लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बनें
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने ये पंक्तियां जिनके लिए
लिखी होंगी, उनमें से एक सुभाष राय भी हैं। इस साल की जनवरी के आखिर तक वे लखनऊ के उभरते
हुए अखबार जनसंदेश टाइम्स के संपादक थे। लेकिन फरवरी शुरू होते ही उन्होंने अपने कुछ साथियों (जिनमें युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय भी हैं) के साथ खुद
को जनसंदेश टाइम्स से अलग कर लिया है। लेकिन उनके इस कदम का जनसंदेश बहुत गहरे
अर्थ लिए हुए है।
साल भर पहले ही जनसंदेश टाइम्स की शुरुआत सुभाष जी के संपादकत्व
में हुई थी। मेरा उनसे परिचय उनके ब्लाग बात-बेबात के माध्यम से हुआ था। बाद में उन्होंने
साखी शुरू किया तो उसने ब्लाग जगत में जल्द ही अपना स्थान बना लिया। इस ब्लाग पर वे किसी एक रचनाकार की कविताएं,गीत या ग़ज़ल परिचय के साथ पोस्ट करते। उस पर पाठक अपनी राय,प्रतिक्रिया,समीक्षा करते। रचनाकार भी अपनी बात कहता। बाद में सुभाष जी सारे लोगों की बातों का सार समेटकर एक और पोस्ट बनाते। यह न केवल बहुत विचारोत्तेजक था बल्कि नए लोगों को सीखने का एक मंच भी। लेकिन आठ
महीने बाद सुभाष जी आगरा से लखनऊ आ गए। साखी स्थगित हो गया। उन्होंने वादा किया
कि जल्द ही उसे फिर से शुरू करेंगे। वह हुआ भी लेकिन उस पर वह गहमागहमी नहीं बन
पाई जो पहले थी। खैर संतोष और खुशी इस बात की थी कि वे जनसंदेश के माध्यम से नया
कुछ कर रहे थे। लेकिन नया कुछ करने के लिए अपने को कितना खपाना और गलाना पड़ता
है, यह सुभाष जी की पिछले एक साल की यात्रा से समझा जा सकता है।
हम जैसे साथियों को उन्होंने एक मेल से एक लम्बा पत्र भेजा है जिसमें परत दर
परत यह बात खुलती है कि अखबार आजकल किस तरह से चलाए जाते हैं या उन्हें चलाने की
कोशिश हो रही है। वहां रचनात्मक काम करने की गुजाइंश बिलकुल क्षीण होती जा रही
है।
‘मुझे जनसंदेश टाइम्स में अब नहीं होना चाहिए, मगर क्यों?’ यह सवाल उठाते हुए उन्होंने लिखा है- कौन अपना सपना खुद ही तोड़ना चाहता है लेकिन कई बार बड़े-बड़े सपने भी बचाये नहीं बचते। यह सब अनायास एक दिन में घटित नहीं हुआ। समय लगा, इसके दरकने में, टूटने में। कोई भी मेरी मनस्थिति को, मेरे द्वंद्व को समझ सकता है कि जब मुझे प्रधान संपादक बनने के लिए मित्रों की बधाइयाँ मिल रही थीं तो मेरे मन में यह निश्चय जन्म ले रहा था कि अब बस, बहुत हो चुका, खत्म करो यह नाटक।
मैं पद और पैसे के पीछे कभी नहीं भागा लेकिन अपने अधिकार छोड़ने की गलती भी कभी नहीं की। मैं कुछ मूल्यों के साथ पत्रकारिता में आया था और मेरी कोशिश रहेगी कि मैं उन्हें कभी न छोड़ूं। उन्हीं मूल्यों के लिए मैं जनसंदेश टाइम्स को छोड़ रहा हूं।
पहला पैराग्राफ उनके लम्बे पत्र के आरम्भ का और दूसरा अंत
का है। लेकिन इन दोनों के बीच उन्होंने विस्तार से एक-एक घटनाक्रम का खुलासा किया है।इसमें बहुत से नाम और संदर्भ आए हैं,जिन्हें शायद यहां देना उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन सुभाष जी की पीड़ा इन दो पैराग्राफों में भी झलकती है। जिन हालातों का जिक्र उन्होंने किया है उन्हें पढ़ते हुए उन्हें तथा उनके साथियों के जज्बे और हिम्मत को बार बार सलाम करने का ही मन होता है।
नई राह चुनने का समय का आ गया है यह आभास उन्हें
होने लगा था। इसकी झलक जनसंदेश टाइम्स में हाल ही में प्रकाशित उनके एक संपादकीय में मिलती है। यह
संपादकीय अविकल यहां प्रस्तुत है-
लिये लुकाठा हाथ
फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं। सूरज उगता है, डूब जाता है। सुख आता है तो दुख उसके पीछे ही खड़ा रहता है। हर्ष के हर मधुर क्षण के आगे विषाद की रेखाएं झिलमिलाती रहती हैं। जीवन है तो मृत्यु निश्चित है। यह प्रकृति का क्रम है। यही उसकी गत्यात्मकता है, यही उसका नयापन है। एक फूल के मुरझा जाने से हजारों दूसरे फूलों के खिलने की संभावना मर नहीं जाती। सूरज डूबता है तो भी उजाले की संभावना नहीं डूबती। दुख कितना भी गहरा हो, यंत्रणाकारी हो, दर्द भरा हो, वह भी सुख की संभावना को मिटा नहीं सकता। विषाद कितना भी गहन हो, प्रसन्नता की परिधि को अतिक्रमित नहीं कर सकता। मृत्यु होगी, इसलिए जीना छोड़ देना समझदारी की बात नहीं है। भारतीय दार्शनिकों ने इस द्वंद्व के पार जाने की हमेशा सलाह दी। इस पार सुख-दुख है, हर्ष-विषाद है, प्रकाश-अंधकार है, राग-द्वेष है, जीवन है, मृत्यु है, उस पार परम शांति है, निर्विकार का अनहद विस्तार है, अविकल चैतन्यलोक है, अनंत आनंद है।
बड़ी खूबसूरत बात है, बहुत खूबसूरत स्वार्थ है। कभी इसी स्वार्थ में लोग जीवन के तमाम महत्वपूर्ण वर्ष लगा देते थे। कभी उसमें प्रवेश कर पाते थे, कभी नहीं। पहुंच भी गये तो उसमें बने रहने की लालसा से मुक्त नहीं हो पाते थे। उस पार के अनंत आनंद में जो विकट एकरसता है, जो वैविध्यहीनता है, जो बिलगाव है, उसे सह पाना बहुत कठिन है। उसकी वैयक्तिकता और भी खतरनाक है। कैसे गये, खुद को ही पता नहीं होता। विस्मृति का नैरंतर्य पथज्ञान से वंचित कर देता है। किसी को रास्ता बता नहीं सकते, किसी की मदद नहीं कर सकते। मैंने जाकर देखा है उस पार। अपना होना खत्म करके देखा है। हाँ, वह विरल चैतन्यलोक मुग्ध करता है, उससे बाहर रहने का मन नहीं होता, उसमें बने रहने की उत्कंठा कुछ और करने नहीं देती। तब कुछ नहीं होता फिर भी कुछ होता है। कुछ बड़ा अद्भुत, जो बाहर के जीवन को भी बदल कर रख देता है, सब अच्छा लगने लगता है, सब सुंदर लगने लगता है। कबीर की तरह तो नहीं पर मैंने भी अपना शीश उतार कर देखा। मैं था, मैं नहीं था। कबीर के प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने बताया, बेटा यह सही नहीं है। तुम नहीं हो यह तो ठीक है, पर तुम नहीं हो तो जगत भी नहीं है, यह गलत है। भटक गये तुम। किसी और रास्ते पर चले गये। अभी समय है लौट आवो, अन्यथा खो जाओगे उस अनहद बीहड़ में। आंखें मूंदकर जा रहे हो, कहाँ पहुंचोगे। तुम अपने लिए न रहो, पर जगत के लिए तो रहो। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। माँ के प्रति, जगतगर्भा प्रकृति के प्रति। निभानी तो पड़ेगी।
मैं लौट आया, सुख-दुख की, हर्ष-विषाद की, जीवन-मृत्यु की इसी दुनिया में। सहज, स्वाभाविक तौर पर दुख और वंचना के विरुद्ध लड़ने के लिए, अंधेरों के बीच दीये जलाने के लिए, रोशनी के लिए, सबकी खुशी के लिए। अपनी नहीं दूसरों की जिंदगियाँ आसान बनाने के लिए, उनके दुख कम करने के लिए। समय कठिन है, लड़ाई आसान नहीं है। जनहित की आड़ में लोगों के हक मारने की कुटिल साजिशें चल रही हैं। सत्ता और शक्ति के प्रतिष्ठान लूट के केंद्रों में बदल गये हैं। राजनीति धूर्त और चालाक लोगों के स्वार्थसाधन का औजार बन गयी है। न्याय व्यवस्था पंगु है, लाचार है। मीडिया भी धंधेबाज और कारपोरेटी लूटतंत्र में अपनी हिस्सेदारी पाने की कोशिशों में प्राणपण से लगा हुआ है। सबकी आंखों में बाजार के सपने या सपनों का बाजार है। वह मनुष्य की संवेदना, उदारता, करुणा और मानवीयता को निगलने को आतुर है। भाषा, कला, साहित्य की अनुपयोगिता का डंका पीटने वाले धीरे-धीरे चारों ओर फैल गये हैं। अंग्रेजी बोलते हुए, रातों-रात करोड़पति, अरबपति होने के सपने दिखाते हुए। मेधावी बच्चों को बड़ी-बड़ी तनख्वाहों का लालच देकर खरीदा जा रहा है और पूंजी साम्राज्य के विस्तार में उनकी बुद्धि और क्षमता का भयानक दुरुपयोग किया जा रहा है। यह देश की अकादमिक संपदा नष्ट करने का बड़ा षड्यंत्र है। कोशिश की जा रही है कि कला, साहित्य, विज्ञान, शिक्षा के क्षेत्रों में प्रतिभाएं न जायें। धूर्त पूंजीवादी ताकतें बड़ी चालाकी से हमारी परंपरा को जड़ घोषित करके हमें अपनी जड़ों से काट देने पर आमादा हैं। दया, करुणा, प्यार, उदारता और मनुष्यता की जीवन-मूल्यों के रूप में पहचान मिटाने का उपक्रम चल रहा है।
