9 दिसम्बर को रघुवीर सहाय जी का जन्मदिन था। और आज यानी 30 तारीख को उनका निधन दिवस है। उनकी तीन कविताएं कविता कोश के सौजन्य से यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। उनकी कविताएं हमारे समय को परिभाषित करती हैं।
अधिनायक राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। मखमल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चंवर के साथ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है। पूरब-पश्चिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,उनके तमगे कौन लगाता है। कौन-कौन है वह जन-गण-मन अधिनायक वह महाबली डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज बजाता है।
जब से यह खबर सुनी है कि डॉक्टर बिनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है तब से मन बहुत बैचेन हो रहा है। मन बार-बार यह सवाल कर रहा है कि क्या हम सचमुच एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं।
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बिनायक सेन को मैंने बहुत नजदीक से देखा और जाना है। 1980 के आसपास जब वे होशंगाबाद में मित्र मंडल केन्द्र, रसूलिया की डिस्पेन्सरी में बैठते थे, उनसे कई बार मिलना हुआ। होशंगाबाद जिले में ही पिपरिया के पास स्थित किशोर भारती संस्था और मित्र मंडल केन्द्र,रसूलिया ने मिलकर शासकीय स्कूलों के लिए होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम की शुरूआत की थी। इसी कार्यक्रम को आगे ले जाने के लिए बाद में एकलव्य संस्था की स्थापना हुई थी। जिसमें मैंने 26 साल काम किया।
बाबूजी यानी पिताजी के न रहने का अर्थ मेरे लिए कई मायनों में सामने आया। उनके निधन के साथ ही मैं अपने परिवार में पुरुषों में सबसे बड़ा घोषित हो गया। बड़े होने के नाते कई सारे दायित्व मुझे ही निभाने थे। हिन्दुओं में माता या पिता की मृत्यु पर बेटों को अपने बाल देने होते हैं। यह क्यों किया जाता है यह मुझे नहीं मालूम। जब भी किसी से पूछने की कोशिश की तो जवाब मिला, बस परम्परा है इसलिए दिए जाते हैं। मुझे यह हमेशा एक गैर जरूरी और बिना मतलब का कर्मकांड लगा। जब पिताजी नहीं रहे तो मेरे सामने यह प्रश्न था कि मैं क्या करुं। मैंने तय किया कि मैं बाल नहीं दूंगा। मैंने बाल नहीं दिए। मुझे पता है कि इससे कोई क्रांति नहीं होने वाली। लेकिन हां इतना जरूर हुआ कि मेरे परिवार और रिश्तेदारों के बीच इस बात को लेकर चर्चा जरूर छिड़ गई। मुझे कई तरह की बातें सुननी पड़ीं, जिनमें भावनात्मक बातें भी थीं।
आखिर उन्हें एक दिन नहीं रहना था सो वे नहीं रहे। पिताजी जिन्हें हम बाबूजी कहते रहे चले गए। 3 दिसम्बर की सुबह 7:30 के आसपास उन्होंने इस दुनिया की हवा को अपने फेफड़ों में भरने से इंकार कर दिया और उसके साथ उड़ गए जिसे उन्होंने 26 साल पहले ठीक इसी दिन खाली हाथ लौटा दिया था।
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3 दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी को 26 साल हो गए हैं। पिताजी रेल्वे में डिप्टी चीफ कंट्रोलर थे। 2 दिसम्बर की रात को उनकी डयूटी भोपाल के रेल्वे कंट्रोल ऑफिस में थी। परिवार होशंगाबाद में था। उस रात बऊ (उनकी मां और मेरी दादी) बहुत बीमार थीं, इसलिए पिताजी ने तय किया कि वे भोपाल नहीं जाएंगे। उस रात भोपाल से रवाना हुई यमदूत एक्सप्रेस में उनका आरक्षण भी था। पर वे नहीं गए। कैसे जा सकते थे अभी उन्हें 26 साल और इस दुनिया में रहना था।
