Tuesday, June 28, 2011

कहानी : वह जो शेष है !


वह दरवाजे के पास ही बैठा था। बस में ज्‍यादा लोग नहीं थे। यही कोई 20-22 लोग रहे होंगे। आशा के विपरीत बस अपने निश्चित समय पर रवाना हो गई थी।
 
हाथ में बैंक काम्‍पटीशन गाइड जरूर थी पर हिचकोलों के कारण वह ठीक से पढ़ नहीं पा रहा था। वैसे ध्‍यान भी बराबर वाली सीट पर बैठी दो लड़कियों की ओर था। उम्र में एक-दो साल के अंतर वाली वे लड़कियां बात भी कुछ ऐसी ही कर रहीं थीं, कि किसी को भी सुनने में दिलचस्‍पी हो सकती थी। छोटी दिखने वाली लड़की बड़ी को मौसी कहकर संबोधित कर रही थी। वह कनखियों से उन्‍हें देख लेता और फिर गाइड पलटने लगता।

सड़क के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे पेड़ थे, सागौन और ऐसी ही अन्‍य इमारती लकडि़यों के। किसी जमाने में यानी पांच साल पहले ही यहां घना जंगल था। पर अब लकड़ी चोरों और रक्षकों की कृपा से सब चौपट हो गया है। लकड़ी चोरी के लिए बुरी तरह बदनाम इलाका है यह। कोई बोलने-पकड़ने वाला नहीं है। चोर-चोर मौसरे भाई हैं सब ।

बस जंगल से निकलकर पथरीले मैदान में आ गई थी। सड़क के दोनों ओर एक-एक फर्लांग तक कोई पेड़ नहीं था सिवाय छोटी-छोटी झाडि़यों के। सामने सड़क पर ट्रकों की कतार देखकर वह चौंका। बस भी नजदीक जाकर रूक गई। लोग उत्‍सुकता से बाहर निकलने लगे। सबके चेहरे पर बस एक ही सवाल था क्‍या हुआ?

असल में एक संकीर्ण पुलिया थी वहां। उस पर कोयले से भरा एक ट्रक फंस गया था। पुलिया कमजोर रही होगी। ट्रक के पिछले पहिए सड़क को तोड़कर नीचे चले गए थे। पुलिया पर सिर्फ इतनी जगह थी कि कार या जीप ही निकल सकती थी। मतलब साफ था कि बस आगे नहीं जा सकती थी। ट्रक के ड्रायवर और क्‍लीनर नदारद थे। शायद कुछ इंतजाम करने गए होंगे।
बस के आगे चार और ट्रक थे। पुलिया के उस तरफ भी पांच-छह ट्रक खड़े थे। बस में एक नववि‍वाहित दम्‍पति तथा दोनों लड़कियों को छोड़कर बाकी सब नीचे उतर आए थे।

उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्‍या करे। बैंक में क्‍लर्क ग्रेड के लिए भोपाल में लिखित परीक्षा थी। ठीक साढ़े बारह बजे परीक्षा शुरू हो जाएगी।
-भाई साहब कितना बजा है अभी ?
-अभी ...ग्‍यारह होने वाला है।
अभी घंटे भर का सफर बाकी है। कोई चालीस-पैंतालीस किलोमीटर दूर होगा भोपाल। इस जगह से अगला कस्‍बा कम से कम दस किलोमीटर दूर था। पैदल जाकर वहां से अन्‍य कोई वाहन पकड़ने का समय नहीं था। उसे लगा गई परीक्षा हाथ से। जैसे-तैसे करके फीस के पैसे जुटाए थे। फीस लगती भी तो बहुत है चालीस रूपए। उसके मासिक वेतन का छठा भाग। ऐसे ही एक आफिस में आठ रुपए रोज का आदमी है वह। आदमी भी कहना चाहिए या कुछ और...। आफिस का खच्‍चर कहना ज्‍यादा अच्‍छा होगा। सारा लिपकीय कार्य उसके ऊपर ही लाद दिया जाता है। ससुरी टायपिंग जो सीख रखी है उसने। यूं तो दो डिग्रियां भी हैं उसके पास पर स्‍थायी नौकरी का ठिकाना ही नहीं बैठ रहा कहीं। पांच परीक्षाएं तो रेल्‍वे की नौकरी के लिए दे चुका है। बैंक की भी यह तीसरी परीक्षा है। तीन-चार और भी जगहों के लिए परीक्षा दी है। सब जगह धांधली है । परिवार के लोग भी यह कह कर सांत्‍वना देते हैं कि जब किस्‍मत में होगी तो मिलेगी। और वह यह सोचकर कुढ़ता रहता है कि जब तक जेब में होंगे ही नहीं तो मिलेगी कहां से?

उसे अपने आप पर गुस्‍सा आने लगा। कल शाम दोस्‍तों ने पूछा था-क्‍यों यार,ट्रेन से चलोगे न?
उसने मना कर दिया था-नहीं,मैं बस से जाऊंगा।
वह जानता था,वे कहेंगे-साला डरपोक।
लगभग सभी दोस्‍त बिना टिकट ही गए होंगे आज। पिछली दफा ऐसी एक परीक्षा के लिए सब जा रहे थे तो ट्रेन पर छापा पड़ गया था। कोई बीस लड़के बिना टिकट पकड़े गए थे। उसके पास टिकट थी इसलिए बच गया था। पर अंदर से उसे अच्‍छा नहीं लगा था। सब पकड़े गए और वह बच गया। एक आत्‍मग्‍लानि ,अपराध भाव-सा आ गया था। इसलिए इस बार उसने बस से जाना ही ठीक समझा था। (क्रमश:)

                                0 राजेश उत्‍साही

12 comments:

  1. रोचक शुरुआत.

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  2. प्रतीक्षा में हैं हम भी यहाँ।

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  3. कहानी को ऐसे मोड़ पर छोड़ा के आगे पढने की इच्छा बलवती हो गयी है...
    नीरज

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  4. अब तो अगले भाग में ही कुछ टिप्पणी कर सकते है जब पूरी कहानी पढ़ ले |

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  5. बहुत रोचक है आगे का इंतज़ार है।

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  6. उत्सुकता जगा रही है...कहानी

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  7. रोचक प्रसंग। आगे का इंतज़ार।

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  8. कहानी अपने वेग के साथ सहज रूप से ले जाने में सक्षम है. आगे की कथा जानने के लिए उत्सुकता बेकल हो रही है...
    आपका ये रूप भी बहुत प्रभावशाली और सशक्त लगा. आपकी बहुमुखी प्रतिभा हमारे लिए प्रोत्साहित करने वाली है.. हार्दिक बधाई राजेश जी भाई साहब ! प्रणाम !

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  9. कहानी अपने वेग के साथ सहज रूप से ले जाने में सक्षम है. आपका ये रूप भी बहुत प्रभावशाली और सशक्त लगा. आपकी बहुमुखी प्रतिभा हमारे लिए प्रोत्साहित करने वाली है.. हार्दिक बधाई राजेश जी भाई साहब ! प्रणाम !

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  10. कहानी आज २३ वर्ष बाद भी प्रासंगिक है। न तो बस बदली न बेरोजगारो की दशा न लोगो की मनोदशा। प्रभावशाली कहानी।

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जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...