Saturday, December 18, 2010

क्रांति नहीं की,लेकिन कुछ किया तो है....


बाबूजी यानी पिताजी के न रहने का अर्थ मेरे लिए कई मायनों में सामने आया। उनके निधन के साथ ही मैं अपने परिवार में पुरुषों में सबसे बड़ा घोषित हो गया। बड़े होने के नाते कई सारे दायित्‍व मुझे ही निभाने थे। हिन्‍दुओं में माता या पिता की मृत्‍यु पर बेटों को अपने बाल देने होते हैं। यह क्‍यों किया जाता है यह मुझे नहीं मालूम। जब भी किसी से पूछने की कोशिश की तो जवाब मिला, बस परम्‍परा है इसलिए दिए जाते हैं। मुझे यह हमेशा एक गैर जरूरी और बिना मतलब का कर्मकांड लगा। जब पिताजी नहीं रहे तो मेरे सामने यह प्रश्‍न था कि मैं क्‍या करुं। मैंने तय किया कि मैं बाल नहीं दूंगा। मैंने बाल नहीं दिए। मुझे पता है कि इससे कोई क्रांति नहीं होने वाली। लेकिन हां इतना जरूर हुआ कि मेरे परिवार और रिश्‍तेदारों के बीच इस बात को लेकर चर्चा जरूर छिड़ गई। मुझे कई तरह की बातें सुननी पड़ीं, जिनमें भावनात्‍मक बातें भी थीं।
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मैंने कोशिश की इस परम्‍परा को तर्क के आधार पर समझा जाए। मेरा मानना है कि संभवत: कभी यह सोच रही होगी कि जिसका निधन हो गया उसके साथ तो आप नहीं जा सकते, लेकिन अपने शरीर का कोई हिस्‍सा दे दें । बाल शरीर का ऐसा हिस्‍सा हैं जिन्‍हें अगर काटकर दे भी दिया जाए तो वे दुबारा आ जाते हैं। तो शायद यह परम्‍परा बन गई होगी। या फिर यह एक तरीका रहा होगा गांव या मोहल्‍ले में बिना कहे ही यह जानकारी देने का कि जिसके सिर पर बाल नहीं हैं, उसका मतलब है घर में किसी की मृत्‍यु हो गई है। हालांकि बहुत से देवी-देवताओं के मंदिर में भी बाल देने का रिवाज है। इसलिए यह तर्क थोड़ा कमजोर पड़ जाता है।

