Wednesday, March 30, 2011

मैं खुश हूं


मैं खुश हूं कि भारत-पाक सेमीफायनल में अच्‍छी क्रिकेट देखने को मिली। मैच एकतरफा नहीं था। समय-समय पर पलड़ा दोनों तरफ झुक रहा था।
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खुश हूं कि भारतीय खिलाड़ी दबाव में नहीं आए। हर खिलाड़ी अपनी क्षमता के अनुकूल खेलता दिखा। खुश हूं कि गलतियां होने पर भी उन्‍होंने न तो एक-दूसरे पर गुस्‍सा किया और न अपने चेहरे पर तनाव नहीं आने दिया।
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मैं खुश हूं, इसलिए नहीं कि पाक हार गया, इसलिए कि उन्‍होंने बहुत अच्‍छे खेल का प्रदर्शन किया। खुश हूं कि पाक टीम की गेंदबाजी बहुत अच्‍छी थी।
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मैं खुश हूं, इसलिए नहीं कि सचिन को चार जीवनदान मिले, इसलिए कि इसके बावजूद उन्‍होंने उन मौकों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। खुश हूं कि उनके 85 रन कल के स्‍कोर में बहुत महत्‍व रखते हैं। पर मैं इसलिए भी खुश हूं कि उनका शतक नहीं बना। क्‍योंकि चार जीवनदानों से भरा सौवां अन्‍तर्राष्‍ट्रीय शतक बनाकर शायद सचिन भी खुश नहीं होते।   
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मैं खुश हूं कि सचिन को मैन आफ दी मैच दिया गया। पर अधिक खुश होता कि यह सम्‍मान पा‍क के वहाब रियाज को दिया जाता। इतने महत्‍वपूर्ण मैच में पांच विकेट लेना किसी भी मान से कम नहीं है। मेरे‍ लिए तो मैन आफ दी मैच वहाब ही है, जिसकी बाढ़ में भारत की टीम बह ही गई थी।
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मैं खुश हूं कि हमारी नकारा लग रही गेंदबाजी ने इस मैच में अपना खोया आत्‍मविश्‍वास और सम्‍मान वापस पाया। मैं खुश इसलिए भी हूं कि सातवें आसमान पर टहल रहे युवराज ने यह भी देखा कि पलक झपकते ही वे जमीन पर भी आ सकते हैं।
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मैं खुश हूं कि कुछ न्‍यूज चैनलों की तमाम कोशिशों के बाद सब कुछ शांति से बीत गया।
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मैं खुश हूं कि 1983 की विजेता टीम के कप्‍तान कपिलदेव ने मैच के बाद अपनी प्रतिक्रिया में कुछ इस तरह कहा (उसी चैनल पर ,जो पिछले एक हफ्ते से गंद मचाए हुए था ) कि, ‘हमें पाक की गेंदबाजी की प्रशंसा करनी चाहिए और वे इसके हकदार हैं। हमें अपने पड़ोसी मित्र से कहना चाहिए कि आप खुश नहीं होंगे क्‍योंकि आप नहीं जीते। क्‍योंकि जीतेगा तो कोई एक ही। लेकिन आपको खुश होना चाहिए कि आपने अच्‍छी क्रिकेट खेली। यहां जीत क्रिकेट की हुई है।’
इसमें तो कोई शक ही नहीं है। 
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सचमुच मैं खुश हूं कि हम अच्‍छा खेलकर सेमीफायनल में पहुंचे थे और अच्‍छा खेलकर ही फायनल में पहुंचे हैं। मैं खुश होऊंगा कि हम फायनल में भी अच्‍छा खेलें।                 
                             0 राजेश उत्‍साही

