14नवम्बर,2009 को मैंने एक जन्मदिन ऐसा भी शीर्षक से एक पोस्ट प्रकाशित की थी। यह एक नन्हीं बच्ची शुभि सक्सेना की कविताओं की पुस्तक के बारे में थी। इन कविताओं के चित्र भी शुभि ने ही बनाए थे। पर उस समय मैं ये चित्र नहीं दे पाया था। शुभि के पापा हर्ष सक्सेना ने अब इस पुस्तक के अंदर के कुछ पन्नों के चित्र भेजे हैं। तो अब आप शुभि की कुछ और कविताएं उसके चित्रों के साथ पढ़ें। और केवल पढ़ें ही नहीं कुछ लिखें भी। मेरा मतलब है टिप्पणी लिखें ताकि शुभि के साथ-साथ मेरा उत्साहवर्धन भी हो। शुक्रिया।
Tuesday, December 29, 2009
Monday, December 14, 2009
गैस त्रा-सदी यानी न बीतने वाली सदी
भोपाल गैस त्रासदी को देखते ही देखते 25 साल गुजर गए। गैस त्रासदी से जुड़ी जितनी बातें हैं उससे कहीं अधिक उससे जुड़ी यादें हैं। मैं उन दिनों होशंगाबाद में था। पिताजी की पोस्टिंग भोपाल में रेल्वे में कंट्रोलर के पद पर थी। कंट्रोल आफिस भोपाल स्टेशन से लगा हुआ था। वे रोज भोपाल आना-जाना करते थे। उन्हीं दिनों मेरी दादी की तबीयत बहुत खराब थी। कुछ ऐसा संयोग बना कि 2 दिसम्बर 1984 की उस रात पिताजी भोपाल नहीं गए। उनके स्थान पर जिन सज्जन ने मोर्चा संभाला, वे इस त्रासदी का शिकार हो गए। वे ही नहीं उस रात भोपाल रेल्वे स्टेशन पर जितने लोगों की डयूटी थी उनमें से अधिकांश अब नहीं हैं। हम आज भी उस दिन को याद करके सिहर उठते हैं।
Saturday, November 14, 2009
एक जन्मदिन ऐसा भी
साल 2000 के अक्टूबर के दिन थे। एकलव्य का कार्यालय अरेरा कालोनी के ई-1/25 में था। शाम के साढ़े सात बजे रहे थे। बाकी सब लोग जा चुके थे। मैं रोज की तरह अपने काम में व्यस्त था। मैंने अपने कमरे के दरवाजे पर एक मधुर और विनम्र आवाज सुनी,’क्या हम अंदर आ सकते हैं।‘ मैंने देखा एक उम्रदराज पुरूष और महिला वहां खड़े हैं। मैंने कहा आइए और अभिवादन के साथ उन्हें बैठने का इशारा किया।
औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने आने का मकसद बताया। वे थे प्रेम सक्सेना और उनकी पत्नी श्रीमती शंकुलता सक्सेना। प्रेमजी बीएचईएल से सेवानिवृत हैं और शंकुतला जी कार्मेल कान्वेट स्कूल में अध्यापिका थीं। अब वे भी सेवानिवृत हो गई हैं।
Sunday, November 8, 2009
अलविदा बिस्वास साहब !
हिमांशु बिस्वास यानी एचके बिस्वास यानी बिस्वास साहब यानी बाबा नहीं रहे। 7 नवम्बर की सुबह भोपाल से कार्तिक ने मोबाइल पर यह सूचना दी। 6 नवम्बर की रात लगभग दस बजे से साढ़े दस बजे के बीच उन्होंने आखिरी सांस ली। पिछले कुछ समय से वे बीमार चल रहे थे। इस 20 नवम्बर को वे 86 साल पूरे करके 87 वें वर्ष में प्रवेश करते।
1980 के आसपास वे भोपाल के भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड से वे प्रिटिंग मैनेजर के पद से सेवानिवृत हुए थे। स्क्रीन प्रिटिंग उनका शौक भी था और आय का साधन भी। वे घर में ही विजिटिंग कार्ड बनाया करते थे। बस उसी सिलसिले में एक दिन घूमते हुए एकलव्य, भोपाल के कार्यालय जा पहुंचे। तब एकलव्य अरेरा कालोनी के ई-1 में अर्जुन तरण पुष्कर के सामने 208 में होता था। एकलव्य में किसी ने विजिटिंग कार्ड बनवाने में रूचि नहीं दिखाई। पर हां, बिस्वास साहब में जरूर दिखाई। उन दिनों यानी 1985 में चकमक पत्रिका निकालने की तैयारी चल रही थी। चकमक के प्रशासनिक कामों खासकर वितरण और मार्केटिंग के लिए एक अनुभवी व्यक्ति की जरूरत थी। बस वे भी चकमक का हिस्सा हो गए।
Wednesday, October 14, 2009
नाजिम हिकमत की कविताएं
बंगलौर आकर मैंने अपने ब्लाग गुल्लक को सक्रिय करने की कोशिश की। गुल्लक के मार्फत ही एक नए दोस्त मिले दिनेश श्रीनेत। यहां वनइंडिया के हिन्दी पोर्टल के संपादक थे। थे इसलिए कह रहा हूं कि इस महीने की पहली तारीख को ही उन्होंने कानपुर में जागरण में नई जिम्मेदारी संभाल ली है। वहां भी उन्हें हिन्दी पोर्टल पर ही काम करना है। दिनेश ने ही मुझे इस बात के लिए उकसाया कि मैं वनइंडिया के लिए शिक्षा के मुद्दों पर जनसंवाद में लिखूं। मैंने लिखा और अब भी लिख रहा हूं।
एक दिन दिनेश अपने घर ले गए थे। उनके घर की दिलचस्प यात्रा के बारे में मैंने अपने दूसरे ब्लाग यायावरी में लिखा है। वहां उनकी किताबों की अलमारी में मुझे ऐसी बहुत सी किताबें दिखीं,जिन्हें मैं पढ़ना चाहता था। एक किताब मैं साथ ले आया। यह है बीसवीं सदी के महान क्रांतिकारी तुर्की कवि नाजिम हिकमत की कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘देखेंगे उजले दिन’। कविताओं का चयन और अनुवाद सुरेश सलिल जी ने किया है। यह संग्रह 2003 में मेधा बुक्स से प्रकाशित हुआ है। संग्रह में तिरपन कविताओं के साथ नाजिम हिकमत का विस्तृत परिचय भी है।
Monday, September 14, 2009
शिक्षा की खलनायिका : दो और टिप्पणियां
इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि शिक्षक समुदाय को नीचा दिखाया जाए। उद्देश्य केवल यह है कि हम सब इस बात के प्रति संवेदनशील रहे हैं कि शिक्षा प्राप्त करने वाले बच्चों के कोमल मन पर कौन सी बातें चोट पहुंचाती हैं। विडम्बना यह है कि ये चोट जीवन भर सालती है। मेरी यह टिप्पणी जनसंवाद में प्रसारित हुई थी। प्रतिक्रिया में वहां मारीशस से मधु गजाधर एक टिप्पणी आई थी जिसे मैं जनसंवाद से साभार प्रस्तुत कर रहा हूं। दूसरी टिप्पणी मेरे मेल बाक्स में आई है,जिसे भोपाल की पारुल बत्रा ने भेजा है। संयोग कुछ ऐसा है कि पारुल के पिता गुरवचनसिंह स्वयं एक शिक्षक हैं। फिर भी पारुल ने यह आवश्यक समझा कि वह थोथे आदर्श को छोड़कर एक कड़वे सच को सामने रखे। पारुल ने अपने स्कूल का नाम भी लिखा था। लेकिन मैंने उसे हटा दिया है। क्योंकि यह किसी स्कूल विशेष की बात नहीं है,यह एक ऐसी समस्या है जो कहीं भी हो सकती है।
लेबल:
असंवेदनशीलता,
जनसंवाद,
मधु,
मारीशस,
शिक्षक
Sunday, September 6, 2009
असंवेदनशीलता : शिक्षा की खलनायिका
इस शिक्षक दिवस पर हर बार की तरह मुझे मेरे वे शिक्षक एक बार फिर याद आए जिनकी दी हुई शिक्षा की बदौलत मैं यहां तक पहुंचा। पर ये शिक्षक केवल स्कूल में नहीं थे। स्कूल के बाद और उसके बाहर की दुनिया में मैंने बहुत कुछ जाने अनजाने कई सारे लोगों से सीखा। वे सब मेरे शिक्षक हैं। सबको मेरा प्रणाम। कभी विस्तार से इनके बारे में जरूर लिखूंगा।
Tuesday, August 18, 2009
बिन नाम सब सून : राजेश उत्साही
शेक्सपीयर ने कहा था कि ‘नाम में क्या रखा है।’ सवाल वास्तव में यही है कि आपने उसमें रखा क्या है। अगर कुछ नहीं रखा है तो कुछ नहीं दिखेगा। सच तो यह कि हम हर किसी को नाम से ही तो याद करते हैं। आजकल तो नाम का ही दाम है। मैं नई जगह, नए लोगों के बीच आया हूं। हर कोई जानना चाहता है कि मेरा यह नाम कैसे बना,किसने रखा। पहले भी लोग मुझसे पूछते रहे हैं। मैं बताता भी रहा हूं। मैंने सोचा एक नाम पुराण भी हो जाए। लेकिन जब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।
Sunday, July 26, 2009
शुक्रिया,यह दुनिया दी।
कुछ वर्षों पहले राजश्री प्रोडक्शन की एक फिल्म आई थी 'हम साथ-साथ हैं।' इसमें एक गीत है ‘ये तो सच है कि भगवान है, है मगर फिर भी अनजान हैं, धरती पर रूप मां-बाप का उस विधाता की पहचान है’ यह गीत जब भी कानों में उतरता है मेरी आंखों से खारा समुद्र बहने को हो आता है। आप कहेंगे मैं बहुत भावुक हूं। सच है,पर इतना भी नहीं कि हर वक्त नमकीन पानी पीता रहूं। सच तो यह है कि मैं जिन्दगी में बहुत कम बार रोया हूं। मेरा खारापन बहुत मुश्किल से निकलता है। पर पता नहीं इस गीत में क्या खूबी है कि यह मेरी आंखों में ज्वार ला देता है। शायद एक तो इसमें मां-बाप की तस्वीर इस तरह खींची गई है कि अतिश्योक्ति प्रतीत होते हुए भी वह हकीकत लगती है। दूसरे संगीतकार राम-लक्ष्मण की कंपोजिंग ऐसी है कि सीधे दिल में जाती है। हरिहरन और उनके साथियों ने भी इसे ऐसे भक्ति भाव से गाया है कि मन सम्मोहित हो जाता है। वे शब्द भी बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन्हें रवीन्द्र रावल ने चुनकर जमाया है।
लेबल:
अभिभावक,
अम्मां,
आत्महत्या,
घड़ी,
बाबूजी
Sunday, July 19, 2009
किस्से आलू,मिर्ची,चाय जी के
जून के तपते दिनों में जयपुर में था। वहां दो लगातार दिन दिगन्तर और संधान संस्थाओं में जाना हुआ। दोनों ही संस्था एं शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही हैं। दिगन्तर में शिक्षकों की एक कार्यशाला चल रही थी। उसमें लगभग 30 शिक्षक भाग ले रहे थे। अपना परिचय देने के क्रम में मैंने पूछा कि कितने शिक्षकों ने आलू,मिर्ची,चाय जी गीत गाया है। 15 ऐसे शिक्षक थे जो इस गीत को गाते रहे हैं। हालांकि वे यह नहीं जानते थे कि इसका लेखक कौन है। फिर भी मुझे इस बात की खुशी थी कि मेरा लिखा गीत यहां गाया जा रहा है।
Monday, July 6, 2009
दिन बचपन के
बचपन के दिन कुछ इस तरह याद आएं
कहीं से टूटे खिलौने जैसे बच्चे ढूंढ लाएं
रेल के खेल की कूकू, खेलना पहाड़-पानी
कभी गिल्ली-डंडा, कभी बेबात शर्त लगाएं
खेल वो आती-पाती, मिट्टी का घर-घूला
बरसती धूप में ,जब तब अंटियां चटकाएं
दादी की कहानी, सरासर गप्प नानी की
जब बाबूजी डांट दें,तो गा लोरी मां सुलाएं
सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
सूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं
गड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
राह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं
बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूट जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं
नीम की मीठी निबोली,सावन के वो झूले
पेंग लें ऊंची गुईंयां, जम के हम झुलाएं
घुटना टेक ही सही, या खड़े रहें बेंच पर
पन्ने फाड़कर कापी से, हवाई जहाज बनाएं
वो छुप-छुप के देखना, निहारना उसको
रहना मोड़ पर,निकल के जब स्कूल जाएं
काश अगर हो कहीं बैंक अपने बचपन का
चलो उत्साही कुछ और लम्हे निकाल लाएं
*राजेश उत्साही
कहीं से टूटे खिलौने जैसे बच्चे ढूंढ लाएं
रेल के खेल की कूकू, खेलना पहाड़-पानी
कभी गिल्ली-डंडा, कभी बेबात शर्त लगाएं
खेल वो आती-पाती, मिट्टी का घर-घूला
बरसती धूप में ,जब तब अंटियां चटकाएं
दादी की कहानी, सरासर गप्प नानी की
जब बाबूजी डांट दें,तो गा लोरी मां सुलाएं
सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
सूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं
गड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
राह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं
बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूट जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं
नीम की मीठी निबोली,सावन के वो झूले
पेंग लें ऊंची गुईंयां, जम के हम झुलाएं
घुटना टेक ही सही, या खड़े रहें बेंच पर
पन्ने फाड़कर कापी से, हवाई जहाज बनाएं
वो छुप-छुप के देखना, निहारना उसको
रहना मोड़ पर,निकल के जब स्कूल जाएं
काश अगर हो कहीं बैंक अपने बचपन का
