परिवार से दूर अकेले रहने के क्या दुख (और सुख) हैं,
यह पिछले तीन साल से मैं हर समय अनुभव कर रहा हूं। हर सुबह एक नया सबक देने के लिए
मुस्तैद होकर आती है।
बंगलौर आया तो घर के काम करने में कोई समस्या नहीं
आई। क्योंकि बचपन से अपना काम स्वयं करने की आदत रही है। सफाई, कपड़े धोना, प्रेस
करना जैसे कामों में कोई आलस महसूस नहीं हुआ। परिवार में रहते हुए भी यह रोजमर्रा
का काम था। नहीं आता था, तो खाना बनाना। केवल चाय बनाना ही
सीख पाया था। कभी-कभार अकेले होने पर पराठे बनाए जो देश के विभिन्न प्रांतों के
नक्शों के प्रतिरूप ही नजर आते थे। रोटी बनाने का तो सवाल ही नहीं ।
यहां हलनायकलहल्ली(बंगलौर) में दो किलोमीटर के दायरे
में खाने की कोई दुकान नहीं है। दिन की पेट पूजा तो दफ्तर की कैंटीन में हो जाती,
लेकिन शाम के वक्त खुद बनाने के अलावा दूजा विकल्प नहीं। शुरू के आठ महीने तो
दो-तीन साथी मिलकर रह रहे थे, सो समस्या नहीं आई। सब्जी काटने, धोने और बरतन आदि
की सफाई का ठेका अपना था। बनाने का ठेका उनके पास था। वे पकाते और
हम खाते।
फिर धीरे-धीरे वे भी इधर-उधर हो गए। नतीजा यह कि
रसोई के मैदान में उतरना पड़ा। कुछ दिन प्रयोग चलते रहे। एक दिन खिचड़ी
बनाई तो नमक डालना भूल गया। कुकर के ढक्कन को नमक डालने के लिए खोला तो खिचड़ी
रूठकर रसोई की छत से जा चिपकी। खैर,अब तो
मैं खिचड़ी,पुलाव,रोटी,पराठे,बाटी,दाल,सब्जी सब बना लेता हूं। यकीन न हो तो
कभी पधारें, वादा है कि भूखे पेट नहीं जाने दूंगा। मित्रो, गारंटी का तो जमाना ही
नहीं रहा, इसलिए स्वादिष्ट होगा या नहीं यह मत पूछिएगा।
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लीजिए जो बताने के लिए यह पोस्ट शुरू की थी, वह तो बीच में ही रह गया। मैं इधर मार्च में लगभग 10 दिन उत्तर भारत के
भ्रमण पर था। बंगलौर-दिल्ली-रोहतक-समालखा-दिल्ली-जयपुर-भोपाल-जबलपुर-दिल्ली-बंगलौर। यह भ्रमण भी बहुत कुछ अपने में समेटे है। इन यात्राओं का वृतांत यायावरी पर लिखूंगा।
यात्रा से 25 मार्च की रात दस बजे लौटा तो दूसरे
माले पर स्थित मेरे वन बीएचके घर में बाढ़ आई हुई थी। रसोई, हाल और कमरा सब जगह
पानी ही पानी था। पानी की समस्या तो पूरे देश में है। उससे हलनायकनहल्ली
अछूता नहीं है। 36 फ्लैट वाले इस अपार्टमेंट में पानी की खोज में मकान मालिक ने परिसर
में पिछले दो साल में एक के बाद एक, दो टयूबवैल खुदवाए हैं। एक तो पहले से ही था।
पानी सुबह-शाम, आधा-एक घंटे के लिए ही आता है। ऐसे में रसोई या सप्पने का
कौन-सा नल खुला रह जाए कह नहीं सकते। पिछले तीन साल से हर रोज अल्लसुबह दफ्तर के लिए निकलने
से पहले मैं इस संदर्भ में खासी सावधानी बरतता रहा हूं।
इस बार भी जब यात्रा पर निकल रहा था, तो नीचे से एक
बार फिर ऊपर आया और सारे नलों को जांचा कि वे बंद हैं या नहीं। पर रसोई का नल दगा
दे गया। उसने बंद होने का आभास तो दिया, पर वह अपनी आदत के मुताबिक पूरी तरह बंद नहीं हुआ। पानी साफ आए, इसके लिए नल की टोंटी में एक छोटा छन्ना लगा रखा है। सामान्य तौर पर पानी सीधे ही सिंक में गिरकर नीचे चला जाता है।
छन्ने में जम रही मिट्टी के कारण छन्ने ने फव्वारे का रूप धारण कर लिया। इससे
पानी फैलकर सिंक के बाहर गिरता रहा और बाढ़ का कारण बना।
हाल के एक हिस्से में बड़ी चटाई पर बैठक की व्यवस्था
की हुई थी। वहीं दीवार के सहारे किताबों को जमाया था। चटाई पर लगा बिस्तर
पानी में भीगकर मन-मन भारी हो गया। रात एक बजे तक पानी उलीचने में जुटा रहा।
