Sunday, April 19, 2009

मेरा भाई : अनिल पटेल उर्फ अन्‍नू

आज 19 अप्रैल है। घर से बहुत दूर हूं। 1400 किलोमीटर दूर बंगलौर में । आज अनिल यानी अन्‍नू यानी छोटे भाई का जन्‍मदिन है। यूं पास रहते हुए मुझे यह दिन कभी याद नहीं रहता था। कभी मेरे बेटे तो कभी पत्‍नी याद दिलाती थी कि आज अन्‍नू भैया का जन्‍मदिन है, एक फोन तो कर लो। मैं जैसे नींद से जागता था। पर दूर रहने पर सब छोटी-छोटी बातें अपने आप याद आती हैं। सो मैंने लगभग दस अप्रैल के आसपास ही एक बधाई पोस्‍टकार्ड लिखकर डाल दिया था। आज भी जब मुझे याद आया तो मोबाइल फोन पर एक संदेश भी भेज दिया।


अन्‍नू मुझसे दस साल छोटा है। सात भाई-बहनों में वह छठवें नंबर का है। मैं सबसे बड़ा हूं। अब हम चार ही हैं, बाकी तीन सुनील, रीता और बबीता की मृत्‍यु हो गई। तीनों ही पन्‍द्रह-सोलह साल से ज्‍यादा जीवित नहीं रहे । पिताजी ने मेरा नाम राजेश रखा था। जो किसी के नाम से मेल नहीं खाता। बाकियों के नाम एक तुक में थे। बेटों के नाम सुनील-अनिल। बेटियों के नाम गीता,रीता,बबीता और ममता। केवल नाम ही नहीं एक और तरह से मैं इन सबसे अलग था। मेरा रंग काला है जबकि वे सब गेंहूए रंग के । गीता,अनिल और छोटी बहन ममता की गिनती तो गोरे रंग वालों में होती रही है। इसका फर्क यही पड़ता था कि कोई मुझे इन सबके भाई के रूप में पहचानता ही नहीं था।

अनिल होशंगाबाद में है। मां-बाबूजी उसके साथ हैं। या यूं कहूं कि वह मां-बाबूजी के पास है। बंगलौर आने के लिए छोटे नहीं, एक बड़े भाई की तरह उसने मेरा हौसला बढ़ाया था। उसने कहा था, ‘आप बेफिक्र होकर जाइए, मैं यहां सब संभाल लूंगा।’ यहां से भी मैं जब उसे फोन करता हूं तो वह पलटकर पूछ‍ता है, ‘आप ठीक हो न।’

उसका बचपन कैसे बीता मुझे याद नहीं। असल में जब मैं किशोर था तब खुद बड़ा अस्‍त-व्‍यस्‍त था। मेरी पढ़ाई-लिखाई भी बहुत व्‍यवस्थित तरीके से नहीं हुई। मैं अपनी नाकामियों में इतना अधिक उलझा हुआ था, कि दूसरे भाई-बहनों की तरफ बहुत ध्‍यान ही नहीं दे पाया। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैं कभी अन्‍नू को पढ़ाने के लिए बैठा।

जब मेरी शादी हुई वह सत्रह साल का था। फिर मैं भोपाल आ गया। अनिल ने हायर सेंकडरी किया। बीकॉम करके उसने अर्थशास्‍त्र में एमए किया, वहीं होशंगाबाद के नर्मदा महाविद्यालय से। 1995-96 के आसपास का यह वह जमाना था, जब नौकरियां आसानी से नहीं मिलती थीं। प्राइवेट नौकरी का भी कोई बहुत ज्‍यादा स्‍कोप नहीं होता था। अनिल का ज्‍यादातर समय दोस्‍तों के साथ गुजरता। दिन का ज्‍यादातर समय वह किसी पानठेले के पास खड़े होकर या यहां-वहां घूमकर गुजार देता। उन दिनों आरक्षण के समर्थन में, तो कभी विरोध में आए दिन आंदोलन और प्रदर्शन होते रहते थे। ऐसे ही ‍एक प्रदर्शन के दौरान अनिल भी भीड़ में था। पुलिस ने जितने नौजवान लड़के वहां दिखाई दिए सबको हिरासत में ले लिया। पच्‍चीस-तीस लड़कों के साथ अनिल भी दो दिन होशंगाबाद की जिला जेल में रहा।

