Friday, April 10, 2009

छोकरा कविताएं और उनका छुकरपना

मेरी ये कविताएं 1982-83 के आसपास की हैं। तब मेरी योजना थी कि छोकरा शीर्षक से कुछ नहीं तो दस-बारह कविताएं लिखूंगा। पर बात तीन से आगे नहीं बढ़ी।

सबसे पहले इन कविताओं को 1984 में चंडीगढ़ विश्‍वविद्यालय के कैम्‍पस से निकलने वाली एक सायक्‍लोस्‍टाइल पत्रिका हमकलम में जगह मिली। यह पत्रिका आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्‍ताक्षर लाल्‍टू और रूस्‍तमसिंह अपने साथियों के साथ मिलकर निकालते थे। रूस्‍तम भी सुपरिचित कवि,अनुवादक और संपादक हैं। एक जमाने में वे इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली (ईपीडब्‍ल्‍यू) में थे। फिर कुछ समय महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के संपादक रहे। आजकल एकलव्‍य के प्रकाशन कार्यक्रम में कार्यरत हैं।

हमकलम में इन कविताओं को इनके चरित्र के अनुरूप बने चित्रों के साथ छापा गया था। जो पाठक सायक्‍लोस्‍टाइल तकनॉलॉजी को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि स्‍टेंसिल पर चित्र बनाना कितने धैर्य का काम है। ये चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। कैरन आज जानी-मानी चित्रकार हैं। महिला आंदोलन से जुड़े तमाम साहित्‍य में उनके चित्र देखे जा सकते हैं। उनके चित्रों में पेन की रेखाओं और पेन से बने बिन्‍दुओं का गजब का मिश्रण होता है। पत्रिका के आवरण पर मेरी कविता का ही चित्र था। कविताएं भी टाइप नहीं की गई थीं, हस्‍तलिपि में थीं।

इन कविताओं का एक बहुत-ही अनोखा इस्‍तेमाल दुनु राय और उनके साथियों ने मप्र के शहडोल जिले के अनूपपुर कस्‍बे में किया था। वे उन दिनों वहां एक संस्‍था विदूषक कारखाना से जुड़े थे। असल में संस्‍था बनाने वालों में से दुनु राय स्‍वयं एक थे। दुनु राय इंजीनियर हैं, पर आज उनकी पहचान एक समाजशास्‍त्री, पर्यावरणविद् और शिक्षाशास्‍त्री,लेखक के रूप में कहीं अधिक है। उन्‍होंने मेरी इन कविताओं को टाट से बने बड़े साइनबोर्ड पर लिखवाकर अनूपपुर के एक चौराहे पर लटकाया था। यह भी 1984-85 की बात है। अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की बात होगी, पर मेरी इन कविताओं में कुछ तो बात है।

इसका एक और वाकया है। मप्र साहित्‍य परिषद की एक पत्रिका है साक्षात्‍कार । 1982 में मेरी एक कविता नूर मोहम्‍मद और उसका घोड़ा उसमें प्रकाशित हुई थी। उन दिनों सोमदत्‍त संपादक थे। सोमदत्‍त जी ने कुछ संपादकीय का सुझाव देते हुए कविता मुझे वापस भेजी और कहा कि अगर आप कविता का कुछ हिस्‍सा निकाल दें तो देखेंगे कि कविता में कितनी कसावट आ जाती है। सचमुच सोमदत्‍त जी ने मुझे एक नई दृष्टि दे दी थी। मैंने स्‍वयं कविता का संपादन किया और सोमदत्‍त जी को भेज दी। कविता साक्षात्‍कार में प्रकाशित हुई। साक्षात्‍कार के इसी अंक में हरिशंकर परसाई का एक व्‍यंग्‍य लेख भी था। बाएं पृष्‍ठ पर मेरी कविता थी और दाएं पृष्‍ठ से परसाई जी का लेख शुरू होता था। मेरे जैसे नौजवान लेखक के लिए यह भी एक उपलब्धि थी। बहरहाल मैंने उत्‍साहित होकर कुछ समय बाद अपनी दस-बारह कविताएं साक्षात्‍कार में प्रकाशन के लिए भेज दीं। बहुत दिनों तक उनका कोई जवाब नहीं आया। लगभग चार साल बाद 1987 में मुझे एक सूचना मिली। रायपुर में मप्र की युवाकविता समारोह किया जा रहा है। आयोजन मप्र हिन्‍दी साहित्‍य परिषद कर रही है। चुने हुए युवा कवियों में मेरा नाम भी था। समारोह की अध्‍यक्षता त्रिलोचन जी कर रहे थे। जहां तक मुझे याद है हम सात या आठ कवियों को उसमें शिरकत करना थी। अपने अलावा तीन नाम मुझे याद हैं। एक नाम है आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्‍ताक्षर कुमार अंबुज का । दूसरा नाम जाने-माने व्‍यंग्‍यकार कैलाश मंडलेकर का और तीसरा नाम शायद मेरी ही तरह कहीं खो गए राजीव सभरवाल का। जो कविताएं मुझे इस समारोह में पढ़नी थीं, उनमें ये तीन भी शामिल थीं। अफसोस की बात यह है कि इस समारोह में मैं नहीं जा पाया। यह अफसोस मुझे अब तक है। समारोह बहुत सफल रहा था। मुझे लगता है इस समारोह में अगर मैं जा पाता तो शायद मेरे लेखन की दिशा ही कुछ और होती।