बिस्तर सूख गया। सबसे अधिक पानी किताबों ने पिया
था। पिछले एक हफ्ते से सुखाने का अथक प्रयास कर रहा हूं। पूरे हाल में वे बिछी
हैं, रात भर पंखे की हवा खाती हैं और दिन भर बन्द कमरे की गर्मी। शनिवार को दिन भर
उन्हें छत पर लिए बैठा रहा। जैसे कोई चेहरा आसुंओं से भीगकर अपना असली रूप खो
देता है, किताबों ने भी अपना असली रूप खो दिया है। सबसे ज्यादा नुकसान जिल्द
यानी हार्डकवर वाली किताबों को हुआ है। उनकी जिल्द जो सुरक्षा के लिए बनी थी,
वही उनकी विकलांगता का कारण बनी है।
इनमें सुधा भार्गव द्वारा भेंट किया
कविता संग्रह ‘रोशनी की तलाश’, अनुपमा तिवाड़ी का ‘आईना भीगता है’ और
वेद व्यथित का ‘अंतर्मन’ शामिल है। वेद जी ने बहुत आग्रह के साथ
अपना नया कविता संग्रह ‘न्याय याचना’ भी प्रतिक्रिया हेतु मुझे भेजा था। उस पर
समीक्षा लिखना लगातार टलता रहा है और अब तो वह संभव ही नहीं है। मैं वेद जी से क्षमा
याचना ही कर सकता हूं। क्योंकि उनका कविता संग्रह कागज की लुगदी में बदल गया है। सुधा
जी के घर से मैं पढ़ने के लिए राजी सेठ का उपन्यास तत-सम ले आया था। उसकी हालत वापस करने लायक नहीं रही है। इसके लिए भी सुधा जी से माफी ही मांगनी पड़ेगी।
‘तय तो यही हुआ था’
मेरे प्रिय कवि शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह है। वह भीगने के बाद सूखकर पापड़ बन गया है। लेकिन
धर्मवीर भारती का मेरा प्रिय उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सूखने का नाम ही नहीं ले
रहा है। साहित्य अकादमी से प्रकाशित रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध संग्रह के दो
खंड भी पानी में डूबे रहे हैं। पर हार्डकवर होने के बावजूद आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित
हैं। पर रवीन्द्रनाथ की कविताएं अब भी पानी से तरबतर हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट से
प्रकाशित समांतर कोश के दो खंड भी सुरक्षित हैं, हालांकि पानी के निशान उन पर भी हैं।
वे किताबें जो पेपरबैक थीं जल्द ही सूख गईं हैं बल्कि उन्होंने पानी भी कम ही
पिया। फहमीदा रियाज, फैज अहमद फैज, शहरयार, कतील शिफाई के संग्रह बुरी तरह भीगे
हुए हैं। पहल, अन्यथा, कथा जैसी कुछ पत्रिकाओं के भारी भरकम अंक भी थे, वे भी सूख
रहे हैं।
पिछले दिनों ही मैंने रश्मिप्रभा जी की कविताओं के दो संग्रह 'अनुत्तरित' और 'शब्दों का रिश्ता' तथा उनके द्वारा संपादित कविता संग्रह 'अनुगूंज' फिल्पकार्ट के माध्यम से खरीदे थे। ये तीनों ही किताबें ऊपर चित्र में दिख रहे छोटे से रैक में रखीं थीं। वे बच गईं। इन्हें तो मैं अभी पढ़ ही नहीं पाया था।
सबसे अधिक क्षति मेरी अपनी कविताओं को हुई है। 1978
से लेकर 1987 के आसपास तक जो कविताएं मैंने लिखी थीं, वे तीन कॉपियों में लिपिबद्ध
थीं, स्याही से। वे मेरे ब्लाग गुलमोहर पर भी नहीं हैं। दो कॉपियों में स्याही
इस कदर फैल गई है, कि मुझे अपनी स्मृति पर जोर देकर याद करना पड़ेगा कि वहां क्या
लिखा था। शायद वे भी वहां पड़े-पड़े उकता गई थीं और चाहती थीं कि उन पर ध्यान दिया
जाए। पहली ही फुरसत में उन्हें कम्प्यूटर पर लाने की कोशिश करूंगा।
छत पर सूखती हुई किताबों को उलटते-पलटते 'पहल' के 90
वें अंक में प्रकाशित इस गीत ने मन को अंदर तक भिगो दिया। पढ़ें, शायद आपकी
अनुभूति भी यही हो-
सोने से पहले : अवध बिहारी श्रीवास्तव
अम्मा जी का पैर दुख रहा,
बस आती हूं उन्हें खिलाकर
चलती तो हूं साथ तुम्हारे
0 राजेश उत्साही