घटना तीस साल पुरानी है। पिताजी रेल्वे में थे। हम रेल्वे क्वार्टर में रहते थे। क्वार्टर रेल के डिब्बे की तरह ही बना था। गिने-चुने तीन कमरे थे। परिवार में माँ-पिताजी,दादी और हम सात भाई-बहन थे। पहला कमरा दिन में बैठक के रूप में इस्तेमाल होता था। उसी में एक टेबिल थी, जिस पर मैं पढ़ा करता था। यही कमरा रात को सोने के लिए इस्तेमाल होता था। चूँकि मैं घर में सबसे बड़ा था, इसलिए बैठक को सजाने और उसकी देख-रेख की जिम्मेदारी या दूसरे शब्दों में उस पर मेरा ही अधिकार था।
मैं बचपन में भगतसिंह, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों और निराला, रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे साहित्यकारों से खासा प्रभावित था। कमरे में मैंने उनके कैलेण्डर लगा रखे थे। इन कैलेण्डरों में नीचे तारीख के पन्ने अलग से स्टेपिल पिन से लगे होते थे। तब ये कैलेण्डर एक-एक रुपए में मिलते थे। मैं तारीख वाले पन्ने निकालकार उनकी जगह विभिन्न 'महापुरुषों’ द्वारा कहे गए कथन अपनी हस्तलिपि में लिखकर लगाता था। लगभग हर वर्ष इन्हें दिवाली पर सफाई-पुताई के वक्त ही बदला जाता था। इस बीच मजाल कि कोई इन्हें हटा सकता। माँ-पिताजी इसमें दखल नहीं देते थे। और भाई-बहनों के बीच मेरा राज चलता था।
एक दिन कमरे की दीवार पर अचानक एक फिल्मी हीरोइन का कैलेण्डर लटका नज़र आया। संभवत: वह माधुरी दीक्षित का फोटो था। मेरा माथा भन्ना गया। कौन लाया यह कैलेण्डर । उत्तर में छोटा भाई अनिल,जिसे हम प्यार से अन्नू कहते हैं, सामने खड़ा था। छोटा भाई मुझसे उम्र में दस साल छोटा है।
मैंने तल्ख अन्दाज में पूछा,' यह क्यों लगाया?'
'मुझे अच्छा लगा।', वह बोला ।
'पर मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा।',गुस्से से मैंने कहा।
'तो क्या हुआ।' उसने जवाब दिया।
‘उतारो इसे।’ मैंने दुगने गुस्से से कहा।
‘क्यों।’ वह बोला।
‘कमरा मेरा है।’ मैंने कहा।
‘कमरा तो मेरा भी है।’ उसने लापरवाही से जवाब दिया।
मैं अवाक था। निश्चित ही कमरा उसका भी था। वह भी उसी परिवार का सदस्य था, जिसका मैं। मैंने आगे उससे कोई बहस नहीं की।
आगे बढ़ने से पहले बचपन की एक गतिविधि याद करना चाहता हूँ। मेरे बचपन का 1968 से 1972 का समय म.प्र. के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में गुजरा है। कुछ साल श्योपुरकलाँ के पास एक छोटे से रेल्वे स्टेशन इकडोरी और उसके गाँव रघुनाथपुर में और कुछ साल सबलगढ़ की गलियों में। यह बात सन् 1970 के आसपास की है। पिताजी रेल्वे में थे। उनकी पोस्टिंग एक छोटे स्टेशन पर थी। इसलिए हम सब सबलगढ़ में किराए के घर में रहते थे।
जिस मोहल्ले में हम रहते वे वहाँ गर्मियों की छुट्टियों में लगभग हर तीसरे घर के बाहर कुछ बच्चे गोली-बिस्कुट की छोटी-सी दुकान लगाए नजर आते थे। दो-एक साल मैंने भी ऐसी दुकान लगाई। दुकान के लिए सामान ग्वालियर से खरीदकर लाते थे। शुरू में पचास-साठ रुपए की सामग्री खरीद कर दुकान में रख ली जाती। दुकान का पूरा हिसाब-किताब बच्चों को ही सम्भालना होता। कुछ दुकानें तो एकाध हफ्ते में ही उठ जातीं। क्योंकि उनको सम्भालने वाले बच्चे दुकान का आधे से ज्यादा सामान तो खुद ही खा जाते। लेकिन कुछ दुकानें बाकायदा चलती रहतीं। चलने वाली दुकानों में एक मेरी भी थी। मुझे नहीं पता कि इसको शुरू करवाने वाले के दिमाग में इसके पीछे कोई शैक्षणिक समझ थी या नहीं। शायद मोटी समझ यह रही होगी कि बच्चे धूप में आवारागर्दी न करें। दुकान के बहाने कम से कम दोपहर भर तो घर में बैठेंगे, दरवाजे पर ही सही।