अंत्‍येष्टि के बाद अस्थियां लेकर इलाहाबाद नहीं जाने के निर्णय से एक बगावत हो ही चुकी थी। यह भी रिश्‍तेदारों के बीच गहरे क्षोभ का एक कारण बन चुका था। पर यहां फिर भी नर्मदा ने हमें यह कहने का एक ठोस आधार दे दिया था कि वह स्‍वयं गंगा जितनी ही पावन नदी है,इसलिए उसके किनारे रहने वाले व्‍यक्ति की अस्थियां उसमें ही विसर्जित हों इससे बेहतर और क्‍या हो सकता है। यद्यपि पर्यावरण की दृष्टि से नदियों में अस्थियां विसर्जित करना कतई उचित नहीं है। पर इतना तो करना ही पड़ा। 
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इसी तरह मृत्‍युभोज को लेकर एक विरोध मन में रहा है। मुझे पता है कि इसे भी एक झटके में समाप्‍त नहीं किया जा सकता। इसमें भी परिवार और तमाम रिश्‍तेदारों की भावनाएं जुड़ी होती हैं। लेकिन जब मुझे इसकी विद्रूपताएं समझ आईं तो मैंने तय किया कि मैं किसी के मृत्‍युभोज में नहीं जाऊंगा, सो नहीं जाता हूं। लेकिन पिताजी के निधन पर इसे मामले में मुझे बीच का रास्‍ता निकालना पड़ा। मैंने मृत्‍युभोज का विरोध किया। लेकिन फिर बात यहां आकर ठहर गई कि आप जिस जगह, जिस मोहल्‍ले में रहते हैं वहां प्रचलित रीति-रिवाजों और परम्‍पराओं का भी आपको ख्‍याल रखना पड़ेगा। क्‍योंकि सुख-दुख में सबसे पहले वे लोग ही काम आते हैं। संयोग से मैं पिछले लगभग पच्‍चीस साल से भोपाल में रह रहा था और माता-पिता तथा छोटा भाई और उसका परिवार होशंगाबाद में। पिछले दो साल से मैं बंगलौर में हूं। सो मेरे सामने यह तर्क भी आया कि तुम तो हफ्ते-दस दिन में यहां से चले जाओगे। बाकी समय तो हमें ही यहां रहना है।
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बहरहाल यहां भी तार्किक रूप से यह विचार निकला कि आखिर मृत्‍युभोज क्‍यों दिया जाता है और उसको लेकर इतना विरोध क्‍यों। मेरा मानना है कि चूंकि जिस दिन किस व्‍यक्ति का निधन होता है, उस दिन निकट रहने वाले लोग ही अंत्‍येष्टि और शोक में शामिल हो पाते हैं। दूर रहने वाले रिश्‍तेदार तथा परिचित आकर शोक प्रकट कर सकें इसके लिए एक कोई दिन तय करना बेहतर रहता होगा। इसलिए तेरहवीं करने का सिलसिला शुरू हुआ होगा। और जब कोई दूर से आपके घर आएगा तो इतना तो तय है कि आप उसे एक वक्‍त का खाना जरूर खिलाएंगे। इसमें भी लगे हाथ मोहल्‍ले तथा कस्‍बे या गांव के लोगों को भी बुला लेने की परम्‍परा शुरू हुई होगी। यहां मैं धार्मिक कर्मकांडों की चर्चा नहीं कर रहा हूं,क्‍योंकि वे भी समय के साथ जुड़ते गए होंगे। और फिर यह परम्‍परा एक तरह की रूढि़ में बदल गई होगी,कि चाहे आपके पास साधन हों या न हों आपको मृत्‍युभोज देना ही है। जिसके कारण साधनहीन व्‍यक्ति सूदखोरों के चुंगल में फंसकर और साधनहीन होता गया होगा।
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खैर मैंने भी जब इस बात पर विचार किया तो पाया कि लगभग सौ के करीब रिश्‍तेदार होंगे जो बाबूजी के निधन पर शोक प्रकट करने के लिए आएंगे ही। उनके लिए न केवल खाने का बल्कि ठहरने का इंतजाम भी करना ही होगा। कस्‍बे तथा मोहल्‍ले के परिचित,बाबूजी के रेल्‍वे के साथी आदि भी मिलाकर इतने ही और लोग। तय किया गया कि लगभग दो सौ लोगों के लिए रसोई का इंतजाम किया जाए। इसमें पूड़ी,सब्‍जी,रायता,नमकीन,बूंदी और बर्फी परोसी गई। सबको खाना भारतीय बैठक व्‍यवस्‍था में पत्‍तल पर खिलाया गया। कोशिश की गई कि खाना जरूरत के मुताबिक ही परोसा जाए ताकि खाने की बरबादी न हो। और हम यह करने में सफल रहे।
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जैसा मैंने कहा कि इससे कोई क्रांति नहीं होगी। पर मुझे लगता है कि सोचने के लिए एक विचार तो मैंने अपने परिचितों और रिश्‍तेदारों के बीच छोड़ ही दिया। हां यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि मेरे छोटे भाई अनिल ने इच्‍छा न होते हुए भी अपने बाल दिए और तेरह दिन तक बाकी के सारे कर्मकांड भी किए । तेरहवीं करने को लेकर उसके विचार भी मेरे जैसे ही हैं। हम दोनों को ही इस बात का संतोष है कि हमने कुछ हद तक विरोध को दर्ज करने का प्रयत्‍न किया है,भले ही हम पूरी तरह सफल न हो सके हों। बाबूजी का पता नहीं , पर हां यह समझ में आया कि ऐसा करके हमने मां को थोड़ा और दुखी अवश्‍य किया है। वे हमें क्षमा करें, मन ही मन यह प्रार्थना है।                          
                        0 राजेश उत्‍साही
                                                                                                                              

27 comments:

  1. शायद क्रांति का पहला कदम छोटा सा ही होता है ...

