2010 की 23 जून को विवाह को पच्चीस बरस हो चुके हैं। इस अवसर पर मैंने गुल्लक पर एक शृंखला शुरू की थी-शादी के लड्डू । इसमें मैं अपने विवाह से जुड़े विभिन्न अनुभवों को आप सबके साथ बांटने की कोशिश कर रहा था। अपरिहार्य कारणों से यह शृंखला अधूरी रह गई थी। 23 जून फिर आ रही है। तो शेष रही कहानी पूरी करने की कोशिश कर रहा हूं। आप चाहें तो इन शृंखलाओं को फिर से पढ़ सकते हैं। लिंक यहां है-
इस बीच दिसम्बर,2010 में बाबूजी(पिताजी) का निधन हो गया। उनके पुराने कागज पलटते हुए मुझे एक डायरी मिली। इसमें बाबूजी ने यह हिसाब लिख रखा है कि मेरे रिश्ते के लिए कितनी जगह बात चली। मेरे पास भी ऐसा एक हिसाब था। मेरी गिनती में यह संख्या 26 थी, लेकिन बाबूजी के मुताबिक यह संख्या 38 है। पर सूची को देखने पर मुझे याद आता है कि यह भी अपूर्ण है। इसमें 26 जगहों के नाम दर्ज हैं। होशंगाबाद, इटारसी, बानापुरा, शिवपुरी, खंडवा, बुरहानपुर, सिन्धखेड़ा , सोहागपुर, गाडरवारा, जबलपुर, बिलासपुर, चिरमिरी, अमझेरा, सेंधवा, इंदौर, उज्जैन, सीहोर, भोपाल, सागर, छतरपुर, गुलाबगंज, बीना, रतलाम,बैतूल। जो जगहें इस सूची में नहीं हैं वे हैं, मंडला ग्वालियर, झांसी, नागपुर और वर्धा। बहरहाल बाबूजी ने ऐसा कोई हिसाब रखा था, मुझे पता नहीं था। यह राज खुला भी तो 26 साल के बाद।
बाबूजी की सूची में जगह के साथ रिश्तों की संख्या और वहां बात नहीं बनने के कारण लिखे हुए हैं। कारण कुछ इस तरह हैं-लड़की मोटी है...ठिगनी है.....नाबालिग है.....कम पढ़ी है.....सांवली है। कन्या पक्ष नौकरी वाला (सरकारी नौकरी) वर चाहता है।.... लड़की वालों ने कोई जवाब नहीं दिया, वे मौन हैं। व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए कद और रंग कोई पैमाना नहीं था। हां यह चाहत जरूर थी कि होने वाली श्रीमती जी कम से कम हाईस्कूल तक तो पढ़ीं हों। उस समय तक अपन भी ग्रेजुएट ही हुए थे। नौकरी तो अपन करते थे। पर स्वयंसेवी संस्था में काम करना कोई नौकरी नहीं मानी जाती थी। औरों की तो छोडि़ए बाबूजी को भी लगता था कि यह कोई नौकरी है। उनकी इच्छा थी कि मैं डॉक्टर आदि नहीं बन पाया,कोई बात नहीं, उनकी तरह रेल्वे का कोई मुलाजिम ही बन जाऊं। अपन ने भी आठ इम्तहान दिए रेल्वे की नौकरी के लिए। पर एक में भी 'पास' नहीं हुए।
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आमतौर पर ऐसे किसी अभियान पर परिवार के साथ ही जाना होता था। जैसी कि परम्परा थी, कन्या चाय आदि लेकर सबके सामने आती थी। वहां हमारी ओर से यह आग्रह होता था कि हम कन्या से पांच-दस मिनट बात करना चाहेंगे। मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी भी परिवार ने इसके लिए मना किया था। हमारी बातचीत का विषय ज्यादातर साहित्य ही होता था। हम यह जानने की कोशिश करते कि कन्या कुछ पढ़ने-लिखने में रूचि रखती हैं या नहीं। ज्यादातर मामलों में निराशा ही हाथ लगती। बहुत हुआ तो एकाध सरिता, गृहशोभा की पाठक निकल आती। हम कोशिश करते कि कोई हमसे भी पूछे कि हमारी रूचियां क्या हैं। पर कोई पूछता नहीं था।
बाबूजी की सूची जहां खत्म होती है, वहां लिखा है सेंधवा, लड़की वाले मौन। यानी कि पत्र-व्यवहार का कोई जवाब नहीं दे रहे हैं। यह सन् 1984 की बात है। बातचीत चल रही थी। उसी बीच भोपाल गैस त्रासदी की घटना घट गई। दोनों तरफ से बात रुक गई।
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जब बात फिर शुरू हुई तो मैं सेंधवा गया। यह पहला मौका था जब मैं इस अभियान पर अकेला ही था। यह 1985 में जनवरी की बात रही होगी। सेंधवा होंशगाबाद से लगभग चार सौ किलोमीटर दूर है। बस से लगभग 16-17 घंटे का सफर करके मैं सेंधवा पहुंचा।