ये दोनों घटनाएँ मेरी स्मृति में हैं। गाहे-बगाहे इनका जिक्र मैं यहाँ-वहाँ करता रहता हूँ। पर इनके वास्तविक निहितार्थ मुझे जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' पढ़ते हुए समझ आए।
पहली घटना 'अधिकार' की बात करती है। दूसरी बाल्यावस्था में यह समझाने का प्रयास कि 'पैसा आता और जाता' कैसे है।
आज मैं स्वयं दो बच्चों बल्कि किशोरों का पिता हूँ। कुछ समय पहले तक कमरा हमारे पास भी एक ही था। कमरे को सजाने में बच्चों की कोई रुचि नहीं है। दरअसल उनकी रुचि के विषय कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नजर आते हैं।
तकनॉलॉजी का विकास इस तरह हुआ है कि वह हमारे जीवन में जहाँ हम नहीं भी चाहते हैं, घुस आती है। कम्प्यूटर इसका एक उदाहरण है। वह बच्चों को वह सब दे सकता है, दे रहा है, जो सम्भवत: हम नहीं 'देना' चाहते।
जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' अगर आप पढ़ेंगे तो यही 'देना' उनके 'अधिकार' में बदल जाएगा।
आमतौर पर बच्चों को हम परिवार का सदस्य तो मानते हैं, पर कुछ-कुछ गुलाम की तरह। जो खाने के लिए दिया, चुपचाप खा लो। जो पहनने के लिए दिया, चुपचाप पहन लो। जिस स्कूल में भरती कर दिया, वहीं पढ़ लो। इन सबके सन्दर्भ में उनका क्या मत है, सोच है-यह जानने की आवश्यकता कम लोग ही महसूस करते हैं।
जॉन होल्ट ने इन बातों का गम्भीरता से अवलोकन किया है। उन्होंने ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को एक सूत्र में पिरोया है। 'बचपन से पलायन' में 28 अध्याय हैं। इनमें बाल्यावस्था का गहराई से विवेचन किया गया है। बाल्यावस्था वास्तव में एक संस्था है। हर संस्था का अपना एक संविधान और अनुशासन होता है। लेकिन कम ही लोग इसे समझ पाते हैं। अगर बाल्यावस्था में बच्चों को अवसर मिले तो इस 'अवसर' का उपयोग करके वे आने वाले कल के बेहतर वयस्क हो सकते हैं।
बाल्यावस्था में यौन विषयक चर्चा करना हमेशा विवाद का विषय रहा है। किन्तु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि अगर किशोरावस्था में मुझे यौन विषय पर स्वस्थ चर्चा करके समझने-जानने के मौके मिले होते तो शायद मैं अपना वयस्क जीवन कहीं अधिक आनन्द से जी पाता। विडम्बना यह है कि जब तक हम इसे समझ पाते हैं, तब तक अधेड़ हो चुके होते हैं।
हालांकि मेरे पिता ने यह कोशिश की थी। मुझे याद है कि 1975 के आसपास यौन विषय पर एक हिन्दी फिल्म गुप्तज्ञान नाम से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस समय मैं ग्यारहवीं का छात्र था। पिताजी ने मुझे खासतौर पर यह फिल्म देखने के लिए कहा था। साथ ही यह भी कहा था कि अपने दोस्तों को साथ ले जाओ। मुझे यह भी याद है कि मैंने अपने दोस्तों के साथ यह फिल्म इटारसी के मृत्युंजय सिनेमा में देखी थी। लेकिन शायद ऐसे इक्के-दुक्के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं।
