फोटो: राजेश उत्साही |
गली के मुहाने पर खाली प्लाट था।
मोहल्ले के ज्यादातर लोगों के लिए कचरा डालने का एक ठिकाना । कब तक खाली रहता, बिक गया। जल्दी ही उस पर एक नया घर भी बन गया। कहते हैं कि आदत आसानी से नहीं जाती। कुछ लोग अब भी वहीं कचरा डाल रहे थे।
मकान मालिक परेशान-हैरान थे। सब उपाय करके देख लिए थे। वहां लिख दिया था अंग्रेजी में भी और स्थानीय भाषा में भी कि, ‘यहां कचरा डालना मना है।’ पर हर जगह की तरह वहां भी पढ़े-लिखे गंवारों की संख्या अधिक थी। लोग थे कि बाज ही नहीं आ रहे थे।
एक सुबह चमत्कार हो गया। कचरे की बजबजाती दुर्गंध की जगह चंदन की सुगंध ने ले ली। अब लोग घर का नहीं मन का कचरा डालने वहां आ रहे थे।
मकान मालिक ने रातों-रात अपने किसी आराध्य को पहरेदारी के लिए एक छोटी-सी मडि़या में वहां बिठा दिया था।
0 राजेश उत्साही
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अच्छी आदतें कैसे भी पड़ें, स्वागत है।
ReplyDeleteगुरुदेव! आज कल यह नुस्ख़ा पहरेदारी का बड़ा कारगर हो रहा है!!
ReplyDeleteअब लोग घर का नहीं मन का कचरा डालने वहां आ रहे थे।
ReplyDeleteबहुत खूब ... कैसे बदल जाता है इंसान का मन ... अच्छी लघु कथा है ....
ReplyDeletemann ko badalne ke liye ek khaas lakir ki zarurat hoti hai ... ab ise aastha kahen yaa andhvishwaas , chaliye kude se nijaat mili
ReplyDeleteअच्छी लघु कथा है| धन्यवाद|
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी ये कहानी, वाकई लोगों को ऐसे ही बदला जा सकता है. सीधे तरीके से तो सबको समझ नहीं आता है. कहते हैं कि घी सीधी अंगुली से न निकले तो टेढ़ी से निकल आता है.
ReplyDeleteदिमागी परिवर्तन । बढिया लघुकथा.
ReplyDeleteईश्वर को पहरेदारी में लगाने वाले बहुत से लोग है।
ReplyDeleteयह थोड़े समय की मुक्ति है
जाने प्रवृति कब बदलेंगी
आपने अच्छा लिखा
कुछ दिन में एक बोर्ड और लगा होगा, ’प्राचीन.......’
ReplyDeleteमन का कचरा तो डालने ठीक है पर कचरा फिर भी कहीं न कहीं डाल ही देते होंगे ....वैसे मन को परिवर्तित करने के लिए आस्था का सहारा भी अच्छा ही है ...सन्देश परक अच्छी लघु कथा
ReplyDeleteशायद इंसान और गधें में यही समानता हैं। दोनो बिना चाबुक खायें कुछ करना नही चाहते। अब चाबुक चलाने वाला आस्था की चाबुक चलाये या धर्म, जातीवाद, समाजवाद,राष्ट्रवाद,लेनिनवाद, मार्कसवाद या गांधीवाद की। अपनी इस चाबुक से सुधार करें या शासन पडती तो इंसानी गधों के पीठ पर ही है।
ReplyDeleteकूडें सें निजात तो मिल गयी उत्साही जी , इंसान को खुद के भीतर बैठे गधें से निजात कब मिलेगी ? ये चमत्कार कब होगा ?
इस विषय पर कालीचरण 'प्रेमी'की बहुत ही धारदार लघुकथा है, लेकिन इस लघुकथा का ट्रीटमेंट उससे अलग है। 'हारे को हरिनाम'का एक रूप यह भी है।
ReplyDeleteबहुत अच्छे...
ReplyDeleteमन तो हो रहा है की, मालिक को जाकर कहें... what an idea sir ji...
अजी इस मन के कचरे का दुर्गन्ध और ज्यादा है ... पीढ़ीओं तक बदबू मरते रहता है ...
ReplyDeleteसीधे सीधे समझ मे आता कहाँ है?
ReplyDeleteSANGITA SVROOPJI NE SAHI BAAT RAKHI HAI.
ReplyDeleteSAHI BADLAW KE LIYE AASTHA KA SAHARA KYA BOORA HAI.
UDAY TAMHANEY.
BHOPAL.