Wednesday, October 14, 2009

नाजिम हिकमत की कविताएं

बंगलौर आकर मैंने अपने ब्‍लाग गुल्‍लक को सक्रिय करने की कोशिश की। गुल्‍लक के मार्फत ही एक नए दोस्‍त  मिले दिनेश श्रीनेत। यहां वनइंडिया के हिन्‍दी पोर्टल के संपादक थे। थे इसलिए कह रहा हूं कि इस महीने की पहली तारीख को ही उन्‍होंने कानपुर में जागरण में नई जिम्‍मेदारी संभाल ली है। वहां भी उन्‍हें हिन्‍दी पोर्टल पर ही काम करना है। दिनेश ने ही मुझे इस बात के लिए उकसाया कि मैं वनइंडिया के लिए शिक्षा के मुद्दों पर जनसंवाद में लिखूं। मैंने लिखा और अब भी लिख रहा हूं।

एक दिन दिनेश अपने घर ले गए थे। उनके घर की दिलचस्‍प यात्रा के बारे में मैंने अपने दूसरे ब्‍लाग यायावरी में लिखा है। वहां उनकी किताबों की अलमारी में मुझे ऐसी बहुत सी किताबें दिखीं,जिन्‍हें मैं पढ़ना चाहता था। एक किताब मैं साथ ले आया। यह है बीसवीं सदी के महान क्रांतिकारी तुर्की कवि नाजिम हिकमत की कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘देखेंगे उजले दिन’। कविताओं का चयन और अनुवाद सुरेश सलिल जी ने किया है। यह संग्रह 2003 में मेधा बुक्‍स से प्रकाशित हुआ है। संग्रह में तिरपन कविताओं के साथ नाजिम हिकमत का विस्‍तृत परिचय भी है। 

नाजिम हिकमत को मैं उनकी दो कविताओं की वजह से जानता रहा हूं। पहली है- ‘तुम्‍हारे हाथ और उनके झूठ’। इस कविता का पहला हिस्‍सा हम लोगों ने  1987 में चकमक बाल विज्ञान पत्रिका के एक अंक में पोस्‍टर कविता के रूप में प्रकाशित किया था। चकमक का यह अंक हाथ पर केन्द्रित था। दूसरी कविता है- ‘पॉल राब्‍सन के लिए’। यह कविता गीत के रूप में जनांदोलन में बहुत गाई जाती रही है। यूं नाजिम की कई अन्‍य कविताएं लघु पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रही हैं। पर एक साथ इतनी कविताओं को एक जगह पढ़ने का यह मेरा पहला मौका था।

संयोग कुछ ऐसा हुआ कि दिनेश भाई को यह संग्रह मैं चाहकर भी वापस नहीं कर पाया और वे कानपुर चले गए। मुझे पता है कि यह संग्रह दिनेश के लिए बहुत महत्‍व रखता है।

बहरहाल मैं जब भी संग्रह उठाता हूं उसे छोड़ने का मन नहीं करता । हर कविता हर बार एक नए अर्थ में सामने आती है। यह कमाल सुरेश सलिल जी के अनुवाद का भी है। संग्रह के फ्लैप पर लिखा है, ‘ कविता के रसज्ञ के नाते हमारी यह इच्‍छा तो रहती ही है कि किसी कविता के अनुवाद में उसके कवि का खास अपना स्‍वर भी बजता हुआ भावक को सुनाई दे। ’ इसी में आगे लिखा है, ‘ यहां हिंदी के उस श्रोता समाज को भी ध्‍यान में रखा गया है जिसका कविता-मात्र से भले ही कोई खास लेन-देन न हो,भाषा पर जिसकी पकड़ न हो, लेकिन जो भावनाओं के आवेग को पहचानता है और उस पर प्रतिक्रिया भी करता है।’ मुझे लगता है संग्रह दोनों ही कसौटियों पर खरा उतरता है।

यहां इस संग्रह से कुछ कविताएं साभार प्रस्‍तुत हैं।
।। मेरी शायरी।।
चांदी की काठी वाला घोड़ा नहीं है मेरे पास सवारी के लिए
नहीं है गुज़ारे के लिए कोई विरासत
ज़र न ज़मीन
कुल जमा शहद की एक हांडी है मेरे पास
आग की लपटों जैसे शहद की हांडी।

मेरा शहद ही मेरा सब कुछ है
सभी किस्‍म के कीड़े-मकोड़ों से
हिफ़ाजत करता हूं मैं अपने ज़र-ज़मीन की
मेरा मतलब अपनी शहद की हांडी की।
ज़रा ठहरो,बिरादर
मेरी हांडी में जब तक शहद है
टिम्‍बकटू से भी आएंगी
मधुमक्खियां उसके पास।