हमें अपने जीवन में झाँककर देखना चाहिए कि वे कौन-सी वर्जनाएँ हैं, जिनके चलते हम अपनी बाल्यावस्था यूं ही गवाँ बैठे । संभवत: हम अपने बच्चों के साथ भी वही कर रहे हैं।
'बचपन से पलायन' मेरी उपरोक्त बात को और स्पष्ट करती है। जॉन होल्ट बाल्यावस्था में 'अधिकार' को एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। अपनी इस किताब में उन्होंने कार्य,कामकला, सम्पत्ति, मत तथा अन्य अधिकार किशोरों को देने की वकालत की है। वकालत करते हुए उन्होंने जो तर्क और उदाहरण दिए हैं, वह निश्चित ही पाठक को सहमति की ओर ले जाते हैं।
यहाँ मुझे एक और घटना याद आती है। हमारे घर में माँ के पास एक पेटी थी, आज भी है। पिताजी को जब वेतन मिलता वे माँ को दे देते। माँ उसे पेटी मे रख देतीं। लेकिन पेटी में रखने से पहले वेतन की राशि हम सब भाई-बहनों को बताई जाती। यह भी बताया जाता कि यह राशि घर में किन-किन जरूरतों पर खर्च होगी। हमें अपनी जरूरतों के अनुसार पेटी से पैसे लेने की स्वतंत्रता थी। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बताया जाता कि वेतन इतना ही है-सोच समझकर खर्च करना है। यानि 'व्यय की स्वतंत्रता' लेकिन ‘जिम्मेदारी’ के अहसास के साथ। मुझे नहीं पता कि हमारे माँ-बाप ने यह प्रयोग सोच-समझकर किया था-या बस यूँ ही। किन्तु इस प्रयोग ने मुझे तथा अन्य भाई-बहनों को पैसे के मामले में एक जिम्मेदार वयस्क बनाने में अहम भूमिका निभाई। मैं अपने बच्चों के बीच इस परम्परा को जारी रखे हुए हूँ, और उसके सकारात्मक परिणाम भी देख रहा हूँ।
जॉन होल्ट की इस किताब की असली ताकत यही है कि यह आपको बाल्यावस्था की घटनाओं को याद करने के लिए मजबूर करती है। और जब आप याद करने लगते हैं तो यह विश्लेषण भी करते हैं कि आपने उससे क्या सीखा। जो लोग बच्चों की बेहतरी में विश्वास करते हैं, उन्हें अपनी क्षमता विकास के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
* राजेश उत्साही
पुस्तक - बचपन से पलायन लेखक - जॉन होल्ट हिन्दी अनुवाद - पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा मूल्य - 110 रुपए
प्रकाशक- एकलव्य, ई-10, बीडीए कालोनी, शंकर नगर,शिवाजी नगर, भोपाल-462016
मैं बचपन में भगतसिंह, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों और निराला, रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे साहित्यकारों से खासा प्रभावित था। कमरे में मैंने उनके कैलेण्डर लगा रखे थे। इन कैलेण्डरों में नीचे तारीख के पन्ने अलग से स्टेपिल पिन से लगे होते थे। तब ये कैलेण्डर एक-एक रुपए में मिलते थे। मैं तारीख वाले पन्ने निकालकार उनकी जगह विभिन्न 'महापुरुषों’ द्वारा कहे गए कथन अपनी हस्तलिपि में लिखकर लगाता था। लगभग हर वर्ष इन्हें दिवाली पर सफाई-पुताई के वक्त ही बदला जाता था। इस बीच मजाल कि कोई इन्हें हटा सकता। माँ-पिताजी इसमें दखल नहीं देते थे। और भाई-बहनों के बीच मेरा राज चलता था।
एक दिन कमरे की दीवार पर अचानक एक फिल्मी हीरोइन का कैलेण्डर लटका नज़र आया। संभवत: वह माधुरी दीक्षित का फोटो था। मेरा माथा भन्ना गया। कौन लाया यह कैलेण्डर । उत्तर में छोटा भाई अनिल,जिसे हम प्यार से अन्नू कहते हैं, सामने खड़ा था। छोटा भाई मुझसे उम्र में दस साल छोटा है।
मैंने तल्ख अन्दाज में पूछा,' यह क्यों लगाया?'
