पीएल पटेल सेवानिवृति बनाम विदाई |
चाबी वाली अलार्म घड़ी बाबूजी ने रेल्वे की नौकरी
में आते ही खरीद ली थी। उनकी नौकरी ही कुछ
ऐसी ही थी। स्टेशन मास्टर होने के नाते उन्हें कभी रात को बारह बजे, तो कभी
सुबह आठ बजे, तो कभी शाम चार बजे डयूटी पर जाना होता था। उनकी डयूटी के ऐसे अटपटे
समय के कारण उनके सोने का समय भी ऐसा अटपटा ही था। 80 से लेकर 1992 में सेवानिवृति तक वे रेल्वे के परिचालन विभाग में उपखंड नियंत्रक से लेकर मुख्य खंड नियंत्रक के पद पर कार्यरत रहे।
इस दौरान उनकी नियुक्ति भोपाल में थी और परिवार होशंगाबाद में। नतीजा यह कि वे होशंगाबाद से आना-जाना करते थे। खाने-सोने का सारा कार्यक्रम बहुत ही अव्यवस्थित रहता था। 87 में मैं भोपाल आ गया था। वे कभी डयूटी पूरी करके मेरे यहां आ जाते, कभी डयूटी पर जाने के पहले कुछ घंटों के लिए। कभी खाना खाते, कभी साथ लेकर जाते और कभी-कभी मैं साइकिल से बाद में खाना पहुंचाने जाता।
तो आमतौर पर रात में उन्हें जगाने का यह घड़ी ही करती रही। दिन में यह काम कभी मां को या हम बच्चों के जिम्मे होता। कई बार उन्हें गहरी नींद से जगाते हुए बहुत दुख होता था। रात को जब वे बारह बजे की पाली के लिए निकल रहे होते, तब बहुत अजीब सा लगता। क्योंकि वही समय नींद का होता था। उनकी आंखें नींद से भारी होती दिखाई देतीं, लेकिन वे यंत्रवत अपने कपड़े, जूते आदि पहन रहे होते। ऐसे में हम गहरे अपराध बोध से घिर जाते।
इस दौरान उनकी नियुक्ति भोपाल में थी और परिवार होशंगाबाद में। नतीजा यह कि वे होशंगाबाद से आना-जाना करते थे। खाने-सोने का सारा कार्यक्रम बहुत ही अव्यवस्थित रहता था। 87 में मैं भोपाल आ गया था। वे कभी डयूटी पूरी करके मेरे यहां आ जाते, कभी डयूटी पर जाने के पहले कुछ घंटों के लिए। कभी खाना खाते, कभी साथ लेकर जाते और कभी-कभी मैं साइकिल से बाद में खाना पहुंचाने जाता।
तो आमतौर पर रात में उन्हें जगाने का यह घड़ी ही करती रही। दिन में यह काम कभी मां को या हम बच्चों के जिम्मे होता। कई बार उन्हें गहरी नींद से जगाते हुए बहुत दुख होता था। रात को जब वे बारह बजे की पाली के लिए निकल रहे होते, तब बहुत अजीब सा लगता। क्योंकि वही समय नींद का होता था। उनकी आंखें नींद से भारी होती दिखाई देतीं, लेकिन वे यंत्रवत अपने कपड़े, जूते आदि पहन रहे होते। ऐसे में हम गहरे अपराध बोध से घिर जाते।
यह लाइन बाक्स रेल्वे की उनकी नौकरी में घड़ी
की तरह ही हमेशा उनके साथ रहा। हफ्तों वे परिवार से दूर रहते। लाइन पर यानी
स्टेशन दर स्टेशन भटकते हुए इसी बाक्स में उनकी गृहस्थी थी। आटा,दाल,चावल,तेल,नमक,मिर्च-मसाले से लेकर पहनने के कपड़े और ऐसी तमाम रोजमर्रा के उपयोग चीजें इस बक्से के अंदर
होती थीं। ऊपर वाली इस ट्रे में दाढ़ी बनाने के सामान से लेकर वेदना निग्रह रस की
पुडि़या तक होती थी। भोपाल में अपनी नियुक्ति के दौरान भी उन्होंने यूनियन दफ्तर में अपने लिए कमरे का इंतजाम कर लिया था। यह लाइन बाक्स वहां मौजूद रहता था। कभी कभी वे खाना खुद बनाते और कभी किसी को बनाने के लिए सामान दे देते। बंजारों की तरह का यायावरी जीवन रहा उनका।
उनके बाक्स में होता था यह रामपुरी भी। जब भी मौका मिलता हम इसे उठाकर
जरूर देखते थे। बाबूजी कहते यह पेंसिल छीलने और सब्जी काटने के
लिए है। धीरे-धीरे समझ आया कि यह आत्मरक्षा के लिए था। उन्होंने
अपनी रेल्वे की नौकरी के लगभग आठ-दस साल मुरैना जिले के बीहड़ में बियाबान और लगभग
सुनसान रेल्वे स्टेशनों पर गुजारे। यह वह समय था जब बीहड़ दस्युओं के आतंक से
ग्रस्त था। ऐसे में शायद यह चाकू ही उनका हौसला बढ़ाता था। इस रामपुरी के अलावा उनके पास एक गंगाराम यानी तेल पिलाया छह फीट का लठ्ठ और एक गुप्ती भी होती थी। दस्युओं से उनकी मुलाकात भी कई बार हुई। पर शुक्र है कि इनके
उपयोग का मौका कभी आया नहीं। बाबूजी बताते थे कि दस्यु कम से कम रेल्वे वालों को कभी नहीं छेड़ते थे।
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बाबूजी की ऐसे न जाने कितनी बातें रह रहकर याद आती हैं। ऐसी ही कुछ बातें न रहना बाबूजी का और क्रांति तो नहीं की पर भी हैं।
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बाबूजी की ऐसे न जाने कितनी बातें रह रहकर याद आती हैं। ऐसी ही कुछ बातें न रहना बाबूजी का और क्रांति तो नहीं की पर भी हैं।