चलो उत्साही कुछ और लम्हे निकाल लाएं
*राजेश उत्साही
Wednesday, June 24, 2009
सालगिरह याद रखने के सत्रहसौ साठ बहाने
23 जून से दो दिन पहले हमेशा बड़ा दिन रहा है सबके लिए। बच्चों को पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाया जाता है कि 21 जून का दिन साल में सबसे बड़ा या लंबा होता है। यानी सूरज देर में डूबता है। पर मेरे लिए तो 23 जून और भी बड़ा दिन है। इस दिन मेरी शादी जो हुई थी। इतना ही नहीं संयोग से छोटे भाई अनिल की शादी भी रानी के साथ आज के ही दिन हुई थी। आज मेरी शादी की चौबीसवीं सालगिरह है।
पर मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि इस सालगिरह को मैं कैसे याद रखूं। क्या इसलिए याद रखूं कि चौबीस सालों में पहला मौका है जब मैं पत्नी नीमा के साथ नहीं हूं।(यहां फोटो में उनके साथ हूं।) अपने घर में नहीं हूं। क्या इसलिए याद रखूं कि इस महत्वपूर्ण दिन का सूरज बंगलौर में निकला,आसमान में वह दिल्ली में चढ़ा और रूद्रपुर के रास्ते में मुरादाबाद के आसपास अस्त हुआ। या शायद इसलिए भी याद रखा जा सकता है कि आज की रात में रूद्रपुर के उत्तराखंड ग्राम्य विकास संस्थान के प्रशिक्षण केन्द्र में गुजारूंगा।
पर मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि इस सालगिरह को मैं कैसे याद रखूं। क्या इसलिए याद रखूं कि चौबीस सालों में पहला मौका है जब मैं पत्नी नीमा के साथ नहीं हूं।(यहां फोटो में उनके साथ हूं।) अपने घर में नहीं हूं। क्या इसलिए याद रखूं कि इस महत्वपूर्ण दिन का सूरज बंगलौर में निकला,आसमान में वह दिल्ली में चढ़ा और रूद्रपुर के रास्ते में मुरादाबाद के आसपास अस्त हुआ। या शायद इसलिए भी याद रखा जा सकता है कि आज की रात में रूद्रपुर के उत्तराखंड ग्राम्य विकास संस्थान के प्रशिक्षण केन्द्र में गुजारूंगा।
Saturday, June 13, 2009
दास्तान दाढ़ी की
बंगलौर आया तो दिनचर्या पूरी बदल गई। सुबह उठकर रोजमर्रा के कामों से निपटकर साढ़े आठ बजे तक दफ्तर पहुंचने की जल्दी। उधर शाम को छह बजे दफ्तर से निकलने पर खरामा-खरामा कदमों से घर पहुंचना। साथी जो कुछ भी खाना बना रहे हों, उनकी मदद करना। खाना और बस एफएम रेडियो या विविध भारती सुनते हुए सो जाना।
सुबह उठकर फिर वही क्रम। इस क्रम में शुरू के दिनों में जो शामिल था, वह था दाढ़ी बनाना। कई बार दाढ़ी बनाने का समय ही नहीं होता । एक दिन साथ रह रहे निराग ने उकसाया। अरे आप रोज-रोज समय क्यों बरबाद करते हैं। आप तो दाढ़ी बढ़ाईए। आप पर फबेगी। फिर आप तो कवि हैं। आपको दाढ़ी रखनी चाहिए। उसके तर्कों में दम नहीं था।
Saturday, June 6, 2009
जिन्दगी बिखरा कथानक हो गई
कभी - कभी कोई चेहरा, कोई घटना, कोई बात इस तरह दिल को छू जाती है कि ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती। बात 1975 के आसपास की है। तब मैं ग्यारहवीं का विद्यार्थी था। इटारसी में रहता था। कविताएं लिखना शुरू कर चुका था। कादम्बिनी पत्रिका का एक कालम था जिसमें उभरते रचनाकारों की कविताएं प्रकाशित होती थीं। मैं यह कालम बहुत ध्यान से पढ़ता था। किसी एक अंक में इस कालम में प्रज्ञा तिवारी की एक कविता प्रकाशित हुई। उसकी चार पंक्तियों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। वे चार पंक्तियां मैंने अपनी कविता की कॉपी के पहले पन्ने पर लिख लीं। वे आज भी लिखीं हैं। ज्यों – ज्यों दिन बीतते जा रहे हैं, ये पंक्तियां महत्वपूर्ण होती जा रही हैं। प्रज्ञा मध्यप्रदेश में गाडरवारा या नरसिहंपुर में किसी एक जगह की थीं। पता नहीं वे अब कहां हैं पर उनकी ये चार पंक्तियां हमेशा मेरे साथ हैं-
लक्ष्य तो दृढ़ थे आरम्भ से ही
पर हर घटना अचानक हो गई
कहां तक समेंटे हम पृष्ठ इसके
जिन्दगी बिखरा कथानक हो गई
चार पंक्तियों से याद आया कि ऐसी ही चार और पंक्तियां हैं जो मुझे हमेशा याद रहती हैं। गाहे बगाहे ये बहुत काम भी आती हैं। ये चार पंक्तियां मशहूर गीतकार इंदीवर की हैं-
कोई न कोई तो हर एक में कमी है
थोड़ा - थोड़ा हरजाई हर आदमी है
जैसा हूं वैसा ही स्वीकार कर लो
वरना किसी दूसरे से प्यार कर लो
लक्ष्य तो दृढ़ थे आरम्भ से ही
पर हर घटना अचानक हो गई
कहां तक समेंटे हम पृष्ठ इसके
जिन्दगी बिखरा कथानक हो गई
चार पंक्तियों से याद आया कि ऐसी ही चार और पंक्तियां हैं जो मुझे हमेशा याद रहती हैं। गाहे बगाहे ये बहुत काम भी आती हैं। ये चार पंक्तियां मशहूर गीतकार इंदीवर की हैं-
कोई न कोई तो हर एक में कमी है
थोड़ा - थोड़ा हरजाई हर आदमी है
जैसा हूं वैसा ही स्वीकार कर लो
वरना किसी दूसरे से प्यार कर लो
Sunday, May 24, 2009
शरद बिल्लौरे की याद
मेरी कहानी
उस संगमरमरी पत्थर की कहानी है
लोग खूबसूरत कहने के बावजूद
जिसे पत्थर कहते हैं।
उस काली चटटान की कहानी है
सख्त होने के बावजूद
कोमल पौधे जिसके सीने पर अपनी जड़ें जमाए रहते हैं।
कविता की ये पंक्तियां शरद बिल्लौरे की कविता मेरी कहानी की हैं। शरद अब हमारे बीच में नहीं हैं। 19 अक्टूबर 1955 को रहटगांव जिला होशंगाबाद,मप्र में जन्में शरद का 3 मई 1980 को दुखद निधन हो गया था। मैं 1982 में प्रगतिशील लेखक संघ की होशंगाबाद इकाई का सचिव था। शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह ‘तय तो यही हुआ था’ प्रगतिशील लेखक संघ ने ही प्रकाशित किया था। सचमुच शरद भाई की कविताएं इतनी सहज और सरल थीं कि लगता जैसे वे पढ़ने वाले ने स्वयं लिखीं हों। मैं भी उनसे बहुत प्रभावित था। इस हद तक कि उनके इस संग्रह की कविताओं को आधार बनाकर मैंने श्रद्धांजलि स्वरूप एक कविता लिखी थी ‘तुम मुझ में जिंदा हो।‘ जब हरदा में प्रगतिशील लेखक संघ का संभागीय सम्मेलन हुआ तो उसमें होशंगाबाद के उभरते हुए कवियों की कविताओं का एक सायक्लोस्टाइल संग्रह होशंगाबाद इकाई की ओर से जारी किया था। इसका संग्रह का नाम शरद भाई के संग्रह की अंतिम कविता ‘तुम मुझे उगने तो दो’ के नाम पर रखा था। पिछले दिनों शरद कोकास के ब्लाग पर शरद बिल्लौर का जिक्र देखकर उनकी कविताओं की बहुत याद आई। खासकर यात्रा पर लिखी गई कविताओं की। मैं आज खुद जब अपने शहर भोपाल से बाहर बंगलौर में हूं,तब मुझे इन कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन हुआ।
उस संगमरमरी पत्थर की कहानी है
लोग खूबसूरत कहने के बावजूद
जिसे पत्थर कहते हैं।
उस काली चटटान की कहानी है
सख्त होने के बावजूद
कोमल पौधे जिसके सीने पर अपनी जड़ें जमाए रहते हैं।
कविता की ये पंक्तियां शरद बिल्लौरे की कविता मेरी कहानी की हैं। शरद अब हमारे बीच में नहीं हैं। 19 अक्टूबर 1955 को रहटगांव जिला होशंगाबाद,मप्र में जन्में शरद का 3 मई 1980 को दुखद निधन हो गया था। मैं 1982 में प्रगतिशील लेखक संघ की होशंगाबाद इकाई का सचिव था। शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह ‘तय तो यही हुआ था’ प्रगतिशील लेखक संघ ने ही प्रकाशित किया था। सचमुच शरद भाई की कविताएं इतनी सहज और सरल थीं कि लगता जैसे वे पढ़ने वाले ने स्वयं लिखीं हों। मैं भी उनसे बहुत प्रभावित था। इस हद तक कि उनके इस संग्रह की कविताओं को आधार बनाकर मैंने श्रद्धांजलि स्वरूप एक कविता लिखी थी ‘तुम मुझ में जिंदा हो।‘ जब हरदा में प्रगतिशील लेखक संघ का संभागीय सम्मेलन हुआ तो उसमें होशंगाबाद के उभरते हुए कवियों की कविताओं का एक सायक्लोस्टाइल संग्रह होशंगाबाद इकाई की ओर से जारी किया था। इसका संग्रह का नाम शरद भाई के संग्रह की अंतिम कविता ‘तुम मुझे उगने तो दो’ के नाम पर रखा था। पिछले दिनों शरद कोकास के ब्लाग पर शरद बिल्लौर का जिक्र देखकर उनकी कविताओं की बहुत याद आई। खासकर यात्रा पर लिखी गई कविताओं की। मैं आज खुद जब अपने शहर भोपाल से बाहर बंगलौर में हूं,तब मुझे इन कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन हुआ।
Wednesday, May 13, 2009
राजेश उत्साही की दो और ग़ज़लें
।।एक।।
कशमकश से जिन्दगी की न डर जाएं
जो मन को भली लगे वही डगर जाएं
गुजरना उम्र का है, बहना नदी का
डरना है क्या, बस धार में उतर जाएं
शूलों की चुभन हो, या फूलों की नाजुकी
अपना तो काम है कि नई सहर लाएं
तूफान में घिर गया है जिनका सफीना
कुछ पल कश्ती पे मेरी वो ठहर जाएं
रुकी रुकी-सी क्यों हो मोड़ पर तमन्नाओ
मान भी जाओ इस मुकाम से गुजर जाएं
अक्स का है क्या,माटी का है यह पुतला
कहो तो राख बनके फिजां में बिखर जाएं
बाजार में बैठे हो तो खरीदार भी मिलेंगे
जिन्हें लुटने का है डर, वो अपने घर जाएं
इल्जाम अगर सिर है,चुप नहीं मुनासिब
चाहे जां रहे सलामत या कि मर जाएं
थामे रहिए उत्साही हौसले का दामन
जाने कौन से पल प्यार से संवर जाएं
*राजेश उत्साही
।। दो।।
पुण्य बहुत किए हैं,चंद पाप कर लें
कुछ सजाए काबिल कुछ माफ कर लें
निम्न दर्जे के हैं हम फकत आदमी
भले मानस की छवि मन से साफ कर लें
कर लीं सबने बहुत दुआएं मेरे वास्ते
बरबादी के लिए अब हवन-जाप कर लें
सीने पर हैं कई कसीदे, तमगे टंगे हुए
वक्त का तकाजा, आलोचना आप कर लें
मुमकिन नहीं है,हर वक्त रहें आदरणीय
है अगर वरदान तो इसी क्षण शाप कर लें
नज़रों में बहुत ऊपर रहा हूं श्रीमान की
अब कदमों में ही कहीं मेरा ग्राफ कर लें
वक्त के आने तक सूख न जाएं आंसू
मेरे नाम पर भी दो क्षण विलाप कर लें
बिगड़ेंगे ये संबंध तो जाने कब सुधरें
छोड़ें गिले-शिकवे,भरत-मिलाप कर लें
मुदृदत से, कुछ बात नहीं की आपने
इसी बहाने उत्साही से संलाप कर लें
*राजेश उत्साही
कशमकश से जिन्दगी की न डर जाएं
जो मन को भली लगे वही डगर जाएं
गुजरना उम्र का है, बहना नदी का
डरना है क्या, बस धार में उतर जाएं
शूलों की चुभन हो, या फूलों की नाजुकी
अपना तो काम है कि नई सहर लाएं
तूफान में घिर गया है जिनका सफीना
कुछ पल कश्ती पे मेरी वो ठहर जाएं
रुकी रुकी-सी क्यों हो मोड़ पर तमन्नाओ
मान भी जाओ इस मुकाम से गुजर जाएं
अक्स का है क्या,माटी का है यह पुतला
कहो तो राख बनके फिजां में बिखर जाएं
बाजार में बैठे हो तो खरीदार भी मिलेंगे
जिन्हें लुटने का है डर, वो अपने घर जाएं
इल्जाम अगर सिर है,चुप नहीं मुनासिब
चाहे जां रहे सलामत या कि मर जाएं
थामे रहिए उत्साही हौसले का दामन
जाने कौन से पल प्यार से संवर जाएं
*राजेश उत्साही
।। दो।।
पुण्य बहुत किए हैं,चंद पाप कर लें
कुछ सजाए काबिल कुछ माफ कर लें
निम्न दर्जे के हैं हम फकत आदमी
भले मानस की छवि मन से साफ कर लें
कर लीं सबने बहुत दुआएं मेरे वास्ते
बरबादी के लिए अब हवन-जाप कर लें
सीने पर हैं कई कसीदे, तमगे टंगे हुए
वक्त का तकाजा, आलोचना आप कर लें
मुमकिन नहीं है,हर वक्त रहें आदरणीय
है अगर वरदान तो इसी क्षण शाप कर लें
नज़रों में बहुत ऊपर रहा हूं श्रीमान की
अब कदमों में ही कहीं मेरा ग्राफ कर लें
वक्त के आने तक सूख न जाएं आंसू
मेरे नाम पर भी दो क्षण विलाप कर लें
बिगड़ेंगे ये संबंध तो जाने कब सुधरें
छोड़ें गिले-शिकवे,भरत-मिलाप कर लें
मुदृदत से, कुछ बात नहीं की आपने
इसी बहाने उत्साही से संलाप कर लें
*राजेश उत्साही
Saturday, May 9, 2009