सत्ता पूंजी के साथ है। राजनेताओं को धन चाहिए, वैभव चाहिए। गरीबों की हिमायत से, उनके लिए लड़ने से, आम जनता के व्यापक हितकाम से उन्हें यह सब हासिल नहीं हो सकता। इसलिए जनहित के छद्म के पीछे वे समानांतर लूटतंत्र कायम करने में लगे हुए हैं। यह हैरत भरी बात नहीं है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले बहुसंख्य लोग निहायत अमीर हैं, करोड़पति हैं, अरबपति हैं। पूंजी से संचालित इस रोबोटीकरण का सबसे ज्यादा असर गरीबों की दुनिया पर पड़ रहा है। वे जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनकी सबसे बड़ी लड़ाई रोटी है। उनकी रोटी पर भी संकट है। ऐसे समय में दो मोर्चों पर व्यापक संघर्ष की आवश्यकता है। पहला राजनीति में सक्रिय लोगों की जवाबदेही जनता के सामने पूरी पारदर्शिता के साथ सुनिश्चित की जाय और यह काम जनता को ही करना होगा। दूसरा बाजार के विकट और सब कुछ निगल जाने के लोभ से सीधी मुठभेड़ की जाय क्योंकि मनुष्यता को बनाये रखने लिए यह सबसे जरूरी है। कला, साहित्य, संस्कृति और परंपरा की विरासत से हीन कोई भी समाज लड़ नहीं सकता, उसके सामने समर्पण के अलावा कोई और रास्ता नहीं होता। यह शुभ है कि अभी हम इस मोर्चे पर इस हीनता तक नहीं पहुंचे हैं। रचना के सभी आयाम पूरी शक्ति और संस्कार के साथ हमारे भारतीय समाज में मौजूद हैं। ईमानदार रचनाकार समाज को अपंग और असहाय बना देने वाले खतरों से पूरी तरह परिचित ही नहीं हैं, उनसे दो-दो हाथ कर भी रहे हैं।
इस लड़ाई में हम जीतेंगे या हारेंगे, यह इसी बात पर निर्भर करता है कि हम अपने दुश्मन और उसे धराशायी कर सकने वाले शस्त्र, दोनों को ठीक से पहचान पाते हैं या नहीं। मीडिया की इसमें बड़ी भूमिका हो सकती है, क्योंकि वह लगातार बंद दरवाजों पर दस्तक देता रहता है। अगर वह साफ-सुथरी दृष्टि के साथ इस भूमिका में उतरने का साहस करे तो लड़ाई आसान हो सकती है। बाजार ने जो विचारहीनता फैलायी है, उसका मुकाबला विचार ही कर सकता है। विचार होगा तो संस्कार भी होगा, जीवन मूल्य भी होंगे। बहुत नियोजित तरीके से अखबारों से, एलेक्ट्रानिक मीडिया से विचार की दुनिया को बाहर किया गया है। खरीद-बेच की नयी दुनिया इन पर पूरी तरह छायी हुई है। मीडिया मीमांसक अब प्रबंधक बन गये हैं। उन्होंने दूकानें सजा रखी हैं, तरह-तरह का बिकाऊ माल तैयार करते हैं। कुछ खूबसूरत चेहरे, अधनंगे जिस्म, रफ्तार बढ़ाने वाली कारें, हवा से बात करने वाली मोटरसाइकिलें, रातों-रात वैभव जुटाने के नायाब नुस्खे, चटपटी कहानियाँ, अश्लील एमएमएस और शयन-कक्ष की नितांत निजी मुद्राएं बिकती हैं। जितनी बिकाऊ सामग्री ले आवो, उतने पैसे ले जाओ। ऐसे लोग खुद बिके हुए लोग हैं। वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूल चुके हैं, वे भ्रष्ट करने वाली पूंजी की बहती गंगा में आकंठ उतरे हुए हैं।
धन का महत्व हमेशा रहा है। हमारी परंपरा ने चार पुरुषार्थ तय किये, उसमें भी धन को शामिल किया। जीवन चलता रहे, इसके लिए धन चाहिए। कोई व्यवसाय भी उस सीमा तक बुरा नहीं है, जहां तक वह न्यायपूर्ण लाभ की धारणा से संचालित है, जहाँ तक वह किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर लाभ नहीं कमाना चाहता है। पर आजकल तो मारामारी है। लोग दूसरों का हक मारकर, उनका जीवन संकट में डालकर, कई बार जीवन लेकर भी धन कमाने में कोई संकोच नहीं कर रहे। यह विकट विचारहीनता का समय है। इसे बंदूकों के बल पर पराजित करना संभव नहीं है। अराजक तरीकों की परिणति अराजक तंत्र के रूप में ही होगी। ऐसे में केवल एक रास्ता बचता है, विचार का, दृष्टि का। पर जो लोग विचार कर सकते हैं, जिनके पास समय को, समाज को और उस पर मँडराते खतरों को समझने की सामर्थ्य है, वे लोगों तक पहुंचें कैसे? यह ठीक है कि वे अपने तरीकों से प्रयास कर रहे हैं, छोटी-छोटी पत्रिकाओं के जरिये, पुस्तकों के जरिये, गोष्ठियों के जरिये पर इन सारे माध्यमों की पहुंच धीरे-धीरे बहुत सीमित हो गयी है। केवल अखबार ही बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचते हैं और पढ़े जाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि ज्यादातर अखबारों में ऐसा कुछ नहीं होता कि वे बिकें या खरीदें जायं। अमूमन लोग कहते सुने जाते हैं कि अखबारों में पांच मिनट से ज्यादे का सामान नहीं होता। वे पठनीय नहीं दर्शनीय हो गये हैं। इस संकटकाल में उन्हें बेचने का प्रबंध करना पड़ता है। कुछ इनाम, कुछ लालच देना पड़ता है। और सच कहें तो ये लालच अब लगभग अखबार की कीमत के बराबर तक चला जाता है यानि आप मुफ्त में अखबार पढ़ सकते हैं। ऐसी परिस्थिति संपादकों, प्रबंधकों ने खुद बनायी है। वे इसे टूथपेस्ट, साबुन की तरह बेचना चाहते हैं। रगड़ों और फेंक दो। उनके पास पाठक नहीं हैं, ग्राहक हैं। ग्राहक भी उनसे उन्हीं की भाषा में सवाल करता है। ग्राहक बनेंगे पर क्या दोगे, कुछ इनाम, लाटरी निकालोगे, कोई प्रेशर कूकर, वाशिंग मशीन वगैरह लाये हो? ज्यादा दिन नहीं लगेंगे, जब अखबार पढ़ने के लिए ग्राहक हर महीने प्रबंधकों से पैसा मांगेंगे और वे सहर्ष देने को तैयार होंगे। इसलिए कि उन्हें विज्ञापन का अपना बाजार खड़ा करना है। उसके लिए ग्राहकों की संख्या बड़ा मानक होती है।
कम लोग समझते हैं कि अखबारों को भी बड़ी देसी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैसे ने लगभग बंधक बना रखा है। उसके बिना उनका खाता भरेगा कैसे और खाता भरेगा नहीं तो धंधा चलेगा कैसे। दरअसल इस व्यवसाय में लगे पत्रकारों और प्रबंधकों के सोचने का तरीका घिसा-पिटा है। कई बार विज्ञापन देने वाले तय करते हैं कि अखबार की सामग्री कैसी हो, कई बार विज्ञापन जुटाने की मजबूरी तय करती है कि क्या छपेगा, क्या नहीं छपेगा। इस गलाकाट होड़ में किसको फुरसत है यह समझने की कि असल में पाठक क्या पसंद करता है, वह क्या पढ़ना चाहता है, क्या है जो उसके जीवन को बदल सकता है, क्या है जो उसकी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति उसे सजग कर सकता है, क्या उसे मानवीय बना सकता है? मजबूरी की धारा में बहने की जगह कौन और क्यों यह समझने की जहमत उठाये कि वास्तव में सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया तेज करने, लोगों को गैर-जिम्मेदार होने से बचाने, उन्हें संस्कारित करने, समाज और देश के प्रति अपनी नागरिक जिम्मदारियों के बारे में सजग करने वाली सकारात्मक सामग्री के भी लाखों पाठक हो सकते हैं? कौन खतरा मोल ले अखबार को सम्यक दायित्वबोध के साथ आगे बढ़ाने का, गरीब और वंचित लोगों को उनके अधिकारों के बारे में सचेत करने का और जरूरत पड़ने पर उनकी लड़ाई में सीधे शामिल होने का? जब बेचने वाली सामग्री आसानी से उपलब्ध है तो क्यों माथापच्ची करे नयी धारा बहाने की, क्यों सोचे नया विचार प्रवाह पैदा करने के बारे में? घिसी-पिटी जिंदगी की मस्ती में खलल क्यों डाले?
खतरे हैं उखड़ जाने के, उखाड़ दिये जाने के। आम तौर पर लोग ऐसा कोई खतरा नहीं उठाना चाहते, जो उन्हें हवा में उछाल दे, जमीन पर गिरा दे या खाई में ढकेल दे। सबको पता है कि बाजार कभी अपने विरोधियों को बर्दाश्त नहीं करता। इस सच के बावजूद कुछ लोग अपने रास्ते बनाते हैं, उस पर चलते हैं, गिरते हैं, उखड़ते हैं, फिर उठ खड़े होते हैं। लड़ते हैं और सिर्फ लड़ते हैं, हारते नहीं। कबीर की तरह लुकाठा हाथ में लिये। हाँ, घर फूंकने वाले कुछ सच्चे, ईमानदार, जुझारू लोग हमेशा ही मिलते हैं, मिलते रहते हैं। कबीर का क्या, कभी काशी में तो कभी मगहर में। एक जगह से तंबू उखड़ा तो दूसरी जगह, तीसरी जगह। एक रास्ता बंद होगा, दूसरा खुल जायेगा। हिम्मत से खड़े रहो तो दीवार क्या पहाड़ भी रास्ता दे देता है। ऐसे लोगों को सलाम जो यह समझ कर अपनी समाज के प्रति रचनात्मक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं कि रास्ते और भी हैं, मंजिलें और भी हैं। तुम नहीं और सही, और नहीं और सही, कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं। सूरज उगता है, डूब जाता है। सुख आता है तो दुख उसके पीछे ही खड़ा रहता है। हर्ष के हर मधुर क्षण के आगे विषाद की रेखाएं झिलमिलाती रहती हैं। जीवन है तो