मोहन पटेल यही नाम याद रह गया है ग्यारहवीं कक्षा के छोर पर। वह भी इसलिए क्योंकि तुम दोस्त तो थे ही, रिश्ते में चाचा भी थे। पर हम दोनों हमउम्र थे सो चचा-भतीजे वाली बात तो कहीं आती ही नहीं थी। मेरे पिता और दादी और तुम्हारे माता-पिता इटारसी की गरीबी लाइन में साथ-साथ रहते थे। एक ही बिरादरी के थे। दोनों परिवारों के पूर्वज बुन्देलखंड के छतरपुर जिले से आजीविका के सिलसिले में दशकों पहले इटारसी आ बसे थे। बस यहीं से एक नया रिश्ता पनप गया था। पिताजी तो अपनी दो बहनों के अकेले भाई थे। पर तुम छह भाइयों में सबसे छोटे थे।
तुम और मैं इटारसी के पीपल मोहल्ला के हायर सेंकडरी स्कूल के छात्र थे। तुम ने गणित लिया था और मैंने जीवविज्ञान। गणित से मुझे डर लगता था। तुम गणित में तेज थे। स्कूल में रसायन शास्त्र हमें गौर सर ही पढ़ाते थे। तुम्हें याद है न उनका खास जुमला,’मुग्गे ।‘ और पीटी वाले चौहान सर भी तुम्हें याद होंगे ही। स्कूल के नाम पर हमारा रिश्ता बस इतना ही था और यह कि हम-तुम साथ आते-जाते थे।
पर जिस वजह से तुम याद आते हो,वह है शतरंज का खेल। वह मैंने तुम से सीखा था। तुम्हारे गरीबी लाइन वाले दो कमरे के घर में हम लोग बकरियों के बीच बैठकर घंटों शतरंज खेला करते थे। शतरंज का नशा कुछ ऐसा छाया था हम पर, कि हम लोगों ने एक छोटा टूर्नामेंट ही आयोजित कर डाला था। बाकायदा पैसे जमा किए गए थे। ट्राफी और छोटे-छोटे कप इनाम में देने के लिए खरीदे गए थे। लगभग बीस लोगों ने इसमें भाग लिया था। और हां हाकी भी तो खेलते थे हम लोग। अपनी एक टीम भी बनाई थी और छोटे-मोटे टूर्नामेंटों में भाग लिया करते थे।
तुम्हारी जो आदत मुझे पसंद नहीं थी, वह यह कि तुम लगातार अपने नाखून दांतों से काटते रहते थे। खासकर तब जब शतरंज खेल रहे होते थे। तुम एक चाल चलने में दस-दस मिनट लगाते थे। फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि ग्याहरहवीं पास करके हम दोनों ही खंडवा पहुंच गए। वहां तुम्हारे सबसे बड़े भाई थे और मेरे फूफाजी। तुम पॉलीटेक्निक कॉलेज से डिप्लोमा कर रहे थे और मैं नीलकंठेश्वर महाविद्यालय से बीएस-सी।
शतरंज का नशा यहां भी जारी था। उन्हीं दिनों ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म रिलीज हुई थी। और हमें तुम्हारे भैया-भाभी यानी मेरे चाचा-चाची ने यही नाम दे दिया था। फिर हमारे रास्ते अलग हो गए। मैं बीच में ही होशंगाबाद लौट आया। तुमने अपना डिप्लोमा पूरा किया और इंजीनियर बन गए,सिविल इंजीनियर। यही तो बनना भी चाहते थे न तुम।
सुना तुम बड़े आदमी भी बन गए हो। बहुत पास रहकर भी हमारी मुलाकात नहीं हुई। सच कहूं तो मैंने भी मिलने की कोशिश नहीं की। और नेट पर ढूंढने की तो बिलकुल नहीं। बीच में सुनने में आया कि तुम एक्सीडेंट में बस बाल बाल बचे। महीनों पलंग पर रहे। शुक्र है फिर से सामान्य हो गए। कहां हो पता नहीं।