बंगलौर : एक
कनार्टक राज्य परिवहन की
बस नम्बर के-4 एम 1455
रूट न 341 सी का
कंडक्टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना
हे प्रभु
नायकनहल्ली से मोरीगेट की
आज कम से कम दस
सवारियां देना
ताकि दिन भर का
चाय का खर्चा निकल आए
और हां
करना कुछ ऐसा कि
नायकनहल्ली मंदिर के
कोने पे
वो दाढ़ी वाला
चूक जाए बस
दाढ़ी वाला
मांगता है टिकट
बहकाता है और लोगों को भी
न खुद बचाता है पैसा
न बचाने देता है मुझे
पता नहीं कैसा
सिरफिरा है
तीन रुपए का सफर
पांच रुपए की टिकट लेकर
करता है
हे प्रभु
इस सिरफिरे को
थोड़ी अक्ल दो
और मुझे कम से कम
दस सवारी
बस नम्बर
के-4 एम 1455
रूट नम्बर 341 सी का
कंडक्टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना
0 राजेश उत्साही
बस नम्बर के-4 एम 1455
रूट न 341 सी का
कंडक्टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना
हे प्रभु
नायकनहल्ली से मोरीगेट की
आज कम से कम दस
सवारियां देना
ताकि दिन भर का
चाय का खर्चा निकल आए
और हां
करना कुछ ऐसा कि
नायकनहल्ली मंदिर के
कोने पे
वो दाढ़ी वाला
चूक जाए बस
दाढ़ी वाला
मांगता है टिकट
बहकाता है और लोगों को भी
न खुद बचाता है पैसा
न बचाने देता है मुझे
पता नहीं कैसा
सिरफिरा है
तीन रुपए का सफर
पांच रुपए की टिकट लेकर
करता है
हे प्रभु
इस सिरफिरे को
थोड़ी अक्ल दो
और मुझे कम से कम
दस सवारी
बस नम्बर
के-4 एम 1455
रूट नम्बर 341 सी का
कंडक्टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना
0 राजेश उत्साही
Sunday, May 3, 2009
राजेश उत्साही की ग़ज़लें
वो जब भी मुस्कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा
अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर मुझे हमेशा से बहुत पसंद रहा है। आज मैंने इसमें एक परिवर्तन किया है। पहली लाइन का पहला शब्द पहले कोई था, मैंने उसे अब वो कर दिया है। तो 2000 के आसपास की ये दो ग़ज़लें और प्रस्तुत हैं। आज इन्हें फिर से पढ़ा, कहीं-कहीं कुछ बदला भी है। पिछले हफ्ते ग़ज़ल के एक ब्लाग को भी इन्हें भेजा था। पर वहां से न तो खत आया न ही खता बताई ।
।। एक।।
सब कहते हैं गजब की जान रखते हो
बहरों की बस्ती में इक जुबान रखते हो
धीमे स्वर में कहूं या तेज आवाज़ में
सबको पता है तुम क्या स्थान रखते हो
जो खताएं हों तुम्हारी तो हज़ारों माफ
हमारी एक पे, सर आसमान रखते हो
मुदृदत से दबे कुचले हुए थे हम यहां
उठे, तो पूछते हैं क्यों तूफान रखते हो
तुम्हारा वजूद है, हमारे खून से,पसीने से
जान पड़ता नहीं, हमारा ध्यान रखते हो
सहने के दिन गए, न धीरज रखा जाएगा
सम्हालो तिजोरी, जहां अपने प्रान रखते हो
अभिव्यक्ति की कलम में सच्चाई की मार है
पता है कि तुम तलवार-ए-म्यान रखते हो
उत्साही है जमाने में,याद जमाने को रहेगा
लाख बरबादी के क्यों न अरमान रखते हो
*राजेश उत्साही
।।दो।।
बारिश की सड़कों पर आईना देखा
पथराई-सी आंख में आईना देखा
भीड़ में खोजते रहे अक्स जिसका
पाया जो तन्हा,माथे पे पसीना देखा
जो आया,जाएगा इक तयशुदा दिन
इससे अलहदा चलन अभी ना देखा
मौसम बदलते हैं,बदलती हैं अदाएं
दौर आतंक का बारह महीना देखा
जब भी हुआ,करीबे-मंजिल का गुमां
किनारे पे डूबता अपना सफीना देखा
मस्जिद-मंदिर से नहीं रहे बावस्ता
प्यार के हरफों में काशी-मदीना देखा
वो जब भी मुस्कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा
*राजेश उत्साही
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा
अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर मुझे हमेशा से बहुत पसंद रहा है। आज मैंने इसमें एक परिवर्तन किया है। पहली लाइन का पहला शब्द पहले कोई था, मैंने उसे अब वो कर दिया है। तो 2000 के आसपास की ये दो ग़ज़लें और प्रस्तुत हैं। आज इन्हें फिर से पढ़ा, कहीं-कहीं कुछ बदला भी है। पिछले हफ्ते ग़ज़ल के एक ब्लाग को भी इन्हें भेजा था। पर वहां से न तो खत आया न ही खता बताई ।
।। एक।।
सब कहते हैं गजब की जान रखते हो
बहरों की बस्ती में इक जुबान रखते हो
धीमे स्वर में कहूं या तेज आवाज़ में
सबको पता है तुम क्या स्थान रखते हो
जो खताएं हों तुम्हारी तो हज़ारों माफ
हमारी एक पे, सर आसमान रखते हो
मुदृदत से दबे कुचले हुए थे हम यहां
उठे, तो पूछते हैं क्यों तूफान रखते हो
तुम्हारा वजूद है, हमारे खून से,पसीने से
जान पड़ता नहीं, हमारा ध्यान रखते हो
सहने के दिन गए, न धीरज रखा जाएगा
सम्हालो तिजोरी, जहां अपने प्रान रखते हो
अभिव्यक्ति की कलम में सच्चाई की मार है
पता है कि तुम तलवार-ए-म्यान रखते हो
उत्साही है जमाने में,याद जमाने को रहेगा
लाख बरबादी के क्यों न अरमान रखते हो
*राजेश उत्साही
।।दो।।
बारिश की सड़कों पर आईना देखा
पथराई-सी आंख में आईना देखा
भीड़ में खोजते रहे अक्स जिसका
पाया जो तन्हा,माथे पे पसीना देखा
जो आया,जाएगा इक तयशुदा दिन
इससे अलहदा चलन अभी ना देखा
मौसम बदलते हैं,बदलती हैं अदाएं
दौर आतंक का बारह महीना देखा
जब भी हुआ,करीबे-मंजिल का गुमां
किनारे पे डूबता अपना सफीना देखा
मस्जिद-मंदिर से नहीं रहे बावस्ता
प्यार के हरफों में काशी-मदीना देखा
वो जब भी मुस्कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा
*राजेश उत्साही
Sunday, April 26, 2009
किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं
किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं
समझे वही, जिसको अपनी कहन-सी लगे
मैं अपनी इन रचनाओं को ग़ज़ल कहता हूं। हो सकता है ग़ज़ल के जानकार इन्हें ग़ज़ल की कसौटी पर खरा न पाएं। उनकी समालोचना सिर-माथे।
मैंने ये ग़ज़लें वर्ष 2000 के आसपास लिखीं थीं। असल में वह पूरा एक साल ऐसा था जब मैंने लगभग तीस-चालीस कविताएं या ग़ज़ल लिखीं। इन्हें मैं एकलव्य में सार्वजनिक जगह पर एक थरमोकोल के बोर्ड पर लगता था। इन रचनाओं के ज्यादातर पाठक एकलव्य के साथी ही होते थे। पर एकलव्य में आने वाले लोग भी इन्हें पढ़ते ही थे। इनमें से एक-दो रचनाएं ऐसी भी हैं जिन्हें सुनकर(इन रचनाओं को मैंने एक सभा में सुनाया था) कुछ लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे।
मैं इन्हें फोटोकॉपी करके एकलव्य के अन्य केन्द्रों पर भी भेजता था। हरदा एकलव्य के कुछ साथी इनकी और प्रतियां बनाकर मित्रों केबीच बांटते थे। खैर। सच बात यह है कि ग़ज़ल लिखना शुरू करने से पहले मैंने दो किताबें भी खरीदीं,जो ग़ज़ल की बारीकियां बताती हैं। लेकिन यह भी सच है कि उन किताबों से मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। संभवत: वे भी हमारी पाठयपुस्तकों की तर्ज पर ही लिखी हुई हैं। मैंने उन्हें उठाकर एक तरफ रख दिया और जितना समझ में आया वैसा लिखा।
यहां प्रस्तुत इन ग़ज़लों को डॉ. रत्ना वर्मा ने अपनी पत्रिका udanti.com के दिसम्बर,2008 के अंक में बहुत सम्मान के साथ प्रकाशित किया। रत्ना जी यह पत्रिका रायपुर से निकालती हैं। पत्रिका कागज पर भी प्रकाशित होती है और इंटरनेट पर भी। इसे http://www.udanti.com/ पर देखा जा सकता है। अभी हाल ही में ये ग़ज़लें अविनाश वाचस्पति के ब्लाग नुक्कड़http://nukkadh.blogspot.com/ पर देखी गईं। वहां उत्साहजनक टिप्पणियां भी मिलीं। चूंकि गुल्लक मेरी रचनाओं की गुल्लक भी है, इसलिए मैं इन्हें यहां भी ले आया।
॥ एक ॥
हवाओं में जहर हर तरफ मिला है
राह में जो बिछड़ा वो कब मिला है
फेफड़े हैं कुन्द और नब्ज भी मद्धम
बन्द है दिमाग ,मुंह भी तो सिला है
कदम दर कदम सोचकर चलने वालो,
आसपास तुम्हारे ये कौन-सा किला है
मत रहो घोड़े की सूं बांधकर पट्टी
राह में दाएं-बाएं भी उपवन खिला है
रूठे-मनाएं, या कि रूठ जाएं फिर से
जिन्दगी का तो यही सिलसिला है
पर्वत जो सामने है कोई बात नहीं
हैं अगर उत्साही तो बस वो हिला है
॥ दो ॥
मासूम सवालों का जमाना नहीं रहा
चालाक हैं सब ,कोई सयाना नहीं रहा
औरों की बुनियाद में हो गए पत्थर
खुद का चाहे कोई ठिकाना नहीं रहा
फटी हुई गुदड़ी के लाल हैं हम भी
अलग बात है, कोई घराना नहीं रहा
सी लिए होंठ सबने मूंद ली आंखें
शायद कसने को अब ताना नहीं रहा
बहारों के दरीचों पर है प्रवेश निषेध
जाएं कहां अब कोई वीराना नहीं रहा
समझेगा नहीं कोई मोहब्बत का जुनून
हीर-सी दीवानी,फरहाद दीवाना नहीं रहा
सिर-से पांव तक बदल गई है दुनिया
फैशन में कोई चलन पुराना नहीं रहा
आओ उत्साही से भी मिल लें चलकर
चर्चा में उसका कोई अफसाना नहीं रहा
** राजेश उत्साही
समझे वही, जिसको अपनी कहन-सी लगे
मैं अपनी इन रचनाओं को ग़ज़ल कहता हूं। हो सकता है ग़ज़ल के जानकार इन्हें ग़ज़ल की कसौटी पर खरा न पाएं। उनकी समालोचना सिर-माथे।
मैंने ये ग़ज़लें वर्ष 2000 के आसपास लिखीं थीं। असल में वह पूरा एक साल ऐसा था जब मैंने लगभग तीस-चालीस कविताएं या ग़ज़ल लिखीं। इन्हें मैं एकलव्य में सार्वजनिक जगह पर एक थरमोकोल के बोर्ड पर लगता था। इन रचनाओं के ज्यादातर पाठक एकलव्य के साथी ही होते थे। पर एकलव्य में आने वाले लोग भी इन्हें पढ़ते ही थे। इनमें से एक-दो रचनाएं ऐसी भी हैं जिन्हें सुनकर(इन रचनाओं को मैंने एक सभा में सुनाया था) कुछ लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे।
मैं इन्हें फोटोकॉपी करके एकलव्य के अन्य केन्द्रों पर भी भेजता था। हरदा एकलव्य के कुछ साथी इनकी और प्रतियां बनाकर मित्रों केबीच बांटते थे। खैर। सच बात यह है कि ग़ज़ल लिखना शुरू करने से पहले मैंने दो किताबें भी खरीदीं,जो ग़ज़ल की बारीकियां बताती हैं। लेकिन यह भी सच है कि उन किताबों से मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। संभवत: वे भी हमारी पाठयपुस्तकों की तर्ज पर ही लिखी हुई हैं। मैंने उन्हें उठाकर एक तरफ रख दिया और जितना समझ में आया वैसा लिखा।
यहां प्रस्तुत इन ग़ज़लों को डॉ. रत्ना वर्मा ने अपनी पत्रिका udanti.com के दिसम्बर,2008 के अंक में बहुत सम्मान के साथ प्रकाशित किया। रत्ना जी यह पत्रिका रायपुर से निकालती हैं। पत्रिका कागज पर भी प्रकाशित होती है और इंटरनेट पर भी। इसे http://www.udanti.com/ पर देखा जा सकता है। अभी हाल ही में ये ग़ज़लें अविनाश वाचस्पति के ब्लाग नुक्कड़http://nukkadh.blogspot.com/ पर देखी गईं। वहां उत्साहजनक टिप्पणियां भी मिलीं। चूंकि गुल्लक मेरी रचनाओं की गुल्लक भी है, इसलिए मैं इन्हें यहां भी ले आया।
॥ एक ॥
हवाओं में जहर हर तरफ मिला है
राह में जो बिछड़ा वो कब मिला है
फेफड़े हैं कुन्द और नब्ज भी मद्धम
बन्द है दिमाग ,मुंह भी तो सिला है
कदम दर कदम सोचकर चलने वालो,
आसपास तुम्हारे ये कौन-सा किला है
मत रहो घोड़े की सूं बांधकर पट्टी
राह में दाएं-बाएं भी उपवन खिला है
रूठे-मनाएं, या कि रूठ जाएं फिर से
जिन्दगी का तो यही सिलसिला है
पर्वत जो सामने है कोई बात नहीं
हैं अगर उत्साही तो बस वो हिला है
॥ दो ॥
मासूम सवालों का जमाना नहीं रहा
चालाक हैं सब ,कोई सयाना नहीं रहा
औरों की बुनियाद में हो गए पत्थर
खुद का चाहे कोई ठिकाना नहीं रहा
फटी हुई गुदड़ी के लाल हैं हम भी
अलग बात है, कोई घराना नहीं रहा