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  2. mujhe aapke her kadam, har swar me ek thos aadhaar nazar aata hai ....

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  3. एक सार्थक व स्वागतयोग्य कदम . ज्यादातर तो मृत्यु के बाद के कर्मकांड पंडों द्वारा लुटे जाने का कार्यक्रम होता है...

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  4. बदलाव धीरे धीरे ही आता है।

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  5. इस बार के चर्चा मंच पर आपके लिये कुछ विशेष
    आकर्षण है तो एक बार आइये जरूर और देखिये
    क्या आपको ये आकर्षण बांध पाया ……………
    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (20/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
    http://charchamanch.uchcharan.com

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  6. बड़े भाई!
    इतनी दफा यह बात मैंने कही है कि मुझे खुद अपने repetitive होने पर शर्म आने लगी है... आस्थाएं और परम्पराएं (मेरे व्यक्तिगत और नितांत व्यक्तिगत विचारानुसार) तर्क से परे होती हैं... और इनमें बंधन भी नहीं होता... आपने माना ठीक, न माना तो भी ठीक... ज़बरदस्ती कोई किसी को मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकता...
    जो इन बातों पर विश्वास करते हैं, उनके लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं... और जो नहीं करते, उनको कोई तर्क विश्वास नहीं दिला सकता..
    कुछ परम्पराओं को मान लेने में ही सुख है... समय और व्यस्तताओं ने वैसे ही बहुत कुछ छीन लिया है (१३ दिनों के स्थान पर आजकल ३ दिनों में श्राद्ध निपटाए जाने लगे हैं... वरना मान्यताओं और आस्थाओं का क्षरण वो दिन भी दिखाएगा जब बच्चे माँ-बाप का अंतिम संस्कार की जगह कहेंगे,"My dad died last night. We burnt him. It was so thrilling to watch him burning, like a bonfire."
    और शायद उसी आग से कोई एक मशाल उठाकर क्रान्ति का एलान कर देगा.

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  7. इन मामलों में अभी मेरे दिमाग में पूरी उलझन है बेकार के कर्मकांड तो मुझे भी अच्छे नहीं लगते है और मृत्यु पर भोज तो और भी अजीब लगता है पंडो को बेकार का दान देना लुट तंत्र ज्यादा लगता है किन्तु ये छोटी छोटी परम्पराए ही है जो हमें भारतीय और हिन्दू बनाती है यदि हम ने ये सब भी त्याग दिया तो फिर हमारी अपनी एक पहचान का क्या होगा | समय के अभाव के कारण और संयुक्त परिवारों के समाप्ति के साथ ही कई परम्पराए ख़त्म हो रही है और कुछ ख़त्म हो जाएँगी क्या तब तक हमे कुछ परम्पराव को बचाये नहीं रखना चाहिए | जैसे भले तीन दिन में ही सही कुछ रस्म कर ही लिया जाये भोज रिस्तेनातेदारो की जगह गरीबो को करा दिया जाये दान भी संप्पन पण्डे के बजाये गरीब पण्डे या गरीब को दिया जाये और अपनी इच्छा और हैसियत के अनुसार सब कुछ किया जाये कोई जोर जबरजस्ती ना हो | और रही बाल ना बनवाने की तो आज कल ये आम बात हो गई है नौकरी का तकाजा है मज़बूरी भी है |

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  8. pita ke dayitwon ko aapne ek anukul sthaan diya , nishtha se sthapit kiya