मोहल्ले के ज्यादातर लोगों के लिए कचरा डालने का एक ठिकाना । कब तक खाली रहता, बिक गया। जल्दी ही उस पर एक नया घर भी बन गया। कहते हैं कि आदत आसानी से नहीं जाती। कुछ लोग अब भी वहीं कचरा डाल रहे थे।
मकान मालिक परेशान-हैरान थे। सब उपाय करके देख लिए थे। वहां लिख दिया था अंग्रेजी में भी और स्थानीय भाषा में भी कि, ‘यहां कचरा डालना मना है।’ पर हर जगह की तरह वहां भी पढ़े-लिखे गंवारों की संख्या अधिक थी। लोग थे कि बाज ही नहीं आ रहे थे।
एक सुबह चमत्कार हो गया। कचरे की बजबजाती दुर्गंध की जगह चंदन की सुगंध ने ले ली। अब लोग घर का नहीं मन का कचरा डालने वहां आ रहे थे।
मकान मालिक ने रातों-रात अपने किसी आराध्य को पहरेदारी के लिए एक छोटी-सी मडि़या में वहां बिठा दिया था। 0 राजेश उत्साही
आज मेरा प्रकटीकरण दिवस यानी जन्मदिन है। वैसे मेरे दो जन्मदिन हैं। एक सरकारी और दूसरा अ-सरकारी या असर-कारी। एक मानना पड़ता है और दूसरे को मनाना। हां दोनों में ही 3 आता है। एक 30 अगस्त और दूसरा 13 नवम्बर। असल 13 नवम्बर है। शायद इसी तीन तेरह के चक्कर में घर वालों को स्कूल में नाम लिखाते समय 30 अगस्त याद रह गया। तो सरकार कहती है कि हम अगस्त में पैदा हुए और हम कहते हैं कि नवम्बर में। बहरहाल हकीकत यह है कि हम पैदा हुए हैं।
(आयरन लेडी के नाम से विख्यात मणिपुर कीइरोम शर्मिलाचानू पिछले दस सालों से भूखहड़ताल पर हैं। वे मणिपुर से विवादित आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट(एएफएसपीए) 1958 हटाए जाने की मांग कर रही हैं।चानू की भूख हड़ताल को आज 10 साल हो गए हैं। शर्मिला का यह संघर्ष मानव जीवन अधिकारों की मांग का संघर्ष है। शर्मिला तुम्हें सलाम।)
शहर के लगभग बाहर पत्थर तोड़ने वालों की बस्ती में मजदूरों की दयनीय स्थिति देखकर उनके बीच कुछ काम करने की इच्छा हुई।
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बस्ती के हमउम्र लड़के और उनसे छोटे बच्चे मेरी बातें रुचि और ध्यान से सुन रहे थे। शायद कुछ कल्पनाओं में अपने आपको फुटबाल,व्हालीबॉल खेलते हुए,पढ़ते हुए भी देखने लगे थे। उनकी सपनीली आंखों में मुझे भी वह सब नजर आ रहा था।
साहित्य,पत्रकारिता,सिनेमा और टीवी से सरोकार रखने वाला हर व्यक्ति कमलेश्वर के नाम से वाकिफ होगा। वे ‘सारिका’ के संपादक, राष्ट्रीय सहारा अखबार के संपादक, ‘आंधी’ जैसी फिल्म के लेखक और दूरदर्शन के महानिदेशक रहे हैं। अपने आखिरी के कुछ सालों में भी वे ‘कितने पाकिस्तान’ लिखकर एक कालजयी रचना दे गए हैं।
पठानकोट एक्सप्रेस का साधारण कम्पार्टमेंट । दरवाजे पर खड़े दो नौजवान। एक-दूसरे से अपरिचित। लेकिन एक, दूसरे की अपेक्षाकृत अधिक ताकतवर।
‘टिकट दिखाइए।’ एक आवाज गूंजी।
दूसरे ही क्षण रामपुरी सामने था। यह पहले का टिकट था। वह आगे कुछ करता, इससे पहले ही दूसरे ने तुरंत चाकू छीनकर जेब के हवाले किया और रसीद किए दो हाथ।
टिकट चेकर की आंखों में कृतज्ञता झलक आई। दूसरे ने एक नजर पहले को देखा और फिर टिकट चेकर को दूसरे दरवाजे की ओर ले जाकर धीरे से कहा, ‘बाबूजी,टिकट तो मेरे पास भी नहीं है।’ 0 राजेश उत्साही
बम्बई यानी आज की मुम्बई से रामावतार चेतन के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका रंग-चकल्लस के नवम्बर-दिसम्बर,1981 अंक में प्रकाशित ।
वहआकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था। बहुत सारे अनुयायी थे उसके। कुछ पक्के सिद्धांतवादी और कुछ कोरे अंध-भक्त। वे सब उसकी एक आवाज पर मर मिटने को तैयार रहते। वह कहता,’...............।‘ सब हाथ उठाकर उसका समर्थन करते।
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उन सबकी यानी उसकी प्रगति की राह में एक खाई थी। मंजिल पर पहुंचने के लिए उस खाई को पाटना जरूरी था।
उसने कहा, ‘यह खाई हमारी प्रगति में बाधा नहीं बन सकती। हमारी हिम्मत और दृढ़ निश्चय के आगे यह टिक नहीं सकेगी। साथियो, देखते क्या हो आगे बढ़ो।‘
देखते ही देखते वे सब उस खाई में समा गए।
उसने मुस्कराकर एक नजर लाशों से पटी खाई पर डाली और फिर उन पर चलते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ गया। 0 राजेश उत्साही
(प्रज्ञा,साहित्यिक संस्था , रोहतक द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 1980-81 में पुरस्कृत । प्रज्ञा द्वारा प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘स्वरों का आक्रोश’ में संकलित ।)
आज साक्षरता दिवस है। यहां प्रस्तुत हैं तीन कविताएं। एक वरिष्ठ कवि त्रिलोचन की, दूसरी मेरे अत्यंत प्रिय कवि शरद बिल्लौर की, और तीसरी मेरी। त्रिलोचन जी और भाई शरद के साथ अपनी कविता देने की धृष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं। मैं इस दिन को कुछ अलग तरह से याद करना चाहता था, इसलिए यह प्रयास।
दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर कक्षा में आए। उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाने वाले हैं।
उन्होंने एक कांच की बडी़ बरनी को मेज पर रखा। उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालना शुरू किया और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची। उन्होंने छात्रों से पूछा , ‘ क्या बरनी पूरी भर गई ?’
‘ हां ..।‘. आवाज आई। *
पीपली पर पहली टिप्पणीपीपली से रूबरू: कुछ बेतरतीब नोट्स में मैंने धीमी गति के समाचार का जिक्र किया है। किसी समय आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले इस धीमी गति के समाचार को सुनने के लिए एक तरह के कौशल और धैर्य की जरूरत होती थी।
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पीपली लाइव देख कर नहीं जी कर आया हूं।
* फिल्म शुरू होते ही हावी हो जाती है। बहुत जल्द ही हम फिल्म के पात्रों से अपने आपको जोड़ लेते हैं। नामी-गिरामी कलाकारों का न होना शायद इसका एक बड़ा कारण है। जाने-माने चर्चित कलाकारों की पहले से बनी छवि से हमें मुक्त होने में समय लगता है। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। फिल्म का केन्द्रीय पात्र नत्था हमारे लिए उतना ही अनजान है जितना उसके लिए हम। नसीर जैसे कलाकार भी केन्द्रीय मंत्री की भूमिका में है, इसलिए उनका होना या नहीं होना बहुत मायने नहीं रखता। वे हमें हमारे केन्द्रीय मंत्रियों की तरह ही नजर आते हैं। और रघुवीर यादव उन सबके बीच ऐसे खो जाते हैं कि हम केवल यह समझते हैं कि ये रघुवीर यादव का कोई हमशक्ल भर है।
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पंद्रह अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस। हमारे घर में इसे दो और वजहों से याद किया जाता है। पहली वजह यह है कि इसी दिन 1977 में मेरे छोटे भाई सुनील का चौदह साल की अल्पायु में ही निधन हो गया था। कई वर्षों तक जब जब पंद्रह अगस्त आता, सब तरफ उल्लास और उत्सव का माहौल होता, लेकिन हमारे घर में उदासी छा जाती। कई बार ऐसा होता कि रक्षाबंधन का त्यौहार भी उसके आसपास ही आता। वह भी हमारी उदासी दूर नहीं कर पाता।