मुम्बई-आगरा रोड पर जयस्तंभ चौक के पास ही वर्मा परिवार रहता था। घर पहली मंजिल पर था और नीचे आगे की तरफ कुछ दुकानें थीं। पिछले हिस्से में कुछ जगह परिवार ने अपने लिए रखी थी। वहीं छह गुणा दस के एक छोटे से कमरे में मुझे बिठाया गया। वहीं से ऊपर की तरफ जीना जाता था। निर्मला के छोटे भाई ने मेरा स्वागत किया। कुछ समय बाद एक किशोरी धमधम करते हुए जीने से उतरी और मुझ पर एक उड़ती हुई नजर डालती हुई बाहर निकल गई। पांचेक मिनट बाद वह लौटी और फिर एक नजर डालती हुई जीने से ऊपर चली गई। मुझे लगा जैसे मेरी परख की जा रही हो। थोड़ी ही देर में वह किशोरी फिर से आई। उसके हाथ में गिलास था, चाय का नहीं काफी का। गिलास मुझे थमाकर वह फिर से चली गई।
थोड़ी देर बार उसी जीने से एक युवक और एक युवती बात करते हुए नीचे उतरे, उन्होंने मेरा अभिवादन किया और बाहर निकल गए। दो-तीन मिनट बाद युवक चला गया और युवती आकर मेरे सामने बैठ गई। ये थीं निर्मला जी। युवक ,निर्मला और उनके भाई का साथी प्राध्यापक था। निर्मला कॉलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका थीं। दो-तीन मिनट हमारे बीच सन्नाटा पसरा रहा। फिर बातचीत शुरू हुई तो वह लगभग घंटे भर बाद ही रूकी। हम दुनिया जहान की बात करते रहे। इस बीच निर्मला के छोटे भाई कॉलेज चले गए और जाते-जाते हिदायत दे गए कि मुझे खाना आदि खिला दिया जाए। निर्मला ने थोड़ी ही देर में अपनी मां के साथ मिलकर खाने की तैयारी कर ली थी। इसमें उस किशोरी ने भी मदद की थी। असल में वह निर्मला के बड़े भाई की बेटी थी।
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सेंधवा में एक परिवार था रऊफ मास्टर जी का। उनके रिश्तेदार होशंगाबाद में हमारे पड़ोसी थे। हमारे रिश्ते की बात चलाने में कुछ हद तक उनका भी हाथ था। जाहिर है वे निर्मला के परिवार से भी परिचित थे। खाना खाकर निर्मला और मैं पैदल ही लगभग 1 किलोमीटर दूर उनके घर गए। वहां लगभग एक घंटे बैठे होंगे। उनसे मिलकर लौटे तो निर्मला अपने एक मुंह बोले भाई साहब से उनकी दुकान पर मिलवाने ले गईं।
इस तरह हमने पांच-दस मिनट नहीं, लगभग चार-पांच घंटे साथ गुजारे। इस बीच अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे को जानने,समझने, परखने की कोशिश की। शायद हमारी बातचीत में हमने कहीं न कहीं यह भी व्यक्त कर दिया था कि हम एक-दूसरे को पसंद कर रहे हैं।
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सेंधवा से मैं उज्जैन गया और वहां से देवास। तीसरे दिन होशंगाबाद पहुंचा। इस दौरान लगातार सारे घटनाक्रम पर विचार करता रहा। अंतत: मैं इस नतीजे पर पहुंचा था कि मेरी कोलम्बसी खोज पूरी हो चुकी है। सो होशंगाबाद लौटते ही मैंने घोषणा कर दी थी कि बस अब शादी होगी तो यहीं होगी, अन्यथा नहीं। 'नहीं' के मूल में पिछले कुछ वाकये थे। उन्हें जानने के लिए आपको पिछली कडि़यों को पढ़ना होगा। अब इंतजार निर्मला और उनके परिवार के निर्णय का था।
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सेंधवा से मैं उज्जैन गया और वहां से देवास। तीसरे दिन होशंगाबाद पहुंचा। इस दौरान लगातार सारे घटनाक्रम पर विचार करता रहा। अंतत: मैं इस नतीजे पर पहुंचा था कि मेरी कोलम्बसी खोज पूरी हो चुकी है। सो होशंगाबाद लौटते ही मैंने घोषणा कर दी थी कि बस अब शादी होगी तो यहीं होगी, अन्यथा नहीं। 'नहीं' के मूल में पिछले कुछ वाकये थे। उन्हें जानने के लिए आपको पिछली कडि़यों को पढ़ना होगा। अब इंतजार निर्मला और उनके परिवार के निर्णय का था।
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निर्मला और बड़ी बहन प्रेमा |
शादी के बाद पहले साल विभिन्न कारणों से निर्मला सेंधवा में रहीं और मैं होशंगाबाद में। इस बीच हमने एक-दूसरे को ढेर सारे खत लिखे। ये खत धरोहर की तरह सुरक्षित हैं। पिछले बरस जब मैं बंगलौर से भोपाल आया तो इन्हें साथ लेता आया। उनमें मुझे निर्मला की बड़ी बहन द्वारा लिखा गया एक खत मिला। वे इंदौर में रहती हैं। यह उन्होंने अपने छोटे भाई को लिखा था। पर इसी खत में एक हिस्सा निर्मला के लिए भी था,इसलिए यह उनके पास भी आ गया। आप भी पढिए-
