Sunday, May 2, 2010

शरद बिल्‍लौरे की तीन और कविताएं

मजदूर दिवस बीते अभी दो दिन ही हुए हैं। आज भाई शरद बिल्लौरे की पुण्य तिथि है। मजदूर दिवस को याद करते हुए उनकी बैल कविता पढ़ना नए अर्थ देता है। जब तुम शहर में नहीं हो कविता कवि की एक अलग ही दुनिया के बारे में बताती है। और तीसरी कविता तुम मुझे उगने तो दो उनके संघर्ष का जीवंत बयान है।



बैल
एक दिन
थके हुए बैल के सपने में
उभरी हुई नसों वाले
दो जवान और मज़बूत हाथों ने प्रवेश किया।
बैल गुस्से में उन्हें मारने दौड़ा
और अपने सींगों में दबोच कर
दिन भर सुनी हुई गालियाँ
उन्हें वापिस लौटाई।
फिर
पुट्ठों पर बने कीलों के निशान गिनवाए।

हथेलियों में अपने छाले को छिपा कर
बैल की पीठ सहलाई
बैल ने अपनी पीठ पर
उन छालों को फूटते हुए महसूस किया
हाथों ने उसे
अपना आधा खाली पेट दिखाया।
बैल ने उस दिन
अपने हिस्से का आधा भूसा नहीं खाया।

दूसरे दिन से
हाथ ग़ाली नहीं देते
बैल धीमे नहीं चलता
एक दिन दोनों के सपने में
गाँव पटेल प्रवेश करेगा

हाथ उसे दबोच कर
बैल के आगे डाल देंगे
बैल उसे सींगों पर उछाल देगा
फिर
सब मीठी नींद सो जाएंगे।
 00

जब तुम शहर में नहीं हो।
हफ़्ते भर से चल रहे हैं
जेब में सात रुपये
और शरीर पर
एक जोड़ कपड़े

एक पूरा चार सौ पृष्ठों का उपन्यास
कल ही पूरा पढ़ा,
और कल ही
अफ़सर ने
मेरे काम की तारीफ़ की।

दोस्तों को मैंने उनकी चिट्ठियों के
लम्बे-लम्बे उत्तर लिखे
और माँ को लिखा
कि मुझे उसकी ख़ूब-ख़ूब याद आती है।

सम्वादों के
अपमान की हद पार करने पर भी
मुझे मारपीट जितना
गुस्सा नहीं आया

और बरसात में
सड़क पार करती लड़कियों को
घूरते हुए मैं झिझका नहीं

तुम्हें मेरी दाढ़ी अच्छी लगती है
और अब जबकि तुम
इस शहर में नहीं हो
मैं
दाढ़ी कटवाने के बारे में सोच रहा हूँ।
00

तुम मुझे उगने तो दो।
आख़िर कब तक तलाशता रहूंगा
सम्भावनाएँ अँकुराने की
और आख़िर कब तक
मेरी पृथ्वी
तुम अपना गीलापन दफ़नाती रहोगी,
कब तक करती रहोगी
गेहूँ के दानों का इन्तज़ार
मैं जंगली घास ही सही
तुम्हारे गीलेपन को
सबसे पहले मैंने ही तो छुआ है
क्या मेरी जड़ों की कुलबुलाहट
तुमने अपने अंतर में महसूस नहीं की है

मुझे उगाओ मेरी पृथ्वी
मैं उगकर
कोने-कोने में फ़ैल जाना चाहता हूँ
तुम मुझे उगने तो दो
मैं
तुम्हारे गेहूँ के दानों के लिए
शायद एक बहुत अच्छी
खाद साबित हो सकूँ।
0 शरद बिल्लौरे

(लेखक के कविता संग्रह तय तो यही हुआ था से साभार)

3 comments:

  1. Natmastak hoon us pratibha ke aage.. bhavbheeni shraddhanjali

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  2. Teeno kavitaon apoorv shilp se bandhi jiwan ke katu satya ko udghatit karti dil ke gahre marm ko chhuti huee gahre dharatal par utrati hain..

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  3. ACHCHHI ABHIVYKTI.
    KAVI KO SHRADDHANJALI.
    UDAY TAMHANEY.
    BHOPAL.

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