बचपन के दिन कुछ इस तरह याद आएं
कहीं से टूटे खिलौने जैसे बच्चे ढूंढ लाएं
रेल के खेल की कूकू, खेलना पहाड़-पानी
कभी गिल्ली-डंडा, कभी बेबात शर्त लगाएं
खेल वो आती-पाती, मिट्टी का घर-घूला
बरसती धूप में ,जब तब अंटियां चटकाएं
दादी की कहानी, सरासर गप्प नानी की
जब बाबूजी डांट दें,तो गा लोरी मां सुलाएं
सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
सूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं
गड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
राह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं
बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूट जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं
नीम की मीठी निबोली,सावन के वो झूले
पेंग लें ऊंची गुईंयां, जम के हम झुलाएं
घुटना टेक ही सही, या खड़े रहें बेंच पर
पन्ने फाड़कर कापी से, हवाई जहाज बनाएं
वो छुप-छुप के देखना, निहारना उसको
रहना मोड़ पर,निकल के जब स्कूल जाएं
काश अगर हो कहीं बैंक अपने बचपन का
चलो उत्साही कुछ और लम्हे निकाल लाएं
*राजेश उत्साही
राजेश भाई , बचपन हम लोगों ने जैसा बिताया, क्या हमारे बाद की पीढी भी अपने बचपन को इसी तरह याद करेगी ..?..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कविता। बचपन की तस्वीर सामने आ खड़ी हुयी। शरद जी ठीक कहते हैं। जो हमने प्रकृति के साथ सरल बचपन बिताया वो आज के बच्चे जानते ही नहीं। वो कमप्यूटर और टी वी में मनोरंजन तलाश रहे हैं।
ReplyDeleteगड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
ReplyDeleteराह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं
बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूटें जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं
-बहुत खूब याद किया बचपन!!
bahut hi badhiya kavita bachpan ki yaad aa gayi
ReplyDeletewaah waah
ReplyDeletebahut khoob
kya baat hai ?
_____________maza aa gaya
BADHAAI !
सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
ReplyDeleteसूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं
bahut sunder
आपने अपने मनमोहक कविता से बचपन के याद दिला दिए,बहुत ही सुंदर कविता है जिसमे हम एक बार फिर चाहे तो बचपन का शैर कर के चले आएँ
ReplyDeleteवो दिन ही बड़े अजीब होते है..अनमोल क्षण जिसके बस याद ही रह जाते है.जिन्हे आप जैसे लोग अपने सुंदर रचनाओं से फिर से कागज के पन्नों
और इस ब्लॉग संसार मे अमर कर देते है.
शरद भाई सवाल यह भी है कि हमने अपने बच्चों को वह बचपन दिया भी है कि नहीं। याद तो वे वही करेंगे जो उन्होंने जिया है। दूसरी बात यह है कि हमारे बचपन के समय और उनके समय में बहुत फर्क है। वह हमें स्वीकार करना होगा। रानी जी हमें इस पर विचार करना होगा कि वे कम्प्यूटर और टीवी में मनोरंजन तलाश रहे हैं या हम उन्हें दे रहे हैं। विनोद भाई बचपन सबको याद है। बात यही है कि हम उसे याद कैसे करते हैं।
ReplyDeleteBachpan se yuva aur phir Prodha awastha tak pahunchate-pahunchate bachpan ki Mala ke Moti bikhar chuke hote hain.Rajesh ji apne un bikhare motion ko aktrit kar punah Mala mein piro diya hai. Lagta hai ki yeh sabhee mere bachpan ki ghatnaye hai.
ReplyDeleteYadi sambhav ho to apni is kavita ko mere blog Bachpan ki Talash par post kar dijiye.
' बचपन जैसी भोली रचना ' स्वर्णिम बचपन में ले जाने के लिए धन्यवाद उत्साही जी !
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