Sunday, April 26, 2009

किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं

किसके लिए लिखता हूं, मुझको पता नहीं
समझे वही, जिसको अपनी कहन-सी लगे

मैं अपनी इन रचनाओं को ग़ज़ल कहता हूं। हो सकता है ग़ज़ल के जानकार इन्‍हें ग़ज़ल की कसौटी पर खरा न पाएं। उनकी समालोचना सिर-माथे।

मैंने ये ग़ज़लें वर्ष 2000 के आसपास लिखीं थीं। असल में वह पूरा एक साल ऐसा था जब मैंने लगभग तीस-चालीस कविताएं या ग़ज़ल लिखीं। इन्‍हें मैं एकलव्‍य में सार्वजनिक जगह पर एक थरमोकोल के बोर्ड पर लगता था। इन रचनाओं के ज्‍यादातर पाठक एकलव्‍य के साथी ही होते थे। पर एकलव्‍य में आने वाले लोग भी इन्‍हें पढ़ते ही थे। इनमें से एक-दो रचनाएं ऐसी भी हैं जिन्‍हें सुनकर(इन रचनाओं को मैंने एक सभा में सुनाया था) कुछ लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे।

मैं इन्‍हें फोटोकॉपी करके एकलव्‍य के अन्‍य केन्‍द्रों पर भी भेजता था। हरदा एकलव्‍य के कुछ साथी इनकी और प्रतियां बनाकर मित्रों केबीच बांटते थे। खैर। सच बात यह है कि ग़ज़ल लिखना शुरू करने से पहले मैंने दो किताबें भी खरीदीं,जो ग़ज़ल की बारीकियां बताती हैं। लेकिन यह भी सच है कि उन किताबों से मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। संभवत: वे भी हमारी पाठयपुस्‍तकों की तर्ज पर ही लिखी हुई हैं। मैंने उन्‍हें उठाकर एक तरफ रख दिया और जितना समझ में आया वैसा लिखा।

यहां प्रस्‍तुत इन ग़ज़लों को डॉ. रत्‍ना वर्मा ने अपनी पत्रिका udanti.com के दिसम्‍बर,2008 के अंक में बहुत सम्‍मान के साथ प्रकाशित किया। रत्‍ना जी यह पत्रिका रायपुर से निकालती हैं। पत्रिका कागज पर भी प्रकाशित होती है और इंटरनेट पर भी। इसे http://www.udanti.com/ पर देखा जा सकता है। अभी हाल ही में ये ग़ज़लें अविनाश वाचस्‍पति के ब्‍लाग नुक्‍कड़http://nukkadh.blogspot.com/ पर देखी गईं। वहां उत्‍साहजनक टिप्‍पणियां भी मिलीं। चूंकि गुल्‍लक मेरी रचनाओं की गुल्‍लक भी है, इसलिए मैं इन्‍हें यहां भी ले आया। ‍

॥ एक ॥

हवाओं में जहर हर तरफ मिला है
राह में जो बिछड़ा वो कब मिला है

फेफड़े हैं कुन्द और नब्ज भी मद्धम
बन्द है दिमाग ,मुंह भी तो सिला है

कदम दर कदम सोचकर चलने वालो,
आसपास तुम्‍हारे ये कौन-सा किला है

मत रहो घोड़े की सूं बांधकर पट्टी
राह में दाएं-बाएं भी उपवन खिला है

रूठे-मनाएं, या कि रूठ जाएं फिर से
जिन्दगी का तो यही सिलसिला है

पर्वत जो सामने है कोई बात नहीं
हैं अगर उत्साही तो बस वो हिला है

॥ दो ॥

मासूम सवालों का जमाना नहीं रहा
चालाक हैं सब ,कोई सयाना नहीं रहा

औरों की बुनियाद में हो गए पत्थर
खुद का चाहे कोई ठिकाना नहीं रहा

फटी हुई गुदड़ी के लाल हैं हम भी
अलग बात है, कोई घराना नहीं रहा

सी लिए होंठ सबने मूंद ली आंखें
शायद कसने को अब ताना नहीं रहा

बहारों के दरीचों पर है प्रवेश निषेध
जाएं कहां अब कोई वीराना नहीं रहा

समझेगा नहीं कोई मोहब्बत का जुनून
हीर-सी दीवानी,फरहाद दीवाना नहीं रहा

सिर-से पांव तक बदल गई है दुनिया
फैशन में कोई चलन पुराना नहीं रहा

आओ उत्साही से भी मिल लें चलकर
चर्चा में उसका कोई अफसाना नहीं रहा


** राजेश उत्‍साही

Sunday, April 19, 2009

मेरा भाई : अनिल पटेल उर्फ अन्‍नू

आज 19 अप्रैल है। घर से बहुत दूर हूं। 1400 किलोमीटर दूर बंगलौर में । आज अनिल यानी अन्‍नू यानी छोटे भाई का जन्‍मदिन है। यूं पास रहते हुए मुझे यह दिन कभी याद नहीं रहता था। कभी मेरे बेटे तो कभी पत्‍नी याद दिलाती थी कि आज अन्‍नू भैया का जन्‍मदिन है, एक फोन तो कर लो। मैं जैसे नींद से जागता था। पर दूर रहने पर सब छोटी-छोटी बातें अपने आप याद आती हैं। सो मैंने लगभग दस अप्रैल के आसपास ही एक बधाई पोस्‍टकार्ड लिखकर डाल दिया था। आज भी जब मुझे याद आया तो मोबाइल फोन पर एक संदेश भी भेज दिया।

Friday, April 17, 2009

बचपन में जहाँ और भी हैं...

