बंगलौर आया तो दिनचर्या पूरी बदल गई। सुबह उठकर रोजमर्रा के कामों से निपटकर साढ़े आठ बजे तक दफ्तर पहुंचने की जल्दी। उधर शाम को छह बजे दफ्तर से निकलने पर खरामा-खरामा कदमों से घर पहुंचना। साथी जो कुछ भी खाना बना रहे हों, उनकी मदद करना। खाना और बस एफएम रेडियो या विविध भारती सुनते हुए सो जाना।
सुबह उठकर फिर वही क्रम। इस क्रम में शुरू के दिनों में जो शामिल था, वह था दाढ़ी बनाना। कई बार दाढ़ी बनाने का समय ही नहीं होता । एक दिन साथ रह रहे निराग ने उकसाया। अरे आप रोज-रोज समय क्यों बरबाद करते हैं। आप तो दाढ़ी बढ़ाईए। आप पर फबेगी। फिर आप तो कवि हैं। आपको दाढ़ी रखनी चाहिए। उसके तर्कों में दम नहीं था।
पर मेरे मन में यह ख्याल आया कि दाढ़ी बढ़ाकर देखना चाहिए। कैसा लगूंगा मैं। अब तक कभी हफ्ते भर से ज्यादा की दाढ़ी नहीं रखी थी। जब भी जुर्रत की घर वालों ने डांट दिया। कभी बाहर वालों ने कहा क्यों जी क्या गम है? या फिर आप तो रहने ही दीजिए आप पर सूट नहीं करती।
मैंने सोचा यह नई जगह है। मेरी कोई तय छवि पहले से है भी नहीं। यहां न तो डांटने के लिए घर वाले हैं न टोकने के लिए बाहर वाले। तो बस जी कड़ा करके दाढ़ी को बढ़ाना शुरू किया। जी कड़ा इसलिए क्योंकि जब भी चेहरे पर हथेली जाती दाढ़ी के कड़क बाल चुभते। कभी आइने के सामने चेहरा आ जाता तो लगता कि ये कौन आदमी है। फिर याद आता कि अरे ये तो अपन ही हैं।
दाढ़ी बढ़ी तो जैसे सवालों की बाढ़ आ गई। यहां भी तरह-तरह के सवाल होने लगे। क्यों जी घर की याद सता रही है? ये देवदास क्यों बन रहे हो? दाढ़ी बनाने का समय भी नहीं मिलता। कोई मन्नत है क्या? पर इस बार मैंने तय किया कि अब कोई कुछ भी कहे, दाढ़ी बढ़ाकर ही मानूंगा। यहां दफ्तर में जो बॉस हैं वे भी दाढ़ी रखते हैं। एक दिन मेरे केबिन में आकर उन्होंने भी पूछ ही लिया, क्या इरादा है? जैसे पूछ रहे हों, मुझसे काम्पटीशन कर रहे हो। मैं बस मुस्करा दिया। अरूण साथ में काम करते हैं, खुद अपनी दाढ़ी पर प्रयोग करते रहते हैं। कभी पूरी दाढ़ी रखते हैं तो कभी फ्रेंचकट और कभी क्लीनशेव। उन्होंने कहा आप तो अब निशब्द के अभिताभ लग रहे हैं।
लोग जो भी कहें एक अंतर तो मुझे समझ आया। वैसे पूरे सिर पर सफेद-काले बालों की खिचड़ी नजर आती है। और चेहरे पर मूंछ कुछ इस तरह जैसे घड़ी के दो कांटे पौने चार बजा रहे हों। कई बार चेहरा कुछ अजीब नजर आता है। दाढ़ी से वह कम से कम किसी पंछी का संपूर्ण घोंसला तो नजर आता है। कुछ कुछ बया के घोंसले की तरह।
जब दाढ़ी अच्छी खासी बढ़ गई तो मैंने सोचा अब इस रूप में कुछ तस्वीर उतरवा ली जाएं। पर कैमरा नहीं था। दफ्तर में एक-दो साथियों से यह तमन्ना जाहिर की तो उन्होंने अपने मोबाइल फोन से तस्वीरें उतार लीं। पर उसमें पूरा रूप उभरा नहीं। मैं एक स्टूडियो में गया और तस्वीर उतरवाकर पैनड्राइव में ले आया। ईमेल के जरिए घर वालों को, परिचितों को भेज दी। जो प्रतिक्रियाएं आईं वे चौंकाने वाली थीं। एक दाढ़ी आपका चेहरा ही नहीं पूरे व्यक्तित्व में कितना कुछ बदल देती है। एक दाढ़ी आपको बताती है कि लोग आपको किस नजरिए से, किस परिप्रेक्ष्य से देखते हैं।
