(1.04.1934**3.12.2010) |
आखिर उन्हें एक दिन नहीं रहना था सो वे नहीं रहे। पिताजी जिन्हें हम बाबूजी कहते रहे चले गए। 3 दिसम्बर की सुबह 7:30 के आसपास उन्होंने इस दुनिया की हवा को अपने फेफड़ों में भरने से इंकार कर दिया और उसके साथ उड़ गए जिसे उन्होंने 26 साल पहले ठीक इसी दिन खाली हाथ लौटा दिया था।
*
3 दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी को 26 साल हो गए हैं। पिताजी रेल्वे में डिप्टी चीफ कंट्रोलर थे। 2 दिसम्बर की रात को उनकी डयूटी भोपाल के रेल्वे कंट्रोल ऑफिस में थी। परिवार होशंगाबाद में था। उस रात बऊ (उनकी मां और मेरी दादी) बहुत बीमार थीं, इसलिए पिताजी ने तय किया कि वे भोपाल नहीं जाएंगे। उस रात भोपाल से रवाना हुई यमदूत एक्सप्रेस में उनका आरक्षण भी था। पर वे नहीं गए। कैसे जा सकते थे अभी उन्हें 26 साल और इस दुनिया में रहना था।
26 साल बहुत होते हैं। इन 26 सालों में उन्होंने बहुत दुनिया देखी। अपनी मां को खोया। मेरी शादी की ,मुझ से छोटी बहन और भाई की शादी की। अपने नाती,नातिनों को देखा, खिलाया, बहलाया। गॉलब्लैडर का एक ऑपरेशन झेला। अपनी ग्रेच्युटी के मामले में रेल्वे से एक अंतहीन लड़ाई लड़ी। अपना घर बनाया।
*
वे 76 साल के थे। मप्र के छतरपुर जिले की बिजावर रियासत के बारबई गांव में 1934 में सरकारी दस्तावेज के हिसाब से 1 अप्रैल को उनका जन्म हुआ था। जबकि बऊ के अनुसार वे दिवाली की दोज को जन्मे थे। 1950 में उन्होंने इटारसी में दसवीं पास की। और 1952 में वे नागपुर में रेल्वे में तारबाबू नियुक्त हो गए थे। बाद में स्टेशन मास्टर और फिर चीफ कंट्रोलर बने। नाम उनका प्यारेलाल पटेल था और स्वभाव से वे दबंग थे। चालीस साल की नौकरी में उनके बीस से अधिक तबादले हुए और तथाकथित अनुशासनहीनता के लिए इतने ही विभागीय मुकदमें चले। सतपुड़ा और विध्यांचल के बीच बहती नर्मदा से लेकर चम्बल के बीहड़ों तक में रह आए थे। किसी से डरे नहीं, किसी से दबे नहीं, किसी के सामने झुके नहीं। रेल्वे के नियम-कानूनों के इतने जानकार थे कि रेल्वे के वकील के रूप में ही उनकी ख्याति अधिक थी। रेल्वे की मजदूर यूनियन के सचिव रहे। 1962 में चीन-भारत युद्ध के समय रेल्वे की प्रादेशिक सेना की ओर से दार्जिंलिंग की पहाडि़यों में तैनात रहे।
*
1987 में जब बऊ की मृत्यु हुई तो वे उनकी अस्थियां लेकर इलाहाबाद गए। मेरा मन नहीं था, फिर भी मन मारकर उनके साथ जाना पड़ा। हमारे एक पड़ोसी भी साथ थे। वहां जो कुछ हमने देखा और सहा वह याद करके आज भी सिरहन पैदा हो जाती है। नैनी रेल्वे स्टेशन से ही पंडे हमारे पीछे लग गए। पिताजी के दबंग स्वभाव के कारण किसी तरह हम उनसे बचते हुए निकल गए। लेकिन जिस नाव में हम बैठे, उसका मल्लाह बीच गंगा में नाव ले जाकर तय राशि से अधिक राशि की मांग करने लगा। और नहीं देने पर किनारे पर नहीं लेने जाने की धमकी देने लगा। पिताजी भी गुस्से में आ गए। उन्होंने कहा, 'मैं अपनी मां की अस्थियां बाद में विसर्जित करूंगा, चल पहले तुझे ही विसर्जित कर देता हूं।' उनका रौद्ररूप देखकर मल्लाह घबराया और चुपचाप हमें किनारे पर ले आया।
पिताजी ने उसी दिन मुझ से कहा,'राजेश अगर मौका आया तो मेरी अस्थियां लेकर तुम इलाहाबाद मत आना।'