घटना तीस साल पुरानी है। पिताजी रेल्वे में थे। हम रेल्वे क्वार्टर में रहते थे। क्वार्टर रेल के डिब्बे की तरह ही बना था। गिने-चुने तीन कमरे थे। परिवार में माँ-पिताजी,दादी और हम सात भाई-बहन थे। पहला कमरा दिन में बैठक के रूप में इस्तेमाल होता था। उसी में एक टेबिल थी, जिस पर मैं पढ़ा करता था। यही कमरा रात को सोने के लिए इस्‍तेमाल होता था। चूँकि मैं घर में सबसे बड़ा था, इसलिए बैठक को सजाने और उसकी देख-रेख की जिम्मेदारी या दूसरे शब्‍दों में उस पर मेरा ही अधिकार था।

मैं बचपन में भगतसिंह, चंद्रशेखर जैसे क्रांतिकारियों और निराला, रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे साहित्यकारों से खासा प्रभावित था। कमरे में मैंने उनके कैलेण्‍डर लगा रखे थे। इन कैलेण्‍डरों में नीचे तारीख के पन्‍ने अलग से स्‍टेपिल पिन से लगे होते थे। तब ये कैलेण्‍डर एक-एक रुपए में मिलते थे। मैं तारीख वाले पन्‍ने निकालकार उनकी जगह विभिन्न 'महापुरुषों’ द्वारा कहे गए कथन अपनी हस्तलिपि में लिखकर लगाता था। लगभग हर वर्ष इन्हें दिवाली पर सफाई-पुताई के वक्त ही बदला जाता था। इस बीच मजाल कि कोई इन्हें हटा सकता। माँ-पिताजी इसमें दखल नहीं देते थे। और भाई-बहनों के बीच मेरा राज चलता था।

एक दिन कमरे की दीवार पर अचानक एक फिल्मी हीरोइन का कैलेण्‍डर लटका नज़र आया। संभवत: वह माधुरी दीक्षित का फोटो था। मेरा माथा भन्ना गया। कौन लाया यह कैलेण्‍डर । उत्तर में छोटा भाई अनिल,जिसे हम प्‍यार से अन्‍नू कहते हैं, सामने खड़ा था। छोटा भाई मुझसे उम्र में दस साल छोटा है।
मैंने तल्ख अन्‍दाज में पूछा,' यह क्यों लगाया?'
'मुझे अच्छा लगा।', वह बोला ।
'पर मुझे बिलकुल अच्‍छा नहीं लग रहा।',गुस्से से मैंने कहा।
'तो क्या हुआ।' उसने जवाब दिया।
‘उतारो इसे।’ मैंने दुगने गुस्‍से से कहा।
‘क्‍यों।’ वह बोला।
‘कमरा मेरा है।’ मैंने कहा।
‘कमरा तो मेरा भी है।’ उसने लापरवाही से जवाब दिया।
मैं अवाक था। निश्चित ही कमरा उसका भी था। वह भी उसी परिवार का सदस्य था, जिसका मैं। मैंने आगे उससे कोई बहस नहीं की।

आगे बढ़ने से पहले बचपन की एक गतिविधि याद करना चाहता हूँ। मेरे बचपन का 1968 से 1972 का समय म.प्र. के मुरैना जिले की सबलगढ़ तहसील में गुजरा है। कुछ साल श्‍योपुरकलाँ के पास एक छोटे से रेल्‍वे स्‍टेशन इकडोरी और उसके गाँव रघुनाथपुर में और कुछ साल सबलगढ़ की गलियों में। यह बात सन् 1970 के आसपास की है। पिताजी रेल्‍वे में थे। उनकी पोस्टिंग एक छोटे स्‍टेशन पर थी। इसलिए हम सब सबलगढ़ में किराए के घर में रहते थे।