सबसे पहले तो बेटे उत्सव ने पूछा कि क्या आपने कम्प्यूटर में फोटोशाप प्रोग्राम में अपनी तस्वीर पर कुछ कलाकारी की है। फोटो पर ये दाढ़ी क्यों बनाई है? ऐसी ही प्रतिक्रिया एकलव्य में सहयोगी रही पारुल सोनी की थी। जब मैंने बताया कि यह असली है तो बेटे की प्रतिक्रिया थी, तुरंत उतार दो, गुंडे लग रहे हो। उसकी इस टिप्पणी से मुझे यह भी समझ आ गया कि उसकी अवधारणा में गुंडों की एक पहचान दाढ़ी है। दाढ़ी वाले सभी सज्जन मेरे बेटे को माफ करें, क्योंकि वह नहीं जानता कि उसने क्या कह दिया।
उधर मुम्बई में बहन के बेटे हर्षित ने मेल भेजा-वाह मामाजी स्मार्ट लग रहे हो, पैंतीस साल के। लगे रहो मामाजी। हर्षित जहां रहता है वहां से ऐसी प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक ही है। पत्नी निर्मला ने कहा-बौद्धिक लग रहे हो। खुदा खैर करे। सबसे ज्यादा डर तो इनकी प्रतिक्रिया का ही था। पत्नी ने स्पष्टीकरण दिया। खरपतवार की तरह छोटी दाढ़ी अच्छी नहीं लगती। हां, यह चेहरे पर धान की तरह लहलहा उठी है तो बेहतर लग रही है। जी नहीं, निर्मला किसान परिवार से नहीं हैं। हां वह कालेज में हिन्दी की प्राध्यापिका जरूर रहीं हैं। इसलिए ऐसी अलकांरयुक्त भाषा में बात करना उन्हें अच्छा लगता है।
देवास एकलव्य से दिनेश पटेल का मैसेज आया-दार्शनिक लग रहे हो। याद आया कि लोग अक्सर पूछते हैं यार तुम इतने उदास क्यों दिखते हो। चलो दाढ़ी बढ़ने से उदासी दार्शनिकता में तो बदल गई। भोपाल में संदीप नाइक ने कहा- लगभग कवि त्रिलोचन जैसे लग रहे हो। अपन ने दोनों हाथ कान से लगाए। कवि तो अपन भी हैं। पर कहां उस्ताद त्रिलोचन और कहां अपन।
जब दाढ़ी अच्छी खासी बढ़ गई तो मैंने सोचा अब इस रूप में कुछ तस्वीर उतरवा ली जाएं। पर कैमरा नहीं था। दफ्तर में एक-दो साथियों से यह तमन्ना जाहिर की तो उन्होंने अपने मोबाइल फोन से तस्वीरें उतार लीं। पर उसमें पूरा रूप उभरा नहीं। मैं एक स्टूडियो में गया और तस्वीर उतरवाकर पैनड्राइव में ले आया। ईमेल के जरिए घर वालों को, परिचितों को भेज दी। जो प्रतिक्रियाएं आईं वे चौंकाने वाली थीं। एक दाढ़ी आपका चेहरा ही नहीं पूरे व्यक्तित्व में कितना कुछ बदल देती है। एक दाढ़ी आपको बताती है कि लोग आपको किस नजरिए से, किस परिप्रेक्ष्य से देखते हैं।
सबसे पहले तो बेटे उत्सव ने पूछा कि क्या आपने कम्प्यूटर में फोटोशाप प्रोग्राम में अपनी तस्वीर पर कुछ कलाकारी की है। फोटो पर ये दाढ़ी क्यों बनाई है? ऐसी ही प्रतिक्रिया एकलव्य में सहयोगी रही पारुल सोनी की थी। जब मैंने बताया कि यह असली है तो बेटे की प्रतिक्रिया थी, तुरंत उतार दो, गुंडे लग रहे हो। उसकी इस टिप्पणी से मुझे यह भी समझ आ गया कि उसकी अवधारणा में गुंडों की एक पहचान दाढ़ी है। दाढ़ी वाले सभी सज्जन मेरे बेटे को माफ करें, क्योंकि वह नहीं जानता कि उसने क्या कह दिया।