लेकिन फिर 1991 में यह उदासी जैसे सदा के लिए दूर हो गई। पंद्रह अगस्त की ही भोर में उत्सव का आगमन हुआ। उत्सव यानी हमारा छोटा बेटा। हालांकि उसके जन्म के पहले तक हमें नहीं पता था कि पैदा होने वाला शिशु बेटा होगा या बेटी। लेकिन हमने नाम पहले ही सोच रखे थे। बेटा होगा तो उत्सव, बेटी होगी तो नेहा। हमारा पहला बच्चा बेटा था, लेकिन हम उसका नाम उत्सव नहीं रख सके, उसका नाम कबीर है।
यह संयोग ही है कि उस साल भी 14 अगस्त को नागपंचमी का त्यौहार था। नागपंचमी की रात बीत रही थी और पंद्रह अगस्त की तारीख शुरू हो रही थी। उन दिनों हम भोपाल के साढ़े छह नम्बर बस स्टाप के पास अंकुर कालोनी में रहते थे। मेरी पत्नी नीमा ने प्रसव वेदना महसूस की और कहा कि अस्पताल ले चलो। रात के एक बज रहे थे। मेरे पास तब सायकिल हुआ करती थी। सायकिल पर अस्पताल ले जाना संभव नहीं था। मैं सायकिल लेकर आटो ढूंढने निकला।
तुम पता नहीं अब कहां हो। पर मैं भूला नहीं हूं। मैं कह सकता हूं कि तुम मेरी पहली स्त्री दोस्तथीं।* ऐसी दोस्त जिसके साथ मैं दुनिया भर की बातें कर सकता था,बिना किसी झिझक के। तुम भी स्कूल या कॉलेज की दोस्त नहीं थीं। हम दोनों साथ-साथ काम करते थे, एक ही दफ्तर में।
तुम अपने तीन भाईयों की अकेली बहन थीं। वे सब शादीशुदा थे। तुम्हारी हैसियत उनके बीच नौकरानी जैसी थी। तुम्हें घर का सारा काम करना होता था। अपने भाई-भाभियों के कपड़े धोने होते थे, यहां तक कि उनके अंत:वस्त्र भी। बूढ़ी मां और रिटायर पिता यह सब देखकर दुखी होते थे। फिर मां ने ही तुम्हें उकसाया था कि तुम कहीं बाहर निकल जाओ। मास्टर डिग्री थी तुम्हारे पास इतिहास की।
इस सूची में उदय तुम्हारा नाम भी आ ही जाता है। हालांकि तुम से पिछली मुलाकात कुछ साल भर पहले ही हुई थी। पर अब हम जिस तरह से मिलते हैं, वह भूले-बिसरे मिलना ही है। हमारी दोस्ती भी स्कूल या कॉलेज की दोस्ती नहीं थी। बल्कि वह भी इस ब्लाग जगत की तरह अस्सी के दशक में अखबार की दुनिया में पैदा हुई एक लहर की दोस्ती थी।
बिसरा जरूर गए हैं,पर भूले नहीं हैं हम-एक दूसरे को। अभी-अभी तो चंद साल पहले ही मिले थे हम-तुम। इतना मुझे पता है भोपाल के बैरागढ़ इलाके में ही बस गए हो तुम। शिक्षक तो तुम बन ही गए थे। किसी स्कूल के हेडमास्टर बनने वाले थे। यह भी खबर है कि एक बेटा तुम्हारा पढ़ रहा है डॉक्टरी और एक इंजीनियरी।
मोबाइल फोन ने कुछ आसानियां की हैं तो कुछ परेशानियां भी। अब देखो न तुम्हारा लैंडलाइन नम्बर मेरे पास हुआ करता था। पर अचानक ही एक दिन वह इस दुनिया से विदा हो गया। पक्के तौर पर तुमने मोबाइल ले लिया होगा और उसको कटवा दिया होगा। तुमसे सम्पर्क करना भी मुश्किल।
मोहन पटेल यही नाम याद रह गया है ग्यारहवीं कक्षा के छोर पर। वह भी इसलिए क्योंकि तुम दोस्त तो थे ही, रिश्ते में चाचा भी थे। पर हम दोनों हमउम्र थे सो चचा-भतीजे वाली बात तो कहीं आती ही नहीं थी। मेरे पिता और दादी और तुम्हारे माता-पिता इटारसी की गरीबी लाइन में साथ-साथ रहते थे। एक ही बिरादरी के थे। दोनों परिवारों के पूर्वज बुन्देलखंड के छतरपुर जिले से आजीविका के सिलसिले में दशकों पहले इटारसी आ बसे थे। बस यहीं से एक नया रिश्ता पनप गया था। पिताजी तो अपनी दो बहनों के अकेले भाई थे। पर तुम छह भाइयों में सबसे छोटे थे।