।।बीसवीं सदी।।
’जानेमन आओ अब सो जाएं
और जगें सौ साल बाद’

नहीं
मैं भगोड़ा नहीं
अलावा इसके,अपनी सदी से मैं भयभीत नहीं।
मुसीबतों की मारी मेरी यह सदी
शर्म से झेंपी हुई
हिम्‍मत से भरी हुई मेरी यह सदी
बुलंद और दिलेर
मुझे कभी अफसोस नहीं हुआ
कि क्‍यों इतनी जल्‍दी पैदा हो गया।

बीसवीं सदी में पैदा हुआ
फ़ख्र है इसका मुझे
जहां भी हूं अपने लोगों के बीच हूं,काफी है मेरे‍ लिए
और यह कि एक नई दुनिया के लिए मुझे लड़ना है

‘जानेमन सौ साल बाद’
मगर नहीं,पहले ही उसके और सब कुछ के बावजूद
मरती और फिर-फिर पैदा होती हुई मेरी सदी
मेरी सदी,जिसके आखिरी दिन ख़ूबसूरत होंगे
सूरज की रोशनी जैसी खुल-खुलेगी मेरी सदी
जानेमन,तुम्‍हारी आंखों की तरह।
(1941)

।।हल्‍की हरी हैं मेरी महबूबा की आंखें।।
हल्‍की हरी हैं मेरी महबूबा की आंखें
हरी
जैसे अभी अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेश्‍मी दरख्‍त
हरी
जैसे सोने के पत्‍तर पर
हरी मीनाकारी

ये कैसा माजरा, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए।

मैं यहां बूढ़ा हुआ
वह वहां।
मेरी दुख्‍तर-बीवी
तुम्‍हारी गुदाज़-गोरी गर्दन पर
अब सलवटें उभर रहीं हैं।

सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना।
जिस्‍म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,

उम्र का बढ़ना
बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है जो इश्‍क नहीं कर सकते।
(1947)

।। तुम्‍हारे हाथ।।
तुम्‍हारे हाथ
पत्‍थरों जैसे मजबूत
जेलखाने की धुनों जैसे उदास
बोझा खींचने वाले जानवरों जैसे भारी-भरकम
तुम्‍हारे हाथ जैसे भूखे बच्‍चों के तमतमाए चेहरे

तुम्‍हारे हाथ
शहद की मक्खियों जैसे मेहनती और निपुण
दूध भरी छातियों जैसे भारी
कुदरत जैसे दिलेर तुम्‍हारे हाथ,
तुम्‍हारे हाथ खुरदरी चमड़ी के नीचे छिपाए अपनी
दोस्‍ताना कोमलता।

दुनिया गाय-बैलों के सींगों पर नहीं टिकी है
दुनिया को ढोते हैं तुम्‍हारे हाथ।
(‘तुम्‍हारे हाथ और उनके झूठ’ कविता का एक हिस्‍सा,1949)

।।यही तो सवाल है।।
दुनिया की सारी दौलत से पूरी नहीं हो सकती उनकी हवस
चाहते हैं बनाना वे ढेर सारी रकम
उनके लिए दौलत के अंबार लगाने के लिए
तुम्‍हें मारना होगा औरों को,खुद भी मरना होगा दम-ब-दम।

झांसा पट्टी में उनकी आना है?
या धता बताना है?
तुम्‍हारे सामने यही तो सवाल है!
झांसें में न आए तो जियोगे ता-क़यामत
और अगर आ गए तो मरना हरहाल है।
(1951)(लंबी कविता का एक अंश)
(नाजिम में ज़ इस तरह होना चाहिए। पर यहां कम्‍प्‍यूटर की तकनीक की वजह से यहां ज़ में ि‍ मात्रा लगाते ही नुक्‍ता गायब हो जाता है। कृपया नाजिम को नुक्‍ते के साथ ही पढ़ें।)
 
   

3 comments:

  1. कवि नाजिम हिकमत को पढ़कर आनन्द आ गया. आपका आभार और इनडारेक्ट आभार दिनेश श्रीनेत्र जी का भी. :)

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  2. bahut bahut aabhari hain aapke kavi Hikmat ki rachnaaon ko padhwaane ke liye..
    dhanyawaad..

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  3. नाजिम हिकमत की कविताएँ पढकर मज़ा आ गया, आपका आभार. नाजिम हिकमत पर एक पहल-पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, ये कविताएँ पढकर उसकी सुध आई. अब अलमारी टटोलता हूँ...

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