उधर मुम्बई में बहन के बेटे हर्षित ने मेल भेजा-वाह मामाजी स्मार्ट लग रहे हो, पैंतीस साल के। लगे रहो मामाजी। हर्षित जहां रहता है वहां से ऐसी प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक ही है। पत्नी निर्मला ने कहा-बौद्धिक लग रहे हो। खुदा खैर करे। सबसे ज्यादा डर तो इनकी प्रतिक्रिया का ही था। पत्नी ने स्पष्टीकरण दिया। खरपतवार की तरह छोटी दाढ़ी अच्छी नहीं लगती। हां, यह चेहरे पर धान की तरह लहलहा उठी है तो बेहतर लग रही है। जी नहीं, निर्मला किसान परिवार से नहीं हैं। हां वह कालेज में हिन्दी की प्राध्यापिका जरूर रहीं हैं। इसलिए ऐसी अलकांरयुक्त भाषा में बात करना उन्हें अच्छा लगता है।
देवास एकलव्य से दिनेश पटेल का मैसेज आया-दार्शनिक लग रहे हो। याद आया कि लोग अक्सर पूछते हैं यार तुम इतने उदास क्यों दिखते हो। चलो दाढ़ी बढ़ने से उदासी दार्शनिकता में तो बदल गई। भोपाल में संदीप नाइक ने कहा- लगभग कवि त्रिलोचन जैसे लग रहे हो। अपन ने दोनों हाथ कान से लगाए। कवि तो अपन भी हैं। पर कहां उस्ताद त्रिलोचन और कहां अपन।
भोपाल में रूम टू रीड के राज्य समन्वयक विजय आनंद वर्मा ने कहा- हमने तो सुना था कि आप बंगलौर गए हैं। लगता तो नहीं है कि आप बंगलौर में हैं।
होशंगाबाद एकलव्य में माधव केलकर ने कहा-अकबर,बीरबल का किस्सा याद आ गया। जिसमें अकबर के गुजर गए पूर्वजों के लिए नाई को भेजने की बात आती है। पर बंगलौर में तो नाई होंगे ही न।
वहीं एकलव्य होशंगाबाद के पुराने साथी रामभरोस यादव को यकीन ही नहीं हुआ कि मैंने दाढ़ी रख ली है। एकलव्य भोपाल में कार्तिक शर्मा दाढ़ी बढ़ाते और घटाते रहते हैं। उन्होंने कहा-पहले कभी नहीं देखा आपको इस रूप में। पर अच्छा है। अर्चना रस्तोगी ने फरमाया-फनी बट क्यूट ।
बहरहाल ऐसी तमाम प्रतिक्रियाएं आईं। फिर भोपाल जाने का कार्यक्रम बना तो सोचा कि जब दूर हूं तो इतनी तरह की प्रतिक्रियाएं आईं। वहां जाऊंगा तो कितने जवाब देने पड़ेंगे। जिन्होंने फोटो नहीं देखा है वे भी देखकर पूछेंगे। मन आगे पीछे हो रहा था, रखूं या न रखूं। पर रहा सहा उत्साह यहां बंगलौर की एक-दो प्रतिक्रियाओं ने ठंडा कर दिया। दफ्तर की सहकर्मी किन्नरी ने कहा ऐसी सूरत लेकर भोपाल जाएंगे तो घर वाले वापस ही नहीं आने देंगे। एक और सहकर्मी सरस्वती ने एक पुराना फोटो देखकर कहा आप बिना दाढ़ी के सुंदर लगते हैं, दफा कीजिए इसे।
इसलिए एक दिन जी कड़ा करके दाढ़ी उतारवा डाली। हां जी बढ़ाते समय भी जी कड़ा करना पड़ा और कटाते समय भी। यकीन मानिये मुझे यह तय करने में आधा घंटा लगा। हेयर कटिंग सैलून में दो बार कुर्सी पर से उतर आया। मुझे लगा कि तीसरी बार उतरा तो सैलून का मालिक मुझे धक्के मारकर बाहर निकाल देगा। इसलिए तीसरी बार आंख बंद करके जो बैठा तो दाढ़ी उतरने के बाद ही उतरा। मन ही मन एक पुराना जुमला याद कर रहा था कि अरे ये तो घर की खेती है जब मन होगा उगा लेंगे।