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  9. आधार भी आवश्यक है, सततता बनाये रखने के लिये।

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  10. @सलिल भाई मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि परम्‍पराएं तर्क से परे होती हैं। हां जहां तक आस्‍थाओं का सवाल है वे पक्‍के तौर पर तर्क से परे होती हैं। आज हमें एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की जरूरत है। और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब है आप हर बात को तर्क पर तौल कर देखें।
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    आपके इस मत से भी मैं सहमत नहीं हूं कि जो लोग तर्क करते हैं उन्‍हें कोई तर्क विश्‍वास नहीं दिला सकता।
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  11. @ अंशु जी परम्‍पराएं जो आपको सार्थक नजरिया दें,उन्‍हें निभाते रहने का मतलब समझ आता है। पर जो रूढि़ बन चुकी हैं उन पर हमें सोचना होगा। और बाल न देने का संबंध समय और नौकरी की मजबूरी से कतई नहीं है।

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  12. राजेश जी,आपने बहुत ही अनुकरणीय कार्य किया है. अक्सर ऐसा ही होता है माँ का ख्याल करके लोंग चुप हो जाते हैं और कोई भी भिन्न कदम नहीं उठा पाते. आपने बहुत साहस का काम किया. और निश्चय ही इस से प्रेरणा लेकर आपके मोहल्ले आस-पास के लोग भी इस फिजूल खर्ची से बचेंगे.

    बाल देने के पीछे एक वैज्ञानिक कारण कुछ पढ़ा था...ठीक से याद नहीं पर कुछ ऐसा कि जब शरीर अग्नि को सुपुर्द किया जाता है तो पास खड़े मुखाग्नि देने वाले पर ,मृत शरीर से कई तरह कीटाणुओं का असर होने का भय होता है ,इसीलिए तुरंत जाकर स्नान किया जाता है और बाल भी उतरवाए जाते हैं. पर आज इलेक्ट्रोनिक क्रेमोटोरियम में इसकी जरूरत नहीं..फिर भी लोंग रस्म निभाते हैं.

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  13. आपने जैसा किया वैसे कम लोग ही कर पाते हैं..बाकी और कुछ नहीं कहना चाहूँगा मैं इस पोस्ट पे.लेकिन हाँ इतना जरुर की कुछ जानकारियां मिली.

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  14. क्रांति ऐसे ही होती है राजेश जी...मेरे पिता के देहावसान पर जब मैंने भी बाल न देने का फैसला लिया तो रिश्ते नाते दारों में हलचल मच गयी...मृतक की आत्मा के भटकने की बातें की गयीं...डराया गया...लेकिन मैं अडा रहा और अब परिवार में शेष कुछ और ने भी मेरा ही अनुसरण किया है...ये कोई बड़ी बात नहीं लेकिन बरसों से चली आ रही एक निरर्थक परम्परा से मुक्ति तो है...

    नीरज

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  15. rajesh bhaiya aapki baat ekdum sahi hai...lekin fir bhi khud me itna dum=kham nahi hota ki ek sire se kisi chal rahe parampara ko rokne ki koshish karen...........aur bas iss karan...ye chalti rahti hai...!!


    waise aapki sarthak soch ko salam...

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  16. @रश्मि जी, आपने जिस कारण का जिक्र किया हो सकता है वह भी हो सकता है। पर इसमें एक पेंच है। आमतौर पर अंत्‍येष्टि के समय बहुत सारे लोग होते हैं जो चिता के आसपास रहते हैं। इस हिसाब से तो उन सब को खतरा हो सकता है। लेकिन बाल केवल बेटे को ही देने होते हैं।
    *
    जहां तक विद्युत शवदाह की बात है तो भोपाल मैंने देखा कि वहां तो सौ में से शायद दो लोगों का ही अंतिम संस्‍कार किया जाता है।
    *
    आपकी बात से हौसला मिला। शुक्रिया।
    *
    @ नीरज भाई शुक्रिया। हौसला मिला आपकी बात से। मैंने आपकी परम्‍परा को आगे बढ़ाया।