जिस मोहल्ले में हम रहते वे वहाँ गर्मियों की छुट्टियों में लगभग हर तीसरे घर के बाहर कुछ बच्चे गोली-बिस्कुट की छोटी-सी दुकान लगाए नजर आते थे। दो-एक साल मैंने भी ऐसी दुकान लगाई। दुकान के लिए सामान ग्‍वालियर से खरीदकर लाते थे। शुरू में पचास-साठ रुपए की सामग्री खरीद कर दुकान में रख ली जाती। दुकान का पूरा हिसाब-किताब बच्चों को ही सम्‍भालना होता। कुछ दुकानें तो एकाध हफ्ते में ही उठ जातीं। क्योंकि उनको सम्‍भालने वाले बच्चे दुकान का आधे से ज्‍यादा सामान तो खुद ही खा जाते। लेकिन कुछ दुकानें बाकायदा चलती रहतीं। चलने वाली दुकानों में एक मेरी भी थी। मुझे नहीं पता कि इसको शुरू करवाने वाले के दिमाग में इसके पीछे कोई शैक्षणिक समझ थी या नहीं। शायद मोटी समझ यह रही होगी कि बच्चे धूप में आवारागर्दी न करें। दुकान के बहाने कम से कम दोपहर भर तो घर में बैठेंगे, दरवाजे पर ही सही।

ये दोनों घटनाएँ मेरी स्मृति में हैं। गाहे-बगाहे इनका जिक्र मैं यहाँ-वहाँ करता रहता हूँ। पर इनके वास्तविक निहितार्थ मुझे जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' पढ़ते हुए समझ आए।

पहली घटना 'अधिकार' की बात करती है। दूसरी बाल्यावस्था में यह समझाने का प्रयास कि 'पैसा आता और जाता' कैसे है।

आज मैं स्वयं दो बच्‍चों बल्कि किशोरों का पिता हूँ। कुछ समय पहले तक कमरा हमारे पास भी एक ही था। कमरे को सजाने में बच्चों की कोई रुचि नहीं है। दरअसल उनकी रुचि के विषय कम्प्यूटर की स्क्रीन पर नजर आते हैं।

तकनॉलॉजी का विकास इस तरह हुआ है कि वह हमारे जीवन में जहाँ हम नहीं भी चाहते हैं, घुस आती है। कम्प्यूटर इसका एक उदाहरण है। वह बच्‍चों को वह सब दे सकता है, दे रहा है, जो सम्भवत: हम नहीं 'देना' चाहते।

जॉन होल्ट की पुस्तक 'बचपन से पलायन' अगर आप पढ़ेंगे तो यही 'देना' उनके 'अधिकार' में बदल जाएगा।

आमतौर पर बच्चों को हम परिवार का सदस्य तो मानते हैं, पर कुछ-कुछ गुलाम की तरह। जो खाने के लिए दिया, चुपचाप खा लो। जो पहनने के लिए दिया, चुपचाप पहन लो। जिस स्कूल में भरती कर दिया, वहीं पढ़ लो। इन सबके सन्दर्भ में उनका क्या मत है, सोच है-यह जानने की आवश्यकता कम लोग ही महसूस करते हैं।

जॉन होल्ट ने इन बातों का गम्‍भीरता से अवलोकन किया है। उन्‍होंने ऐसी ही छोटी-छोटी बातों को एक सूत्र में पिरोया है। 'बचपन से पलायन' में 28 अध्याय हैं। इनमें बाल्यावस्था का गहराई से विवेचन किया गया है। बाल्यावस्था वास्तव में एक संस्था है। हर संस्था का अपना एक संविधान और अनुशासन होता है। लेकिन कम ही लोग इसे समझ पाते हैं। अगर बाल्यावस्था में बच्चों को अवसर मिले तो इस 'अवसर' का उपयोग करके वे आने वाले कल के बेहतर वयस्क हो सकते हैं।

बाल्यावस्था में यौन विषयक चर्चा करना हमेशा विवाद का विषय रहा है। किन्तु मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है, कि अगर किशोरावस्था में मुझे यौन विषय पर स्वस्थ चर्चा करके समझने-जानने के मौके मिले होते तो शायद मैं अपना वयस्क जीवन कहीं अधिक आनन्द से जी पाता। विडम्बना यह है कि जब तक हम इसे समझ पाते हैं, तब तक अधेड़ हो चुके होते हैं।

हालांकि मेरे पिता ने यह कोशिश की थी। मुझे याद है कि 1975 के आसपास यौन विषय पर एक हिन्‍दी फिल्‍म गुप्‍तज्ञान नाम से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस समय मैं ग्‍यारहवीं का छात्र था। पिताजी ने मुझे खासतौर पर यह फिल्‍म देखने के लिए कहा था। साथ ही यह भी कहा था कि अपने दोस्‍तों को साथ ले जाओ। मुझे यह भी याद है कि मैंने अपने दोस्‍तों के साथ यह फिल्‍म इटारसी के मृत्‍युंजय सिनेमा में देखी थी। लेकिन शायद ऐसे इक्‍के-दुक्‍के प्रयास पर्याप्‍त नहीं हैं।
हमें अपने जीवन में झाँककर देखना चाहिए कि वे कौन-सी वर्जनाएँ हैं, जिनके चलते हम अपनी बाल्यावस्था यूं ही गवाँ बैठे । संभवत: हम अपने बच्चों के साथ भी वही कर रहे हैं।

