्यू करा .... लगा ईमानदारी से विश्लेषण किया है पात्रों का आपने ...
ReplyDeleteRajesh bhaiya aapne filim ki bahutai acchi smikha kar dali hai, lug rao hai jaise filim dekh rai hon...
ReplyDeleteफिल्म की सुंदर समीक्षा...बधाई !
ReplyDeleteफिल्म देखते हुए लगता है जैसे यह फिल्म भी एक धीमी गति के समाचार की तरह है,जिसमें मूल संदेश दर्शक तक आते-आते अपना वजूद ही खो बैठता है। और इसीलिए फिल्म खत्म होने पर आंकड़े लिखकर किसानों की दुदर्शा के बारे में बताना पड़ता है ।याद दिलाना पड़ता है कि यह फिल्म किन के बारे में है।
ReplyDeleteआम तौर पर बहुत कम फिल्में देखती हूँ मैं ....
आपने बहुत विस्तार से बताया इस फिल्म के बारे ...पिछली पोस्ट भी पढ़ी ....
कभी मौका लगा तो जरुर देखूंगी की इसकी धीमी गति क्यों है .....!!
आपने फिल्म के चरित्रों का बहुत ही खूबसूरत विश्लेषण किया है. आम तौर पर अब सिनेमा के कैरेक्टर्स का एनॉलसिस होना बंद हो गया. हालांकि मैं फिल्म से बहुत सहमत नहीं था मगर यह मानना पड़ेगा कि आपने फिल्म को बिल्कुल नई दृष्टि से देखा है. बधाई. उम्मीद है कभी-कभार सिनेमा पर इस किस्म की कुछ और उम्दा रचनाएं मिल जाएंगी.
ReplyDeleteabhi film nahi dekhi hai lekin aapki lekhni ne dekhne ki lalsa jor se jaga di hai . jald hi film dekhoonga .
ReplyDeleteumar
अंत याद दिलाना पड़ता है कि हम क्या देख रहे थे..... !
ReplyDeleteयह त्रासदी है.
कल देखी यह फिल्म तो मन हुआ कि आपकी समीक्षा पढ़ी जाय। बहुत सुंदर विश्लेषण किया है आपने लेकिन होरी महतो को क्यूँ भूल गए ?
ReplyDeleteदूसरी किश्त और दूसरों के कमेंट पढ़े ..होरी महतो को उचित स्थान दिया है आपने।
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