ये चार पंक्तियां किसी खास परिस्थिति में ज़ेहन में आईं थीं। जब उनसे उलझने लगा तो कुछ इस तरह से हर बार नए रूप में सामने आ खड़ी हुईं। आपको जो पसंद हो वह चुन लीजिए।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
फिर भी आसपास थे, शायद वह सपना न था।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
चार कदम साथ साथ थे, शायद सपना न था।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
साथ जितनी देर थे, क्या वह एक सपना न था।
आरजू तुम्हारी न थी, हौंसला भी हमारा न था।
फिर भी आसपास थे, शायद वह सपना न था।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
फिर भी हमराह थे, शायद वह सपना न था।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
फिर भी आप खास थे, शायद वह सपना न था।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
फिर भी आप पास थे, शायद वह सपना न था।
आरजू तुम्हारी न थी, हौंसला भी अपना न था।
फिर भी तुम पास थे, शायद वह सपना न था।
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
ReplyDeleteफिर भी आसपास थे, शायद वह सपना न था।
सुन्दर अभिव्यक्ति ..
आरजू आपकी न थी, हौंसला भी अपना न था।
ReplyDeleteफिर भी आप खास थे, शायद वह सपना न था।
....Sundar viyog ka ek Prayog achha laga....
Haardik shubhkamnayne.....
SABHI APANI-APANI JAGAHA SAHI.
ReplyDeleteUDAY TAMHANEY.
BHOPAL.