अब शतरंज खेलते हो कि नहीं? मैं भी कहां खेल पाता हूं। अब तो जिन्दगी ही शतरंज है। हर चाल सोच-सोच कर चलता हूं, पर हर बार उल्टी पड़ती है। पता नहीं कब शह लग जाए और खैर मात तो होनी ही है एक दिन।
तुम तो हमेशा ही जीतते रहे थे, तो जहां भी रहो जीतते रहो और जीते रहो।
तुम और मैं इटारसी के पीपल मोहल्ला के हायर सेंकडरी स्कूल के छात्र थे। तुम ने गणित लिया था और मैंने जीवविज्ञान। गणित से मुझे डर लगता था। तुम गणित में तेज थे। स्कूल में रसायन शास्त्र हमें गौर सर ही पढ़ाते थे। तुम्हें याद है न उनका खास जुमला,’मुग्गे ।‘ और पीटी वाले चौहान सर भी तुम्हें याद होंगे ही। स्कूल के नाम पर हमारा रिश्ता बस इतना ही था और यह कि हम-तुम साथ आते-जाते थे।
पर जिस वजह से तुम याद आते हो,वह है शतरंज का खेल। वह मैंने तुम से सीखा था। तुम्हारे गरीबी लाइन वाले दो कमरे के घर में हम लोग बकरियों के बीच बैठकर घंटों शतरंज खेला करते थे। शतरंज का नशा कुछ ऐसा छाया था हम पर, कि हम लोगों ने एक छोटा टूर्नामेंट ही आयोजित कर डाला था। बाकायदा पैसे जमा किए गए थे। ट्राफी और छोटे-छोटे कप इनाम में देने के लिए खरीदे गए थे। लगभग बीस लोगों ने इसमें भाग लिया था। और हां हाकी भी तो खेलते थे हम लोग। अपनी एक टीम भी बनाई थी और छोटे-मोटे टूर्नामेंटों में भाग लिया करते थे।
तुम्हारी जो आदत मुझे पसंद नहीं थी, वह यह कि तुम लगातार अपने नाखून दांतों से काटते रहते थे। खासकर तब जब शतरंज खेल रहे होते थे। तुम एक चाल चलने में दस-दस मिनट लगाते थे। फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि ग्याहरहवीं पास करके हम दोनों ही खंडवा पहुंच गए। वहां तुम्हारे सबसे बड़े भाई थे और मेरे फूफाजी। तुम पॉलीटेक्निक कॉलेज से डिप्लोमा कर रहे थे और मैं नीलकंठेश्वर महाविद्यालय से बीएस-सी।
शतरंज का नशा यहां भी जारी था। उन्हीं दिनों ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फिल्म रिलीज हुई थी। और हमें तुम्हारे भैया-भाभी यानी मेरे चाचा-चाची ने यही नाम दे दिया था। फिर हमारे रास्ते अलग हो गए। मैं बीच में ही होशंगाबाद लौट आया। तुमने अपना डिप्लोमा पूरा किया और इंजीनियर बन गए,सिविल इंजीनियर। यही तो बनना भी चाहते थे न तुम।
सुना तुम बड़े आदमी भी बन गए हो। बहुत पास रहकर भी हमारी मुलाकात नहीं हुई। सच कहूं तो मैंने भी मिलने की कोशिश नहीं की। और नेट पर ढूंढने की तो बिलकुल नहीं। बीच में सुनने में आया कि तुम एक्सीडेंट में बस बाल बाल बचे। महीनों पलंग पर रहे। शुक्र है फिर से सामान्य हो गए। कहां हो पता नहीं।
अब शतरंज खेलते हो कि नहीं? मैं भी कहां खेल पाता हूं। अब तो जिन्दगी ही शतरंज है। हर चाल सोच-सोच कर चलता हूं, पर हर बार उल्टी पड़ती है। पता नहीं कब शह लग जाए और खैर मात तो होनी ही है एक दिन।