Wednesday, March 23, 2011

एक क्रांतिकारी की याद


भगतसिंह का एक दुर्लभ फोटो : गूगल से साभार
आज भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू का शहादत दिवस है। शहीदों को सलाम। मैं बचपन से ही भग‍तसिंह से बहुत प्रभावित रहा हूं। उनकी जीवनी और कहानी तो यहां-वहां पढ़ने में आती ही रही है। उन पर बनी पर दूसरी ‘शहीद’ फिल्‍म जिसमें मनोज कुमार ने भगतसिंह का रोल किया था, अभी भी स्‍मृतियों
में है। (पहली ‘शहीद’ फिल्‍म में दिलीप कुमार ने यह रोल किया था।)  उसका एक गाना, ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ मुझे आज भी पूरा याद है। मुझे जहां मौका मिलता था, मैं इस गाने को अवश्‍य गाता था। भगतसिंह के बारे में जो भी किताब मिलती उसे पढ़ता था। उनके लेख 'मैं नास्तिक क्‍यों हूं।' ने भी बहुत प्रभावित किया।  
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जब कविता लिखना शुरू किया तो भगतसिंह के जीवन पर एक लम्‍बी कविता लिखने की योजना बनाई। कुछ पन्‍ने लिखे भी। पर फिर पता नहीं क्‍या हुआ कि वह कॉपी ही खो गई। दुबारा चाहकर भी नहीं लिख पाया।
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होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम मप्र की लगभग एक हजार माध्‍यमिक शालाओं में तीस साल (1972-2002) तक चला। उसकी पाठ्यपुस्‍तक ‘बालवैज्ञानिक’ के तीसरे कवर पर कई वर्षों तक भगतसिंह द्वारा कहा हुआ एक कथन प्रकाशित किया जाता था। कार्यक्रम का उद्देश्‍य था बच्‍चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना। विज्ञान की किताब में भगतसिंह का कथन देखकर कुछ लोगों को अजीब-सा लगता था। पर इसके पीछे एक गहरी सामाजिक समझ थी। कार्यक्रम को संचालित करने के लिए ही एकलव्‍य संस्‍था का गठन हुआ था, जिसमें मैंने पच्‍चीस साल काम किया। भग‍तसिंह के इस कथन के मेरे लिए आज भी बहुत मायने हैं। शायद आपके लिए भी हों-

'''आप प्रचलित विश्‍वास का विरोध करके देखें, आप निष्‍कलंक अवतार समझे जाने वाले किसी नायक, किसी महान पुरुष की आलोचना करके देखें। आपके तर्क का जवाब आपको घमंडी कहकर दिया जाएगा। इसका कारण मानसिक जड़ता है।

आलोचना और स्‍वतंत्र ढंग से सोचना क्रांतिकारी के दो मुख्‍य अनिवार्य गुण होते हैं। वे महान हैं,इसलिए उनकी कोई आलोचना न करे, वे उससे ऊपर उठ चुके हैं, इसलिए वे राजनीति या धर्म, अर्थव्‍यवस्‍था या सदाचार के बारे में कुछ भी कहें तो वह सही होता है। आप मानते हों या न मानते हों, लेकिन आपको यह जरूर कहना पड़ेगा,हां, यह बात ठीक है। ऐसी मानसिकता हमें न सिर्फ प्रगति की ओर नहीं ले जाती है बल्कि यह तो स्‍पष्‍ट तौर पर प्रतिगामी(मानसिकता) है।

एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क में विश्‍वास करता है। वह केवल तर्क और तर्क में ही विश्‍वास करता है।''                                   0 भगतसिंह   

