Sunday, April 26, 2009

किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं

किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं
समझे वही, जिसको अपनी कहन-सी लगे

मैं अपनी इन रचनाओं को ग़ज़ल कहता हूं। हो सकता है ग़ज़ल के जानकार इन्‍हें ग़ज़ल की कसौटी पर खरा न पाएं। उनकी समालोचना सिर-माथे।

मैंने ये ग़ज़लें वर्ष 2000 के आसपास लिखीं थीं। असल में वह पूरा एक साल ऐसा था जब मैंने लगभग तीस-चालीस कविताएं या ग़ज़ल लिखीं। इन्‍हें मैं एकलव्‍य में सार्वजनिक जगह पर एक थरमोकोल के बोर्ड पर लगता था। इन रचनाओं के ज्‍यादातर पाठक एकलव्‍य के साथी ही होते थे। पर एकलव्‍य में आने वाले लोग भी इन्‍हें पढ़ते ही थे। इनमें से एक-दो रचनाएं ऐसी भी हैं जिन्‍हें सुनकर(इन रचनाओं को मैंने एक सभा में सुनाया था) कुछ लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे।

मैं इन्‍हें फोटोकॉपी करके एकलव्‍य के अन्‍य केन्‍द्रों पर भी भेजता था। हरदा एकलव्‍य के कुछ साथी इनकी और प्रतियां बनाकर मित्रों केबीच बांटते थे। खैर। सच बात यह है कि ग़ज़ल लिखना शुरू करने से पहले मैंने दो किताबें भी खरीदीं,जो ग़ज़ल की बारीकियां बताती हैं। लेकिन यह भी सच है कि उन किताबों से मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। संभवत: वे भी हमारी पाठयपुस्‍तकों की तर्ज पर ही लिखी हुई हैं। मैंने उन्‍हें उठाकर एक तरफ रख दिया और जितना समझ में आया वैसा लिखा।

यहां प्रस्‍तुत इन ग़ज़लों को डॉ. रत्‍ना वर्मा ने अपनी पत्रिका udanti.com के दिसम्‍बर,2008 के अंक में बहुत सम्‍मान के साथ प्रकाशित किया। रत्‍ना जी यह पत्रिका रायपुर से निकालती हैं। पत्रिका कागज पर भी प्रकाशित होती है और इंटरनेट पर भी। इसे http://www.udanti.com/ पर देखा जा सकता है। अभी हाल ही में ये ग़ज़लें अविनाश वाचस्‍पति के ब्‍लाग नुक्‍कड़http://nukkadh.blogspot.com/ पर देखी गईं। वहां उत्‍साहजनक टिप्‍पणियां भी मिलीं। चूंकि गुल्‍लक मेरी रचनाओं की गुल्‍लक भी है, इसलिए मैं इन्‍हें यहां भी ले आया। ‍

॥ एक ॥

हवाओं में जहर हर तरफ मिला है
राह में जो बिछड़ा वो कब मिला है

फेफड़े हैं कुन्द और नब्ज भी मद्धम
बन्द है दिमाग ,मुंह भी तो सिला है

कदम दर कदम सोचकर चलने वालो,
आसपास तुम्‍हारे ये कौन-सा किला है

मत रहो घोड़े की सूं बांधकर पट्टी
राह में दाएं-बाएं भी उपवन खिला है

रूठे-मनाएं, या कि रूठ जाएं फिर से
जिन्दगी का तो यही सिलसिला है

पर्वत जो सामने है कोई बात नहीं
हैं अगर उत्साही तो बस वो हिला है

॥ दो ॥

मासूम सवालों का जमाना नहीं रहा
चालाक हैं सब ,कोई सयाना नहीं रहा

औरों की बुनियाद में हो गए पत्थर
खुद का चाहे कोई ठिकाना नहीं रहा

फटी हुई गुदड़ी के लाल हैं हम भी
अलग बात है, कोई घराना नहीं रहा

सी लिए होंठ सबने मूंद ली आंखें
शायद कसने को अब ताना नहीं रहा

बहारों के दरीचों पर है प्रवेश निषेध
जाएं कहां अब कोई वीराना नहीं रहा

समझेगा नहीं कोई मोहब्बत का जुनून
हीर-सी दीवानी,फरहाद दीवाना नहीं रहा

सिर-से पांव तक बदल गई है दुनिया
फैशन में कोई चलन पुराना नहीं रहा

आओ उत्साही से भी मिल लें चलकर
चर्चा में उसका कोई अफसाना नहीं रहा


** राजेश उत्‍साही

1 comment:

  1. किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं
    समझे वही, जिसको अपनी कहन-सी लगे
    बहुत सुंदर लिखा है

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