न जा पाने का कारण भी खास था। पहले समारोह मई में आयोजित था। मैंने जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। फिर किसी कारण से समारोह जुलाई में स्‍थानातंरित कर दिया गया। मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था। जुलाई में कुछ स्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे पत्‍नी निर्मला और एक साल के बेटे कबीर को लेकर भोपाल स्‍थानांतरित होना पड़ा। खैर फिर मैं सब कुछ भूलकर चकमक में रम गया। 1990 के आसपास हम लोगों ने चकमक का एक अंक बालश्रम पर निकाला। इस अंक में इनमें से दो कविताएं प्रकाशित की गईं थीं। चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। तो चलिए अब आप भी पढ़ लीजिए।

छोकरा : एक

हाथों
में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है छोकरा
झाडू़ बांधकर रस्‍सी में

मिलता है
रेलगाड़ी के डिब्‍बे में
अक्‍सर
बदन पर होती है एक
फटी,मैली-कुचैली
बनियान/कमीज और निकर
या निकर जैसी कोई चीज

घुस आता है
पैरों में
बिना कुछ कहे,
करता है सफाई झुककर
पैर
आगे-पीछे
ऊपर नीचे उठते हैं/सरकते हैं/हटते हैं
खिंचते हैं


छोकरा
साफ करता है
बीड़ी-सिगरेट के टोंटे
मूंगफली के छिलके
छिलके संतरे के
छिलके फलों के

इस उम्र में
जब साफ करने चाहिए
उसे अपनी स्‍लेट,अपनी कलम
अपना घर, अपना स्‍कूल
भविष्‍य की राह में आने वाले शूल

फैल जाती है
उसकी हथेली
दो सेकेण्‍ड ठहरता है वह
हर एक के सामने
हर एक के सामने होती है घड़ी अपने में
इंसान की उपस्थिति का
अहसास कराने की

जो सोचते हैं
वे केवल सोचते रहते हैं
अपने में इंसानियत की बात
छोकरा मांगता नहीं है भीख
बढ़ जाता है आगे
फैलाए अपनी हथेली

इस उम्र में
जब फैलनी चाहिए
मास्‍साब के सामने
पाने के लिए सजा
पाने के लिए इनाम

छोकरा
हाथों में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है
झाडू़ बांधकर रस्‍सी में ।
0 राजेश उत्‍साही
छोकरा : दो

छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्‍बों वाला बेडौल झोला

झोले में
बिल्‍ली छाप पालिश होता है
चेरी ब्‍लासम की डिब्‍बी में
काला और लाल

ब्रश होते हैं
मोटी और पतली नोकों वाले
नरम और सख्‍त बालों वाले
होते हैं कुछ
पुराने कपडे़ झोले में

उतरी हुई
स्‍कूल यूनीफार्म पहने
किसी की
घूमता रहता है
बस अड्डे,रेल्‍वे स्‍टेशन
बाग या भीड़ में

उसकी नजरें ढूंढती हैं
सिर्फ चमड़े के चप्‍पल-जूते
वाले पैर
ढेर सारे पैर

पैरों पर टिका होता है
उसका अर्थशास्‍त्र
मां को देने के लिए
बाप को दिलाने के लिए शराब
और अपनी शाम की पिक्‍चर का बजट

हर वक्‍त
देखता है छोकरा नीचे
देखता है पैरों की हरकत
बोलता है बस एक वाक्‍य
‘साब पालिश, बहिन जी पालिश’

कुछ खींच लेते हैं
पैर पीछे
कुछ बढ़ा देते हैं
पैर आगे

वह उतारता है
सलीके से चप्‍पल पैर से
पैर से जूते
साफ करता है
धूल-मिट्टी ऐसे
जैसे साफ करती है मां
उसका चेहरा

वह चमकाता है
जूते को,चप्‍पल को
और बकौल चेरी ब्‍लासम के
साब की किस्‍मत को

कहता है लीजिए साब
देखिए अपना चेहरा
साब झुककर देखते हैं अपना
चेहरा जूते में

थूक देता है
छोकरा
साब के चेहरे पर
जूते में
और फिर चमकाने लगता है
जूता

जूता
चकमाता है छोकरे को
छोकरा
चमकाता है जूते को


छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्‍बों वाला बेडौल झोला
0 राजेश उत्‍साही
छोकरा : तीन

छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्‍सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े

फंसाकर उंगलियों के बीच
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा

मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा

छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में

छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र

छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्‍सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
0 राजेश उत्‍साही

3 comments:

  1. kya tasviir khichii hai aapne..samaj ke is barso se chale aa rahe aboojh savalo ki ..
    or desh ki pragati or vikas kii

    yakinan kabil-e-tariif chintan

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  2. अब क्या कहूं.
    तारीफ के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास.
    ये कवितायेँ नहीं समाज का आइना हैं

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  3. अच्‍छा और सच्‍चा खींचा है चित्र
    चित्रों में है अपना समाज मित्र।

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