Saturday, November 20, 2010

चमत्‍कार : एक लघुकथा

                                                                                        फोटो: राजेश उत्‍साही
गली के मुहाने पर खाली प्‍लाट था। 

मोहल्‍ले के ज्‍यादातर लोगों के लिए कचरा डालने का एक ठिकाना । कब तक खाली रहता, बिक गया। जल्‍दी ही उस पर एक नया घर भी बन गया। कहते हैं कि आदत आसानी से नहीं जाती। कुछ लोग अब भी वहीं कचरा डाल रहे थे।

मकान मालिक परेशान-हैरान थे। सब उपाय करके देख लिए थे। वहां लिख दिया था अंग्रेजी में भी और स्‍थानीय भाषा में भी कि, ‘यहां कचरा डालना मना है।’ पर हर जगह की तरह वहां भी पढ़े-लिखे गंवारों की संख्‍या अधिक थी। लोग थे कि बाज ही नहीं आ रहे थे।

एक सुबह चमत्‍कार हो गया। कचरे की बजबजाती दुर्गंध की जगह चंदन की सुगंध ने ले ली। अब लोग घर का नहीं मन का कचरा डालने वहां आ रहे थे।

मकान मालिक ने रातों-रात अपने किसी आराध्‍य को पहरेदारी के लिए एक छोटी-सी मडि़या में वहां बिठा दिया था।
                                   0 राजेश उत्‍साही 


17 comments:

  1. अच्छी आदतें कैसे भी पड़ें, स्वागत है।

    ReplyDelete
  2. गुरुदेव! आज कल यह नुस्ख़ा पहरेदारी का बड़ा कारगर हो रहा है!!

    ReplyDelete
  3. अब लोग घर का नहीं मन का कचरा डालने वहां आ रहे थे।

    ReplyDelete
  4. बहुत खूब ... कैसे बदल जाता है इंसान का मन ... अच्छी लघु कथा है ....

    ReplyDelete
  5. mann ko badalne ke liye ek khaas lakir ki zarurat hoti hai ... ab ise aastha kahen yaa andhvishwaas , chaliye kude se nijaat mili

    ReplyDelete
  6. अच्छी लघु कथा है| धन्यवाद|

    ReplyDelete
  7. बहुत अच्छी लगी ये कहानी, वाकई लोगों को ऐसे ही बदला जा सकता है. सीधे तरीके से तो सबको समझ नहीं आता है. कहते हैं कि घी सीधी अंगुली से न निकले तो टेढ़ी से निकल आता है.

    ReplyDelete
  8. दिमागी परिवर्तन । बढिया लघुकथा.

    ReplyDelete
  9. ईश्वर को पहरेदारी में लगाने वाले बहुत से लोग है।
    यह थोड़े समय की मुक्ति है
    जाने प्रवृति कब बदलेंगी
    आपने अच्छा लिखा

    ReplyDelete
  10. कुछ दिन में एक बोर्ड और लगा होगा, ’प्राचीन.......’

    ReplyDelete
  11. मन का कचरा तो डालने ठीक है पर कचरा फिर भी कहीं न कहीं डाल ही देते होंगे ....वैसे मन को परिवर्तित करने के लिए आस्था का सहारा भी अच्छा ही है ...सन्देश परक अच्छी लघु कथा

    ReplyDelete
  12. शायद इंसान और गधें में यही समानता हैं। दोनो बिना चाबुक खायें कुछ करना नही चाहते। अब चाबुक चलाने वाला आस्था की चाबुक चलाये या धर्म, जातीवाद, समाजवाद,राष्ट्रवाद,लेनिनवाद, मार्कसवाद या गांधीवाद की। अपनी इस चाबुक से सुधार करें या शासन पडती तो इंसानी गधों के पीठ पर ही है।
    कूडें सें निजात तो मिल गयी उत्साही जी , इंसान को खुद के भीतर बैठे गधें से निजात कब मिलेगी ? ये चमत्कार कब होगा ?

    ReplyDelete
  13. इस विषय पर कालीचरण 'प्रेमी'की बहुत ही धारदार लघुकथा है, लेकिन इस लघुकथा का ट्रीटमेंट उससे अलग है। 'हारे को हरिनाम'का एक रूप यह भी है।

    ReplyDelete
  14. बहुत अच्छे...
    मन तो हो रहा है की, मालिक को जाकर कहें... what an idea sir ji...

    ReplyDelete
  15. अजी इस मन के कचरे का दुर्गन्ध और ज्यादा है ... पीढ़ीओं तक बदबू मरते रहता है ...

    ReplyDelete
  16. सीधे सीधे समझ मे आता कहाँ है?

    ReplyDelete
  17. SANGITA SVROOPJI NE SAHI BAAT RAKHI HAI.

    SAHI BADLAW KE LIYE AASTHA KA SAHARA KYA BOORA HAI.
    UDAY TAMHANEY.
    BHOPAL.

    ReplyDelete

जनाब गुल्‍लक में कुछ शब्‍द डालते जाइए.. आपको और मिलेंगे...