सी लिए होंठ सबने मूंद ली आंखें
शायद कसने को अब ताना नहीं रहा
बहारों के दरीचों पर है प्रवेश निषेध
जाएं कहां अब कोई वीराना नहीं रहा
समझेगा नहीं कोई मोहब्बत का जुनून
हीर-सी दीवानी,फरहाद दीवाना नहीं रहा
सिर-से पांव तक बदल गई है दुनिया
फैशन में कोई चलन पुराना नहीं रहा
आओ उत्साही से भी मिल लें चलकर
चर्चा में उसका कोई अफसाना नहीं रहा
** राजेश उत्साही
Sunday, April 19, 2009
मेरा भाई : अनिल पटेल उर्फ अन्नू
आज 19 अप्रैल है। घर से बहुत दूर हूं। 1400 किलोमीटर दूर बंगलौर में । आज अनिल यानी अन्नू यानी छोटे भाई का जन्मदिन है। यूं पास रहते हुए मुझे यह दिन कभी याद नहीं रहता था। कभी मेरे बेटे तो कभी पत्नी याद दिलाती थी कि आज अन्नू भैया का जन्मदिन है, एक फोन तो कर लो। मैं जैसे नींद से जागता था। पर दूर रहने पर सब छोटी-छोटी बातें अपने आप याद आती हैं। सो मैंने लगभग दस अप्रैल के आसपास ही एक बधाई पोस्टकार्ड लिखकर डाल दिया था। आज भी जब मुझे याद आया तो मोबाइल फोन पर एक संदेश भी भेज दिया।
Friday, April 17, 2009
बचपन में जहाँ और भी हैं...
घटना तीस साल पुरानी है। पिताजी रेल्वे में थे। हम रेल्वे क्वार्टर में रहते थे। क्वार्टर रेल के डिब्बे की तरह ही बना था। गिने-चुने तीन कमरे थे। परिवार में माँ-पिताजी,दादी और हम सात भाई-बहन थे। पहला कमरा दिन में बैठक के रूप में इस्तेमाल होता था। उसी में एक टेबिल थी, जिस पर मैं पढ़ा करता था। यही कमरा रात को सोने के लिए इस्तेमाल होता था। चूँकि मैं घर में सबसे बड़ा था, इसलिए बैठक को सजाने और उसकी देख-रेख की जिम्मेदारी या दूसरे शब्दों में उस पर मेरा ही अधिकार था।
मैं बचपन में भगतसिंह, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों और निराला, रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे साहित्यकारों से खासा प्रभावित था। कमरे में मैंने उनके कैलेण्डर लगा रखे थे। इन कैलेण्डरों में नीचे तारीख के पन्ने अलग से स्टेपिल पिन से लगे होते थे। तब ये कैलेण्डर एक-एक रुपए में मिलते थे। मैं तारीख वाले पन्ने निकालकार उनकी जगह विभिन्न 'महापुरुषों’ द्वारा कहे गए कथन अपनी हस्तलिपि में लिखकर लगाता था। लगभग हर वर्ष इन्हें दिवाली पर सफाई-पुताई के वक्त ही बदला जाता था। इस बीच मजाल कि कोई इन्हें हटा सकता। माँ-पिताजी इसमें दखल नहीं देते थे। और भाई-बहनों के बीच मेरा राज चलता था।
एक दिन कमरे की दीवार पर अचानक एक फिल्मी हीरोइन का कैलेण्डर लटका नज़र आया। संभवत: वह माधुरी दीक्षित का फोटो था। मेरा माथा भन्ना गया। कौन लाया यह कैलेण्डर । उत्तर में छोटा भाई अनिल,जिसे हम प्यार से अन्नू कहते हैं, सामने खड़ा था। छोटा भाई मुझसे उम्र में दस साल छोटा है।
मैंने तल्ख अन्दाज में पूछा,' यह क्यों लगाया?'
'मुझे अच्छा लगा।', वह बोला ।
'पर मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा।',गुस्से से मैंने कहा।
'तो क्या हुआ।' उसने जवाब दिया।
‘उतारो इसे।’ मैंने दुगने गुस्से से कहा।
‘क्यों।’ वह बोला।
‘कमरा मेरा है।’ मैंने कहा।
‘कमरा तो मेरा भी है।’ उसने लापरवाही से जवाब दिया।
मैं अवाक था। निश्चित ही कमरा उसका भी था। वह भी उसी परिवार का सदस्य था, जिसका मैं। मैंने आगे उससे कोई बहस नहीं की।
आगे बढ़ने से पहले बचपन की एक गतिविधि याद करना चाहता हूँ। मेरे बचपन का 1968 से 1972 का समय म.प्र. के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में गुजरा है। कुछ साल श्योपुरकलाँ के पास एक छोटे से रेल्वे स्टेशन इकडोरी और उसके गाँव रघुनाथपुर में और कुछ साल सबलगढ़ की गलियों में। यह बात सन् 1970 के आसपास की है। पिताजी रेल्वे में थे। उनकी पोस्टिंग एक छोटे स्टेशन पर थी। इसलिए हम सब सबलगढ़ में किराए के घर में रहते थे।
जिस मोहल्ले में हम रहते वे वहाँ गर्मियों की छुट्टियों में लगभग हर तीसरे घर के बाहर कुछ बच्चे गोली-बिस्कुट की छोटी-सी दुकान लगाए नजर आते थे। दो-एक साल मैंने भी ऐसी दुकान लगाई। दुकान के लिए सामान ग्वालियर से खरीदकर लाते थे। शुरू में पचास-साठ रुपए की सामग्री खरीद कर दुकान में रख ली जाती। दुकान का पूरा हिसाब-किताब बच्चों को ही सम्भालना होता। कुछ दुकानें तो एकाध हफ्ते में ही उठ जातीं। क्योंकि उनको सम्भालने वाले बच्चे दुकान का आधे से ज्यादा सामान तो खुद ही खा जाते। लेकिन कुछ दुकानें बाकायदा चलती रहतीं। चलने वाली दुकानों में एक मेरी भी थी। मुझे नहीं पता कि इसको शुरू करवाने वाले के दिमाग में इसके पीछे कोई शैक्षणिक समझ थी या नहीं। शायद मोटी समझ यह रही होगी कि बच्चे धूप में आवारागर्दी न करें। दुकान के बहाने कम से कम दोपहर भर तो घर में बैठेंगे, दरवाजे पर ही सही।
ये दोनों घटनाएँ मेरी स्मृति में हैं। गाहे-बगाहे इनका जिक्र मैं यहाँ-वहाँ करता रहता हूँ। पर इनके वास्तविक निहितार्थ मुझे जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' पढ़ते हुए समझ आए।
पहली घटना 'अधिकार' की बात करती है। दूसरी बाल्यावस्था में यह समझाने का प्रयास कि 'पैसा आता और जाता' कैसे है।
आज मैं स्वयं दो बच्चों बल्कि किशोरों का पिता हूँ। कुछ समय पहले तक कमरा हमारे पास भी एक ही था। कमरे को सजाने में बच्चों की कोई रुचि नहीं है। दरअसल उनकी रुचि के विषय कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नजर आते हैं।
तकनॉलॉजी का विकास इस तरह हुआ है कि वह हमारे जीवन में जहाँ हम नहीं भी चाहते हैं, घुस आती है। कम्प्यूटर इसका एक उदाहरण है। वह बच्चों को वह सब दे सकता है, दे रहा है, जो सम्भवत: हम नहीं 'देना' चाहते।
जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' अगर आप पढ़ेंगे तो यही 'देना' उनके 'अधिकार' में बदल जाएगा।
आमतौर पर बच्चों को हम परिवार का सदस्य तो मानते हैं, पर कुछ-कुछ गुलाम की तरह। जो खाने के लिए दिया, चुपचाप खा लो। जो पहनने के लिए दिया, चुपचाप पहन लो। जिस स्कूल में भरती कर दिया, वहीं पढ़ लो। इन सबके सन्दर्भ में उनका क्या मत है, सोच है-यह जानने की आवश्यकता कम लोग ही महसूस करते हैं।
जॉन होल्ट ने इन बातों का गम्भीरता से अवलोकन किया है। उन्होंने ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को एक सूत्र में पिरोया है। 'बचपन से पलायन' में 28 अध्याय हैं। इनमें बाल्यावस्था का गहराई से विवेचन किया गया है। बाल्यावस्था वास्तव में एक संस्था है। हर संस्था का अपना एक संविधान और अनुशासन होता है। लेकिन कम ही लोग इसे समझ पाते हैं। अगर बाल्यावस्था में बच्चों को अवसर मिले तो इस 'अवसर' का उपयोग करके वे आने वाले कल के बेहतर वयस्क हो सकते हैं।
बाल्यावस्था में यौन विषयक चर्चा करना हमेशा विवाद का विषय रहा है। किन्तु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि अगर किशोरावस्था में मुझे यौन विषय पर स्वस्थ चर्चा करके समझने-जानने के मौके मिले होते तो शायद मैं अपना वयस्क जीवन कहीं अधिक आनन्द से जी पाता। विडम्बना यह है कि जब तक हम इसे समझ पाते हैं, तब तक अधेड़ हो चुके होते हैं।
हालांकि मेरे पिता ने यह कोशिश की थी। मुझे याद है कि 1975 के आसपास यौन विषय पर एक हिन्दी फिल्म गुप्तज्ञान नाम से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस समय मैं ग्यारहवीं का छात्र था। पिताजी ने मुझे खासतौर पर यह फिल्म देखने के लिए कहा था। साथ ही यह भी कहा था कि अपने दोस्तों को साथ ले जाओ। मुझे यह भी याद है कि मैंने अपने दोस्तों के साथ यह फिल्म इटारसी के मृत्युंजय सिनेमा में देखी थी। लेकिन शायद ऐसे इक्के-दुक्के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं।
हमें अपने जीवन में झाँककर देखना चाहिए कि वे कौन-सी वर्जनाएँ हैं, जिनके चलते हम अपनी बाल्यावस्था यूं ही गवाँ बैठे । संभवत: हम अपने बच्चों के साथ भी वही कर रहे हैं।
'बचपन से पलायन' मेरी उपरोक्त बात को और स्पष्ट करती है। जॉन होल्ट बाल्यावस्था में 'अधिकार' को एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। अपनी इस किताब में उन्होंने कार्य,कामकला, सम्पत्ति, मत तथा अन्य अधिकार किशोरों को देने की वकालत की है। वकालत करते हुए उन्होंने जो तर्क और उदाहरण दिए हैं, वह निश्चित ही पाठक को सहमति की ओर ले जाते हैं।
यहाँ मुझे एक और घटना याद आती है। हमारे घर में माँ के पास एक पेटी थी, आज भी है। पिताजी को जब वेतन मिलता वे माँ को दे देते। माँ उसे पेटी मे रख देतीं। लेकिन पेटी में रखने से पहले वेतन की राशि हम सब भाई-बहनों को बताई जाती। यह भी बताया जाता कि यह राशि घर में किन-किन जरूरतों पर खर्च होगी। हमें अपनी जरूरतों के अनुसार पेटी से पैसे लेने की स्वतंत्रता थी। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बताया जाता कि वेतन इतना ही है-सोच समझकर खर्च करना है। यानि 'व्यय की स्वतंत्रता' लेकिन ‘जिम्मेदारी’ के अहसास के साथ। मुझे नहीं पता कि हमारे माँ-बाप ने यह प्रयोग सोच-समझकर किया था-या बस यूँ ही। किन्तु इस प्रयोग ने मुझे तथा अन्य भाई-बहनों को पैसे के मामले में एक जिम्मेदार वयस्क बनाने में अहम भूमिका निभाई। मैं अपने बच्चों के बीच इस परम्परा को जारी रखे हुए हूँ, और उसके सकारात्मक परिणाम भी देख रहा हूँ।
जॉन होल्ट की इस किताब की असली ताकत यही है कि यह आपको बाल्यावस्था की घटनाओं को याद करने के लिए मजबूर करती है। और जब आप याद करने लगते हैं तो यह विश्लेषण भी करते हैं कि आपने उससे क्या सीखा। जो लोग बच्चों की बेहतरी में विश्वास करते हैं, उन्हें अपनी क्षमता विकास के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
* राजेश उत्साही
पुस्तक - बचपन से पलायन लेखक - जॉन होल्ट हिन्दी अनुवाद - पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा मूल्य - 110 रुपए
प्रकाशक- एकलव्य, ई-10, बीडीए कालोनी, शंकर नगर,शिवाजी नगर, भोपाल-462016
मैं बचपन में भगतसिंह, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों और निराला, रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे साहित्यकारों से खासा प्रभावित था। कमरे में मैंने उनके कैलेण्डर लगा रखे थे। इन कैलेण्डरों में नीचे तारीख के पन्ने अलग से स्टेपिल पिन से लगे होते थे। तब ये कैलेण्डर एक-एक रुपए में मिलते थे। मैं तारीख वाले पन्ने निकालकार उनकी जगह विभिन्न 'महापुरुषों’ द्वारा कहे गए कथन अपनी हस्तलिपि में लिखकर लगाता था। लगभग हर वर्ष इन्हें दिवाली पर सफाई-पुताई के वक्त ही बदला जाता था। इस बीच मजाल कि कोई इन्हें हटा सकता। माँ-पिताजी इसमें दखल नहीं देते थे। और भाई-बहनों के बीच मेरा राज चलता था।
एक दिन कमरे की दीवार पर अचानक एक फिल्मी हीरोइन का कैलेण्डर लटका नज़र आया। संभवत: वह माधुरी दीक्षित का फोटो था। मेरा माथा भन्ना गया। कौन लाया यह कैलेण्डर । उत्तर में छोटा भाई अनिल,जिसे हम प्यार से अन्नू कहते हैं, सामने खड़ा था। छोटा भाई मुझसे उम्र में दस साल छोटा है।
मैंने तल्ख अन्दाज में पूछा,' यह क्यों लगाया?'