मृत्यु निश्चित है। यह प्रकृति का क्रम है। यही उसकी गत्यात्मकता है, यही उसका नयापन है। एक फूल के मुरझा जाने से हजारों दूसरे फूलों के खिलने की संभावना मर नहीं जाती। सूरज डूबता है तो भी उजाले की संभावना नहीं डूबती। दुख कितना भी गहरा हो, यंत्रणाकारी हो, दर्द भरा हो, वह भी सुख की संभावना को मिटा नहीं सकता। विषाद कितना भी गहन हो, प्रसन्नता की परिधि को अतिक्रमित नहीं कर सकता। मृत्यु होगी, इसलिए जीना छोड़ देना समझदारी की बात नहीं है। भारतीय दार्शनिकों ने इस द्वंद्व के पार जाने की हमेशा सलाह दी। इस पार सुख-दुख है, हर्ष-विषाद है, प्रकाश-अंधकार है, राग-द्वेष है, जीवन है, मृत्यु है, उस पार परम शांति है, निर्विकार का अनहद विस्तार है, अविकल चैतन्यलोक है, अनंत आनंद है।
बड़ी खूबसूरत बात है, बहुत खूबसूरत स्वार्थ है। कभी इसी स्वार्थ में लोग जीवन के तमाम महत्वपूर्ण वर्ष लगा देते थे। कभी उसमें प्रवेश कर पाते थे, कभी नहीं। पहुंच भी गये तो उसमें बने रहने की लालसा से मुक्त नहीं हो पाते थे। उस पार के अनंत आनंद में जो विकट एकरसता है, जो वैविध्यहीनता है, जो बिलगाव है, उसे सह पाना बहुत कठिन है। उसकी वैयक्तिकता और भी खतरनाक है। कैसे गये, खुद को ही पता नहीं होता। विस्मृति का नैरंतर्य पथज्ञान से वंचित कर देता है। किसी को रास्ता बता नहीं सकते, किसी की मदद नहीं कर सकते। मैंने जाकर देखा है उस पार। अपना होना खत्म करके देखा है। हाँ, वह विरल चैतन्यलोक मुग्ध करता है, उससे बाहर रहने का मन नहीं होता, उसमें बने रहने की उत्कंठा कुछ और करने नहीं देती। तब कुछ नहीं होता फिर भी कुछ होता है। कुछ बड़ा अद्भुत, जो बाहर के जीवन को भी बदल कर रख देता है, सब अच्छा लगने लगता है, सब सुंदर लगने लगता है। कबीर की तरह तो नहीं पर मैंने भी अपना शीश उतार कर देखा। मैं था, मैं नहीं था। कबीर के प्रति कृतज्ञ हूं कि उन्होंने बताया, बेटा यह सही नहीं है। तुम नहीं हो यह तो ठीक है, पर तुम नहीं हो तो जगत भी नहीं है, यह गलत है। भटक गये तुम। किसी और रास्ते पर चले गये। अभी समय है लौट आवो, अन्यथा खो जाओगे उस अनहद बीहड़ में। आंखें मूंदकर जा रहे हो, कहाँ पहुंचोगे। तुम अपने लिए न रहो, पर जगत के लिए तो रहो। यह तुम्हारी जिम्मेदारी है। माँ के प्रति, जगतगर्भा प्रकृति के प्रति। निभानी तो पड़ेगी।
मैं लौट आया, सुख-दुख की, हर्ष-विषाद की, जीवन-मृत्यु की इसी दुनिया में। सहज, स्वाभाविक तौर पर दुख और वंचना के विरुद्ध लड़ने के लिए, अंधेरों के बीच दीये जलाने के लिए, रोशनी के लिए, सबकी खुशी के लिए। अपनी नहीं दूसरों की जिंदगियाँ आसान बनाने के लिए, उनके दुख कम करने के लिए। समय कठिन है, लड़ाई आसान नहीं है। जनहित की आड़ में लोगों के हक मारने की कुटिल साजिशें चल रही हैं। सत्ता और शक्ति के प्रतिष्ठान लूट के केंद्रों में बदल गये हैं। राजनीति धूर्त और चालाक लोगों के स्वार्थसाधन का औजार बन गयी है। न्याय व्यवस्था पंगु है, लाचार है। मीडिया भी धंधेबाज और कारपोरेटी लूटतंत्र में अपनी हिस्सेदारी पाने की कोशिशों में प्राणपण से लगा हुआ है। सबकी आंखों में बाजार के सपने या सपनों का बाजार है। वह मनुष्य की संवेदना, उदारता, करुणा और मानवीयता को निगलने को आतुर है। भाषा, कला, साहित्य की अनुपयोगिता का डंका पीटने वाले धीरे-धीरे चारों ओर फैल गये हैं। अंग्रेजी बोलते हुए, रातों-रात करोड़पति, अरबपति होने के सपने दिखाते हुए। मेधावी बच्चों को बड़ी-बड़ी तनख्वाहों का लालच देकर खरीदा जा रहा है और पूंजी साम्राज्य के विस्तार में उनकी बुद्धि और क्षमता का भयानक दुरुपयोग किया जा रहा है। यह देश की अकादमिक संपदा नष्ट करने का बड़ा षड्यंत्र है। कोशिश की जा रही है कि कला, साहित्य, विज्ञान, शिक्षा के क्षेत्रों में प्रतिभाएं न जायें। धूर्त पूंजीवादी ताकतें बड़ी चालाकी से हमारी परंपरा को जड़ घोषित करके हमें अपनी जड़ों से काट देने पर आमादा हैं। दया, करुणा, प्यार, उदारता और मनुष्यता की जीवन-मूल्यों के रूप में पहचान मिटाने का उपक्रम चल रहा है।