पिताजी ने उसी दिन मुझ से कहा,'राजेश अगर मौका आया तो मेरी अस्थियां लेकर तुम इलाहाबाद मत आना।'
*
बाबूजी और अम्मां |
*
जब उनके साथ यह दुर्घटना घटी लगभग उसी समय मैं एकलव्य की 26 साल की नौकरी को अलविदा कहकर भोपाल से बंगलौर जाने का निर्णय कर चुका था। उम्मीद थी कि मैं कुछ दिनों में वापस भोपाल की तरफ आ जाऊंगा। लेकिन यह नहीं हो सका। पिताजी को संभालने की सारी जिम्मेदारी अम्मां,छोटे भाई और उसकी पत्नी पर ही आ गई। कुछ ऐसा वातावरण बना कि अम्मां ने लगभग सारा जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। चौबीस घंटे वे बस उनके आसपास ही बनीं रहतीं। नहलाना,धुलाना,खाना खिलाना सब वही करतीं। मैं चाहकर भी उनकी बहुत मदद नहीं कर पाया। पत्नी और बच्चे भोपाल में थे। बंगलौर से दो-तीन महीने में आना होता और दो-एक दिन मुश्किल से उनके पास रह पाता। जब वापस जाने लगता तो वे कहते अच्छे से रहना मेरी चिंता मत करना। मुझे नौकरी छोड़ देने के अलावा कोई विकल्प नजर नहीं आता था। मुश्किल यह थी कि परिवार का व्यय उठाने के लिए आय का और कोई साधन नहीं था। बंगलौर में मैंने अपने पिछले डेढ़ साल एक अपराधबोध के साथ गुजारे। कई बार मुझे लगता जैसे मैं उमरकैद काट रहा हूं। शायद इस अपराध की ही सजा थी कि 3 दिसम्बर की सुबह मैं उनसे साठ किलोमीटर दूर भोपाल में था और दो घंटे बाद उनसे मिलने वाला था, तभी उन्होंने सबसे विदा ले ली। मुझे उन्होंने बस इतना ही अधिकार दिया कि मैं उन्हें कंधा दे पाऊं। मेरे लिए यह सजा शायद कम थी। मैंने मुखाग्नि देने का अधिकार छोटे भाई को देकर इसे और बढ़ाने का प्रयत्न किया।
*
रेलसेवा का आख्रिरी दिन |
*
पिताजी ने पिछले लगभग तीस साल होशंगाबाद में नर्मदा नदी के किनारे ही बिताए। सेवानिवृत होने के बाद उन्होंने वहीं मकान बनाया था। जबकि हम सबकी इच्छा थी कि भोपाल में बनाएं। चार साल पहले तक वे नियम से हर शाम नर्मदा के दर्शन करने जाते रहे। 3 दिसम्बर की शाम इसी नर्मदा के किनारे उनकी पार्थिव देह अग्नि में तपकर रेत में विलीन हो गई। और अस्थियां अगले दिन नर्मदा की अतल गहराईयों में। मुझे और छोटे भाई अनिल को अम्मां को यह बात समझाने में बहुत समय नहीं लगा। पर रिश्तेदारों को समझाने में काफी मशक्कत करनी पड़ी,जो इस बात पर आमादा थे कि अस्थियां लेकर इलाहाबाद जाना चाहिए। अंतत: हम सफल हुए। आखिर गंगा भी समु्द्र में जाकर मिलती है और नर्मदा भी। फिर बाबूजी की इच्छा भी तो यही थी।
0 राजेश उत्साही
उत्साही जीइसे ही कहते हैं विरोध का सही स्वर। आपके पिताजी ने भी इलाहाबाद के कर्मकांडियों का या उससे जुड़े एक शख्स का इस तरह से विरोध किया। ये समाजिक उत्प्रेरणा का काम करता है। समाज को जरुरत है हर इंसान में इस तरह के ही विरोध की भावना को बढ़ावा देने की। आपके पिताजी की आत्मा को भगवान शांति दे। यही कामना करता हूं।
ReplyDeletepitaji ko arpit yah shraddhanjli maun hi kahegi kuch
ReplyDeleteउनकी आत्मा को भगवान शांति दे !
ReplyDeleteहमारी ओर से श्रधांजलि !
राजेश जी विषाद की इस घडी में मुझे अपने साथ पायें...दिवंगत की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करता हूँ...