‘बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे...’ सुमन कल्याणपुर द्वारा गाया यह गीत मेरे प्रिय गीतों में से रहा है। इसलिए भी कि इसे सुनकर मुझे बनवारी यानी बनवारी लाल श्रीवास्तव तुम्हारी याद हो आती है। तुम यकीन करोगे कि मैं सुमन कल्याणपुर को तुम्हारे नाम से ही याद रखता हूं।
हम दोनों 1973-74 में मप्र मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील के हायरसेंकडरी स्कूल के सहपाठी हुआ करते थे। तुम्हें याद है न मैं रेल्वे स्टेशन मास्टर का बेटा वहां संटर नम्बर तीन में रहा करता था। तुम पुलिस हवलदार के बेटे थे,सो बीटीआई रोड पर पुलिस लाइन में रहते थे। हमारा स्कूल भी पुलिस लाइन के आगे ही पड़ता था। इसलिए रोज आते-जाते समय तुम्हारे घर आना तो होता ही था।
जैसाकि आप समझ ही गए होंगे, यह कविता हमारे बेटे कब्बू के बारे में है। आज इस कविता के नायक यानी कब्बू के लिए एक महत्वपूर्ण तारीख है। 13 जुलाई को वह पच्चीसवें साल में प्रवेश कर रहा है। यह हमारा बड़ा बेटा है जिसे हम प्यार से गोलू भी कहते हैं। वास्तव में नाम उसका कबीर है। देखते ही देखते इतना समय बीत गया कि ढाई साल का कब्बू अब ढाई दशक का युवक होने जा रहा है।
हमने अपने पहले बच्चे का नाम तो नेहा या उत्सव सोचा था। लेकिन यह संभव नहीं हुआ। मेरा परिवार होशंगाबाद में था। शायद वह गर्भ का सातवां महीना था जब होशंगाबाद की एक महिला चिकित्सक की दवा से नीमा को पूरे शरीर पर एलर्जी हो गई थी। इस घटना से हम सब बुरी तरह घबरा गए थे। इस कारण प्रसव के लिए नीमा इंदौर के काछी मोहल्ले में लाल कुएं के पास अपनी बड़ी बहन के घर में थीं।
कब्बू और नीमा का पहला फोटो
मुझे याद है कि 12 जुलाई की शाम को नीमा को पास के एक प्राइवेट नर्सिग होम में भर्ती करवाया गया। मैं भी वहां पहुंच गया था। नीमा की बड़ी बहन और बहनोई तो वहां थे ही। नीमा की मां भी सेंधवा से आ गईं थीं। रात भर नीमा दर्द से परेशान रही। डाक्टर चाहते थे कि ऑपरेशन करने की नौबत न आए। प्रसव टेबिल पर लेटे-लेटे और टेबिल पकड़कर लगातार जोर लगाने से नीमा की बांहों में सूजन आ गई थी। सुबह चार बजे के लगभग अंतत: बच्चे का जन्म हुआ। गर्भनाल उसके गले में लिपटी हुई थी। वह रोया नहीं। डॉक्टर ने उसे तुरंत ऑक्सीजन पर रख दिया। एक बिलांत से कुछ बड़ा बच्चा अपनी नानी की गोद में पड़ा था। उसकी हालत देखकर मैं आशंका से भर उठा। नीमा बेसुध थी। मैं मायूस हो गया। नीमा के बहनोई साहब ने मेरी हालत देखी तो मुझे समझाते हुए घर ले गए। कहा सब ठीक हो जाएगा।
लगभग तीन घंटे बाद मैं दुबारा नर्सिंग होम पहुंचा। नीमा को होश आ चुका था। बच्चा अभी भी ऑक्सीजन पर ही था। डॉक्टर से बात हुई। उन्होंने आश्वस्त किया कि घबराने की कोई बात नहीं। ऐसा होता रहता है। नीमा ने कहा, 'उत्सव आ गया है।' मैंने कहा, 'बच्चे की ऐसी हालत है, इसे उत्सव कैसे कहें। उत्सव हमें महसूस ही नहीं हो रहा।' नीमा ने प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखा जैसे पूछ रहीं हों तो फिर। अचानक मैंने नीमा से कहा, 'इसे हम कबीर कहें तो कैसा रहे। यह कबीर की ही तरह अभी अपनी जिंदगी बचाने के लिए लड़ रहा है।' नीमा धीरे से मुस्करा दीं। बस हमने तय कर लिया। शायद कबीर नाम ने भी हमें एक हौंसला दिया और अनजाने ही उस बच्चे को एक तरह की जीवटता भी।
कबीर,आरती बुआ,मां और छोटे भाई उत्सव के साथ