सत्ता पूंजी के साथ है। राजनेताओं को धन चाहिए, वैभव चाहिए। गरीबों की हिमायत से, उनके लिए लड़ने से, आम जनता के व्यापक हितकाम से उन्हें यह सब हासिल नहीं हो सकता। इसलिए जनहित के छद्म के पीछे वे समानांतर लूटतंत्र कायम करने में लगे हुए हैं। यह हैरत भरी बात नहीं है कि संसद और विधानसभाओं में पहुंचने वाले बहुसंख्य लोग निहायत अमीर हैं, करोड़पति हैं, अरबपति हैं। पूंजी से संचालित इस रोबोटीकरण का सबसे ज्यादा असर गरीबों की दुनिया पर पड़ रहा है। वे जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनकी सबसे बड़ी लड़ाई रोटी है। उनकी रोटी पर भी संकट है। ऐसे समय में दो मोर्चों पर व्यापक संघर्ष की आवश्यकता है। पहला राजनीति में सक्रिय लोगों की जवाबदेही जनता के सामने पूरी पारदर्शिता के साथ सुनिश्चित की जाय और यह काम जनता को ही करना होगा। दूसरा बाजार के विकट और सब कुछ निगल जाने के लोभ से सीधी मुठभेड़ की जाय क्योंकि मनुष्यता को बनाये रखने लिए यह सबसे जरूरी है। कला, साहित्य, संस्कृति और परंपरा की विरासत से हीन कोई भी समाज लड़ नहीं सकता, उसके सामने समर्पण के अलावा कोई और रास्ता नहीं होता। यह शुभ है कि अभी हम इस मोर्चे पर इस हीनता तक नहीं पहुंचे हैं। रचना के सभी आयाम पूरी शक्ति और संस्कार के साथ हमारे भारतीय समाज में मौजूद हैं। ईमानदार रचनाकार समाज को अपंग और असहाय बना देने वाले खतरों से पूरी तरह परिचित ही नहीं हैं, उनसे दो-दो हाथ कर भी रहे हैं।
इस लड़ाई में हम जीतेंगे या हारेंगे, यह इसी बात पर निर्भर करता है कि हम अपने दुश्मन और उसे धराशायी कर सकने वाले शस्त्र, दोनों को ठीक से पहचान पाते हैं या नहीं। मीडिया की इसमें बड़ी भूमिका हो सकती है, क्योंकि वह लगातार बंद दरवाजों पर दस्तक देता रहता है। अगर वह साफ-सुथरी दृष्टि के साथ इस भूमिका में उतरने का साहस करे तो लड़ाई आसान हो सकती है। बाजार ने जो विचारहीनता फैलायी है, उसका मुकाबला विचार ही कर सकता है। विचार होगा तो संस्कार भी होगा, जीवन मूल्य भी होंगे। बहुत नियोजित तरीके से अखबारों से, एलेक्ट्रानिक मीडिया से विचार की दुनिया को बाहर किया गया है। खरीद-बेच की नयी दुनिया इन पर पूरी तरह छायी हुई है। मीडिया मीमांसक अब प्रबंधक बन गये हैं। उन्होंने दूकानें सजा रखी हैं, तरह-तरह का बिकाऊ माल तैयार करते हैं। कुछ खूबसूरत चेहरे, अधनंगे जिस्म, रफ्तार बढ़ाने वाली कारें, हवा से बात करने वाली मोटरसाइकिलें, रातों-रात वैभव जुटाने के नायाब नुस्खे, चटपटी कहानियाँ, अश्लील एमएमएस और शयन-कक्ष की नितांत निजी मुद्राएं बिकती हैं। जितनी बिकाऊ सामग्री ले आवो, उतने पैसे ले जाओ। ऐसे लोग खुद बिके हुए लोग हैं। वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूल चुके हैं, वे भ्रष्ट करने वाली पूंजी की बहती गंगा में आकंठ उतरे हुए हैं।
धन का महत्व हमेशा रहा है। हमारी परंपरा ने चार पुरुषार्थ तय किये, उसमें भी धन को शामिल किया। जीवन चलता रहे, इसके लिए धन चाहिए। कोई व्यवसाय भी उस सीमा तक बुरा नहीं है, जहां तक वह न्यायपूर्ण लाभ की धारणा से संचालित है, जहाँ तक वह किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर लाभ नहीं कमाना चाहता है। पर आजकल तो मारामारी है। लोग दूसरों का हक मारकर, उनका जीवन संकट में डालकर, कई बार जीवन लेकर भी धन कमाने में कोई संकोच नहीं कर रहे। यह विकट विचारहीनता का समय है। इसे बंदूकों के बल पर पराजित करना संभव नहीं है। अराजक तरीकों की परिणति अराजक तंत्र के रूप में ही होगी। ऐसे में केवल एक रास्ता बचता है, विचार का, दृष्टि का। पर जो लोग विचार कर सकते हैं, जिनके पास समय को, समाज को और उस पर मँडराते खतरों को समझने की सामर्थ्य है, वे लोगों तक पहुंचें कैसे? यह ठीक है कि वे अपने तरीकों से प्रयास कर रहे हैं, छोटी-छोटी पत्रिकाओं के जरिये, पुस्तकों के जरिये, गोष्ठियों के जरिये पर इन सारे माध्यमों की पहुंच धीरे-धीरे बहुत सीमित हो गयी है। केवल अखबार