बंगलौर में मिली जुली प्रतिक्रियाएं हुईं। जब भोपाल पहुंचा तो ऐसा लगा जैसे वहां मेरा नहीं दाढ़ी का इंतजार हो रहा था। घर के दरवाजे पर पत्नी ने देखते से ही कहा-अरे दाढ़ी कहां है? बेटा कबीर जो मुझे लेने स्टेशन आया था, उसने बताया कि वह तो मुझे दाढ़ी वालों में ढूंढ रहा था। एकलव्य गया तो वहां भी सबका बस एक ही सवाल था कि दाढ़ी कहां है। अब सबको पूरी रामकहानी बताओ। उसके बाद भी लोग संतुष्ट नहीं। वादा करना पड़ा कि अगली बार दाढ़ी समेत ही आना है।
एकलव्य में जाने-माने साहित्यकार उदयन वाजपेयी से भेंट हो गई। बात निकली तो उन्होंने भी फोटो देखा और देखते ही बोले-आप तो हैदराबाद के सुलेमान भाई लग रहे हैं।
लौटते हुए लखनऊ होकर आया। वहां नालंदा में दोस्त प्रियंका साहू ने कहा ऐसा लगता है कि ये फोटो वाले जनाब कहीं लखनऊ की गलियों में रहते हैं।
सच तो यह है कि मुझे भी लगा कि दाढ़ी से मेरे व्यक्तित्व में एक अलग तरह का तेवर नजर आने लगता है। सोचता हूं कि एक बार फिर यह प्रयोग किया जाए। आपका क्या ख्याल है?
राजेश जी ,
ReplyDeleteअब इससे ज्यादा दाढ़ी मत baddhaiyega वर्ना ....
बहरहाल आपकी ये दाढ़ी चर्चा पसंद आयी ...अच्छा लेख .
हेमंत कुमार
आप सम्राट अकबर से भी महान हो गये,
ReplyDeleteउनकी दाढ़ी भी चर्चा मे आई थी,
जब एक बार उन्होने दाढ़ी बनाई थी,
तब चर्चा का आनंद लेने वाले कम थे,
आज फिर इतिहास दोहराया है,
आपके दाढ़ी की चर्चा
लाखों लोगो के बीच मे छाया है.
आप क्लीन शेव ज्यादा अच्छी दीखते हैं क्या ये सब,...... ??? :)
ReplyDeleteवीनस केसरी
rajesh bhai, aapki daadhi ki kahani mein bhi apki kissagoi ki poori jhalak hai! photo mein jitne gambheer dikh rahe hain, lagta nahin yah shakhs itna rochak gadya likhne waala hoga!!
ReplyDeleteउत्साही जी, मैंने तो आपको सबसे पहले फोटो में ही देखा था, वही दाढ़ीवाले फोटो में। इसलिए जब आप राम मन्दिर के पास क्लीन-शेव्ड खड़े दिखे तो आपने नोट किया होगा कि पहले हाथ हिलाने का मौका मैंने आपको ही दिया था। हुआ यूँ कि मेन रोड से जब आपके 'मोरी गेट' की ओर मुड़ रहे थे तो एक क्लीन-शेव्ड सज्जन किसी को बिल्कुल वैसे ही हाथ लहराकर अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे। बेटे ने कहा--यही तो नहीं हैं? यही होते तो दो-ढाई किलोमीटर अन्दर आने का निर्देश क्यों देते? मैंने कहा। उस गली में घुस जाने और पीछे मुड़कर देखने पर पता चला कि वह सज्जन किसी महिला को रिसीव करने उस मोड़ पर खड़े थे। आप हाथ न हिलाकर अनजान बने रहने का दाँव खेलते तो मैं काफी हद तक चकमे में आ जाता। मैं तो वास्तव में दाढ़ीवाले उत्साही से ही मिलने गया था। बिना दाढ़ी के आदमी कम-उम्र दिखता है और लुभावना भी। इसलिए आपके भोपाल जाने से पहले जो सलाह आपके सहकर्मियों ने दी और हिम्मत करके जो त्याग आपने किया, अच्छा ही किया।
ReplyDeleteदेख्नने वाले आपके बाहरी आवरण को देख कर आपके बारे मे कयास लगाते रहेंगे. परन्तु ये आपको पता है, की दाढी बढाने के पहले भी और उसके बाद भी आप वही राजेश उत्साही जी है.
ReplyDeleteबाकी सब नज़र क धोखा है.
namestey bsir
ReplyDeletenamestey sir
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