बचपन उसका और बच्चों की तरह ही बीता। वह पढ़ने-लिखने में एक औसत छात्र ही रहा। न बहुत तेज न बहुत कमजोर। पर उसकी पढ़ाई को लेकर मेरे अंदर आज भी एक अपराध बोध है। शुरू-शुरू में उसे एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में भर्ती करवाया था। कक्षा दो में उसे एक ऐसी अध्यापिका मिली,जो लगातार बोल-बोलकर प्रताडि़त करती रहती थी। हमारे घर में अंग्रेजी का माहौल नहीं था और न ही हम पति-पत्नी बहुत अच्छी अंग्रेजी जानते हैं। नतीजा यह कि कबीर अंग्रेजी भाषा में स्कूल की कसौटियों पर खरा नहीं उतर रहा था। बदले में उसे कुछ इस तरह की बातें सुननी पड़ती थीं कि क्यों अपने मां-बाप का पैसा बरबाद कर रहे हो। यह सब बातें वह घर आकर सुनाता तो हमारा भी मन कड़वा जाता।
हमें लगा कि ऐसा न हो कि बच्चा कुंठित हो जाए और अपनी भाषा भी भूल जाए। तीसरी कक्षा में उसे एक हिन्दी माध्यम स्कूल में भर्ती किया। यह स्कूल अपनी अन्य कसौटियों पर खरा नहीं उतरा। पांचवी तक वहां पढ़ाई के बाद छठवीं में फिर एक अन्य स्कूल में भर्ती किया। वहां उसने जैसे-तैसे दसवीं पास की। वहां से निकलकर फिर एक और स्कूल में भर्ती हुआ। शुक्र है कि इस स्कूल में उसने 72 प्रतिशत अंकों के साथ बोर्ड बारहवीं की परीक्षा पास की। उसके बाद भोपाल के सबसे अच्छे कॉलेज से बीकॉम किया। और अभी एमबीए कर रहा है। पर मैं सोचता हूं कि अगर इतने स्कूल नहीं बदले होते तो शायद उसकी स्थिति और बेहतर होती।
फुटबॉल खेलने का उसे शौक है। भोपाल के एक क्लब की तरफ से बरेली में आयोजित एक टूर्नामेंट में भाग लेने गया था। भोपाल के स्थानीय टूर्नामेंटों में भाग लेता ही रहता है। घर की दाल-रोटी उसे बहुत पसंद है। बचपन में तो केवल बिस्कुट ही खाया करता था। जो कपड़े हमने बनवा दिए वह पहन लिए। साल भर हुआ तब हम उसे एक मोटर साइकिल खरीद कर दे पाए। वरना वह साइकिल या अपने दोस्तों के साथ ही उनकी गाडि़यों पर बैठकर स्कूल-कालेज जाता रहा। फिजूलखर्ची या अनुचित मांग करते मैंने उसे कभी नहीं देखा। जब वह बरेली गया था तो मैंने जेबखर्च के लिए चार सौ रूपए दिए। वहां से लौटा तो उसने मेरे हाथ में बचे हुए तीन सौ रूपए रख दिए। मैं देखकर अचंभित था।
मैंने अपने केरियर की शुरुआत में केवल सफेद कालर वाले कामों को ही अहमियत नहीं दी थी। जो काम हाथ में आया उसे करता चला गया। कबीर को मैंने यही दृष्टि देने की कोशिश की। उसने इस बात को समझा और अपनी पढ़ाई के साथ-साथ जो भी छोटे-मोटे काम मिले उन्हें करता गया। अभी भी करता है। मैं समझता हूं हम उसे उस जगह पर लाने में कामयाब हुए हैं, जहां से वह अपनी जिंदगी आत्मनिर्भर होकर जी सकता है।
मुझे कबीर पर लिखी एक और कविता याद आ रही है-
कब्बू
अब हो गया है
ढाई साल का
ढाई साल का
कब्बू समझता है
दफ्तर का काम
काम के पैसे
और पैसों का अर्थशास्त्र
समझता है वह पगार
और यह कि उसी से
आते हैं बिस्कुट,दूध,दाल,रोटी और गाजर
हवाई जहाज, जीप
आइसक्रीम और टमाटर
पापा जाते हैं दफ्तर
काम करने
पैसा लाने
ढाई साल का
कब्बू सब समझता है।
सचमुच कबीर यह सब समझता रहा है और अब भी समझ रहा। तभी तो जब मैं पिछले डेढ़ साल से मैं यहां बंगलौर में हूं, वह भोपाल में घर की सारी जिम्मेदारियां उठा रहा है। तो कबीर बेटे जन्मदिन की चौबीसवीं वर्षगांठ और पच्चीसवें साल में प्रवेश बहुत-बहुत मुबारक।
प्रिय राजेश भाई
शादी के लड्डू तथा तब तक छब्बीस.. देखा और पढ़ा।
मुझे लगा मैं गुलशन नंदा या रानू के उपन्यास पढ़ रहा हूं।
सरकारी नौकरी वाले दामाद की चाहत, गौ जैसी बहू की चाह, लड़के और घर वालों की पसंद का मेल न खाना, बेबस लड़का जैसे मुद्दे तो सच्चाई हैं लेकिन मुझे लगा कि आप लगातार इन मुद्दों को डायलूट करके, थोड़ा मसाले का पुट देते चल रहे हैं।