ही बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचते हैं और पढ़े जाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि ज्यादातर अखबारों में ऐसा कुछ नहीं होता कि वे बिकें या खरीदें जायं। अमूमन लोग कहते सुने जाते हैं कि अखबारों में पांच मिनट से ज्यादे का सामान नहीं होता। वे पठनीय नहीं दर्शनीय हो गये हैं। इस संकटकाल में उन्हें बेचने का प्रबंध करना पड़ता है। कुछ इनाम, कुछ लालच देना पड़ता है। और सच कहें तो ये लालच अब लगभग अखबार की कीमत के बराबर तक चला जाता है यानि आप मुफ्त में अखबार पढ़ सकते हैं। ऐसी परिस्थिति संपादकों, प्रबंधकों ने खुद बनायी है। वे इसे टूथपेस्ट, साबुन की तरह बेचना चाहते हैं। रगड़ों और फेंक दो। उनके पास पाठक नहीं हैं, ग्राहक हैं। ग्राहक भी उनसे उन्हीं की भाषा में सवाल करता है। ग्राहक बनेंगे पर क्या दोगे, कुछ इनाम, लाटरी निकालोगे, कोई प्रेशर कूकर, वाशिंग मशीन वगैरह लाये हो? ज्यादा दिन नहीं लगेंगे, जब अखबार पढ़ने के लिए ग्राहक हर महीने प्रबंधकों से पैसा मांगेंगे और वे सहर्ष देने को तैयार होंगे। इसलिए कि उन्हें विज्ञापन का अपना बाजार खड़ा करना है। उसके लिए ग्राहकों की संख्या बड़ा मानक होती है।
कम लोग समझते हैं कि अखबारों को भी बड़ी देसी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैसे ने लगभग बंधक बना रखा है। उसके बिना उनका खाता भरेगा कैसे और खाता भरेगा नहीं तो धंधा चलेगा कैसे। दरअसल इस व्यवसाय में लगे पत्रकारों और प्रबंधकों के सोचने का तरीका घिसा-पिटा है। कई बार विज्ञापन देने वाले तय करते हैं कि अखबार की सामग्री कैसी हो, कई बार विज्ञापन जुटाने की मजबूरी तय करती है कि क्या छपेगा, क्या नहीं छपेगा। इस गलाकाट होड़ में किसको फुरसत है यह समझने की कि असल में पाठक क्या पसंद करता है, वह क्या पढ़ना चाहता है, क्या है जो उसके जीवन को बदल सकता है, क्या है जो उसकी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति उसे सजग कर सकता है, क्या उसे मानवीय बना सकता है? मजबूरी की धारा में बहने की जगह कौन और क्यों यह समझने की जहमत उठाये कि वास्तव में सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया तेज करने, लोगों को गैर-जिम्मेदार होने से बचाने, उन्हें संस्कारित करने, समाज और देश के प्रति अपनी नागरिक जिम्मदारियों के बारे में सजग करने वाली सकारात्मक सामग्री के भी लाखों पाठक हो सकते हैं? कौन खतरा मोल ले अखबार को सम्यक दायित्वबोध के साथ आगे बढ़ाने का, गरीब और वंचित लोगों को उनके अधिकारों के बारे में सचेत करने का और जरूरत पड़ने पर उनकी लड़ाई में सीधे शामिल होने का? जब बेचने वाली सामग्री आसानी से उपलब्ध है तो क्यों माथापच्ची करे नयी धारा बहाने की, क्यों सोचे नया विचार प्रवाह पैदा करने के बारे में? घिसी-पिटी जिंदगी की मस्ती में खलल क्यों डाले?
खतरे हैं उखड़ जाने के, उखाड़ दिये जाने के। आम तौर पर लोग ऐसा कोई खतरा नहीं उठाना चाहते, जो उन्हें हवा में उछाल दे, जमीन पर गिरा दे या खाई में ढकेल दे। सबको पता है कि बाजार कभी अपने विरोधियों को बर्दाश्त नहीं करता। इस सच के बावजूद कुछ लोग अपने रास्ते बनाते हैं, उस पर चलते हैं, गिरते हैं, उखड़ते हैं, फिर उठ खड़े होते हैं। लड़ते हैं और सिर्फ लड़ते हैं, हारते नहीं। कबीर की तरह लुकाठा हाथ में लिये। हाँ, घर फूंकने वाले कुछ सच्चे, ईमानदार, जुझारू लोग हमेशा ही मिलते हैं, मिलते रहते हैं। कबीर का क्या, कभी काशी में तो कभी मगहर में। एक जगह से तंबू उखड़ा तो दूसरी जगह, तीसरी जगह। एक रास्ता बंद होगा, दूसरा खुल जायेगा। हिम्मत से खड़े रहो तो दीवार क्या पहाड़ भी रास्ता दे देता है। ऐसे लोगों को सलाम जो यह समझ कर अपनी समाज के प्रति रचनात्मक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हैं कि रास्ते और भी हैं, मंजिलें और भी हैं। तुम नहीं और सही, और नहीं और सही, कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए।
0 सुभाष राय
बड़े भाई!