'मुझे अच्छा लगा।', वह बोला ।
'पर मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा।',गुस्से से मैंने कहा।
'तो क्या हुआ।' उसने जवाब दिया।
‘उतारो इसे।’ मैंने दुगने गुस्से से कहा।
‘क्यों।’ वह बोला।
‘कमरा मेरा है।’ मैंने कहा।
‘कमरा तो मेरा भी है।’ उसने लापरवाही से जवाब दिया।
मैं अवाक था। निश्चित ही कमरा उसका भी था। वह भी उसी परिवार का सदस्य था, जिसका मैं। मैंने आगे उससे कोई बहस नहीं की।
आगे बढ़ने से पहले बचपन की एक गतिविधि याद करना चाहता हूँ। मेरे बचपन का 1968 से 1972 का समय म.प्र. के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में गुजरा है। कुछ साल श्योपुरकलाँ के पास एक छोटे से रेल्वे स्टेशन इकडोरी और उसके गाँव रघुनाथपुर में और कुछ साल सबलगढ़ की गलियों में। यह बात सन् 1970 के आसपास की है। पिताजी रेल्वे में थे। उनकी पोस्टिंग एक छोटे स्टेशन पर थी। इसलिए हम सब सबलगढ़ में किराए के घर में रहते थे।
जिस मोहल्ले में हम रहते वे वहाँ गर्मियों की छुट्टियों में लगभग हर तीसरे घर के बाहर कुछ बच्चे गोली-बिस्कुट की छोटी-सी दुकान लगाए नजर आते थे। दो-एक साल मैंने भी ऐसी दुकान लगाई। दुकान के लिए सामान ग्वालियर से खरीदकर लाते थे। शुरू में पचास-साठ रुपए की सामग्री खरीद कर दुकान में रख ली जाती। दुकान का पूरा हिसाब-किताब बच्चों को ही सम्भालना होता। कुछ दुकानें तो एकाध हफ्ते में ही उठ जातीं। क्योंकि उनको सम्भालने वाले बच्चे दुकान का आधे से ज्यादा सामान तो खुद ही खा जाते। लेकिन कुछ दुकानें बाकायदा चलती रहतीं। चलने वाली दुकानों में एक मेरी भी थी। मुझे नहीं पता कि इसको शुरू करवाने वाले के दिमाग में इसके पीछे कोई शैक्षणिक समझ थी या नहीं। शायद मोटी समझ यह रही होगी कि बच्चे धूप में आवारागर्दी न करें। दुकान के बहाने कम से कम दोपहर भर तो घर में बैठेंगे, दरवाजे पर ही सही।
ये दोनों घटनाएँ मेरी स्मृति में हैं। गाहे-बगाहे इनका जिक्र मैं यहाँ-वहाँ करता रहता हूँ। पर इनके वास्तविक निहितार्थ मुझे जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' पढ़ते हुए समझ आए।
पहली घटना 'अधिकार' की बात करती है। दूसरी बाल्यावस्था में यह समझाने का प्रयास कि 'पैसा आता और जाता' कैसे है।
आज मैं स्वयं दो बच्चों बल्कि किशोरों का पिता हूँ। कुछ समय पहले तक कमरा हमारे पास भी एक ही था। कमरे को सजाने में बच्चों की कोई रुचि नहीं है। दरअसल उनकी रुचि के विषय कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नजर आते हैं।
तकनॉलॉजी का विकास इस तरह हुआ है कि वह हमारे जीवन में जहाँ हम नहीं भी चाहते हैं, घुस आती है। कम्प्यूटर इसका एक उदाहरण है। वह बच्चों को वह सब दे सकता है, दे रहा है, जो सम्भवत: हम नहीं 'देना' चाहते।
जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' अगर आप पढ़ेंगे तो यही 'देना' उनके 'अधिकार' में बदल जाएगा।
आमतौर पर बच्चों को हम परिवार का सदस्य तो मानते हैं, पर कुछ-कुछ गुलाम की तरह। जो खाने के लिए दिया, चुपचाप खा लो। जो पहनने के लिए दिया, चुपचाप पहन लो। जिस स्कूल में भरती कर दिया, वहीं पढ़ लो। इन सबके सन्दर्भ में उनका क्या मत है, सोच है-यह जानने की आवश्यकता कम लोग ही महसूस करते हैं।
जॉन होल्ट ने इन बातों का गम्भीरता से अवलोकन किया है। उन्होंने ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को एक सूत्र में पिरोया है। 'बचपन से पलायन' में 28 अध्याय हैं। इनमें बाल्यावस्था का गहराई से विवेचन किया गया है। बाल्यावस्था वास्तव में एक संस्था है। हर संस्था का अपना एक संविधान और अनुशासन होता है। लेकिन कम ही लोग इसे समझ पाते हैं। अगर बाल्यावस्था में बच्चों को अवसर मिले तो इस 'अवसर' का उपयोग करके वे आने वाले कल के बेहतर वयस्क हो सकते हैं।
