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आइए देखें कि मंटो ऐसे ही एक सवाल के जवाब में क्या कहते हैं।
मैं क्यों लिखता हूं?
यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूं। मैं क्यों पीता हूं। लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूं तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता।
पर जब गहराई में जाता हूं तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूं।
अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूं हो सकता है, फ़ाकाकशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है। हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए। यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इंसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता।
लोग कला को इतना ऊंचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है?
मैं लिखता हूं इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूं इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूं ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूं।
रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है। वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है। वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। इसको इबादत चाहिए। और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।
अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना 'क्यों' लिखता हूं तो इसका जवाब हाज़िर है।
मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूं कि मुझे अफ़साना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है।
मैं अफ़साना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी।
मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है। मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूं। यूँ तो मैने 20 से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुकद्दमे चलते रहते हैं।
जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूं जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी।
अफ़साना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती। मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूं कि कोई अफ़साना निकल आए। कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूं, सिगरेट फूंकता रहता हूं मगर अफ़साना दिमाग से बाहर नहीं निकलता है।
करवटें बदलता हूं। उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूं। बच्चों का झूला झुलाता हूं। घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूं। जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूं। मगर कम्बख़्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूं।
अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूं तो मेरी बीवी आई उसने मुझसे यह कहा, “आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए।”
मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूं और लिखना शुरू कर देता हूं- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई अफसाना उछलकर बाहर आ जाता है।
मैं खुद को इस दृष्टि से कहानीकार, नहीं, जेबकतरा समझता हूं जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता है-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?
kyaa baat hai bhai !
ReplyDeletesalaam
salaam
salaam
manto ko salaam !
Manto ko padhvaane ka shukriya!
ReplyDeleteyaad dahaani ke liye shukriya...!
ReplyDeleteलोग कला को इतना ऊंचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है?
ReplyDeleteमैं लिखता हूं इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूं इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूं ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूं।
.....मैं क्यों लिखता हूं? ka सदाअत हसन मंटो ka jawav laajawab hai... Ek mahan lekhak se parichay aur prernaprad jaankari ki prastuti ke liya dhanyavaad.
मंटो को पढ़ना मेरे लिए इक अलग ही अनुभव रहा था
ReplyDeleteऐसा लगा कोई हर शब्द के साथ साथ चल रहा हो
लाजवाब लेखक, बेमिसाल लेखक - मंटो