लिखने के दौरान मेरे जो अनुभव रहे हैं, मैंने जो सीखा है वह मैं औरों तक पहुंचाने की कोशिश करता रहा हूं। इस बात का जिक्र मैंने अपनी एक पोस्ट नसीम अख्तर की कविताओं के बहाने में भी किया है। पिछले दिनों किसी एक ब्लॉग पर मैं अपनी आदत के मुताबिक टिप्पणी करके आ गया। अगले दिन यह देखकर सुखद आश्चर्य से भर उठा कि उस ब्लॉगर ने मेरी बात को गंभीरता से लिया था और मुझे इमेल करके अपनी कविताओं के संदर्भ में मदद मांगी थी। साथ में अपनी एक अप्रकाशित कविता भी भेजी थी। मैंने अपनी तरफ से उस कविता में आवश्यक संपादन करके उसे वापस प्रेषित कर दिया। जवाब में मुझे जो मेल मिला उसका संपादित अंश मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।
आदरणीय गुरु जी
(आज से यही सम्बोधन करना चाहूंगी)
सादर नमन!
आपने मेरी दो कविताओं का संपादन कर मुझे एक नई दिशा देते हुए मुझे एक गुरु जिसकी मुझे शायद तलाश थी, वह भी पूरी कर दी। मैं किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूं! समझ में नही आ रहा है। मुझे कोई शब्द सूझ नहीं पा रहे हैं।
सच में आपने वर्तमान समय परिदृश्य में जिस निस्वार्थ भाव से सहयोग किया है, उसे देख मैं कृतार्थ हुए बिना नहीं रह सकती। मैं सदैव आपकी आभारी रहूंगी। आप मेरी कविताओं को नया रूप, नया आयाम देंगे यह देख मुझे सुखद आश्चर्य और अपार खुशी की अनुभूति हो रही है।
मेरे मन में जरूर यह बात बार-बार आती थी कि क्यों न किसी साहित्यकार से सहायता ली जाए। सच कहूं जैसे कि आपने अपने गुलमोहर ब्लॉग में लिखा है कि कुछ लोग शायद कविता को बेकार का काम समझते हैं। यह कुछ नहीं बहुत से लोगों के यही विचार हैं। मेरे पति के सिवाय मेरे घर परिवार और सखी-सहेलियों और रिश्तेदारों में किसी एक को कोई रूचि नहीं। उन्हें मालूम भी नहीं कि मैं लिखती हूं और मैं बताना भी उचित नहीं समझती। क्योंकि मेरा मानना है कि जब किसी को हमारी भावनाओं को समझना ही नहीं है तो क्यों बेकार में ही बताया जाए, पता नहीं क्या-क्या कहने लगेंगे।
मैंने समाचार पत्र में जब ब्लॉग के बारे में पढ़ा तो सोचा मैं भी कोशिश करूं। बस एक ब्लाग बनाया और दो-चार कविताएं पोस्ट कर दीं। जब एक दिन अचानक मैंने देखा कि मेरी एक कविता पर प्रतिक्रियाएं आई हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगा।
कविताओं के शिल्प में मैंने अपने आप को कभी बांधना स्वीकार नहीं किया। सच मैं चाहती तो यही हूं कि शिल्प की कमी न हो, लेकिन कभी-कभी यह सब बहुत माथा-पच्ची सा लगता है। एक तो समय की कमी, ऊपर से कभी सोचो भी तो कभी बच्चे, तो कभी कोई बीच में आ टपकता है। बस फिर जो लिख दिया टुकड़ों-टुकड़ों में वही जोड़कर पोस्ट कर देती हूं।