ReplyDeleteहमारी मुलाक़ात में भी हमने सुभाष जी की चर्चा की थी और साखी की कमी पर भी बातें हुई थीं. आपने बिलकुल सच कहा कि वहाँ टिप्पणियाँ/ प्रतिक्रियाएं/ समीक्षाएँ विचारोत्तेजक होती थीं और वैचारिक मंथन का काम करती थीं. बहुत कुछ सीखा वहाँ से और तब मुझे भी यह भान हुआ कि मुझमें भी कुछ समझ है...
सुभाष जी ने साखी की दुबारा शुरुआत भी की तो उसकी अवधी इतनी अधिक थी कि आकर्षण समाप्त हो गया..
खैर! आपने जो बातें इस पोस्ट में बताईं, उन्हें पढकर आश्चर्य नहीं हुआ, कारण पत्रकारिता अब ऐसी ही हो गयी है.. हम तो आये दिन इसके नमूने देखते रहते हैं.. यदि आत्मसम्मान गिरवी रखकर काम करना हो तो और बात है!! फिलहाल तो कह नहीं सकता कि यह अच्छी खबर है या बुरी..! सुभाष जी के साथ मेरी शुभकामनाएं हमेशा हैं..!!
सुभाष राय जी के जन्संदेश छोड़ने की खबर पढ़ने को मिल रही है...पर इसकी वजह आपकी पोस्ट से ही पता चली.
ReplyDeleteसुभाष राय जी उन गिने-चुने लोगों में से हैं जन्होने अपने उसूलों पर कायम रहना ज्यादा जरूरी समझा ..उन्हें शुभकामनाएं
स्वाभिमानियों के लिए आज पत्रकारिता में स्थान नहीं है.... सुभाष राय जी से जो माइलेज अखबार को मिलना था वो मिल गया... अब उनकी अधिक जरुरत नहीं रही होगी अखबार को.. इसलिए ऐसी परिस्थिति बनाई गई होगी की वे स्वयं ही छोड़ जाएँ...
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ReplyDeleteसुभाष राय जी के जन्संदेश छोड़ने की खबर पढ़ने को मिल रही है...पर इसकी वजह आपकी पोस्ट से ही पता चली.
सुभाष राय जी उन गिने-चुने लोगों में से हैं जन्होने अपने उसूलों पर कायम रहना ज्यादा जरूरी समझा ..उन्हें शुभकामनाएं
हालाकि ऐसा माहौल जीवन के हर क्षेत्र में हैं जहां हम या आप नौकर हैं, या सरल शब्द में कहें कि नौकरी करते हैं। फिर भी यह जोड़ना चाहूंगा कि ... सच कहने की क़ीमत चुकानी पड़ती है। पर अंत में सच की ही जीत भी होती है।
ReplyDeleteकभी-कभी गलत जगह व परिस्थितियोंवश ऐसा होता है लेकिन जाएंगे भी तो कहाँ । साफ-सुथरी जगह तो आप जहाँ भी रहेंगे आपको ही बनानी होगी । और आप बना भी लेंगे । दुनिया में जो कुछ अच्छा है ऐसे ही प्रयासों से है ।
ReplyDeleteये बातें काफी तकलीफ देती हैं। पर हर जगह यही हाल है...दशक पहले दैनिक अखबार महीनों तक निकालने के बाद जाना कि हालात कैसे हैं। विज्ञापन जुटाना जितना मुश्किल काम है उससे कहीं अधिक अखबार कि बिक्री है। साथ ही पठन-पाठन की समाम में घटती आदत ने भी मुश्किल पैदा कर दी है। मैं ये तो नहीं मानता कि इंटरनेट औऱ टीवी ने अखबारों के रास्ते बंद कर दिए हैं। पिता के लगातार इसरार के बाद भी मैं अखबार निकालने की दिशा में कुछ नहीं कर सका। कई दोस्तों का इसरार है कि फिर से अखबार शुरु करुं....पर अभी उसके लिए जितना अपने आप का प्रबंधन करना पड़ता है उतना हो नहीं पाया हूं। ये कठोर सच है जो हर पत्रकार को झेलना पड़ता है।
ReplyDeleteस्वाभिमान के साथ पत्रकारिता में अपना स्थान बनायें रखना आज के दौर में बहुत ही दुसाध्य काम है......बिरले लोग ही लीक से हटकर कुछ कर गुजरने का माद्दा रखते हैं , लेकिन जो ऐसा कर पाते हैं वे ही अंततः अनुकर्णीय उदाहरण प्रस्तुत कर हमेशा याद रखे जाते हैं.....
ReplyDeleteकिसी भी जगह अपना एक निश्चित स्थान बनाने के बाद यदि इस तरह की नौबत सामने आती है तो यह ताउम्र एक गहरी टीस बन जाती है
......सुभाष जी के जनसंदेश छोड़ने के बारे में आपने विस्तारपूर्वक लेख प्रस्तुत किया..इसके लिए आभार!