ReplyDeleteमैं आपके पिता जी के अस्थियां विसर्जन के लिए इलाहबाद न जाने के फैसले का तहे दिल से समर्थन करता हूँ...मैंने हरिद्वार, जो हम लोगों के अधिक नजदीक है, में अपने पिता की अस्थियां ले जाने के समय हुए पंडों के व्यवहार देखा है, जिस से मैं अभी तक शुब्ध हूँ, उन्हें सबक सिखाने का एक ही तरीका है के हरिद्वार या विसर्जन के लिए ऐसी निर्धारित जगहों का बहिष्कार किया जाए ताकि उनका ये आम दुखी इंसान को मृतक की आत्मा की शांति के नाम पर लूटने का गोरख धंधा बंद हो.
पिता जी को मेरी श्रृद्धांजलि !
ReplyDeleteपिताजी की आत्मा को भगवान शांति दे- मेरी श्रृद्धांजलि.
ReplyDeleteबाबूजी आखिर चले गए । उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं । गंगा में अस्थि विसर्जन के विषय में आपका विरोध ठीक है और बाबूजी की इच्छानुसार नर्मदा में अस्थि-विसर्जन कर अच्छा ही किया । लेकिन इसे केवल धार्मिक दृष्टि से ही देखा जाना उचित नही । पहली बात तो हर परिवार के लिये पंडे नियत होते हैं । चाहे आपके पीछे कितने ही पंडे दौडें पर आप को साथ वही पंडा ले जासकता है जो आपके कुल के लिये नियत है । वे आपकी दसों पीढियों का लेखा-जोखा रखते हैं । दूसरी बात कि उनकी जीविका का यही एकमात्र साधन है । जजमान उनके लिये भगवान जैसे होते हैं । जिनकी वे प्रतीक्षा करते हैं । और आवभगत भी । इसके बदले वे कुछ चाहते हैं तो गलत नही । पहले मेरा भी पंडों के प्रति गहरा विरोध था पर जब विगत मई माह में अपने पिताजी की अस्थियाँ लेकर हम भाई-बहिन सोरों घाट गए और पंडों के जीवन को निकटसे देखा तभी समझ सके कि उनके एकरस से जीवन में जजमानों का आना किसी त्यौहार जैसा होता है ।अनजान जगह में वे हमारे लिये परिजन जैसे होते हैं । और अनजाने ही एकसूत्रता स्थापित होती है । परम्पराओं ,तीर्थाटन , पर्व, स्नानादि का महत्त्व भी इसी तथ्य में छुपा है ।
ReplyDeleteरहा आडम्बर का सवाल तो वह कहाँ नही है ।
ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे और आपको संबल।
ReplyDeleteराजेश भाई.. ईश्वर बाबूजी की आत्मा को शांति दे... पाखण्ड ने कर्मकांड के वैज्ञानिकता को समाप्त कर दिया है... साहित्य के स्तर पर आपका सनास्मरण उच्च कोटि का है... मेरी श्रृद्धांजलि.
ReplyDeleteईश्वर बाबूजी की आत्मा को शांति प्रदान करे और आपको इस दुःख को सहने की शक्ति दे। पिता जब तक रहते हैं हम बच्चे ही रहते हैं, पिता के जाते ही कई अन्य जिम्मेदारियों का एहसास हमें वृद्ध कर देता है। ईश्वर आपको सभी भार सहने की शक्ति प्रदान करे।
ReplyDeleteराजेश जी , हमारी तरफ से नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteaise swabhimani aur adarsh pitaji ko sadar shraddhanjali!
ReplyDeleteउत्साही जी,
ReplyDeleteबाबू जी को मेरी विनम्र श्रधांजलि !
भागवान उनकी आत्मा को शांति दे!
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बाबू जी को मेरे श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुवे सिर्फ यही कहूँगा कि भगवान राजेश जी ऐसे पुत्र सभी को दें..! ईश्वर तक मेरी ये प्रार्थना पहुंचे और बाबू जी की आत्मा को शांति प्रदान करे तथा उनको सदा अपने चरणों में रखें... सादर नमन !!
ReplyDeleteबड़े भाई! व्यक्तिगत परेशानियों के मध्य का यह ख़बर ऐसे सरक गई मेरी नज़र से कि मैं शर्मिंदगी के बोझ तले दबा जा रहा हूँ...रेलवे के नाते उनसे मेरा भी रिश्ता था... उनकी आत्मा की शंति की प्रार्थना के साथ,उनकी स्मृति को नमन करता हूँ..