'मुझे अच्छा लगा।', वह बोला ।
'पर मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा।',गुस्से से मैंने कहा।
'तो क्या हुआ।' उसने जवाब दिया।
‘उतारो इसे।’ मैंने दुगने गुस्से से कहा।
‘क्यों।’ वह बोला।
‘कमरा मेरा है।’ मैंने कहा।
‘कमरा तो मेरा भी है।’ उसने लापरवाही से जवाब दिया।
मैं अवाक था। निश्चित ही कमरा उसका भी था। वह भी उसी परिवार का सदस्य था, जिसका मैं। मैंने आगे उससे कोई बहस नहीं की।
आगे बढ़ने से पहले बचपन की एक गतिविधि याद करना चाहता हूँ। मेरे बचपन का 1968 से 1972 का समय म.प्र. के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में गुजरा है। कुछ साल श्योपुरकलाँ के पास एक छोटे से रेल्वे स्टेशन इकडोरी और उसके गाँव रघुनाथपुर में और कुछ साल सबलगढ़ की गलियों में। यह बात सन् 1970 के आसपास की है। पिताजी रेल्वे में थे। उनकी पोस्टिंग एक छोटे स्टेशन पर थी। इसलिए हम सब सबलगढ़ में किराए के घर में रहते थे।
जिस मोहल्ले में हम रहते वे वहाँ गर्मियों की छुट्टियों में लगभग हर तीसरे घर के बाहर कुछ बच्चे गोली-बिस्कुट की छोटी-सी दुकान लगाए नजर आते थे। दो-एक साल मैंने भी ऐसी दुकान लगाई। दुकान के लिए सामान ग्वालियर से खरीदकर लाते थे। शुरू में पचास-साठ रुपए की सामग्री खरीद कर दुकान में रख ली जाती। दुकान का पूरा हिसाब-किताब बच्चों को ही सम्भालना होता। कुछ दुकानें तो एकाध हफ्ते में ही उठ जातीं। क्योंकि उनको सम्भालने वाले बच्चे दुकान का आधे से ज्यादा सामान तो खुद ही खा जाते। लेकिन कुछ दुकानें बाकायदा चलती रहतीं। चलने वाली दुकानों में एक मेरी भी थी। मुझे नहीं पता कि इसको शुरू करवाने वाले के दिमाग में इसके पीछे कोई शैक्षणिक समझ थी या नहीं। शायद मोटी समझ यह रही होगी कि बच्चे धूप में आवारागर्दी न करें। दुकान के बहाने कम से कम दोपहर भर तो घर में बैठेंगे, दरवाजे पर ही सही।
ये दोनों घटनाएँ मेरी स्मृति में हैं। गाहे-बगाहे इनका जिक्र मैं यहाँ-वहाँ करता रहता हूँ। पर इनके वास्तविक निहितार्थ मुझे जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' पढ़ते हुए समझ आए।
पहली घटना 'अधिकार' की बात करती है। दूसरी बाल्यावस्था में यह समझाने का प्रयास कि 'पैसा आता और जाता' कैसे है।
आज मैं स्वयं दो बच्चों बल्कि किशोरों का पिता हूँ। कुछ समय पहले तक कमरा हमारे पास भी एक ही था। कमरे को सजाने में बच्चों की कोई रुचि नहीं है। दरअसल उनकी रुचि के विषय कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नजर आते हैं।
तकनॉलॉजी का विकास इस तरह हुआ है कि वह हमारे जीवन में जहाँ हम नहीं भी चाहते हैं, घुस आती है। कम्प्यूटर इसका एक उदाहरण है। वह बच्चों को वह सब दे सकता है, दे रहा है, जो सम्भवत: हम नहीं 'देना' चाहते।
जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' अगर आप पढ़ेंगे तो यही 'देना' उनके 'अधिकार' में बदल जाएगा।
आमतौर पर बच्चों को हम परिवार का सदस्य तो मानते हैं, पर कुछ-कुछ गुलाम की तरह। जो खाने के लिए दिया, चुपचाप खा लो। जो पहनने के लिए दिया, चुपचाप पहन लो। जिस स्कूल में भरती कर दिया, वहीं पढ़ लो। इन सबके सन्दर्भ में उनका क्या मत है, सोच है-यह जानने की आवश्यकता कम लोग ही महसूस करते हैं।
जॉन होल्ट ने इन बातों का गम्भीरता से अवलोकन किया है। उन्होंने ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को एक सूत्र में पिरोया है। 'बचपन से पलायन' में 28 अध्याय हैं। इनमें बाल्यावस्था का गहराई से विवेचन किया गया है। बाल्यावस्था वास्तव में एक संस्था है। हर संस्था का अपना एक संविधान और अनुशासन होता है। लेकिन कम ही लोग इसे समझ पाते हैं। अगर बाल्यावस्था में बच्चों को अवसर मिले तो इस 'अवसर' का उपयोग करके वे आने वाले कल के बेहतर वयस्क हो सकते हैं।
बाल्यावस्था में यौन विषयक चर्चा करना हमेशा विवाद का विषय रहा है। किन्तु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि अगर किशोरावस्था में मुझे यौन विषय पर स्वस्थ चर्चा करके समझने-जानने के मौके मिले होते तो शायद मैं अपना वयस्क जीवन कहीं अधिक आनन्द से जी पाता। विडम्बना यह है कि जब तक हम इसे समझ पाते हैं, तब तक अधेड़ हो चुके होते हैं।
हालांकि मेरे पिता ने यह कोशिश की थी। मुझे याद है कि 1975 के आसपास यौन विषय पर एक हिन्दी फिल्म गुप्तज्ञान नाम से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस समय मैं ग्यारहवीं का छात्र था। पिताजी ने मुझे खासतौर पर यह फिल्म देखने के लिए कहा था। साथ ही यह भी कहा था कि अपने दोस्तों को साथ ले जाओ। मुझे यह भी याद है कि मैंने अपने दोस्तों के साथ यह फिल्म इटारसी के मृत्युंजय सिनेमा में देखी थी। लेकिन शायद ऐसे इक्के-दुक्के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं।
हमें अपने जीवन में झाँककर देखना चाहिए कि वे कौन-सी वर्जनाएँ हैं, जिनके चलते हम अपनी बाल्यावस्था यूं ही गवाँ बैठे । संभवत: हम अपने बच्चों के साथ भी वही कर रहे हैं।
'बचपन से पलायन' मेरी उपरोक्त बात को और स्पष्ट करती है। जॉन होल्ट बाल्यावस्था में 'अधिकार' को एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। अपनी इस किताब में उन्होंने कार्य,कामकला, सम्पत्ति, मत तथा अन्य अधिकार किशोरों को देने की वकालत की है। वकालत करते हुए उन्होंने जो तर्क और उदाहरण दिए हैं, वह निश्चित ही पाठक को सहमति की ओर ले जाते हैं।
यहाँ मुझे एक और घटना याद आती है। हमारे घर में माँ के पास एक पेटी थी, आज भी है। पिताजी को जब वेतन मिलता वे माँ को दे देते। माँ उसे पेटी मे रख देतीं। लेकिन पेटी में रखने से पहले वेतन की राशि हम सब भाई-बहनों को बताई जाती। यह भी बताया जाता कि यह राशि घर में किन-किन जरूरतों पर खर्च होगी। हमें अपनी जरूरतों के अनुसार पेटी से पैसे लेने की स्वतंत्रता थी। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बताया जाता कि वेतन इतना ही है-सोच समझकर खर्च करना है। यानि 'व्यय की स्वतंत्रता' लेकिन ‘जिम्मेदारी’ के अहसास के साथ। मुझे नहीं पता कि हमारे माँ-बाप ने यह प्रयोग सोच-समझकर किया था-या बस यूँ ही। किन्तु इस प्रयोग ने मुझे तथा अन्य भाई-बहनों को पैसे के मामले में एक जिम्मेदार वयस्क बनाने में अहम भूमिका निभाई। मैं अपने बच्चों के बीच इस परम्परा को जारी रखे हुए हूँ, और उसके सकारात्मक परिणाम भी देख रहा हूँ।
जॉन होल्ट की इस किताब की असली ताकत यही है कि यह आपको बाल्यावस्था की घटनाओं को याद करने के लिए मजबूर करती है। और जब आप याद करने लगते हैं तो यह विश्लेषण भी करते हैं कि आपने उससे क्या सीखा। जो लोग बच्चों की बेहतरी में विश्वास करते हैं, उन्हें अपनी क्षमता विकास के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
* राजेश उत्साही
पुस्तक - बचपन से पलायन लेखक - जॉन होल्ट हिन्दी अनुवाद - पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा मूल्य - 110 रुपए
प्रकाशक- एकलव्य, ई-10, बीडीए कालोनी, शंकर नगर,शिवाजी नगर, भोपाल-462016
Wednesday, April 15, 2009
॥ अधेड़ पेड़॥
अधेड़ पेड़
फिर हरा हो रहा है
आ रही हैं
नई पत्तियां
संचित हो रही है
ऊर्जा
जन्म ले रही हैं कोशिकाएं
बन रहा है प्लाज्मा
सक्रिय हो रहा है केन्द्रक
अधेड़ पेड़ में ।
0 राजेश उत्साही
फिर हरा हो रहा है
आ रही हैं
नई पत्तियां
संचित हो रही है
ऊर्जा
जन्म ले रही हैं कोशिकाएं
बन रहा है प्लाज्मा
सक्रिय हो रहा है केन्द्रक
अधेड़ पेड़ में ।
0 राजेश उत्साही
Saturday, April 11, 2009
किस्से आलू मिर्ची चाय जी के
आलू मिर्ची जिंदगी में सबसे अधिक गाया : संदीप नाईकजैसा कि मैंने लिखा था आलू मिर्ची गीत के किस्से और भी हैं। तो किस्से आने शुरू हो गए हैं। संदीप नाईक ने यह राज खोला है कि अपनी 42 साल की जिंदगी में उन्होंने बहुत सारे गीत याद किए और तमाम जगह गाए। लेकिन उनमें सबसे ज्यादा बार आलू मिर्ची चाय जी गाया। संदीप मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। वे बहुत अच्छे गायक हैं। एकलव्य की ग्रुप मीटिगों में उनकी महफिल रात-रात भर चलती थी। पिछले आठ-दस सालों से वे भोपाल में हंगर प्रोजेक्ट के मप्र के राज्य समन्वयक हैं। जहां तक मैं जानता हूं उन्होंने अपना कैरियर एकलव्य के देवास केन्द्र से ही शुरू किया था। बल्कि वे देवास केन्द्र में पुस्तकालय आदि में आने वाले युवाओं में शामिल थे। फिर उन्होंने एकलव्य में कोई दस-बारह साल काम किया। यह वही समय था जब आलू मिर्ची चाय जी देवास,उज्जैन के आसपास के गांवों में बच्चे-बच्चे की जुबान पर था। संदीप ने लिखा है कि जब वे गांव में जाते थे, तो बच्चे कहते थे आलू मिर्ची वाले आ गए। यह इसलिए क्योंकि संदीप बच्चों के बीच इस गीत को जरूर गाते थे। बहुत से बच्चे जो अब युवा हो गए हैं संदीप को अब भी मिर्ची वाला कहते हैं। शुक्रिया संदीप भाई।
आलू मिर्ची के चाहने वाले और भी हैं.........मुझे पता है संदीप की तरह और भी कई मित्र हैं जो इस गीत को बच्चों के बीच लगातार लोकप्रिय बनाने में लगे रहे हैं। इनमें देवास एकलव्य के रविकांत मिश्र और उज्जैन एकलव्य के प्रेम मनमौजी का नाम तो मैं ले ही सकता हूं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के एक स्रोत शिक्षक कमलनयन चांदनीवाला इस गीत को इस अदा से गाते थे कि सुनते ही नहीं देखते भी बनता था। चकमक क्लब से निकले गजानंद और शाकिर पठान अब भी इस गीत का उपयोग करते ही रहते हैं। परासिया,छिदंवाड़ा में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के स्रोत प्राध्यापक डॉ विजय दुआ का यह प्रिय गीत है। तो मैं आप सबको आमंत्रित करता हूं कि जिसके पास जो भी किस्सा हो इस गीत का, कृपया मुझे भेजें। संदीप ने शुरुआत कर दी है।