'बचपन से पलायन' मेरी उपरोक्त बात को और स्पष्ट करती है। जॉन होल्ट बाल्यावस्था में 'अधिकार' को एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। अपनी इस किताब में उन्होंने कार्य,कामकला, सम्पत्ति, मत तथा अन्य अधिकार किशोरों को देने की वकालत की है। वकालत करते हुए उन्होंने जो तर्क और उदाहरण दिए हैं, वह निश्चित ही पाठक को सहमति की ओर ले जाते हैं।

यहाँ मुझे एक और घटना याद आती है। हमारे घर में माँ के पास एक पेटी थी, आज भी है। पिताजी को जब वेतन मिलता वे माँ को दे देते। माँ उसे पेटी मे रख देतीं। लेकिन पेटी में रखने से पहले वेतन की राशि हम सब भाई-बहनों को बताई जाती। यह भी बताया जाता कि यह राशि घर में किन-किन जरूरतों पर खर्च होगी। हमें अपनी जरूरतों के अनुसार पेटी से पैसे लेने की स्वतंत्रता थी। लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से यह भी बताया जाता कि वेतन इतना ही है-सोच समझकर खर्च करना है। यानि 'व्यय की स्वतंत्रता' लेकिन ‘जिम्मेदारी’ के अहसास के साथ। मुझे नहीं पता कि हमारे माँ-बाप ने यह प्रयोग सोच-समझकर किया था-या बस यूँ ही। किन्तु इस प्रयोग ने मुझे तथा अन्य भाई-बहनों को पैसे के मामले में एक जिम्मेदार वयस्क बनाने में अहम भूमिका निभाई। मैं अपने बच्‍चों के बीच इस परम्परा को जारी रखे हुए हूँ, और उसके सकारात्मक परिणाम भी देख रहा हूँ।

जॉन होल्ट की इस किताब की असली ताकत यही है कि यह आपको बाल्यावस्था की घटनाओं को याद करने के लिए मजबूर करती है। और जब आप याद करने लगते हैं तो यह विश्लेषण भी करते हैं कि आपने उससे क्या सीखा। जो लोग बच्‍चों की बेहतरी में विश्वास करते हैं, उन्हें अपनी क्षमता विकास के लिए यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए।
* राजेश उत्‍साही
पुस्तक - बचपन से पलायन लेखक - जॉन होल्ट हिन्दी अनुवाद - पूर्वा याज्ञिक कुशवाहा मूल्य - 110 रुपए
प्रकाशक- एकलव्य, ई-10, बीडीए कालोनी, शंकर नगर,शिवाजी नगर, भोपाल-462016

Wednesday, April 15, 2009

॥ अधेड़ पेड़॥

अधेड़ पेड़
फिर हरा हो रहा है
आ रही हैं
नई पत्तियां
संचित हो रही है
ऊर्जा
जन्म ले रही हैं कोशिकाएं
बन रहा है प्लाज्मा
सक्रिय हो रहा है केन्द्रक
अधेड़ पेड़ में ।


0 राजेश उत्‍साही

Saturday, April 11, 2009

किस्‍से आलू मिर्ची चाय जी के

आलू मिर्ची जिंदगी में सबसे अधिक गाया : संदीप नाईकजैसा कि मैंने लिखा था आलू मिर्ची गीत के किस्‍से और भी हैं। तो किस्‍से आने शुरू हो गए हैं। संदीप नाईक ने यह राज खोला है कि अपनी 42 साल की जिंदगी में उन्‍होंने बहुत सारे गीत याद किए और तमाम जगह गाए। लेकिन उनमें सबसे ज्‍यादा बार आलू मिर्ची चाय जी गाया। संदीप मेरे बहुत अच्‍छे मित्र हैं। वे बहुत अच्‍छे गायक हैं। एकलव्‍य की ग्रुप मीटिगों में उनकी म‍हफिल रात-रात भर चलती थी। पिछले आठ-दस सालों से वे भोपाल में हंगर प्रोजेक्‍ट के मप्र के राज्‍य समन्‍वयक हैं। जहां तक मैं जानता हूं उन्‍होंने अपना कैरियर एकलव्‍य के देवास केन्‍द्र से ही शुरू किया था। बल्कि वे देवास केन्‍द्र में पुस्‍तकालय आदि में आने वाले युवाओं में शामिल थे। फिर उन्‍होंने एकलव्‍य में कोई दस-बारह साल काम‍ किया। यह वही समय था जब आलू मिर्ची चाय जी देवास,उज्‍जैन के आसपास के गांवों में बच्‍चे-बच्‍चे की जुबान पर था। संदीप ने लिखा है कि जब वे गांव में जाते थे, तो बच्‍चे कहते थे आलू मिर्ची वाले आ गए। यह इसलिए क्‍योंकि संदीप बच्‍चों के बीच इस गीत को जरूर गाते थे। बहुत से बच्‍चे जो अब युवा हो गए हैं संदीप को अब भी मिर्ची वाला कहते हैं। शुक्रिया संदीप भाई।