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आज 3 दिसम्बर,2011 को बाबूजी की पहली पुण्यतिथि है।
0 राजेश उत्साही
गाँवों और बीहड़ों के बीच रेलवे की नौकरी का कठिन कर्म बड़ी निकटता से देखा है। आपके बाबूजी को विनम्र श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteघड़ी की तस्वीर ने हमें भी वो दिन याद दिला दिए जब पिताजी सेकेंड नाइट (कुछ ऐसा ही टर्म का प्रयोग वे करते थे) ड्यूटी जाते थे। और घड़ी ऐसी ही थी, जिसकाज़ोर से टन्न-टन्न करते हुए बजता था।
ReplyDeleteमनोज कुमार has left a new comment on your post "घड़ी, लाइन बाक्स, रामपुरी और बाबूजी":
ReplyDeleteघड़ी की तस्वीर ने हमें भी वो दिन याद दिला दिए जब पिताजी सेकेंड नाइट (कुछ ऐसा ही टर्म का प्रयोग वे करते थे) ड्यूटी जाते थे। और घड़ी ऐसी ही थी, जिसकाज़ोर से टन्न-टन्न करते हुए बजता था।
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ReplyDeleteपुराने ज़माने में जिंदगी बहुत कठिन होती थी । आपके बाबूजी ने निसंदेह बहुत मेहनत की होगी ।
ReplyDeleteउन्हें विनम्र श्रधांजलि ।
@ जी मनोज जी, इस डयूटी के लिए लास्ट नाइट शब्द का उपयोग किया जाता है।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपकी यादों को पढकर...
ReplyDeleteएक ऐसी ही चाबी वाली घड़ी मेरे नानी घर में थी..वो याद आ गयी!!
आपके बाबूजी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!
समझ सकती हूँ आपकी मनोदशा……………मेरे पिताजी की भी कल 3 दिसम्बर को ही पुण्यतिथि थी 2004 मे उन्होने अलविदा कहा था……………उन्हे विनम्र श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteआपने हमारे पिता जी की याद दिलादी वह भी रेलवे में थे |
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि।
abhi has left a new comment on your post "घड़ी, लाइन बाक्स, रामपुरी और बाबूजी":
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा आपकी यादों को पढकर...
एक ऐसी ही चाबी वाली घड़ी मेरे नानी घर में थी..वो याद आ गयी!!
आपके बाबूजी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!
पिता की सुखद स्मृति को कलमबद्ध करके अच्छा किया आपने ....
ReplyDeleteमुझ अभागे के पास उनकी यादें भी नहीं हैं !
शुभकामनायें आपको...
यह गज़ब का संजोग है कि मैने भी कल ही अपनी कविता पिता पोस्ट करी। जब कि कल ऐसी कोई खास दिन नहीं था। आपको भी मेरी कविता पढ़कर अचंभा हुआ होगा।
ReplyDeleteपिता की स्मृतियों को..उनके श्रम को बहुत ही सुंदर ढंग से कलमबद्ध किया है आपने। सरकारी कर्मचारियों की यह यायावरी वह जाने या फिर उनके घर वाले। दूर से देखने पर तो हमें सभी सरकारी कर्मचारी मौज करते से दिखते हैं लेकिन वे, इस रोजी-रोटी की यायावरी में कितना कुछ गंवाते हैं, दूसरा नहीं समझ सकता।
..विनम्र श्रद्धांजलि।
यही कुछ पूँजियाँ हैं मेरी भी.. लाइन बोक्स और उसमें उस समय रखे गए पटाखे.. चाकू का इस्तेमाल पता नहीं आपके पिताश्री को करने की नौबत आयी या नहीं, मेरे पिताजी को उसकी भी ज़रूरत पड़ी..! सिर्फ दिखाने की, चलाने की नहीं.. मगर उतना ही काफी था आत्मरक्षा के लिए!!
ReplyDeleteपरिवार के लिये सुख सुविधाओं का प्रबंधन करने के लिये माँ-पिता को अपनी सुख सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है, हम ये तथ्य प्राय: तभी समझ पाते हैं जब खुद इस रोल में आ चुके होते हैं। देवेन्द्र जी का कमेंट भी ऐसी भावनाओं को विस्तार देता है।
ReplyDeleteबाबूजी को विनम्र श्रद्धाँजलि।
उत्साही जी ,बहुत आत्मीयता के साथ व्यक्त की गईं ,बाबूजी की यादों को पढना अच्छा लगा ।
ReplyDeleteबाबू जी की यादों को गहरे तक संजो के रखा है आपने ...और बहुत ही भावनात्मक तरीके से लिखा है ... मेरी विनम्र श्रधांजलि है ...
ReplyDeleteबाबू जी के अलार्म वाली घडी रह रह उनकी न जाने कितनी ही याद दिलाकर मन को दुखी कर देती होंगी .....सच अपना कोई जब हमसे हमेशा के लिए विदा हो जाता है तो वह न जाने कितने ही मौकों पर याद आता है और हम सोचते रह जाते है........ . मुझे पढ़ते-पढ़ते अपने पिताजी की याद आने लगी है... उनके जाने के बाद उनकी न जाने कितनी बातें वक्त बेवक्त याद आकर ऑंखें नाम किये बिना नहीं जाती.. आपने बाबु जी के संघर्ष के दिनों को याद कर हमारे साथ शेयर किया ..इसके लिए आभार.. बाबूजी को हमारी ओर से विनम्र श्रधांजलि ।
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