Monday, March 7, 2011

मिलना सुधा भार्गव से


पिछले दिनों बंगलौर में एक और ब्‍लागर से मुलाकात हुई। वे हैं सुधा भार्गव ‘दृष्‍टा’। असल में उनसे मिलवाने का श्रेय जाता है जनगाथा और कथायात्रा के बलराम अग्रवाल जी को। बलराम जी से मुलाकात पिछले अक्‍टूबर में हुई थी। वे बंगलौर यात्रा पर थे। उन्‍हें मेरा सूत्र  सहज साहित्‍य के रामेश्‍वर काम्‍बोज जी ने दिया था।
बलराम जी ने मुझे सुधा जी का फोन नम्‍बर दिया था और कहा था कभी बात कर लूं। बात आई गई होगी। फिर एक दिन बलराम जी का मैसेज आया कि सुधा जी के पति नहीं रहे। मैंने सोचा अब तो फोन कर ही लूं। पर फिर एक संकोच में रह गया कि मैं उन्‍हें जानता नहीं हूं और वे भी मुझे नहीं जानतीं। एक-दो दिन तो इसी दुविधा में उलझा रहा और फिर भूल गया। 3 मार्च की शाम को सुधा जी का ही फोन आ गया, मुझे खोजते हुए। बलराम जी ने मेरा नम्‍बर उन्‍हें भी दिया था। मुझे शर्मिन्‍दा तो होना ही चाहिए ,सो हुआ और सबसे पहले उनसे माफी मांगी। भार्गव जी के नहीं रहने पर अफसोस जताया।
मैंने उनसे कहा, ‘मुझे आपको फोन करना चाहिए था।’
उन्‍होंने पलटकर तुरंत पूछा, ‘तो फिर किया क्‍यों नहीं?’
‘भूल गया।’ मैंने सरलता से जवाब दिया।
उनका प्रत्‍युत्‍तर भी उतना ही सरल था, ‘चलो कोई बात नहीं। मैं आपसे मिलना चाहती हूं।’
मैंने कहा, 'मैं शनिवार को आता हूं। उस दिन मेरी छुट्टी होती है।
वे बोली, ‘शनिवार को तो मैं लगभग महीने भर के लिए दिल्‍ली जा रही हूं।’
मैंने कहा, ‘तो मैं शुक्रवार को ही आ जाता हूं।’
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सुधा जी सरजापुर रोड पर एक बहुमंजिली आवासीय परिसर में रहती हैं। 12 फरवरी की सुबह-सुबह भार्गव जी चले गए। पिछले कुछ सालों से वे पार्किन्‍सन से पीडि़त थे। सुधा जी बताती हैं कि वे चिकित्‍सा के लिए ही दिल्‍ली से बंगलौर शिफ्ट हुए थे। पर वे इस बीमारी से उबर नहीं पाए। सुधा जी उनकी देखभाल करती थीं। भार्गव जी नहीं रहे, पर सुधा जी इस फ्लैट में ही रहना चाहती हैं। वहीं पास के एक अन्‍य फ्लैट में उनका छोटा बेटा और बहू रहते हैं। वे उनकी हर जरूरत का ख्‍याल रखते हैं। सुबह-शाम साथ ही होते हैं। उनकी बहू ने मेरे लिए भी नाश्‍ते में ढोकले और समोसे का
इंतजाम किया था। चाय सुधाजी ने खुद बनाकर पिलाई और एक बार नहीं दो बार।
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मैं उनके साथ लगभग दो घंटे रहा। इन दो घंटों की मुलाकात के बाद मुझे महसूस हुआ कि मैं उनसे पहले ही क्‍यों नहीं मिला। साहित्‍य लेखन की उनकी सुलझी हुई समझ जानकर मुझे बहुत अच्‍छा लगा। वे कम लिखती हैं, लेकिन ऐसा लिखती हैं जिससे पहले लेखक के तौर पर खुद संतुष्‍ट हों। किसी भी रचना को लिखने में वे जल्‍दबाजी नहीं करना चाहतीं। भार्गव जी का निधन हुए बहुत दिन नहीं हुए हैं। पर सुधा जी ने अपने आपको आगे की जिन्‍दगी के लिए जिस तरह तैयार कर लिया है, वह देखकर उनकी जीवटता का आभास होता है। बातों बातों में ही उन्‍होंने बताया कि 11 फरवरी की रात को भार्गव जी कुछ असहज महसूस कर रहे थे। उनका बड़ा बेटा लंदन में है,सो स्‍काइप पर उन्‍होंने बेटे को उनकी हालत से अवगत कराया। फिर भार्गव जी को नींद आ गई। सुधा जी का मन नहीं माना तो वे उनके पास ही लैपटॉप लेकर बैठ गईं। वहीं बैठे-बैठे ही उन्‍होंने बालकुंज ब्‍लाग बना डाला। सुबह चार बजे तक वे जागती रहीं।
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जीवन के सातवें दशक को जी रहीं सुधा जी कलकत्‍ता के बिरला हाईस्‍कूल में 22 साल तक हिन्‍दी की अध्‍यापिका रही हैं। अपने विद्यार्थी जीवन से ही उन्‍हें कविता करने का शौक था। विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं,कहानी,मुक्‍तक प्रकाशित होते रहें हैं। उनका एक कविता संग्रह इन दिनों प्रेस में है। 2002 में उनका पहला कविता संग्रह ‘रोशनी की तलाश में’ आया था। वह उन्‍होंने मुझे सप्रेम भेंट किया। उनके तीन ब्‍लाग हैं- बचपन के गलियारे, तूलिका सदन और बालकुंज । बालकुंज पर वे बच्‍चों के लिए कहानियां लिखना चाहती हैं। वे चाहती हैं कि कहानियों पर बच्‍चे प्रतिक्रिया दें और बताएं कि उन्‍हें कहानी कैसी लगी। वे कैसी कहानी पढ़ना चाहते हैं। अगर आपके घर में बाल पाठक हैं तो उन्‍हें इस ब्‍लाग से परिचित कराएं और प्रतिक्रिया देने के लिए कहें। जिन्‍हें भी बचपन की यादों में विचरना अब भी अच्‍छा लगता हो, उन्‍हें सुधा जी का ब्‍लाग बचपन के गलियारे जरूर देखना चाहिए।  
 *
आठ मार्च को उनका जन्‍मदिन है और संयोग से महिला दिवस भी। इस अवसर पर उनके संग्रह से उनकी तीन कविताएं प्रस्‍तुत हैं जो उनके नारी मन की सशक्‍त अभिव्‍यक्ति हैं।