आलू मिर्ची के चाहने वाले और भी हैं.........मुझे पता है संदीप की तरह और भी कई मित्र हैं जो इस गीत को बच्‍चों के बीच लगातार लोकप्रिय बनाने में लगे रहे हैं। इनमें देवास एकलव्‍य के रविकांत मिश्र और उज्‍जैन एकलव्‍य के प्रेम मनमौजी का नाम तो मैं ले ही सकता हूं। होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के एक स्रोत शिक्षक कमलनयन चांदनीवाला इस गीत को इस अदा से गाते थे कि सुनते ही नहीं देखते भी बनता था। चकमक क्‍लब से निकले गजानंद और शाकिर पठान अब भी इस गीत का उपयोग करते ही रहते हैं। परासिया,छिदंवाड़ा में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के स्रोत प्राध्‍यापक डॉ विजय दुआ का यह प्रिय गीत है। तो मैं आप सबको आमंत्रित करता हूं कि जिसके पास जो भी किस्‍सा हो इस गीत का, कृपया मुझे भेजें। संदीप ने शुरुआत कर दी है।

Friday, April 10, 2009

छोकरा कविताएं और उनका छुकरपना

मेरी ये कविताएं 1982-83 के आसपास की हैं। तब मेरी योजना थी कि छोकरा शीर्षक से कुछ नहीं तो दस-बारह कविताएं लिखूंगा। पर बात तीन से आगे नहीं बढ़ी।

सबसे पहले इन कविताओं को 1984 में चंडीगढ़ विश्‍वविद्यालय के कैम्‍पस से निकलने वाली एक सायक्‍लोस्‍टाइल पत्रिका हमकलम में जगह मिली। यह पत्रिका आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्‍ताक्षर लाल्‍टू और रूस्‍तमसिंह अपने साथियों के साथ मिलकर निकालते थे। रूस्‍तम भी सुपरिचित कवि,अनुवादक और संपादक हैं। एक जमाने में वे इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली (ईपीडब्‍ल्‍यू) में थे। फिर कुछ समय महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिन्‍दी विश्‍वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के संपादक रहे। आजकल एकलव्‍य के प्रकाशन कार्यक्रम में कार्यरत हैं।

हमकलम में इन कविताओं को इनके चरित्र के अनुरूप बने चित्रों के साथ छापा गया था। जो पाठक सायक्‍लोस्‍टाइल तकनॉलॉजी को जानते हैं, वे समझ सकते हैं कि स्‍टेंसिल पर चित्र बनाना कितने धैर्य का काम है। ये चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। कैरन आज जानी-मानी चित्रकार हैं। महिला आंदोलन से जुड़े तमाम साहित्‍य में उनके चित्र देखे जा सकते हैं। उनके चित्रों में पेन की रेखाओं और पेन से बने बिन्‍दुओं का गजब का मिश्रण होता है। पत्रिका के आवरण पर मेरी कविता का ही चित्र था। कविताएं भी टाइप नहीं की गई थीं, हस्‍तलिपि में थीं।

इन कविताओं का एक बहुत-ही अनोखा इस्‍तेमाल दुनु राय और उनके साथियों ने मप्र के शहडोल जिले के अनूपपुर कस्‍बे में किया था। वे उन दिनों वहां एक संस्‍था विदूषक कारखाना से जुड़े थे। असल में संस्‍था बनाने वालों में से दुनु राय स्‍वयं एक थे। दुनु राय इंजीनियर हैं, पर आज उनकी पहचान एक समाजशास्‍त्री, पर्यावरणविद् और शिक्षाशास्‍त्री,लेखक के रूप में कहीं अधिक है। उन्‍होंने मेरी इन कविताओं को टाट से बने बड़े साइनबोर्ड पर लिखवाकर अनूपपुर के एक चौराहे पर लटकाया था। यह भी 1984-85 की बात है। अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनने की बात होगी, पर मेरी इन कविताओं में कुछ तो बात है।