आलू मिर्ची के चाहने वाले और भी हैं.........मुझे पता है संदीप की तरह और भी कई मित्र हैं जो इस गीत को बच्चों के बीच लगातार लोकप्रिय बनाने में लगे रहे हैं। इनमें देवास एकलव्य के रविकांत मिश्र और उज्जैन एकलव्य के प्रेम मनमौजी का नाम तो मैं ले ही सकता हूं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के एक स्रोत शिक्षक कमलनयन चांदनीवाला इस गीत को इस अदा से गाते थे कि सुनते ही नहीं देखते भी बनता था। चकमक क्लब से निकले गजानंद और शाकिर पठान अब भी इस गीत का उपयोग करते ही रहते हैं। परासिया,छिदंवाड़ा में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के स्रोत प्राध्यापक डॉ विजय दुआ का यह प्रिय गीत है। तो मैं आप सबको आमंत्रित करता हूं कि जिसके पास जो भी किस्सा हो इस गीत का, कृपया मुझे भेजें। संदीप ने शुरुआत कर दी है।
Friday, April 10, 2009
छोकरा कविताएं और उनका छुकरपना
मेरी ये कविताएं 1982-83 के आसपास की हैं। तब मेरी योजना थी कि छोकरा शीर्षक से कुछ नहीं तो दस-बारह कविताएं लिखूंगा। पर बात तीन से आगे नहीं बढ़ी।
सबसे पहले इन कविताओं को 1984 में चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के कैम्पस से निकलने वाली एक सायक्लोस्टाइल पत्रिका हमकलम में जगह मिली। यह पत्रिका आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्ताक्षर लाल्टू और रूस्तमसिंह अपने साथियों के साथ मिलकर निकालते थे। रूस्तम भी सुपरिचित कवि,अनुवादक और संपादक हैं। एक जमाने में वे इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में थे। फिर कुछ समय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के संपादक रहे। आजकल एकलव्य के प्रकाशन कार्यक्रम में कार्यरत हैं।
हमकलम में इन कविताओं को इनके चरित्र के अनुरूप बने चित्रों के साथ छापा गया था। जो पाठक सायक्लोस्टाइल तकनॉलॉजी को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि स्टेंसिल पर चित्र बनाना कितने धैर्य का काम है। ये चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। कैरन आज जानी-मानी चित्रकार हैं। महिला आंदोलन से जुड़े तमाम साहित्य में उनके चित्र देखे जा सकते हैं। उनके चित्रों में पेन की रेखाओं और पेन से बने बिन्दुओं का गजब का मिश्रण होता है। पत्रिका के आवरण पर मेरी कविता का ही चित्र था। कविताएं भी टाइप नहीं की गई थीं, हस्तलिपि में थीं।
इन कविताओं का एक बहुत-ही अनोखा इस्तेमाल दुनु राय और उनके साथियों ने मप्र के शहडोल जिले के अनूपपुर कस्बे में किया था। वे उन दिनों वहां एक संस्था विदूषक कारखाना से जुड़े थे। असल में संस्था बनाने वालों में से दुनु राय स्वयं एक थे। दुनु राय इंजीनियर हैं, पर आज उनकी पहचान एक समाजशास्त्री, पर्यावरणविद् और शिक्षाशास्त्री,लेखक के रूप में कहीं अधिक है। उन्होंने मेरी इन कविताओं को टाट से बने बड़े साइनबोर्ड पर लिखवाकर अनूपपुर के एक चौराहे पर लटकाया था। यह भी 1984-85 की बात है। अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की बात होगी, पर मेरी इन कविताओं में कुछ तो बात है।
इसका एक और वाकया है। मप्र साहित्य परिषद की एक पत्रिका है साक्षात्कार । 1982 में मेरी एक कविता नूर मोहम्मद और उसका घोड़ा उसमें प्रकाशित हुई थी। उन दिनों सोमदत्त संपादक थे। सोमदत्त जी ने कुछ संपादकीय का सुझाव देते हुए कविता मुझे वापस भेजी और कहा कि अगर आप कविता का कुछ हिस्सा निकाल दें तो देखेंगे कि कविता में कितनी कसावट आ जाती है। सचमुच सोमदत्त जी ने मुझे एक नई दृष्टि दे दी थी। मैंने स्वयं कविता का संपादन किया और सोमदत्त जी को भेज दी। कविता साक्षात्कार में प्रकाशित हुई। साक्षात्कार के इसी अंक में हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य लेख भी था। बाएं पृष्ठ पर मेरी कविता थी और दाएं पृष्ठ से परसाई जी का लेख शुरू होता था। मेरे जैसे नौजवान लेखक के लिए यह भी एक उपलब्धि थी। बहरहाल मैंने उत्साहित होकर कुछ समय बाद अपनी दस-बारह कविताएं साक्षात्कार में प्रकाशन के लिए भेज दीं। बहुत दिनों तक उनका कोई जवाब नहीं आया। लगभग चार साल बाद 1987 में मुझे एक सूचना मिली। रायपुर में मप्र की युवाकविता समारोह किया जा रहा है। आयोजन मप्र हिन्दी साहित्य परिषद कर रही है। चुने हुए युवा कवियों में मेरा नाम भी था। समारोह की अध्यक्षता त्रिलोचन जी कर रहे थे। जहां तक मुझे याद है हम सात या आठ कवियों को उसमें शिरकत करना थी। अपने अलावा तीन नाम मुझे याद हैं। एक नाम है आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्ताक्षर कुमार अंबुज का । दूसरा नाम जाने-माने व्यंग्यकार कैलाश मंडलेकर का और तीसरा नाम शायद मेरी ही तरह कहीं खो गए राजीव सभरवाल का। जो कविताएं मुझे इस समारोह में पढ़नी थीं, उनमें ये तीन भी शामिल थीं। अफसोस की बात यह है कि इस समारोह में मैं नहीं जा पाया। यह अफसोस मुझे अब तक है। समारोह बहुत सफल रहा था। मुझे लगता है इस समारोह में अगर मैं जा पाता तो शायद मेरे लेखन की दिशा ही कुछ और होती।
न जा पाने का कारण भी खास था। पहले समारोह मई में आयोजित था। मैंने जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। फिर किसी कारण से समारोह जुलाई में स्थानातंरित कर दिया गया। मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था। जुलाई में कुछ स्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे पत्नी निर्मला और एक साल के बेटे कबीर को लेकर भोपाल स्थानांतरित होना पड़ा। खैर फिर मैं सब कुछ भूलकर चकमक में रम गया। 1990 के आसपास हम लोगों ने चकमक का एक अंक बालश्रम पर निकाला। इस अंक में इनमें से दो कविताएं प्रकाशित की गईं थीं। चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। तो चलिए अब आप भी पढ़ लीजिए।
छोकरा : एक
हाथों
में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है छोकरा
झाडू़ बांधकर रस्सी में
मिलता है
रेलगाड़ी के डिब्बे में
अक्सर
बदन पर होती है एक
फटी,मैली-कुचैली
बनियान/कमीज और निकर
या निकर जैसी कोई चीज
घुस आता है
पैरों में
बिना कुछ कहे,
करता है सफाई झुककर
पैर
आगे-पीछे
ऊपर नीचे उठते हैं/सरकते हैं/हटते हैं
खिंचते हैं
छोकरा
साफ करता है
बीड़ी-सिगरेट के टोंटे
मूंगफली के छिलके
छिलके संतरे के
छिलके फलों के
इस उम्र में
जब साफ करने चाहिए
उसे अपनी स्लेट,अपनी कलम
अपना घर, अपना स्कूल
भविष्य की राह में आने वाले शूल
फैल जाती है
उसकी हथेली
दो सेकेण्ड ठहरता है वह
हर एक के सामने
हर एक के सामने होती है घड़ी अपने में
इंसान की उपस्थिति का
अहसास कराने की
जो सोचते हैं
वे केवल सोचते रहते हैं
अपने में इंसानियत की बात
छोकरा मांगता नहीं है भीख
बढ़ जाता है आगे
फैलाए अपनी हथेली
इस उम्र में
जब फैलनी चाहिए
मास्साब के सामने
पाने के लिए सजा
पाने के लिए इनाम
छोकरा
हाथों में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है
झाडू़ बांधकर रस्सी में ।
0 राजेश उत्साही
छोकरा : दो
छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्बों वाला बेडौल झोला
झोले में
बिल्ली छाप पालिश होता है
चेरी ब्लासम की डिब्बी में
काला और लाल
ब्रश होते हैं
मोटी और पतली नोकों वाले
नरम और सख्त बालों वाले
होते हैं कुछ
पुराने कपडे़ झोले में
उतरी हुई
स्कूल यूनीफार्म पहने
किसी की
घूमता रहता है
बस अड्डे,रेल्वे स्टेशन
बाग या भीड़ में
उसकी नजरें ढूंढती हैं
सिर्फ चमड़े के चप्पल-जूते
वाले पैर
ढेर सारे पैर
पैरों पर टिका होता है
उसका अर्थशास्त्र
मां को देने के लिए
बाप को दिलाने के लिए शराब
और अपनी शाम की पिक्चर का बजट
हर वक्त
देखता है छोकरा नीचे
देखता है पैरों की हरकत
बोलता है बस एक वाक्य
‘साब पालिश, बहिन जी पालिश’
कुछ खींच लेते हैं
पैर पीछे
कुछ बढ़ा देते हैं
पैर आगे
वह उतारता है
सलीके से चप्पल पैर से
पैर से जूते
साफ करता है
धूल-मिट्टी ऐसे
जैसे साफ करती है मां
उसका चेहरा
वह चमकाता है
जूते को,चप्पल को
और बकौल चेरी ब्लासम के
साब की किस्मत को
कहता है लीजिए साब
देखिए अपना चेहरा
साब झुककर देखते हैं अपना
चेहरा जूते में
थूक देता है
छोकरा
साब के चेहरे पर
जूते में
और फिर चमकाने लगता है
जूता
जूता
चकमाता है छोकरे को
छोकरा
चमकाता है जूते को
छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्बों वाला बेडौल झोला
0 राजेश उत्साही
छोकरा : तीन
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
फंसाकर उंगलियों के बीच
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा
मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा
छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में
छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
0 राजेश उत्साही
सबसे पहले इन कविताओं को 1984 में चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के कैम्पस से निकलने वाली एक सायक्लोस्टाइल पत्रिका हमकलम में जगह मिली। यह पत्रिका आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्ताक्षर लाल्टू और रूस्तमसिंह अपने साथियों के साथ मिलकर निकालते थे। रूस्तम भी सुपरिचित कवि,अनुवादक और संपादक हैं। एक जमाने में वे इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में थे। फिर कुछ समय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के संपादक रहे। आजकल एकलव्य के प्रकाशन कार्यक्रम में कार्यरत हैं।
हमकलम में इन कविताओं को इनके चरित्र के अनुरूप बने चित्रों के साथ छापा गया था। जो पाठक सायक्लोस्टाइल तकनॉलॉजी को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि स्टेंसिल पर चित्र बनाना कितने धैर्य का काम है। ये चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। कैरन आज जानी-मानी चित्रकार हैं। महिला आंदोलन से जुड़े तमाम साहित्य में उनके चित्र देखे जा सकते हैं। उनके चित्रों में पेन की रेखाओं और पेन से बने बिन्दुओं का गजब का मिश्रण होता है। पत्रिका के आवरण पर मेरी कविता का ही चित्र था। कविताएं भी टाइप नहीं की गई थीं, हस्तलिपि में थीं।
इन कविताओं का एक बहुत-ही अनोखा इस्तेमाल दुनु राय और उनके साथियों ने मप्र के शहडोल जिले के अनूपपुर कस्बे में किया था। वे उन दिनों वहां एक संस्था विदूषक कारखाना से जुड़े थे। असल में संस्था बनाने वालों में से दुनु राय स्वयं एक थे। दुनु राय इंजीनियर हैं, पर आज उनकी पहचान एक समाजशास्त्री, पर्यावरणविद् और शिक्षाशास्त्री,लेखक के रूप में कहीं अधिक है। उन्होंने मेरी इन कविताओं को टाट से बने बड़े साइनबोर्ड पर लिखवाकर अनूपपुर के एक चौराहे पर लटकाया था। यह भी 1984-85 की बात है। अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की बात होगी, पर मेरी इन कविताओं में कुछ तो बात है।