खैर छोड़िए यह कहानी। ब्लॉग से मुझे बहुत कुछ सीखने, समझने को मिल रहा है और सहयोग भी। बहुत से लोग समय-समय टिप्पणी करके, प्रोत्साहित करते रहते हैं। लेकिन जो सही रास्ता आप बता रहे हैं और सहयोग कर रहे हैं, वह किसी ने नहीं किया... शायद समयाभाव या अन्य कोई कारण होगा? मैं समझती हूं कि पृथ्वी पर निस्वार्थ भावना और सहयोग करने वाले बहुत ही कम लोग हैं, फिर भी जब कभी आप जैसे निस्वार्थ और सच्चे सहयोगी मिलते हैं, तो मन में अपार प्रसन्नता होती है, नई उमंग-तरंग, नई ऊर्जा मिल जाती है।
आपसे एक विनम्र निवेदन कि यदि मैं ब्लॉग पर पोस्ट करने से पहले अपनी कविता संपादित करने भेजूं तो आप क्या इसी तरह मेरा सहयोग करेंगे? इसे अन्यथा न समझें, क्योंकि आपके पास भी समयाभाव या अन्य कारण होंगे, इसलिए कह रही हूं। आप नि:संकोच जो भी बात हो बताना ।
मुझे विश्वास है कि आप मेरी रचनाओं को समझदार व परिपक्व बनाने में मेरा सहयोग कर मेरा हौंसला बढ़ाकर मुझे नई दिशा, नई सोच देकर ऊर्जा संचरण कर कृतार्थ करते रहेंगे।
हार्दिक शुभ कामनाओं सहित....
सादर
आपकी एक शिष्या
(आज से यही सम्बोधन करना चाहूंगी)
सादर नमन!
आपने मेरी दो कविताओं का संपादन कर मुझे एक नई दिशा देते हुए मुझे एक गुरु जिसकी मुझे शायद तलाश थी, वह भी पूरी कर दी। मैं किन शब्दों में आपका शुक्रिया अदा करूं! समझ में नही आ रहा है। मुझे कोई शब्द सूझ नहीं पा रहे हैं।
सच में आपने वर्तमान समय परिदृश्य में जिस निस्वार्थ भाव से सहयोग किया है, उसे देख मैं कृतार्थ हुए बिना नहीं रह सकती। मैं सदैव आपकी आभारी रहूंगी। आप मेरी कविताओं को नया रूप, नया आयाम देंगे यह देख मुझे सुखद आश्चर्य और अपार खुशी की अनुभूति हो रही है।
मेरे मन में जरूर यह बात बार-बार आती थी कि क्यों न किसी साहित्यकार से सहायता ली जाए। सच कहूं जैसे कि आपने अपने गुलमोहर ब्लॉग में लिखा है कि कुछ लोग शायद कविता को बेकार का काम समझते हैं। यह कुछ नहीं बहुत से लोगों के यही विचार हैं। मेरे पति के सिवाय मेरे घर परिवार और सखी-सहेलियों और रिश्तेदारों में किसी एक को कोई रूचि नहीं। उन्हें मालूम भी नहीं कि मैं लिखती हूं और मैं बताना भी उचित नहीं समझती। क्योंकि मेरा मानना है कि जब किसी को हमारी भावनाओं को समझना ही नहीं है तो क्यों बेकार में ही बताया जाए, पता नहीं क्या-क्या कहने लगेंगे।
मैंने समाचार पत्र में जब ब्लॉग के बारे में पढ़ा तो सोचा मैं भी कोशिश करूं। बस एक ब्लाग बनाया और दो-चार कविताएं पोस्ट कर दीं। जब एक दिन अचानक मैंने देखा कि मेरी एक कविता पर प्रतिक्रियाएं आई हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगा।