इसका एक और वाकया है। मप्र साहित्‍य परिषद की एक पत्रिका है साक्षात्‍कार । 1982 में मेरी एक कविता नूर मोहम्‍मद और उसका घोड़ा उसमें प्रकाशित हुई थी। उन दिनों सोमदत्‍त संपादक थे। सोमदत्‍त जी ने कुछ संपादकीय का सुझाव देते हुए कविता मुझे वापस भेजी और कहा कि अगर आप कविता का कुछ हिस्‍सा निकाल दें तो देखेंगे कि कविता में कितनी कसावट आ जाती है। सचमुच सोमदत्‍त जी ने मुझे एक नई दृष्टि दे दी थी। मैंने स्‍वयं कविता का संपादन किया और सोमदत्‍त जी को भेज दी। कविता साक्षात्‍कार में प्रकाशित हुई। साक्षात्‍कार के इसी अंक में हरिशंकर परसाई का एक व्‍यंग्‍य लेख भी था। बाएं पृष्‍ठ पर मेरी कविता थी और दाएं पृष्‍ठ से परसाई जी का लेख शुरू होता था। मेरे जैसे नौजवान लेखक के लिए यह भी एक उपलब्धि थी। बहरहाल मैंने उत्‍साहित होकर कुछ समय बाद अपनी दस-बारह कविताएं साक्षात्‍कार में प्रकाशन के लिए भेज दीं। बहुत दिनों तक उनका कोई जवाब नहीं आया। लगभग चार साल बाद 1987 में मुझे एक सूचना मिली। रायपुर में मप्र की युवाकविता समारोह किया जा रहा है। आयोजन मप्र हिन्‍दी साहित्‍य परिषद कर रही है। चुने हुए युवा कवियों में मेरा नाम भी था। समारोह की अध्‍यक्षता त्रिलोचन जी कर रहे थे। जहां तक मुझे याद है हम सात या आठ कवियों को उसमें शिरकत करना थी। अपने अलावा तीन नाम मुझे याद हैं। एक नाम है आज की समकालीन कविता के जाने-माने हस्‍ताक्षर कुमार अंबुज का । दूसरा नाम जाने-माने व्‍यंग्‍यकार कैलाश मंडलेकर का और तीसरा नाम शायद मेरी ही तरह कहीं खो गए राजीव सभरवाल का। जो कविताएं मुझे इस समारोह में पढ़नी थीं, उनमें ये तीन भी शामिल थीं। अफसोस की बात यह है कि इस समारोह में मैं नहीं जा पाया। यह अफसोस मुझे अब तक है। समारोह बहुत सफल रहा था। मुझे लगता है इस समारोह में अगर मैं जा पाता तो शायद मेरे लेखन की दिशा ही कुछ और होती।

न जा पाने का कारण भी खास था। पहले समारोह मई में आयोजित था। मैंने जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। फिर किसी कारण से समारोह जुलाई में स्‍थानातंरित कर दिया गया। मैं चकमक के संपादन से जुड़ा था। जुलाई में कुछ स्थितियां ऐसी बनीं कि मुझे पत्‍नी निर्मला और एक साल के बेटे कबीर को लेकर भोपाल स्‍थानांतरित होना पड़ा। खैर फिर मैं सब कुछ भूलकर चकमक में रम गया। 1990 के आसपास हम लोगों ने चकमक का एक अंक बालश्रम पर निकाला। इस अंक में इनमें से दो कविताएं प्रकाशित की गईं थीं। चित्र बनाए थे कैरन हैडॉक ने। तो चलिए अब आप भी पढ़ लीजिए।

छोकरा : एक

हाथों
में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है छोकरा
झाडू़ बांधकर रस्‍सी में

मिलता है
रेलगाड़ी के डिब्‍बे में
अक्‍सर
बदन पर होती है एक
फटी,मैली-कुचैली
बनियान/कमीज और निकर
या निकर जैसी कोई चीज

घुस आता है
पैरों में
बिना कुछ कहे,
करता है सफाई झुककर
पैर
आगे-पीछे
ऊपर नीचे उठते हैं/सरकते हैं/हटते हैं
खिंचते हैं


छोकरा
साफ करता है
बीड़ी-सिगरेट के टोंटे
मूंगफली के छिलके
छिलके संतरे के
छिलके फलों के

इस उम्र में
जब साफ करने चाहिए
उसे अपनी स्‍लेट,अपनी कलम
अपना घर, अपना स्‍कूल
भविष्‍य की राह में आने वाले शूल

फैल जाती है
उसकी हथेली
दो सेकेण्‍ड ठहरता है वह
हर एक के सामने
हर एक के सामने होती है घड़ी अपने में
इंसान की उपस्थिति का
अहसास कराने की

जो सोचते हैं
वे केवल सोचते रहते हैं
अपने में इंसानियत की बात
छोकरा मांगता नहीं है भीख
बढ़ जाता है आगे
फैलाए अपनी हथेली

इस उम्र में
जब फैलनी चाहिए
मास्‍साब के सामने
पाने के लिए सजा
पाने के लिए इनाम

छोकरा
हाथों में
पीठ पर
या फिर गले में
जनेऊ की भांति
लटकाए रहता है
झाडू़ बांधकर रस्‍सी में ।
0 राजेश उत्‍साही
छोकरा : दो

छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्‍बों वाला बेडौल झोला

झोले में
बिल्‍ली छाप पालिश होता है
चेरी ब्‍लासम की डिब्‍बी में
काला और लाल

ब्रश होते हैं
मोटी और पतली नोकों वाले
नरम और सख्‍त बालों वाले
होते हैं कुछ
पुराने कपडे़ झोले में