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  17. राजेश जी,
    पहले तो सारे नजदीकी रिश्तेदार ही अपने बाल देते थे. जैसा मैने देखा है...मेरी दादी की मृत्यु हुई तो
    मेरे सारे चाचा (दादा जी के भतीजे ) और उन सबके पुत्र ने अपने बाल दिए थे....दादा जी की मृत्यु के समय भी ऐसा ही कुछ देखा था....तब संख्या कुछ कम हो गयी थी...कई पोते नौकरी में आ गए थे और उनकी मजबूरियां थीं..पर दादाजी के पुत्र और भतीजों ने अपने बाल दिए थे. अब सिर्फ मुखाग्नि देने वाले पुत्र ही इस रस्म का निर्वाह करते हैं....और कई बार वो भी नहीं. समय के साथ लोग बड़ा रहे हैं.

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  18. बड़ा= बदल (sorry for the typing mistake )

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  19. @रश्मिजी जहां तक मेरी जानकारी है,केवल जिनके माता या पिता की मृत्‍यु हुई है। उन्‍हें ही अपने बाल देने होते हैं। जिनके माता या पिता जीवित हैं वे बाल नहीं दे सकते, ऐसा जानकारों का कहना है।
    मेरे एक बहनोई हैं, (मामा की लड़की की शादी उनसे हुई थी) जब उनकी पत्‍नी की मृत्‍यु हुई तो उन्‍होंने अपने बाल दे दिए। अब यहां तो कोई तर्क ही नहीं बनता।

    इसीलिए यह सवाल उठता है कि वास्‍तव में अवधारणा या आधार क्‍या है।

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  20. बड़े भैया,सादर प्रणाम.
    पिताजी कि मृत्यु के बारे में जानकर दुःख हुआ.जहाँ तक परम्पराओं को निभाने या जीवित रखने कि बात है तो मेरा यह मानना है कि जो परम्पराएं समाज को आपस में जोड़ती हैं उन्हें बचाए रखने कि जरूरत आज भी है क्योंक वह सामाजिक बदलाव में अलग-थलग पड़ रहे लोगों और परिवारों के लिए संजीवनी सामान है.हाँ,इनमें व्याप्त कुरीतियों को जरूर दूर किये जाने कि जरूरत है..चला बिहारी ब्लॉगर बनने सर ने जो कहा है उसमें दम है.किसी भी परंपरा को सिरे से ख़ारिज करने से पूर्व उसकी अच्छाई-बुराई,समाज पर पड़ रहे अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव आकलन जरूरी होगा.आज व्यावहारिकता में जो कमी या गिरावट है उसका एक करण स्थापित मूल्यों से मुंह मोड़ना भी हो सकता है. ये मेरे निजी विचार हैं. बदलाव तो शाश्वत है होगा ही लेकी सार्थक बदलाव ही सामाजिक मूल्यों को आगे ले जा पायेगा ऐसा मेरा मानना है.
    सादर
    rajiv

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  21. किसी परंपरा के पीछे तर्क ढूंढना एक चैतन्य मस्तिष्क का काम है, कोई शक नहीं। बहुत बार हम परंपराओं का पालन नहीं करते हैं तो उसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, मसलन - सिर्फ़ विरोध करने के लिये, खुद को समाज से अलग दिखाने के लिये, फ़ैशन के चलते। परंपराओं के पीछे की वजह हम तलाश सकते हैं, जब हमारे पास समय हो। जैसे हर जवाब का सवाल होता है, सवालों के जवाब भी जरूर होते हैं। हमें मनन करना चाहिये।
    आपने अपनी पोस्ट के माध्यम से अपना पक्ष रखा, सलिल भैया ने अपने कमेंट के जरिये जो कहा है, वो भी बहुत मायने रखता है। हमें कुरीतियों और परंपराओं में डिफ़रेंशियेट करना चाहिये।