‘’पत्र को आवश्यक समझते हुए लिख रही हूं। इंदौर अभी-अभी एक लड़का आया था। लड़का भोपाल में इंजीनियर है। भोपाल के पास के एक गांव में उसका घर,खेती-बाड़ी तथा परिवार है। उससे सम्पूर्ण बातचीत कर ली है। केवल उसकी उम्र का चक्कर है। वह अपनी उम्र 26 बताता है, जब कि वह 28 के आसपास है और उससे भी अधिक का दिखता है। लड़का छूटे नहीं क्योंकि लड़का देखने में ऊंचा-पूरा मोटा तथा दिखने में गोरा (यानी ठीक-ठाक) नाक-नक्श एकदम बढि़या है। अगर निर्मला की जन्मकुंडली से काम बनता है तो ठीक है। क्योंकि 'उत्साही'सज्जन को मैंने देखा तो नहीं है पर जो कुछ सुना है वह तो मेरी समझ में नहीं आया। और फिर जब तक यह लड़का जमता है तो क्यों न कोशिश की जाए। फिर अभी बात पक्की तो नहीं हुई है। होशंगाबाद वाले लड़के के बारे में तेरे जीजा को भाभी ने सब कुछ बताया है। वैसे तो नीमू से मैंने पूछा तो वह बता रही है,ठीक है। नीमू उसके रंग-रूप पर नहीं विचारों से प्रभावित है। पर विचार अलग बात है। सच और हकीकत के धरातल पर यर्थाथ की तथा निर्वाहों की ठोकरें केवल लड़की को ही खानी पड़ती हैं। और फिर जरूरी तो नहीं कि जिस व्यक्ति के विचार उच्च हैं उसके व्यवहार भी ठीक होंगे। मुझे इन बातों पर संदेह होता है। पिछले दस सालों में मैंने ऐसे सच्चे कड़ुवे घूंट खूब पिये हैं। तबीयत इतनी तर हो गई है कि अब इन आदर्शों तथा नैतिक मूल्यों की बातें बेमानी लगती हैं।’’
बड़ी बहन के नाते उनकी चिंता जायज थी। उनके पिताजी का निधन बहुत पहले हो गया था। दो बड़े भाई थे, पर वे अपने परिवार की जिम्मेदारियों में इतने उलझे थे कि अपने से छोटी बहनों और भाई की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उनकी मां ने निर्मला, बड़ी बहन प्रेमा और छोटे भाई अशोक को न केवल बेहतर शिक्षा प्राप्त करने,वरन् अपने आपको समाज में स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया था। प्रेमा जी हाईस्कूल में व्याख्याता हैं। जाहिर है आगे के जीवन के लिए हर कोई एक तरह का स्थायित्व का आश्वासन तो चाहता ही है।
मेरे परिवार में पिताजी और मेरी नौकरी के अलावा आय का और कोई साधन नहीं था। न ही कोई जमीन,जायदाद या मकान आदि था। सवाल दो-चार पल का नहीं बल्कि जीवन भर का था। लेकिन इस सबके बावजूद निर्मला ने तय कर लिया था कि वे विवाह मुझ से ही करेंगी। अंतत: उनके घर वालों को उनकी बात माननी पड़ी। वर्मा परिवार की स्वीकृति मिलने पर अम्मां-बाबूजी सेंधवा पहुंचे। उन्होंने वहां पहुंचकर निर्मला और उनके परिवार को देखा-भाला और तुरंत निर्णय लेकर सगाई की रस्म भी सम्पन्न कर डाली। इसके कदम के पीछे मेरी इस घोषणा का असर भी था कि 'यहां नहीं तो कहीं नहीं'। और फिर 23 जून,1985 को हमने भी जयमाला एक-दूसरे के गले में डाल दी।
मेरे परिवार में पिताजी और मेरी नौकरी के अलावा आय का और कोई साधन नहीं था। न ही कोई जमीन,जायदाद या मकान आदि था। सवाल दो-चार पल का नहीं बल्कि जीवन भर का था। लेकिन इस सबके बावजूद निर्मला ने तय कर लिया था कि वे विवाह मुझ से ही करेंगी। अंतत: उनके घर वालों को उनकी बात माननी पड़ी। वर्मा परिवार की स्वीकृति मिलने पर अम्मां-बाबूजी सेंधवा पहुंचे। उन्होंने वहां पहुंचकर निर्मला और उनके परिवार को देखा-भाला और तुरंत निर्णय लेकर सगाई की रस्म भी सम्पन्न कर डाली। इसके कदम के पीछे मेरी इस घोषणा का असर भी था कि 'यहां नहीं तो कहीं नहीं'। और फिर 23 जून,1985 को हमने भी जयमाला एक-दूसरे के गले में डाल दी।
0राजेश उत्साही
शादी को त्रासदी से जोड़ना ,बहुत ही रोचक संस्मरण ,आभार......