उतरी हुई
स्‍कूल यूनीफार्म पहने
किसी की
घूमता रहता है
बस अड्डे,रेल्‍वे स्‍टेशन
बाग या भीड़ में

उसकी नजरें ढूंढती हैं
सिर्फ चमड़े के चप्‍पल-जूते
वाले पैर
ढेर सारे पैर

पैरों पर टिका होता है
उसका अर्थशास्‍त्र
मां को देने के लिए
बाप को दिलाने के लिए शराब
और अपनी शाम की पिक्‍चर का बजट

हर वक्‍त
देखता है छोकरा नीचे
देखता है पैरों की हरकत
बोलता है बस एक वाक्‍य
‘साब पालिश, बहिन जी पालिश’

कुछ खींच लेते हैं
पैर पीछे
कुछ बढ़ा देते हैं
पैर आगे

वह उतारता है
सलीके से चप्‍पल पैर से
पैर से जूते
साफ करता है
धूल-मिट्टी ऐसे
जैसे साफ करती है मां
उसका चेहरा

वह चमकाता है
जूते को,चप्‍पल को
और बकौल चेरी ब्‍लासम के
साब की किस्‍मत को

कहता है लीजिए साब
देखिए अपना चेहरा
साब झुककर देखते हैं अपना
चेहरा जूते में

थूक देता है
छोकरा
साब के चेहरे पर
जूते में
और फिर चमकाने लगता है
जूता

जूता
चकमाता है छोकरे को
छोकरा
चमकाता है जूते को


छोकरा
कंधे पर,कुहनी में या फिर
पीठ पर
लटकाए रहता है एक झोला
काले धब्‍बों वाला बेडौल झोला
0 राजेश उत्‍साही
छोकरा : तीन

छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्‍सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े

फंसाकर उंगलियों के बीच
बजाता है छोकरा
गाता है गीत
इकट्ठा करता है मजमा

मजमा
सुनता है
छोकरे के बचपन से
जवानी के गीत
और उसकी आने वाली जवानी को
बना देता है बुढ़ापा

छोकरा
गाता है रखकर कलेजा
गले में
दो सांप लहराते हैं
उसके गले में

छोकरे की आंख में
होता है
दो रोटियों का आकाश और
एक कप चाय का गहरा समुद्र

छोकरा
लिए रहता है
टुकड़े एसब्‍सटास की चादर के
दो छोटे-छोटे टुकड़े
0 राजेश उत्‍साही

Saturday, April 4, 2009

मेरा फोटो, फोटो की कहानी

कभी-कभी कोई छोटी-सी घटना अपने में गर्भ में कितनी सारी बातें छुपाए रहती है, इसका उदाहरण है मेरा यह फोटो। यह फोटो जो आप यहां देख रहे हैं। आपमें से कुछ लोग सोच रहे होंगे उत्‍साही जी को और कुछ नहीं सूझा तो अपना बड़ा-सा फोटो लगा के ही बैठ गए।(पहले यह फोटो ब्‍लाग के नाम के साथ था।) एक-दो ने ब्‍लाग देखा तो पहली सलाह यही दी फोटो छोटा करो। जैसे हम किसी बच्‍चे को तेज आवाज में डेक बजाते देखकर कहते हैं आवाज कम करो। क्‍या सुन रहे हो, वह कर्णप्रिय है या नहीं बाद में देखेंगे। बेचारा बच्‍चा भले ही उस्‍ताद जाकिर हुसैन का तबला वादन क्‍यों न सुन रहा हो। कुछ ने फोटो की खूबसूरती को पहचाना और पहली प्रतिक्रिया यही दी कि फोटो बहुत सुंदर है। ऐसी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करने वालों में मेरे गुरु सुरेश मिश्र भी हैं।

अब आप माने या न मानें, मेरा इतना खूबसूरत फोटो मैंने भी कभी नहीं देखा। खूबसूरत इस मायने में कि चेहरे पर प्रसन्‍नता का जो भाव है और होंटों पर मुस्‍कराहट। वह विरली है। बस इसके पहले यह एक और फोटो में मुझे नजर आई थी। वह 1998 के आसपास किसी ने खींचा था। उसमें मेरे साथ मनोज निगम थे। उस समय एकलव्‍य में कम्‍प्‍यूटर के नए मॉडल यानी कि विकसित मॉडल आए ही थे। मनोज ने उस फोटो को कम्‍प्‍यूटर पर डालकर उसके साथ प्रयोग किया। अपना फोटो एडिट कर दिया और मेरे फोटो को एक रेगिस्‍तान की पृष्‍ठभूमि में सुंदर तरीके से डालकर उसे मेरे जन्‍मदिन पर भेंट किया। फोटो में दूर एक सूरजमुखी का फूल भी है। यह फोटो मुझे बहुत पसंद आया। इस पर मैंने एक ग़ज़ल भी लिखी। जिसका एक शेर है - जब भी मुस्‍कराया है कोई देखकर मुझको, मैंने अपनी शख्‍शियत का नया मायना देखा । यह फोटो पिछले दस साल से एकलव्‍य में मेरी टेबिल के सामने थर्मोकोल पर लगा ही रहा है। अब सिस्‍टम के डेस्‍कटाप पर है। धन्‍यवाद मनोज। उसके बाद मैं खुद ऐसे फोटो के लिए तरस गया। खैर जिन लोगों ने फोटो छोटा करने की सलाह दी उनका भी धन्‍यवाद, जिन्‍होंने चुपचाप झेल लिया उनका भी शुक्रिया।