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  22. @ मो सम कौन यानी संजय जी आपकी बात से सहमति है। पर जिन्‍हें हम कुरीतियां कहते हैं, वे परम्‍पराएं ही होती हैं। एक परम्‍परा कुरीति कैसे बन जाती हैं यही सोचने का विषय है।

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    मुझे पता है कि आपने यह टिप्‍पणी मुझ पर केन्द्रित करके नहीं लिखी है। फिर भी मैंने कहना चाहता हूं कि मैंने ऐसा - सिर्फ़ विरोध करने के लिये, खुद को समाज से अलग दिखाने के लिये, फ़ैशन के चलते- नहीं किया है। यह मेरी सोच है।
    *
    आपने लिखा है- परंपराओं के पीछे की वजह हम तलाश सकते हैं, जब हमारे पास समय हो।- मेरा सवाल है यह समय कब होगा या कौन लाएगा ? माफ करें आपकी बात से ऐसा लगता है जैसे आप कह रहें हैं अभी जो आदमी सड़क पर मर रहा है,उसे हम बचा सकते हैं,लेकिन अभी हमारे पास समय नहीं है। जब होगा तो सोचेगें।
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    शुक्रिया कि आपने बहस को आगे बढ़ाया।

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  23. राजेश जी,
    टिप्पणी आपकी पोस्ट की विषय-वस्तु पर ही केन्द्रित थी, आपने इसी परिपेक्ष्य में ली, संतोष हुआ। जो वजहात मैंने कहीं, अपसे ज्यादा शायद खुद को या अपने जैसों को केन्द्र में रखकर गिनाईं थीं।
    आपने या मैंने किसी स्थापित परंपरा का त्याग किया, अगर कोई अनुसरणकर्ता बिना सोचे समझे ही उस परंपरा को छोड़ दे तो यह भी तो एक परंपरा\कुरीति ही बन गई न?
    समय के होने पर न होने पर आपने जो उदाहरण दिया सटीक है, मेरा उदाहरण उन परिस्थितियों के लिये मानिये जिनसे आपको दो चार होना पड़ा। एकदम हालात के बीच में जब परंपरा-कुरीति का सवाल उठ खड़ा हो, उस समय सम्यक चिंतन शायद संभव भी नहीं और उसके सही होने पर भी शंका रहेगी। वहीं हम सामान्य समय पर अपनी शंकायें, प्रश्न प्रस्तुत करें तो हमें बहुत से समर्थ और सक्षम विद्वानों से राय मिल सकती है जोकि आगे जाकर काम आ सकती हैं। शायद मैं अपनी बात कुछ स्पष्ट कर सका होऊं।
    मेरे लिये आपकी पहचान आपकी पोस्ट्स की बजाय आपकी विचारपरक टिप्पणियों के लिये ज्यादा है, क्योंकि अभी तक मैंने आपकी चुनिंदा पोस्ट्स ही पढ़ी हैं। आपको ऐसा लगा कि मैंने विषय को कुछ आगे बढ़ाया तो मेरे लिये तो यह भी एक सर्टिफ़िकेट ही है:)

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  24. क्रिसमस की शांति उल्लास और मेलप्रेम के
    आशीषमय उजास से
    आलोकित हो जीवन की हर दिशा
    क्रिसमस के आनंद से सुवासित हो
    जीवन का हर पथ.

    आपको सपरिवार क्रिसमस की ढेरों शुभ कामनाएं

    सादर
    डोरोथी

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  25. मृत्यु बाद परम्पराओं के नाम पर दिखावे के लिए खर्चा करना बेमानी तो है लेकिन इन परंपरा को जो सदियों से चली आ रही है तोडना आसान नहीं है.. ...बड़े बुजुर्गों का मान रखने के लिए ऐसी न जाने कितनी ही कुरीतिओं को हम न चाहते हुए भी हम अपना बैठते है, यह देख कभी कभी ताजुब होता है ..

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...