इसका एक और वाकया है। मप्र साहित्य परिषद की एक पत्रिका है साक्षात्कार । 1982 में मेरी एक कविता नूर मोहम्मद और उसका घोड़ा उसमें प्रकाशित हुई थी। उन दिनों सोमदत्त संपादक थे। सोमदत्त जी ने कुछ संपादकीय का सुझाव देते हुए कविता मुझे वापस भेजी और कहा कि अगर आप कविता का कुछ हिस्सा निकाल दें तो देखेंगे कि कविता में कितनी कसावट आ जाती है। सचमुच सोमदत्त जी ने मुझे एक नई दृष्टि दे दी थी। मैंने स्वयं कविता का संपादन किया और सोमदत्त जी को भेज दी। कविता साक्षात्कार में प्रकाशित हुई। साक्षात्कार के इसी अंक में हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य लेख भी था। बाएं पृष्ठ पर मेरी कविता थी और दाएं पृष्ठ से परसाई जी का लेख शुरू होता था। मेरे जैसे नौजवान लेखक के लिए यह भी एक उपलब्धि थी। बहरहाल मैंने उत्साहित होकर कुछ समय बाद अपनी दस-बारह कविताएं साक्षात्कार में प्रकाशन के लिए भेज दीं। बहुत दिनों तक उनका कोई जवाब नहीं आया। लगभग चार साल बाद 1987 में मुझे एक सूचना मिली। रायपुर में मप्र की युवाकविता समारोह किया जा रहा है। आयोजन मप्र हिन्दी साहित्य परिषद कर रही है। चुने हुए युवा कवियों में मेरा नाम भी था। समारोह की अध्यक्षता त्रिलोचन जी कर रहे थे। जहां तक मुझे याद है हम सात या आठ कवियों को उसमें शिरकत करना थी। अपने अलावा तीन नाम मुझे याद हैं। एक नाम है आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्ताक्षर कुमार अंबुज का । दूसरा नाम जाने-माने व्यंग्यकार कैलाश मंडलेकर का और तीसरा नाम शायद मेरी ही तरह कहीं खो गए राजीव सभरवाल का। जो कविताएं मुझे इस समारोह में पढ़नी थीं, उनमें ये तीन भी शामिल थीं। अफसोस की बात यह है कि इस समारोह में मैं नहीं जा पाया। यह अफसोस मुझे अब तक है। समारोह बहुत सफल रहा था। मुझे लगता है इस समारोह में अगर मैं जा पाता तो शायद मेरे लेखन की दिशा ही कुछ और होती।
न जा पाने का कारण भी खास था। पहले समारोह मई में आयोजित था। मैंने जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। फिर किसी कारण से समारोह जुलाई में स्थानातंरित कर दिया गया। मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था। जुलाई में कुछ स्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे पत्नी निर्मला और एक साल के बेटे कबीर को लेकर भोपाल स्थानांतरित होना पड़ा। खैर फिर मैं सब कुछ भूलकर चकमक में रम गया। 1990 के आसपास हम लोगों ने चकमक का एक अंक बालश्रम पर निकाला। इस अंक में इनमें से दो कविताएं प्रकाशित की गईं थीं। चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। तो चलिए अब आप भी पढ़ लीजिए।
छोकरा : एक
हाथों
में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है छोकरा
झाडू़ बांधकर रस्सी में
मिलता है
रेलगाड़ी के डिब्बे में
अक्सर
बदन पर होती है एक
फटी,मैली-कुचैली
बनियान/कमीज और निकर
या निकर जैसी कोई चीज
घुस आता है
पैरों में
बिना कुछ कहे,
करता है सफाई झुककर
पैर
आगे-पीछे
ऊपर नीचे उठते हैं/सरकते हैं/हटते हैं
खिंचते हैं
छोकरा
साफ करता है
बीड़ी-सिगरेट के टोंटे
मूंगफली के छिलके
छिलके संतरे के
छिलके फलों के
इस उम्र में
जब साफ करने चाहिए
उसे अपनी स्लेट,अपनी कलम
अपना घर, अपना स्कूल
भविष्य की राह में आने वाले शूल
फैल जाती है
उसकी हथेली
दो सेकेण्ड ठहरता है वह
हर एक के सामने
हर एक के सामने होती है घड़ी अपने में
इंसान की उपस्थिति का
अहसास कराने की
जो सोचते हैं
वे केवल सोचते रहते हैं
अपने में इंसानियत की बात
छोकरा मांगता नहीं है भीख
बढ़ जाता है आगे
फैलाए अपनी हथेली
इस उम्र में
जब फैलनी चाहिए
मास्साब के सामने
पाने के लिए सजा
पाने के लिए इनाम
छोकरा
हाथों में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है
झाडू़ बांधकर रस्सी में ।
0 राजेश उत्साही
छोकरा : दो
छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्बों वाला बेडौल झोला
झोले में
बिल्ली छाप पालिश होता है
चेरी ब्लासम की डिब्बी में
काला और लाल
ब्रश होते हैं
मोटी और पतली नोकों वाले
नरम और सख्त बालों वाले
होते हैं कुछ
पुराने कपडे़ झोले में
उतरी हुई
स्कूल यूनीफार्म पहने
किसी की
घूमता रहता है
बस अड्डे,रेल्वे स्टेशन
बाग या भीड़ में
उसकी नजरें ढूंढती हैं
सिर्फ चमड़े के चप्पल-जूते
वाले पैर
ढेर सारे पैर
पैरों पर टिका होता है
उसका अर्थशास्त्र
मां को देने के लिए
बाप को दिलाने के लिए शराब
और अपनी शाम की पिक्चर का बजट
हर वक्त
देखता है छोकरा नीचे
देखता है पैरों की हरकत
बोलता है बस एक वाक्य
‘साब पालिश, बहिन जी पालिश’
कुछ खींच लेते हैं
पैर पीछे
कुछ बढ़ा देते हैं
पैर आगे
वह उतारता है
सलीके से चप्पल पैर से
पैर से जूते
साफ करता है
धूल-मिट्टी ऐसे
जैसे साफ करती है मां
उसका चेहरा
वह चमकाता है
जूते को,चप्पल को
और बकौल चेरी ब्लासम के
साब की किस्मत को
कहता है लीजिए साब
देखिए अपना चेहरा
साब झुककर देखते हैं अपना
चेहरा जूते में
थूक देता है
छोकरा
साब के चेहरे पर
जूते में
और फिर चमकाने लगता है
जूता
जूता
चकमाता है छोकरे को
छोकरा
चमकाता है जूते को
छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्बों वाला बेडौल झोला
0 राजेश उत्साही
छोकरा : तीन
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
फंसाकर उंगलियों के बीच
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा
मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा
छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में
छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र
छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
0 राजेश उत्साही
Saturday, April 4, 2009
मेरा फोटो, फोटो की कहानी
कभी-कभी कोई छोटी-सी घटना अपने में गर्भ में कितनी सारी बातें छुपाए रहती है, इसका उदाहरण है मेरा यह फोटो। यह फोटो जो आप यहां देख रहे हैं। आपमें से कुछ लोग सोच रहे होंगे उत्साही जी को और कुछ नहीं सूझा तो अपना बड़ा-सा फोटो लगा के ही बैठ गए।(पहले यह फोटो ब्लाग के नाम के साथ था।) एक-दो ने ब्लाग देखा तो पहली सलाह यही दी फोटो छोटा करो। जैसे हम किसी बच्चे को तेज आवाज में डेक बजाते देखकर कहते हैं आवाज कम करो। क्या सुन रहे हो, वह कर्णप्रिय है या नहीं बाद में देखेंगे। बेचारा बच्चा भले ही उस्ताद जाकिर हुसैन का तबला वादन क्यों न सुन रहा हो। कुछ ने फोटो की खूबसूरती को पहचाना और पहली प्रतिक्रिया यही दी कि फोटो बहुत सुंदर है। ऐसी प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों में मेरे गुरु सुरेश मिश्र भी हैं।
अब आप माने या न मानें, मेरा इतना खूबसूरत फोटो मैंने भी कभी नहीं देखा। खूबसूरत इस मायने में कि चेहरे पर प्रसन्नता का जो भाव है और होंटों पर मुस्कराहट। वह विरली है। बस इसके पहले यह एक और फोटो में मुझे नजर आई थी। वह 1998 के आसपास किसी ने खींचा था। उसमें मेरे साथ मनोज निगम थे। उस समय एकलव्य में कम्प्यूटर के नए मॉडल यानी कि विकसित मॉडल आए ही थे। मनोज ने उस फोटो को कम्प्यूटर पर डालकर उसके साथ प्रयोग किया। अपना फोटो एडिट कर दिया और मेरे फोटो को एक रेगिस्तान की पृष्ठभूमि में सुंदर तरीके से डालकर उसे मेरे जन्मदिन पर भेंट किया। फोटो में दूर एक सूरजमुखी का फूल भी है। यह फोटो मुझे बहुत पसंद आया। इस पर मैंने एक ग़ज़ल भी लिखी। जिसका एक शेर है - जब भी मुस्कराया है कोई देखकर मुझको, मैंने अपनी शख्शियत का नया मायना देखा । यह फोटो पिछले दस साल से एकलव्य में मेरी टेबिल के सामने थर्मोकोल पर लगा ही रहा है। अब सिस्टम के डेस्कटाप पर है। धन्यवाद मनोज। उसके बाद मैं खुद ऐसे फोटो के लिए तरस गया। खैर जिन लोगों ने फोटो छोटा करने की सलाह दी उनका भी धन्यवाद, जिन्होंने चुपचाप झेल लिया उनका भी शुक्रिया।
मेरा यह कथित फोटो एक दिन अचानक ही एकलव्य भोपाल के बगीचे में टहलते हुए एकलव्य भोपाल के मेरे साथी राकेश खत्री ने डिजीटल कैमरे से खींचा था। 2008 के जून या जुलाई महीने की बात रही होगी। असल में राकेश नए आए हुए किसी कैमरे की ट्रायल ले रहे थे, ऐसा मुझे याद है। संभव है कैमरा उन अर्चना रस्तोगी जी का था जो मुझे हमेशा ऐसे याद करती हैं, ‘राजेश जी को मैंने कभी मुस्कराते नहीं देखा।’ मुझे मुस्कराते देखने की उनकी चाहत इतनी बढ़ गई कि एक दिन उन्होंने आकर कहा, ‘ मैंने कल रात आपको सपने में मुस्कराते हुए देखा।’ उनकी यह बात सुनकर मैंने भी संतोष की सांस ली थी कि चलो कम-से-कम उन्हें यह यकीन तो हुआ कि मैं मुस्कराता भी हूं। तो यह फोटो अर्चना जी को समर्पित किया जा सकता है। चलो किया।
पर जनाब कहानी अभी पूरी नहीं हुई। राकेश भाई ने यह फोटो अपने सिस्टम पर डाल दिया। मैं भी भूल-भाल गया। तब यह फोटो बहुत अच्छा नहीं लगा था। माथे पर बिखरे बाल,शर्ट के बटन खुले हुए,चेहरे पर सफेद दाढ़ी के खूंटे। मैंने फोटो देखकर हमेशा की तरह अफसोस जताया था कि अपना तो चेहरा ही ऐसा है, उसमें बेचारा कैमरा या कैमरे वाला क्या करेगा।
समय बीतता गया। असल में तो वह बीतता ही है। मैंने अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में आने का फैसला किया। मुझे 2 मार्च,2009 को बंगलौर में ज्वाइन करना था। 28 फरवरी को मैं भोपाल से निकलने वाला था। 25 फरवरी को मुझे फाउंडेशन से एक ईमेल मिला कि अपनी एक पासपोर्ट साइज फोटो तुरंत भेजूं। संयोग से एक दिन पहले ही मैंने स्टूडियो में पासपोर्ट फोटो खिंचवाई थी। यह जानते हुए भी कि फोटो से पहले मैं स्वयं ही बंगलौर पहुंचूंगा , मैंने कूरियर से फोटो की एक नहीं तीन प्रतियां रवाना कर दीं। 27 फरवरी को मुझे फाउंडेशन से फोन आया कि आपने अब तक फोटो नहीं भेजा। मैंने निवेदन किया कि रास्ते में है, बस पहुंचने वाला ही है। (ये फोटो मेरे बंगलौर पहुंचने के एक हफ्ते बाद पहुंचे।) फोन पर फाउंडेशन की ओर से जैनी थीं। उन्होंने कहा आपके पास किसी फोटो की साफ्ट कापी नहीं है। वह भेज दीजिए। मुझे लगा मामला गंभीर है, मेरे पहुंचने से पहले मेरे फोटो का पहुंचना जरूरी है। मैंने कहा देखता हूं।