मां-बाबूजी के साथ मुझे भी उसकी चिंता होने लगी थी। मैंने उसे समझाया। फिर उसे भोपाल बुला लिया। यहां उसने राजकमल प्रेस में लगभग छह महीने काम किया। पर बात बनी नहीं। वह होशंगाबाद लौट गया। मैंने उसे एकलव्‍य के होशंगाबाद की लायब्रेरी में समय लगाने के लिए कहा। एकलव्‍य के साथियों से भी बात की। अतंत: वह नियमित रूप से एकलव्‍य में समय लगाने लगा। धीरे-धीरे उसकी रूचि जागी। वह एकलव्‍य में कुछ छोटे-मोटे काम भी करने लगा। पहले पार्टटाइम फिर उसे एकलव्‍य में ही फुलटाइम काम मिल गया। वह पिछले लगभग दस-बारह साल से एकलव्‍य के होशंगाबाद केन्‍द्र पर काम कर रहा है। पिछले तीन-चार साल से एकाउंट का काम संभाल रहा है। जैसे ही वह कुछ कमाने-धमाने लगा रानी के साथ उसकी शादी हो गई । अब उनकी दो प्‍यारी बेटियां हैं पूजा और आस्‍था।

अनिल के बारे में दो बातें और जो मुझे याद आती हैं। जब वह सात-आठ साल का था तो उसे प्रायमरी काम्‍पलेक्‍स (यानी टीबी की शुरूआत) हो गया था। उस समय टीबी के लिए मुंह से देने वाली बहुत दवाईयां नहीं आईं थीं। दवा इंजेक्‍शन से देनी होती थी। मुझे याद है कि उसे हर दूसरे दिन एक इंजेक्‍शन लगता था। मैं उसे कभी पैदल तो कभी सायकिल पर होशंगाबाद के सरकारी अस्‍पताल ले जाता था। पर अनिल भी बहुत जीवट का है। उसने एक दिन भी इंजेक्‍शन लगवाने से मना नहीं किया। जबकि मैं कितने सालों तक इंजेक्‍शन के नाम से घबराता था। संयोग से मुझे अभी तक पचास के लगभग ही इंजेक्‍शन लगे हैं।

मैंने अपनी याददाशत में अनिल को बस एक बार किसी बात पर नाराज होकर एक चांटा मारा था। पर चांटा जैसे उसको नहीं मैंने अपने आपको मारा था। तब वह पंद्रह-सोलह साल का रहा होगा। जब-जब मुझे यह वाक्‍या याद आता है तब-तब मैं अंदर ही अंदर रोता हूं। आज मैं इस ग्‍लानि से उबरने का एक प्रयास कर रहा हूं। मैं सार्वजनिक रूप से अन्‍नू से इसके लिए क्षमा मांगता हूं, ‘मेरे भाई मुझे माफ करना।’
                                                                                                                                   *राजेश उत्‍साही

6 comments:

  1. सेंटीमेंट्स!!!
    भावुकता ने डुबो लिया है आपको,आपके भाई के जन्मदिन पर शुभकामनाएँ!

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  2. yadein acchi ho ya buri hamesha rulati hain...

    ...achi post !!

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  3. शायद इसीलिए कहते हैं कि दूर रहकर अपनों की जरूरत महसूस होती है। अनिल के जन्‍मदिन पर मेरी ओर से भी ढेर सारी शुभकामनाऍं।

    जाकिर अली रजनीश

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    खुशियों का विज्ञान-3
    एक साइंटिस्‍ट का दुखद अंत

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  4. राजेश भाई,
    कैसे हैं? मैं भी छोटे भाई की तरह ही आपसे पूछ रहा हूं, उसी भाव से लीजिए। दो दशक भोपाल में रहे, सो वहां कैसा लग रहा होगा, यह तो आपका लिखा, हमने बांचा। मैं बीते करीब बारह वर्षों से भोपाल में हूं। एकलव्य आना-जाना हुआ है। वहां शशि, हमारे परम मित्र विजय विद्रोही की बहन थी, उससे ही मिलता था, जब भी आता था। खैर, जिससे जब परिचय तय हो, तभी होता है। शब्दों के सफर में आपका स्वागत है। आते रहें। बेंगलूर कोई दूर नहीं।
    जब भोपाल आएं, ज़रूर बताएं। मिल कर अच्छा लगेगा। मेरी धर्मपत्नी होशंगाबाद की हैं:)

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  5. Rajesh bhai, Namste
    jab mai aaya tab aapse na mil paya ab jab aap door hua to jan paya. kher jab bhi aap aaye mujhse jaroor miliye.abhi to mai hoshangabad center mai hi hu. abhi to aapse aise hi bate hoti rhengi. padh kar achcha laga. turant hi annu bhai ko badhai de dali.

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  6. यह मेरी बचपन की याद दिलाती है
    बहुत अच्छा ...

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