बात 1980 के आसपास की है। कमलेश्वर ने सारिका को अलविदा कह दिया था। वे मुम्बई में समांतर प्रकाशन के बैनर तले ‘कथायात्रा’ पत्रिका निकाल रहे थे। मैं उन दिनों मप्र के होशंगाबाद में था। मैंने लिखना शुरू ही किया था। मप्र के ही एक और छोटे शहर बुरहानपुर में नवरात्रि के अवसर पर एक व्याख्यानमाला आयोजित होती थी। शायद अब भी होती हो। इस व्याख्यानमाला में नौ दिन तक हर रोज किसी एक क्षेत्र के जाने-माने विद्वान या जानकार का व्याख्यान होता था। व्याख्यान की रिकार्डिंग आकाशवाणी से प्रसारित की जाती थी।
उसी साल कमलेश्वर का भी एक व्याख्यान था। उनका व्याख्यान मैंने रेडियो पर सुना। वे कह रहे थे, ‘नए लेखकों को आगे लाने के लिए संपादकों को जोखिम उठाना चाहिए।’ उनकी यह बात मेरे जेहन में बैठ गई। मैंने अगले ही दिन अपनी दो लघुकथाएं उनको उनके व्याख्यान की याद दिलाते हुए लिख भेजीं। मैंने लिखा, ‘आज जब आप खुद एक पत्रिका निकाल रहे हैं तो क्या मुझ जैसे नवोदित लेखक को छापने का जोखिम उठाएंगे।’
लौटती डाक से उनकी सुंदर लिखावट में पत्र मिला। जिसका सार कुछ इस तरह है कि, ‘बिलकुल उठाएंगे। आपकी दोनों लघुकथाएं कथायात्रा के अगले अंक में प्रकाशित की जा रही हैं। अपनी और रचनाएं भी भेजिए।’ उनका वह पत्र मेरे पास अब तक सुरक्षित है।
अफसोस की बात यह रही है कि लघुकथाएं तो प्रकाशित हुईं, पर कथायात्रा का वह पांचवां अंक ही अंतिम अंक साबित हुआ। किसी कारण से उन्हें पत्रिका स्थगित कर देनी पड़ी। फिर वे दिल्ली आ गए। जहां उन्होंने ‘गंगा’ पत्रिका शुरू की और लगभग साल भर संपादन किया। तब तक ‘चकमक’ पत्रिका शुरू हो चुकी थी, मैं उसकी संपादकीय टीम में था। मैंने कमलेश्वर जी को चकमक की प्रतियां भेजीं। वह उन्हें इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने चकमक से सामग्री लेकर गंगा में बच्चों के पेज पर साभार प्रकाशित की।
कुछ और समय बीता। अखबारों में राजधानी से शुरू हो रहे एक नए अखबार के बारे में विज्ञापन था। विज्ञापन बिलकुल अनौपचारिक शैली में और नीचे नाम था कमलेश्वर का। लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि वह देश की राजधानी से प्रकाशित हो रहा है या राज्य की। बहरहाल मैंने भी अर्जी भेज दी। मुझे उनका टेलीग्राम मिला, दिल्ली से अखबार शुरू हो रहा है, अमुक तारीख को साक्षात्कार के लिए पहुंच जाओ। उस समय दिल्ली हमारे लिए दुबई से कम नहीं थी। हिम्मत ही नहीं हुई और फिर हम भोपाल में ही रह गए। यह अखबार था राष्ट्रीय सहारा।
कमलेश्वर हैं और उनकी न जाने ऐसी कितनी यादें मुझ जैसे सैंकड़ों लिखने-पढ़ने वालों के पास होंगी।
तो चलिए पहली लघुकथा इंतजाम पढि़ए।
वह बूढ़ी मां जब भी अपना लकडि़यों का गट्ठर बेचती, दो चार लकडि़यां बचा लेती।
एक दिन मैंने जिज्ञासावश पूछ ही लिया, ‘अम्मां अपने चूल्हे के लिए तो तुम एकाध गट्ठा ही घर पटक लेती होगी?’