एक छतरी
घर से निकली बाहर
लगे मंडराने
इर्द-गिर्द मेरे
बादल काले।

गरज-गरज कर चाहा
अलापना
अपना ही राग उन्‍होंने
और कर दिया मुझे
उपेक्षित,गूंगा और अशक्‍त।

तभी
नजर आई एक छतरी
मेघों के आगे
लगती थी वह
बौनी।

पर
मेरे लिए वह थी
आत्‍मविश्‍वास की एक छत
जिसके नीचे खड़े होकर
मैं हो गई सशक्‍त।
 *
पराश्रित
मुझसे मांगी रोशनी
मैं बन गई सूर्य
मुझसे मांगी चांदनी
मैं बन गई चंद्र
मुझसे मांगा अमृत
मैं बन गई वर्षा।

पर
जब मैंने
उनका नहीं
अपना ही अपने लिए
मांगा कुछ समय
तो भूचाल आ गया

और मैं
अचला
उनकी मजबूरी पर
हंसने लगी
मुझे आश्रिता समझने वाले
खुद पराश्रित थे।
*
नीलांबर
तुम आओ न आओ
मैंने शुरू कर दिया है
चलना,
नहीं देखूंगी पीछे मुड़कर
होती है टीस,
मगर कोहरे के बाद ही तो
छंटते हैं बादल
और साफ होता है
नीलांबर।
*
सुधा जी जन्‍मदिन बहुत-बहुत मुबारक हो।
*
आप उन्‍हें मुबारक बाद उनके ब्‍लाग तूलिका सदन पर जाकर भी दे सकते हैं।
                                0 राजेश उत्‍साही