यदि यह खुद पर या सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य है तो उसे भी मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूं।
यह टिप्पणी ब्लाग के लिए नहीं है। इसे अपने तक ही सीमित रखेंगे इस अपेक्षा के साथ।
यह टिप्पणी एक मित्र ने ईमेल से भेजी है। मित्र मैं माफी चाहता हूं कि इसे मैं अपने तक सीमित नहीं रख पा रहा हूं। क्योंकि यह टिप्पणी ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री पर है और ब्लाग तो सार्वजनिक है। हां मैं आपका नाम यहां नहीं दे रहा हूं।
दिल टूट चुका था। टुकड़ों को समेटना और फिर से दिल लगाना, बहुत हिम्मत जुटानी पड़ी। दूसरी अ भोपाल की थीं। रेल्वे स्टेशन के पास एक थियेटर हुआ करता था-किशोर। उसके पास ही उनका घर था। पिता केन्द्रीय विभाग में थे। मां गृहणी थीं, पर कवियत्री के रूप में उनकी पहचान थी।
हम सपरिवार उनके घर गए। पहली ही नजर में वे हमें भा गईं और हम उनको। वैसे हम को तो सब पहली ही नजर में भाती रहीं हैं। अ हिन्दी साहित्य में एमए थीं और सचमुच का साहित्य पढ़ने में भी उनकी रुचि थी। पर यहां मामला थोड़ा टेढ़ा था। बात कुछ ऐसी थी कि अ हमें तो पसंद थीं, पर रंग और नैन नक्श में वे हमारे घर वालों की कसौटी पर खरी नहीं उतर रहीं थीं। पर औपचारिक बातचीत के बाद परिवार की भी लगभग सहमति बन गई। अ के माता-पिता होशंगाबाद आए। दिन भर हमारे घर रहे। नर्मदा में स्नान किया। हमारा घर बार उन्हें भी पसंद आया। अ की माताजी ने कहा हमारी बिटिया यहां सुखी रहेगी।
छब्बीस में से दो रिश्ते इतनी दूर तक चले गए थे कि उनके टूटने की आवाज मुझे अभी तक कहीं अंदर सुनाई देती है। यह अजब संयोग है कि दोनों के नाम अ से शुरू होते हैं और इतना ही नहीं नाम भी एक ही है। बस इतना फर्क है कि इनमें से एक भोपाल से थी, तो दूसरी! चलिए अब शहर के नाम में क्या रखा है। कुछ भी रख लीजिए। एक का रिश्ता हमारे घर वालों ने तोड़ा तो दूसरी का उनके घर वालों ने। दोनों में ही मैंने अपने आपको बहुत दुखी पाया।
जी हां हमने शहीद होने से पहले छब्बीस लड़कियों का सामना किया है। यह अलग बात है कि रिजेक्ट हमने नहीं, उन्होंने या उनके घर वालों ने हमें किया था। शक्ल और अक्ल तो हमारी ठीक ठाक ही थी, पर हम किसी ऐसी नौकरी में नहीं थे, जिसकी आय से अपनी होने वाली बीवी और बच्चों का पेट पाल सकें, ऐसा रिजेक्ट करने वालों का कहना था। नौकरी थी एकलव्य संस्था में। संस्था को बने भी तीन साल ही हुए थे। आगे क्या होगा कुछ पता नहीं था। सरकार से अनुदान मिलता था। हमसे पूछा जाता कि जब संस्था को पैसा सरकार दे रही है तो आगे चलकर तो वह सरकारी ही हो जाएगी न। हम ठहरे सत्यवादी हरिशचंद्र। हमसे झूठ नहीं बोल जाता। हम कहते जी नहीं ऐसी कोई संभावना नहीं है। इतना ही नहीं जो नहीं पूछते उन्हें हम खुद ही उपत कर बता देते।
अब छब्बीस में से सबके नाम-पते तो याद नहीं। लेकिन कुछ हैं जिन्हें भुला नहीं सके हैं। सब कुछ तो यहां नहीं लिखा जा सकता न। पर कुछ कुछ है जो आपके साथ भी बांटा जा सकता है।
पहला प्रस्ताव
हमारे जमाने में लड़का या लड़की खोजने का काम घर के बुजुर्ग ही किया करते थे। कोशिश हमने भी की पर सफलता हाथ नहीं लगी। पहला प्रस्ताव ही अपने से चार साल बड़ी कन्या के सामने रख दिया। हां तब तक हम एकलव्य में नहीं आए थे। एक दूसरे दफ्तर में थे,जहां कन्या हमारी सहयोगी