तुम तो हमेशा ही जीतते रहे थे, तो जहां भी रहो जीतते रहो और जीते रहो।
0 राजेश उत्साही
इटारसी का ज़िक्र आते ही बहुत कुछ याद आ गया ..भोपाल से लौटते हुए पेसेंजर जब बहुत देर रुकती थी तो शरद बिल्लोरे के साथ बाहर जाते थे और नीलम होटल का पोहा खाते थे ... फिर वह रहटगाँव के लिये रवाना हो जाता था और हम वापस रेल मे बैतूल, नागपुर भंडारा की ओर ..सही है मित्रों की याद तो बहुत आती है । मोहन के बहाने यह अपनी ज़िन्दगी का जायज़ा है ।
ReplyDeleteशरद भाई नीलम होटल में चाय पीना और पोहा खाना हमारे लिए उस समय किसी लक्जरी से कम नहीं था। सही कहा आपने दोस्तों को याद करके हम एक तरह से अपना ही अवलोकन तो कर रहे होते हैं।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणीके के लिए धन्यवाद ...अब तो आप को गुरूजी ही कहना पड़ेगा .... आप अब मेरी हिंदी सुधारकर ही रहेंगे :-)
ReplyDeleteआपने सही कहा है कितने पास के दोस्त होते है रास्ते बदल जाने के बाद बहुत आसानीसे भूल जाते है ! आपने अच्छा किया जो नेट पर भी नहीं ढूंडा मैंने ऐसा किया और अपनी प्यारी दोस्ती कि पुरानीयादो मै कड़वाहट डाल दी.....
मैं शतरंज खेलता हूँ ईश्वर ने चाहा तो हो जाएंगे दो-दो हाथ. वैसे शतरंज पर लिखने की मेरी भी इच्छा है. अब और बढ़ गई..आपको पढ़कर.
ReplyDeleteआपका प्रेमपत्र पढा... पढने के बाद प्रेम पत्र सब्द लिखने का मन किया.. पता नहीं किसी दोस्त के लिए किसी दोस्त को लिखे गए पत्र के लिए ई सब्द कोई प्रयोग किया होगा कि नहीं... काहे कि खाली प्रेमी प्रेमिका के बीच होने वाले पत्र का आदान प्रदान प्रेम पत्र के स्रेनी में रखा जाता है... हम इसलिए बोले कि इसा पोस्ट में आप हम लोगों से नहीं अपने भुलाए हुए दोस्त से बात कर रहे हैं... जेतना बारीक बारीक बात आप याद दिलाए हैं, ओतना में त ब्रह्माण्ड के कोनो कोना से आदमी खिंचा चला आएगा... एगो अनुरोध, अगर कभी आपका ई पोस्ट पढकर, चाहे अईसे भी कभी इ लोग आपको मिल जाए त खबर जरूर कीजिएगा..मन में बस गया आपका ई पोस्ट!!
ReplyDeleteमित्रों की यादो का सफर पढ़ने में अच्छा लग रहा है.
ReplyDeleteबढ़िया संस्मरण !
ReplyDelete@चलो देवेन्द्र जी कम से कम मेरी इस पोस्ट ने आपको शतरंज पर लिखने के लिए प्रेरित तो किया। जरूर जब जी करे आ जाइए बंगलौर पता है मकान नं 32,गोपाल रेड्डी काम्पलेक्स,हलनायकनहल्ली,सरजापुर रोड,बंगलौर।
ReplyDelete@सलिल भाई हम तो दोस्तों को जो पत्र लिखते रहे उसे प्रेमपत्र ही कहते रहे हैं। अब दोस्तों से प्रेम नहीं करेंगे तो किससे करेंगे। वैसे प्रेम तो हम दुश्मनों से भी कर लेते हैं। अब जिनसे बात कर रहे हैं,वे आएं कि न आएं आप आगए हमारे लिए यही बहुत है। आते रहिए।