कविताओं के शिल्प में मैंने अपने आप को कभी बांधना स्वीकार नहीं किया। सच मैं चाहती तो यही हूं कि शिल्प की कमी न हो, लेकिन कभी-कभी यह सब बहुत माथा-पच्ची सा लगता है। एक तो समय की कमी, ऊपर से कभी सोचो भी तो कभी बच्चे, तो कभी कोई बीच में आ टपकता है। बस फिर जो लिख दिया टुकड़ों-टुकड़ों में वही जोड़कर पोस्ट कर देती हूं।
खैर छोड़िए यह कहानी। ब्लॉग से मुझे बहुत कुछ सीखने, समझने को मिल रहा है और सहयोग भी। बहुत से लोग समय-समय टिप्पणी करके, प्रोत्साहित करते रहते हैं। लेकिन जो सही रास्ता आप बता रहे हैं और सहयोग कर रहे हैं, वह किसी ने नहीं किया... शायद समयाभाव या अन्य कोई कारण होगा? मैं समझती हूं कि पृथ्वी पर निस्वार्थ भावना और सहयोग करने वाले बहुत ही कम लोग हैं, फिर भी जब कभी आप जैसे निस्वार्थ और सच्चे सहयोगी मिलते हैं, तो मन में अपार प्रसन्नता होती है, नई उमंग-तरंग, नई ऊर्जा मिल जाती है।
आपसे एक विनम्र निवेदन कि यदि मैं ब्लॉग पर पोस्ट करने से पहले अपनी कविता संपादित करने भेजूं तो आप क्या इसी तरह मेरा सहयोग करेंगे? इसे अन्यथा न समझें, क्योंकि आपके पास भी समयाभाव या अन्य कारण होंगे, इसलिए कह रही हूं। आप नि:संकोच जो भी बात हो बताना ।
मुझे विश्वास है कि आप मेरी रचनाओं को समझदार व परिपक्व बनाने में मेरा सहयोग कर मेरा हौंसला बढ़ाकर मुझे नई दिशा, नई सोच देकर ऊर्जा संचरण कर कृतार्थ करते रहेंगे।
हार्दिक शुभ कामनाओं सहित....
सादर
आपकी एक शिष्या
इस पर मेरा जवाब कुछ इस तरह से था -
आपका पत्र मिला। पढ़कर मैं भावविभोर हो गया। मुझे लगा कि मैं अपने जिस मिशन में लगा हूं वह सही है। आपने जो सम्मा़न मुझे दिया है वह कुछ ज्यादा ही है। मैं उतने का अधिकारी नहीं हूं।
आपने पूछा है कि ‘आपसे एक विनम्र निवेदन कि यदि मैं ब्लॉग पर पोस्ट करने से पहले अपनी कविता संपादित करने भेजूं तो आप क्या इसी तरह मेरा सहयोग करेंगे? इसे अन्यथा न समझें, क्योंकि आपके पास भी समयाभाव या अन्य कारण होंगे, इसलिए कह रही हूं। आप नि:संकोच जो भी बात हो बताना।’
आपने मुझे गुरु माना आभारी हूं। पर क्षमा करें जैसा कि मैंने पहले कहा मैं इतने भारी सम्मान का अधिकारी नहीं हूं। आदरणीय तो कतई नहीं। आप मुझे अपना मित्र ही समझें पर्याप्त। है। अधिक से अधिक गुरुमित्र। आप भी मेरे लिए मित्र ही हैं शिष्या नहीं। मैं भी आपसे कुछ सीखूंगा। इसलिए हम एक-दूसरे के गुरुमित्र ही हों यह बेहतर है।
शुभकामनाएं
उहापोह के इस दौर में किसी से भी प्रोत्साहन, मार्गदर्शन की अपेक्षा करना अमूमन मुश्किल ही होता है, वस्तुतः यदि आप वक्त निकलकर किसी की मदद कर रहे हैं तो निश्चित ही यह एक बड़ा योगदान है.
ReplyDeleteये आपकी विनम्रता है कि आप स्वयं को गुरु नहीं कहलवाना चाहते लेकिन जिस तरह से आपने निस्वार्थ सहयोग किया है वो केवल एक अच्छा गुरु ही कर सकता है।
ReplyDeleteWAH ! RAESH JI, WAH !
ReplyDeleteUDAY AMHANEY
BHOPAL