कहते हैं शादी एक ऐसा लड्डू है जो खाए वो भी पछताए और जो न खाए वो भी । तो जनाब हमने भी वही किया और करते-करते इतने दिन बीते कि लड्डू खाने के ऐतिहासिक दिन की पच्चीसवीं सालगिरह आन पहुंची है। हां, इस महीने की 23 तारीख को हमारा शहीदी दिवस है। इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है। हम तो घर में इस दिन को इसी तरह याद करते हैं। इस लड्डू तक हम किस तरह पहुंचे यह बताने का हमारा बहुत मन है। बहुत कहानियां हैं आगे-पीछे की। चलिए शुरुआत करते हैं निमंत्रण से।
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तो यह रहा हमारा शादी का निमंत्रण पत्र। एकलव्य में आए जुम्मा-जुम्मा तीन साल ही हुए थे। उसके पहले नेहरू युवक केन्द्र में थे। वहां सायक्लोस्टाइल मशीन चलाने और उस पर नए-नए प्रयोग (आगे पढ़ने के लिए Read More बांए नीचे पर क्लिक करें)
बात -बेबात के भाई सुभाष जी से इन दिनों ब्लागिंग के बारे में लगातार विमर्श हो रहा है। मेरे एक मेल के जवाब में उन्होंने लिखा है-
प्रिय भाई , एक बार किसी कवि ने बड़ी निराशा में हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूछा, लिखने-पढने का क्या फायदा, हम जितना लिखते हैं, समाज उतना ही बुरा बनता चला जाता है। फिर किसके लिए लिखते हैं हम। लिखना क्यों न बंद कर दिया जाए। द्विवेदी जी ने कहा, उस एक पाठक के लिए, जिसके द्वारा तुम्हारी रचना पढ़े जाने की संभावना है। हम लिखने वाले लोगों को इतना धैर्य रखना चाहिए। वक्त खुद भी कचरा साफ करता है। जो अच्छा करते हैं, अच्छा लिखते हैं, वही समय की शिला पर अंकित होते हैं।
इसलिए हमेशा आशा से भरे रहो और अच्छा से अच्छा लिखने का प्रयास करो। तुम्हारे अन्दर आग है और उसे जलाये रखना ही तुम्हारी जिम्मेदारी है।
हौंसला देने के लिए शुक्रिया सुभाष भाई। पर्यावरण दिवस की बीतती हुई रात पर ब्लाग की दुनिया में फैल रहे प्रदूषण को साफ करने का संकल्प लेकर एक आशा भरी सुबह की उम्मीद की जा सकती है। ऐसे में मुझे मेरी एक पुरानी कविता याद आ रही है-
अर्चना रस्तोगीएकलव्य,भोपाल की पुरानी साथी हैं। वे मेरे ब्लाग पढ़ती रहती हैं। कभी मेल पर या फोन पर बात होती है तो अपनी प्रतिक्रिया देती हैं। मैंने उनसे कई बार आग्रह किया कि वे अपनी प्रतिक्रियाएं पोस्ट के नीचे टिप्पणी करके दें तो और लोग भी पढ़ पाएंगे । उन्हें यह झंझट का काम लगता है। मैंने कहा चलिए एक मेल में ही लिख दीजिए। मैं आभारी हूं कि उन्होंने एक संक्षिप्त टिप्पणी लिख ही डाली। उनकी अनुमति से उसे यहां प्रस्तुत कर रहा हूं ।
*पहले तो शुक्रिया कि काफी बड़े आकार की तस्वीर से रूबरू होने से अब छुट्टी मिली। शुरू में तो बड़ी उमंग से आपके ब्लाग पर जाती थी। पर जब आपने अपनी विशाल तस्वीर लगा ली थी तो कुछ समय तो यही सोचने में निकल जाता था कि इतनी बड़ी तस्वीर क्यों डाल रखी है। कुछ शायद कोफ्त भी हुई। पर आपको बताना मेरे लिए आसान नहीं था। लगता था ब्लाग पर लिखा किसी और ने है और तस्वीर किसी और की है। यह मेरी अपनी राय बन गई थी बचकानी-सी। अब आपका ब्लाग काफी सुंदर बन गया है जो कि आपकी लेखन प्रतिभा से काफी मेल खा रहा है।
*देखिए आपके लिए लिखना काफी आसान है। क्योंकि यह आपका जुनून है। पढ़ने के बाद मेरे जैसे कई लोग चाहते तो होंगे की कुछ लिखें,टिप्पणी करें। पर वो कुछ ऐसा ही लगता है कि जैसे....(आगे पढ़ने के लिए बाएं तरफ नीचे Read More पर क्लिक करें।)