Tuesday, March 1, 2011

हम भी हैं वर्ल्‍ड कप में


क्रिकेट वर्ल्‍ड कप का बुखार हर खेलप्रेमी पर चढ़ा हुआ है। हम भी इसके शिकार हैं। शिकार भी कुछ इस तरह हुए कि इस पर एक कविता ही लिख डाली। रूमटूरीड नाम की एक अन्‍तर्राष्‍ट्रीय संस्‍था है, जो बच्‍चों के लिए पुस्‍तकें और पुस्‍तकालय उपलब्‍ध करवाने के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रही है। इस वर्ल्‍ड कप में रूमटूरीड भी शामिल है। आयोजकों और रूमटूरीड के बीच कुछ ऐसा तालमेल हुआ है कि वर्ल्‍डकप में लगने वाले हर छक्‍के पर रूमटूरीड को पच्‍चीस हजार रूपए मिलेंगे। इस राशि को बालिकाओं के लिए किताबें उपलब्‍ध करवाने पर व्‍यय किया जाएगा।

रूमटूरीड के साथ मेरा पुराना संबंध रहा है। रूमटूरीड ने मेरी कविताओं के चार पोस्‍टर,एक कहानी और एक फिल्‍प बुक प्रकाशित की है। ये सब बच्‍चों के लिए हैं और मैं बच्‍चों के लिए लिखे जाने वाले साहित्‍य पर काम करता रहा हूं। मेरी 30 साल की कामकाजी जिन्‍दगी के 20-22 साल इसी में गुजरे हैं। जिसमें से 17 साल तो मैंने चकमक,बालविज्ञान पत्रिका के संपादन में ही जिये हैं।

वर्ल्‍ड कप शुरू होने को था तो रूमटूरीड में विचार बना कि क्‍यों न एक ऐसा कविता पोस्‍टर प्रकाशित किया जाए जिसमें वर्ल्‍ड का शुभंकर स्‍टंपी भी हो। रूमटूरीड में कार्यरत मेरी मित्र रंजना ने मुझे फोन किया और ऐसी एक कविता का आग्रह किया। समय कम था। पर जैसी कि कहावत है जहां न पहुंचे रवि,वहां पहुंचे कवि। तो हम भी रवि तो नहीं चांद पर जा पहुंचे। कविता लिख भेजी।

कुछ दिन चुप्‍पी छाई रही। फोन करके पूछा तो पता चला कि वह तो चुन भी ली गई है और अभी उसके फ्लैक्‍स बन रहे हैं जिन्‍हें भारत-इंग्‍लैंड मैच के दौरान बंगलौर में 27 फरवरी को प्रदर्शित किया जाएगा। पोस्‍टर बाद में छपेगा। लो जी हम 27 फरवरी को मैच के दौरान टीवी पर आंखें गड़ाए बैठे रहे कि कहीं अपनी कविता नजर आ जाएगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।


अब पता चला है कि रूमटूरीड ने अपना स्‍टाल वहां लगाया था जहां टीमें ठहरी थीं। तो आप भी देखिए उस अवसर के फोटो। प‍हले फोटो में रूमटूरीड की कंट्री डायरेक्‍टर सुश्री सुनिशा आहूजा भारतीय क्रिकेट टीम के सदस्‍य  विराट कोहली को रूमटूरीड के बारे में बता रहीं हैं, साथ में हैं कुछ बालिकाएं और अन्‍य लोग। दूसरे फोटो में विराट कोहली कविता के फ्लैक्‍स पर हस्‍ताक्षर कर रहे हैं। कुछ और फोटो यहां देख सकते हैं। हां फ्लैक्‍स में हमारा नाम खोजने की कोशिश न करें क्‍योंकि वह स्‍टंपी(हाथी) के चित्र के समानांतर आड़ी पंक्ति में लिखा है जो यहां नजर नहीं आ रहा। यहां अपना हाल मैदान में बैठे हजारों दर्शकों में से एक जैसा ही है। पर खुशी यही है कि अपन वहां हैं।

तो यह रही कविता-
हाथी बोला भालू से
क्रिकेट खेलें आलू से
भालू नारियल लाया
हाथी ने शॉट जमाया
नारियल गया चांद पर
दुनिया सारी फांद कर
चांद एकदम सफेद झक
जैसा अपना वर्ल्‍ड कप
                                                           0 राजेश उत्‍साही
(फोटो आईसीसी वेबसाइट के सौजन्‍य से)