अपने गट्ठर के पैसे धोती के छोर में बांधती हुई बोली, ‘हां बेटा।’
‘तो फिर ये हर बार गट्ठर में से दो-चार लकडि़या क्यों बचा लेती हो?’ मैंने फिर पूछा।
बचाई हुई लकडि़यों को उठाती हुई वह बोली, ‘अरे बेटा,जिसे अपनी दो रोटियों की चिंता खुद करनी पड़ती हो, उसकी चिता में दो-तीन मन लकडि़यां कौन लगाएगा?’
बचाई हुई लकडि़यों को उठाती हुई वह बोली, ‘अरे बेटा,जिसे अपनी दो रोटियों की चिंता खुद करनी पड़ती हो, उसकी चिता में दो-तीन मन लकडि़यां कौन लगाएगा?’
(कमलेश्वर द्वारा संपादित पत्रिका ‘कथायात्रा’ के जून 1980 अंक में प्रकाशित।)
दूसरी लघुकथा कुछ अंतराल के बाद।
विजयादशमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
ReplyDeleteराजेश जी इसे कहते हैं लघुकथा। आजकल पता नहीं लोग क्या लिख रहे हैं और बस लिखे जा रहे हैं। दूसरी लघुकथा पढने को मन उत्सुक है।
ReplyDeleteबड़े भाई! कमलेश्वर की यादों का ख़ज़ाना आपने जिस तरह इस गुल्लक में समेटा है, उसके विषय में तो कुछ कहना ही नहीं… और आपकी लघुकथा ने कलेजा निकाल लिया… इस पर कुछ भी कहना उन भावनाओं को छोटा करना होगा, जो मेरे हृदय में इस कथा को पढने के बाद पैदा हुए हैं. यह लघुकथा चोटी की पायदान पर सुसज्जित होने वाला क़द रखती है!!
ReplyDeleteकमलेश्वर जी के आप स्नेहिल बने रहे यह बड़ी बात है !
ReplyDelete....हम तो उनकी आवाज के दीवाने थे !
इंतजाम, सचमुच देश में ऐसी हजारों अम्मां हैं जिन्हें अपने लिए दो समय की रोटी के साथ अपनी चिता का इंतजाम खुद करना पड़ता है ।
ReplyDeleteमार्मिक कथा ।
लघुकथा बहुत ही मार्मिक है, पढ़ते-पढ़ते मन में जैसे चित्र रेखांकित होते गए। राजेश जी, सारिका और कमलेश्वर जी की यादें ताजा हो आईं।...और हां, चकमक और संदर्भ का मैं नियमित पाठक हूं। विजयादशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमार्मिक।
ReplyDeleteवाह उस्ताद वाह !
ReplyDeleteआपकी लघुकथा दिल को छुं गई !
ReplyDeleteकमलेश्वर जी को लेकर आपका संस्मरण मार्मिक है। ऐसा लगा कि मैं खुद अपना ही संस्मरण पढ़ रहा हूँ। एक स्थान से दूसरे स्थान तक खिसकना हम जैसे बहुत लोगों के लिए वाकई दुबई जाने-जैसा दुष्कर रहा है और उस विवशता ने हमें हमारे उद्देश्य से लगातार पीछे भी खिसकाया है।
ReplyDeleteआपकी दोनों लघुकथाएँ अच्छी हैं। बधाई।
आप इस बार बंगलौर आने की विशेष उपल्ब्धि रहे। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी का आभार।
‘अरे बेटा,जिसे अपनी दो रोटियों की चिंता खुद करनी पड़ती हो, उसकी चिता में दो-तीन मन लकडि़यां कौन लगाएगा?’... दिल को छू गई अंतिम पंक्तियाँ.. हाशिये पर का जीवन ऐसा ही होता है..
ReplyDeleteकमलेश्वर जी का संस्मरण पढ़ाने के लिए आभार। सारिका ने लघुकथा पढ़ने का शौक दिया था। आपकी लघुकथाएं भी कुछ वैसा ही असर डाल रही हैं।
ReplyDeleteMISROD SE HOSHANGABAD. HOSHANGABAD SE BHOPAL. BHOPAL SE BANGLOR.SIDHI DAR SIDHI PRAGATI KARNA SHRESHT HAI. UDAY TAMHANEY. BHOPAL.
ReplyDeleteRAJESH JI,
ReplyDeleteS. KAMLESHWAR JI, KA SANSMARN BADHIYA HAI.
UDAY TAMHANEY.
BHOPAL.
9200184289