ReplyDeleteकितनी जल्दी यह सब जमाने पुरानी बातें लगने लगती हैं.
ReplyDeleteरुचिकर विवरण ....ईश्वर करे आप दोनों जीवन भर मस्त रहो और मीठी यादों को संजोये रहो ! शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteआपकी विवाह कथा बहुत ही अच्छी लगी।
ReplyDeleteराजेश भाईजी,
ReplyDeleteलड्डू बहुत लजीज हैं:)
अग्रिम शुभकामनायें छब्बीसवीं सालगिरह के लिये और ऐसी अनंत सालगिरह आप लोगों के जीवन में आयें।
अनंत शुभकामनाए ।
ReplyDeleteबहुत ही रोचक विवरण...
ReplyDeleteवैवाहिक वर्षगाँठ की अग्रिम शुभकामनाएं
कमाल् के लड्डू हैं गुरूजी!!
ReplyDeleteआपने त्रासद पलों को जिया भी है और झेला भी। आ॰ प्रेमा जी का पत्र कटु यथार्थ से पूरित है। इसके ताप को नि:संदेह आ॰ भाभी जी ने विवाहोपरांत महसूसा भी होगा क्योंकि मध्यवित्त परिवारों में नवागता को जड़ें जमाने में काफी समय तो लगता ही है, कष्ट भी पूरा झेलना पड़ता है। कुल मिलाकर आप दोनों ने धैर्य, विवेक और साहस से काम लिया। आप दोनों ने ही विपरीत परिस्थितियों पर रो-रोकर एक-दूसरे को सहारा दिया है, ऐसा मैं महसूस करता हूँ।
ReplyDeleteसच में शादी के झमेले किसी कोलम्बसी खोज से कम नहीं आंके जाने चाहिए.. आपकी कोलम्बसी खोज में डूबे मुझे भी मेरी शादी के हालातों का एक वृहद चलचित्र याद आ रहा है, ऐसे उत्प्रेरक प्रसंग पढ़कर ही मन में आता है की मैं भी लिख डालूं वह सब जो कुछ घटित हुआ है......एक अव्यक्त दर्द सा उभरने लगा है मन में..... समय आने पर जरुर ब्लॉग पर लिखना चाहूंगी ....फिलहाल बाबूजी की इतनी पुरानी लिस्ट देख हैरान हूँ.. जो सम्भाल कर रखी थी ,,...चलो इतने संघर्ष के बाद आपको अपनी मनपसंद जीवन साथी मिली, इससे अच्छी और कुछ बात हो ही नहीं सकती.. आपका प्यार यूँ ही जीवन भर बना रहे, यही मनोकामना है आपकोछब्बीसवीं सालगिरह के लिये अग्रिम शुभकामनायें ..
ReplyDeleteहर्ष हुआ कि आपके बाबूजी विवाह योग्य कन्यायों की लिस्ट बनाकर रखते थे। हमारे पिताजी भी इस कला में पारंगत थे । हम छह भाई बहन --सोचिये उनकी लिस्ट कितनी लम्बी होगी ।चलिए एक से दो भले।
ReplyDeleteअफसोस !आपको छब्बीस साल बाद उस लिस्ट का पता चला। हमें तो जब -तब फायल में झाँकने का मौका मिल ही जाता था।
संतोष है आपकी कोलम्बसी खोज का समापन सुखद रहा।
शादी की छब्बीसवीं सालगिरह पर ढेर सी शुभ -कामनायें।
सुधा भार्गव
INTAJAAR KA PHAL MITHAA HI HOTA HAI.
ReplyDeleteUDAY TAMHANE.