ReplyDeleteआपसे क्षमा प्रार्थी हूँ!!
विनम्र श्रद्धांजलि। हौसला बनाए रखें।
ReplyDeleteउत्साही जी , ऊपर लिखी गई टिप्पणी मेरा व्यक्तिगत् अनुभव है ।उसे यहाँ देना आवश्यक भी नहीँ खैर..। मुझे पता है कि पिता के जाने पर इस उम्र में भी किस तरह बिनाछत के घर जैसा अनुभव होता है । आप हौसला बनाए रखें । बाबूजी को मेरी विनत श्रद्धांजलि ।
ReplyDeleteपिताजी की आत्मा को भगवान शांति दे!हौसला बनाए रखें।
ReplyDeleteपरिवार और बड़ों के प्रति आपकी संवेदनशीलता वन्दनीय है राजेश भाई ! बाबू जी को श्रद्धांजलि !
ReplyDeleteपिताजी को विनम्र श्रद्धांजलि। ईश्वर आपको और सारे परिवार को यह अपार दुःख सहने की शक्ति प्रदान करें..
ReplyDeleteRIP...
ReplyDeleteमेरी ओर से भी विनम्र श्रद्धांजलि
राजेश जी
ReplyDeleteमुझे तो पता ही नही चला …………अभी पता चला है ……………क्षमाप्रार्थी हूँ।
उनकी आत्मा को भगवान शांति दे !विनम्र श्रद्धांजलि।
कैसा संयोग है आज से 6 साल पहले मेरे भी बाऊजी ने 3 ही दिसम्बर को हमारा साथ छोडा था।
भगवान से यही प्रार्थना है कि इस दुखद घडी मे आपको संबल प्रदान करे।
पिता जी को नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि ..तस्वीर से ही वे ओजस्वी व्यक्तित्व के धनी लगते हैं.
ReplyDeleteआप अपराधबोध से ग्रसित ना हों....आजकल के हर दूसरे पुत्र की यही कहानी है....जीविकोपार्जन की बेड़ियाँ ऐसी पड़ी होती हैं पैरों में कि कई साध मन में ही रह जाती है.
ईश्वर आपको यह अपार दुःख सहने सम्बल दे
आदरणीय राजेश भाई क्षमा चाहता हूँ कि दुःख के क्षण में मैं समय पर आपके साथ नहीं था.. बाबूजी को हमारा नमन और श्रधांजलि.. बाबूजी के संस्मरण को जिस तरह से आपने लिखा है वह सहेजने योग्य है... उनके व्यक्तिव के जिन पहलुओं पर जितनी सहजता से आपने रौशनी डाली है.. उसकी आभा कई गुना बढ़ गई है... आपके जैसा चरित्रवान, जुझारू, ईमानदार पुत्र पाकर उनका संघर्ष पूरा हुआ होगा.. सादर पलाश
ReplyDeleteबाबू जी को विनम्र श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteबाबूजी को हमारा नमन और श्रधांजलि !
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteबाबूजी को नमन व श्रध्दाजंली | उनका आशीर्वाद सदा हम सभी पर बना रहे |
ReplyDeleteदिवंगत आत्मा को मेरा भी नमन और श्रद्धांजलि
ReplyDeleteजाना तो सबको है
ReplyDeleteकिसी को
हमेशा के लिए तो
किसी को कुछ दिनों के लिए
दुःख दोनों में होता है
लेकिन ज्यादा दुःख होता है
कुछ दिन अलग रहने में
अपेछा हमेशा अलग रहने में
कुछ दिन अलग रहने से
रहती है तलब मिलने कि
पल-पल गिरते है
आंसू याद कर के
राहो पर जहाति है नज़र
कि कोई आ जाए
हमेशा अलग रहने से
गिरते है आंसू
सिमित समय तक
याद आती है
कही तक
नहीं सोचते दोबार
मिल के कुछ कहने कि
विश्वास कुमार (प्रेम)
अपने पिता के बारे में लिखना मुझे भी बहुत गौरान्वित करता है, मेरे पिता भी रेलवे में मेल गार्ड थे वे भी १९९२ में ही रिटायर हुए 30 सितम्बर १९९२ को उन्होंने पिंकसिटी शहर को पिंकसिटी ट्रेन सौंपी ! पिता, बस पिता होते हैं जितना भी उनके बारे में लिखा जाये, कम ही पड़ता है ......
ReplyDeleteअनुपमा तिवाड़ी
अनुपमा तिवाड़ी