बाल्यावस्था में यौन विषयक चर्चा करना हमेशा विवाद का विषय रहा है। किन्तु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि अगर किशोरावस्था में मुझे यौन विषय पर स्वस्थ चर्चा करके समझने-जानने के मौके मिले होते तो शायद मैं अपना वयस्क जीवन कहीं अधिक आनन्द से जी पाता। विडम्बना यह है कि जब तक हम इसे समझ पाते हैं, तब तक अधेड़ हो चुके होते हैं।
हालांकि मेरे पिता ने यह कोशिश की थी। मुझे याद है कि 1975 के आसपास यौन विषय पर एक हिन्दी फिल्म गुप्तज्ञान नाम से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस समय मैं ग्यारहवीं का छात्र था। पिताजी ने मुझे खासतौर पर यह फिल्म देखने के लिए कहा था। साथ ही यह भी कहा था कि अपने दोस्तों को साथ ले जाओ। मुझे यह भी याद है कि मैंने अपने दोस्तों के साथ यह फिल्म इटारसी के मृत्युंजय सिनेमा में देखी थी। लेकिन शायद ऐसे इक्के-दुक्के प्रयास पर्याप्त नहीं हैं।
हमें अपने जीवन में झाँककर देखना चाहिए कि वे कौन-सी वर्जनाएँ हैं, जिनके चलते हम अपनी बाल्यावस्था यूं ही गवाँ बैठे । संभवत: हम अपने बच्चों के साथ भी वही कर रहे हैं।
'बचपन से पलायन' मेरी उपरोक्त बात को और स्पष्ट करती है। जॉन होल्ट बाल्यावस्था में 'अधिकार' को एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। अपनी इस किताब में उन्होंने कार्य,कामकला, सम्पत्ति, मत तथा अन्य अधिकार किशोरों को देने की वकालत की है। वकालत करते हुए उन्होंने जो तर्क और उदाहरण दिए हैं, वह निश्चित ही पाठक को सहमति की ओर ले जाते हैं।
यहाँ मुझे एक और घटना याद आती है। हमारे घर में माँ के पास एक पेटी थी, आज भी है। पिताजी को जब वेतन मिलता वे माँ को दे देते। माँ उसे पेटी मे रख देतीं। लेकिन पेटी में रखने से पहले वेतन की राशि हम सब भाई-बहनों को बताई जाती। यह भी बताया जाता कि यह राशि घर में किन-किन जरूरतों पर खर्च होगी। हमें अपनी जरूरतों के अनुसार पेटी से पैसे लेने की स्वतंत्रता थी। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बताया जाता कि वेतन इतना ही है-सोच समझकर खर्च करना है। यानि 'व्यय की स्वतंत्रता' लेकिन ‘जिम्मेदारी’ के अहसास के साथ। मुझे नहीं पता कि हमारे माँ-बाप ने यह प्रयोग सोच-समझकर किया था-या बस यूँ ही। किन्तु इस प्रयोग ने मुझे तथा अन्य भाई-बहनों को पैसे के मामले में एक जिम्मेदार वयस्क बनाने में अहम भूमिका निभाई। मैं अपने बच्चों के बीच इस परम्परा को जारी रखे हुए हूँ, और उसके सकारात्मक परिणाम भी देख रहा हूँ।
जॉन होल्ट की इस किताब की असली ताकत यही है कि यह आपको बाल्यावस्था की घटनाओं को याद करने के लिए मजबूर करती है। और जब आप याद करने लगते हैं तो यह विश्लेषण भी करते हैं कि आपने उससे क्या सीखा। जो लोग बच्चों की बेहतरी में विश्वास करते हैं, उन्हें अपनी क्षमता विकास के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
* राजेश उत्साही
पुस्तक - बचपन से पलायन लेखक - जॉन होल्ट हिन्दी अनुवाद - पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा मूल्य - 110 रुपए
प्रकाशक- एकलव्य, ई-10, बीडीए कालोनी, शंकर नगर,शिवाजी नगर, भोपाल-462016
एक अच्छी पुस्तक की जानकारी यह प्रयास अवशय रंग लायेगा.
ReplyDeleteइस पुस्तक को अपनी सूची में लिख लिया है, अगली पुस्तक वही होगी! बच्चों के अधिकारों की बात करने के लिये साधुवाद!
ReplyDeleteभाई राजेश जी ,
ReplyDeleteअपने बच्चों के अधिकारों ,परिवार में उनकी स्थिति ,उनके साथ किये जाने वाले व्यव्हार ..को बहुत अच्छे उदाहरणों के साथ पेश किया है .
मैं आपके द्वारा सुझाई गयी किताब ढूंढता हूँ ..लखनऊ में मिली तो ठीक ..नहीं तो एकलव्य से संपर्क करूंगा.
आपका मेल मिल गया था .
हेमंत कुमार