Wednesday, June 24, 2009

सालगिरह याद रखने के सत्रहसौ साठ बहाने


23 जून से दो दिन पहले हमेशा बड़ा दिन रहा है सबके लिए। बच्‍चों को पाठ्यपुस्‍तकों में पढ़ाया जाता है कि 21 जून  का दिन साल में सबसे बड़ा या लंबा होता है। यानी सूरज देर में डूबता है। पर मेरे लिए तो   23 जून और भी बड़ा दिन है।  इस दिन मेरी शादी जो हुई थी। इतना ही नहीं संयोग से छोटे भाई अनिल की शादी भी रानी के साथ आज के ही दिन हुई थी। आज मेरी शादी की चौबीसवीं सालगिरह है।

पर मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि इस सालगिरह को मैं कैसे याद रखूं। क्‍या इसलिए याद रखूं कि चौबीस सालों में पहला मौका है जब मैं पत्‍नी नीमा के साथ नहीं हूं।(यहां फोटो में उनके साथ हूं।) अपने घर में नहीं हूं। क्‍या इसलिए याद रखूं कि इस महत्‍वपूर्ण दिन का सूरज बंगलौर में निकला,आसमान में वह दिल्‍ली में चढ़ा और रूद्रपुर के रास्‍ते में मुरादाबाद के आसपास अस्‍त हुआ। या शायद इसलिए भी याद रखा जा सकता है कि आज की रात में रूद्रपुर के उत्‍तराखंड ग्राम्‍य विकास संस्‍थान के प्रशिक्षण केन्‍द्र में गुजारूंगा।

Saturday, June 13, 2009

दास्‍तान दाढ़ी की


बंगलौर आया तो दिनचर्या पूरी बदल गई। सुबह उठकर रोजमर्रा के कामों से निपटकर साढ़े आठ बजे तक दफ्तर पहुंचने की जल्‍दी। उधर शाम को छह बजे दफ्तर से निकलने पर खरामा-खरामा कदमों से घर पहुंचना। साथी जो कुछ भी खाना बना रहे हों, उनकी मदद करना। खाना और बस एफएम रेडियो या विविध भारती सुनते हुए सो जाना।

सुबह उठकर फिर वही क्रम। इस क्रम में शुरू के दिनों में जो शामिल था, वह था दाढ़ी बनाना। कई बार दाढ़ी बनाने का समय ही नहीं होता । एक दिन साथ रह रहे निराग ने उकसाया। अरे आप रोज-रोज समय क्‍यों बरबाद करते हैं। आप तो दाढ़ी बढ़ाईए। आप पर फबेगी। फिर आप तो कवि हैं। आपको दाढ़ी रखनी चाहिए। उसके तर्कों में दम नहीं था।

Saturday, June 6, 2009

जिन्‍दगी बिखरा कथानक हो गई

कभी - कभी कोई चेहरा, कोई घटना, कोई बात इस तरह दिल को छू जाती है कि ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती। बात 1975 के आसपास की है। तब मैं ग्‍यारहवीं का विद्यार्थी था। इटारसी में रहता था। कविताएं लिखना शुरू कर चुका था। कादम्बिनी पत्रिका का एक कालम था जिसमें उभरते रचनाकारों की कविताएं प्रकाशित होती थीं। मैं यह कालम बहुत ध्‍यान से पढ़ता था। किसी एक अंक में इस कालम में प्रज्ञा तिवारी की एक कविता प्रकाशित हुई। उसकी चार पंक्तियों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। वे चार पंक्तियां मैंने अपनी कविता की कॉपी के पहले पन्‍ने पर लिख लीं। वे आज भी लिखीं हैं। ज्‍यों – ज्‍यों दिन बीतते जा रहे हैं, ये पंक्तियां महत्‍वपूर्ण होती जा रही हैं। प्रज्ञा मध्‍यप्रदेश में गाडरवारा या नरसिहंपुर में किसी एक जगह की थीं। पता नहीं वे अब कहां हैं पर उनकी ये चार पंक्तियां हमेशा मेरे साथ हैं-

लक्ष्य तो दृढ़ थे आरम्‍भ से ही
पर हर घटना अचानक हो गई
कहां तक समेंटे हम पृष्‍ठ इसके
जिन्‍दगी बिखरा कथानक हो गई

चार पंक्तियों से याद आया कि ऐसी ही चार और पंक्तियां हैं जो मुझे हमेशा याद रहती हैं। गाहे बगाहे ये बहुत काम भी आती हैं। ये चार पंक्तियां मशहूर गीतकार इंदीवर की हैं-

कोई न कोई तो हर एक में कमी है
थोड़ा - थोड़ा हरजाई हर आदमी है
जैसा हूं वैसा ही स्‍वीकार कर लो
वरना किसी दूसरे से प्‍यार कर लो