तब मुझे याद आया कि राकेश के सिस्टम पर एक फोटो पड़ा है। बस उसे ढूंढा। कमलेश यादव और जीतेंद्र ठाकुर ने मिलकर उसको कुछ-कुछ किया और फिर मैंने जैनी को ईमेल में जड़कर भेज दिया। 2 मार्च को जब बंगलौर में सुबह-सुबह फाउंडेशन के दफ्तर पहुंचा तो ये फोटो वाले राजेश उत्साही वहां पहले से विराजमान थे और मेरा मुंह चिड़ा रहे थे। फाउंडेशन के स्वागत कक्ष में एक बड़े-से बोर्ड पर एक बड़ी-सी कार्डशीट पर 6 बाई 6 के आकार में एक कोने में ये चिपके हुए थे। कार्डशीट पर मेरा परिचय लिखा हुआ था। आने वाला हर बंदा और बंदी स्वागत में अपने भाव उस पर लिखकर व्यक्त कर रहा था। सच मानो तो मुझे भी वहां चिपके हुए राजेश उत्साही मुझसे ज्यादा अच्छे लगे। धन्यवाद राकेश भाई। लोगों ने क्या लिखा वह अलग कहानी है।
बंगलौर पहुंचकर मैंने पहली छुट्टी मिलते ही अपने ब्लाग को सक्रिय करने का काम किया। यह बनाया तो दो साल पहले था,पर ज्यादा कुछ किया नहीं था। तो सबसे पहले फोटो डालने की सूझी। तो यही इकलौता फोटो मेरे पास साफ्ट कापी के रूप में था। संयोग से यहां बंगलौर में मेरे पास जो सिस्टम है, उसमें फोटोशॉप नहीं है। मुझे भी फोटो को छोटा-बड़ा करने की ज्यादा तकनीक नहीं मालूम। जब पहली बार ब्लाग पर फोटो आया तो मुझे ही लगा कि यह तो कुछ ज्यादा-ही बड़ा हो गया है। सब प्रयास कर लिए,फिर सोचा अभी ऐसे ही जाने दो बाद में देखेंगे।
अब सोचता हूं देखना क्या है, आप लोग तो देख ही रहे हैं। तो देखते रहिए, हम तो ऐसे ही हैं भैय्या।
राजेश उत्साही
अब आप माने या न मानें, मेरा इतना खूबसूरत फोटो मैंने भी कभी नहीं देखा। खूबसूरत इस मायने में कि चेहरे पर प्रसन्नता का जो भाव है और होंटों पर मुस्कराहट। वह विरली है। बस इसके पहले यह एक और फोटो में मुझे नजर आई थी। वह 1998 के आसपास किसी ने खींचा था। उसमें मेरे साथ मनोज निगम थे। उस समय एकलव्य में कम्प्यूटर के नए मॉडल यानी कि विकसित मॉडल आए ही थे। मनोज ने उस फोटो को कम्प्यूटर पर डालकर उसके साथ प्रयोग किया। अपना फोटो एडिट कर दिया और मेरे फोटो को एक रेगिस्तान की पृष्ठभूमि में सुंदर तरीके से डालकर उसे मेरे जन्मदिन पर भेंट किया। फोटो में दूर एक सूरजमुखी का फूल भी है। यह फोटो मुझे बहुत पसंद आया। इस पर मैंने एक ग़ज़ल भी लिखी। जिसका एक शेर है - जब भी मुस्कराया है कोई देखकर मुझको, मैंने अपनी शख्शियत का नया मायना देखा । यह फोटो पिछले दस साल से एकलव्य में मेरी टेबिल के सामने थर्मोकोल पर लगा ही रहा है। अब सिस्टम के डेस्कटाप पर है। धन्यवाद मनोज। उसके बाद मैं खुद ऐसे फोटो के लिए तरस गया। खैर जिन लोगों ने फोटो छोटा करने की सलाह दी उनका भी धन्यवाद, जिन्होंने चुपचाप झेल लिया उनका भी शुक्रिया।
मेरा यह कथित फोटो एक दिन अचानक ही एकलव्य भोपाल के बगीचे में टहलते हुए एकलव्य भोपाल के मेरे साथी राकेश खत्री ने डिजीटल कैमरे से खींचा था। 2008 के जून या जुलाई महीने की बात रही होगी। असल में राकेश नए आए हुए किसी कैमरे की ट्रायल ले रहे थे, ऐसा मुझे याद है। संभव है कैमरा उन अर्चना रस्तोगी जी का था जो मुझे हमेशा ऐसे याद करती हैं, ‘राजेश जी को मैंने कभी मुस्कराते नहीं देखा।’ मुझे मुस्कराते देखने की उनकी चाहत इतनी बढ़ गई कि एक दिन उन्होंने आकर कहा, ‘ मैंने कल रात आपको सपने में मुस्कराते हुए देखा।’ उनकी यह बात सुनकर मैंने भी संतोष की सांस ली थी कि चलो कम-से-कम उन्हें यह यकीन तो हुआ कि मैं मुस्कराता भी हूं। तो यह फोटो अर्चना जी को समर्पित किया जा सकता है। चलो किया।
पर जनाब कहानी अभी पूरी नहीं हुई। राकेश भाई ने यह फोटो अपने सिस्टम पर डाल दिया। मैं भी भूल-भाल गया। तब यह फोटो बहुत अच्छा नहीं लगा था। माथे पर बिखरे बाल,शर्ट के बटन खुले हुए,चेहरे पर सफेद दाढ़ी के खूंटे। मैंने फोटो देखकर हमेशा की तरह अफसोस जताया था कि अपना तो चेहरा ही ऐसा है, उसमें बेचारा कैमरा या कैमरे वाला क्या करेगा।
समय बीतता गया। असल में तो वह बीतता ही है। मैंने अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में आने का फैसला किया। मुझे 2 मार्च,2009 को बंगलौर में ज्वाइन करना था। 28 फरवरी को मैं भोपाल से निकलने वाला था। 25 फरवरी को मुझे फाउंडेशन से एक ईमेल मिला कि अपनी एक पासपोर्ट साइज फोटो तुरंत भेजूं। संयोग से एक दिन पहले ही मैंने स्टूडियो में पासपोर्ट फोटो खिंचवाई थी। यह जानते हुए भी कि फोटो से पहले मैं स्वयं ही बंगलौर पहुंचूंगा , मैंने कूरियर से फोटो की एक नहीं तीन प्रतियां रवाना कर दीं। 27 फरवरी को मुझे फाउंडेशन से फोन आया कि आपने अब तक फोटो नहीं भेजा। मैंने निवेदन किया कि रास्ते में है, बस पहुंचने वाला ही है। (ये फोटो मेरे बंगलौर पहुंचने के एक हफ्ते बाद पहुंचे।) फोन पर फाउंडेशन की ओर से जैनी थीं। उन्होंने कहा आपके पास किसी फोटो की साफ्ट कापी नहीं है। वह भेज दीजिए। मुझे लगा मामला गंभीर है, मेरे पहुंचने से पहले मेरे फोटो का पहुंचना जरूरी है। मैंने कहा देखता हूं।
तब मुझे याद आया कि राकेश के सिस्टम पर एक फोटो पड़ा है। बस उसे ढूंढा। कमलेश यादव और जीतेंद्र ठाकुर ने मिलकर उसको कुछ-कुछ किया और फिर मैंने जैनी को ईमेल में जड़कर भेज दिया। 2 मार्च को जब बंगलौर में सुबह-सुबह फाउंडेशन के दफ्तर पहुंचा तो ये फोटो वाले राजेश उत्साही वहां पहले से विराजमान थे और मेरा मुंह चिड़ा रहे थे। फाउंडेशन के स्वागत कक्ष में एक बड़े-से बोर्ड पर एक बड़ी-सी कार्डशीट पर 6 बाई 6 के आकार में एक कोने में ये चिपके हुए थे। कार्डशीट पर मेरा परिचय लिखा हुआ था। आने वाला हर बंदा और बंदी स्वागत में अपने भाव उस पर लिखकर व्यक्त कर रहा था। सच मानो तो मुझे भी वहां चिपके हुए राजेश उत्साही मुझसे ज्यादा अच्छे लगे। धन्यवाद राकेश भाई। लोगों ने क्या लिखा वह अलग कहानी है।
बंगलौर पहुंचकर मैंने पहली छुट्टी मिलते ही अपने ब्लाग को सक्रिय करने का काम किया। यह बनाया तो दो साल पहले था,पर ज्यादा कुछ किया नहीं था। तो सबसे पहले फोटो डालने की सूझी। तो यही इकलौता फोटो मेरे पास साफ्ट कापी के रूप में था। संयोग से यहां बंगलौर में मेरे पास जो सिस्टम है, उसमें फोटोशॉप नहीं है। मुझे भी फोटो को छोटा-बड़ा करने की ज्यादा तकनीक नहीं मालूम। जब पहली बार ब्लाग पर फोटो आया तो मुझे ही लगा कि यह तो कुछ ज्यादा-ही बड़ा हो गया है। सब प्रयास कर लिए,फिर सोचा अभी ऐसे ही जाने दो बाद में देखेंगे।
अब सोचता हूं देखना क्या है, आप लोग तो देख ही रहे हैं। तो देखते रहिए, हम तो ऐसे ही हैं भैय्या।
राजेश उत्साही
धूप के तेवर
तीखे धूप के तेवर हुए
गमछे गले के जेवर हुए
जेठ की तपन अभी बाकी
दिवस चैत्र के देवर हुए
चिटकती धूप में कहां पानी
सड़क पर खेल सेसर हुए
प्यास का मन अत़ृप्त रहा
सुराही-घड़े सब सेवर हुए
देह नदी बही कुछ इस तरह
अपरिचित सुवास केसर हुए
मोहित हम जिन नक्श पर
रंग उन सबके पेवर हुए
अपने नीम की छांव भली
हाय ऐसे मौसम में बेघर हुए राजेश उत्साही
सेसर=छल, सेवर=अधपके मिट्टी के बर्तन
पेवर=पीला
गमछे गले के जेवर हुए
जेठ की तपन अभी बाकी
दिवस चैत्र के देवर हुए
चिटकती धूप में कहां पानी
सड़क पर खेल सेसर हुए
प्यास का मन अत़ृप्त रहा
सुराही-घड़े सब सेवर हुए
देह नदी बही कुछ इस तरह
अपरिचित सुवास केसर हुए
मोहित हम जिन नक्श पर
रंग उन सबके पेवर हुए
अपने नीम की छांव भली
हाय ऐसे मौसम में बेघर हुए राजेश उत्साही
सेसर=छल, सेवर=अधपके मिट्टी के बर्तन
पेवर=पीला
Friday, March 27, 2009
हमारे हाथ: एक परिचय
हमारे हाथ कविता रूमटूरीड के लिए लिखी गई है। इसे उन्होंने एक पोस्टर के रूप में बच्चों के लिए प्रकाशित किया है। रूमटूरीड बच्चों में पढ़ने के प्रति रुचि पैदा करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम चला रहा है। इस कविता के लिए जीतेन्द्र ठाकुर ने बहुत सुन्दर चित्र बनाए हैं।
बंगलौर में प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिए अजीम प्रेमजी फांउडेशन द्वारा चलाए जा रहे एक स्कूल के लगभग सौ बच्चे फांउडेशन का दफ्तर देखने मार्च 2009 के आखिरी दिनों में आए थे। उनमें से ज्यादातर हिन्दी नहीं समझते थे। मैंने कुछ हाव-भाव के साथ उन्हें अपनी यह कविता गाकर सुनाई। बच्चों ने बहुत उत्साह से इसे दोहराया। उनके साथ आए एक शिक्षक ने कन्नड़ में इसका अर्थ भी समझाया। 9 अप्रैल को स्कूल में बाल मेला था। मैं भी वहां गया। मुझे देखते ही हर बच्चा कविता की जो भी पंक्ति उसे याद रह गई थी, हाव-भाव के साथगाने लगा। एक कवि का और क्या चाहिए ?
बंगलौर में प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिए अजीम प्रेमजी फांउडेशन द्वारा चलाए जा रहे एक स्कूल के लगभग सौ बच्चे फांउडेशन का दफ्तर देखने मार्च 2009 के आखिरी दिनों में आए थे। उनमें से ज्यादातर हिन्दी नहीं समझते थे। मैंने कुछ हाव-भाव के साथ उन्हें अपनी यह कविता गाकर सुनाई। बच्चों ने बहुत उत्साह से इसे दोहराया। उनके साथ आए एक शिक्षक ने कन्नड़ में इसका अर्थ भी समझाया। 9 अप्रैल को स्कूल में बाल मेला था। मैं भी वहां गया। मुझे देखते ही हर बच्चा कविता की जो भी पंक्ति उसे याद रह गई थी, हाव-भाव के साथगाने लगा। एक कवि का और क्या चाहिए ?
हमारे हाथ
हाथ दुआ है
हाथ दवा है
हाथों में ही
बसी हवा है
हाथ प्यार है
हाथ वार है
हाथों में ही
आविष्कार है
हाथ खेल है
हाथ रेल है
हाथों में ही
चम्पी-तेल है
हाथ्ा कलम है
हाथ श्रम है
हाथों में ही
छुपी शरम है
हाथ कान है
हाथ जुबान है
हाथों में ही
यह जहान है
राजेश उत्साही
2009
हाथ दवा है
हाथों में ही
बसी हवा है
हाथ प्यार है
हाथ वार है
हाथों में ही
आविष्कार है
हाथ खेल है
हाथ रेल है
हाथों में ही
चम्पी-तेल है
हाथ्ा कलम है
हाथ श्रम है
हाथों में ही
छुपी शरम है
हाथ कान है
हाथ जुबान है
हाथों में ही
यह जहान है
राजेश उत्साही
2009
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