मेरा यह कथित ‍फोटो एक दिन अचानक ही एकलव्‍य भोपाल के बगीचे में टहलते हुए एकलव्‍य भोपाल के मेरे साथी राकेश खत्री ने डिजीटल कैमरे से खींचा था। 2008 के जून या जुलाई महीने की बात रही होगी। असल में राकेश नए आए हुए किसी कैमरे की ट्रायल ले रहे थे, ऐसा मुझे याद है। संभव है कैमरा उन अर्चना रस्‍तोगी जी का था जो मुझे हमेशा ऐसे याद करती हैं, ‘राजेश जी को मैंने कभी मुस्‍कराते नहीं देखा।’ मुझे मुस्‍कराते देखने की उनकी चाहत इतनी बढ़ गई कि एक दिन उन्‍होंने आकर कहा, ‘ मैंने कल रात आपको सपने में मुस्‍कराते हुए देखा।’ उनकी यह बात सुनकर मैंने भी संतोष की सांस ली थी कि चलो कम-से-कम उन्‍हें यह यकीन तो हुआ कि मैं मुस्‍कराता भी हूं। तो यह फोटो अर्चना जी को समर्पित किया जा सकता है। चलो किया।

पर जनाब कहानी अभी पूरी नहीं हुई। राकेश भाई ने यह फोटो अपने सिस्‍टम पर डाल दिया। मैं भी भूल-भाल गया। तब यह फोटो बहुत अच्‍छा नहीं लगा था। माथे पर बिखरे बाल,शर्ट के बटन खुले हुए,चेहरे पर सफेद दाढ़ी के खूंटे। मैंने फोटो देखकर हमेशा की तरह अफसोस जताया था कि अपना तो चेहरा ही ऐसा है, उसमें बेचारा कैमरा या कैमरे वाला क्‍या करेगा।

समय बीतता गया। असल में तो वह बीतता ही है। मैंने अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में आने का फैसला किया। मुझे 2 मार्च,2009 को बंगलौर में ज्‍वाइन करना था। 28 फरवरी को मैं भोपाल से निकलने वाला था। 25 फरवरी को मुझे फाउंडेशन से एक ईमेल मिला कि अपनी एक पासपोर्ट साइज फोटो तुरंत भेजूं। संयोग से एक दिन पहले ही मैंने स्‍टूडियो में पासपोर्ट फोटो खिंचवाई थी। यह जानते हुए भी कि फोटो से पहले मैं स्‍वयं ही बंगलौर पहुंचूंगा , मैंने कूरियर से फोटो की एक नहीं तीन प्रतियां रवाना कर दीं। 27 फरवरी को मुझे फाउंडेशन से फोन आया कि आपने अब तक फोटो नहीं भेजा। मैंने निवेदन किया कि रास्‍ते में है, बस पहुंचने वाला ही है। (ये फोटो मेरे बंगलौर पहुंचने के एक हफ्ते बाद पहुंचे।) फोन पर फाउंडेशन की ओर से जैनी थीं। उन्‍होंने कहा आपके पास किसी फोटो की साफ्ट कापी नहीं है। वह भेज दीजिए। मुझे लगा मामला गंभीर है, मेरे पहुंचने से पहले मेरे फोटो का पहुंचना जरूरी है। मैंने कहा देखता हूं।

तब मुझे याद आया कि राकेश के सिस्‍टम पर एक फोटो पड़ा है। बस उसे ढूंढा। कमलेश यादव और जीतेंद्र ठाकुर ने मिलकर उसको कुछ-कुछ किया और फिर मैंने जैनी को ईमेल में जड़कर भेज दिया। 2 मार्च को जब बंगलौर में सुबह-सुबह फाउंडेशन के दफ्तर पहुंचा तो ये फोटो वाले राजेश उत्‍साही वहां पहले से विराजमान थे और मेरा मुंह चिड़ा रहे थे। फाउंडेशन के स्‍वागत कक्ष में एक बड़े-से बोर्ड पर एक बड़ी-सी कार्डशीट पर 6 बाई 6 के आकार में एक कोने में ये चिपके हुए थे। कार्डशीट पर मेरा परिचय लिखा हुआ था। आने वाला हर बंदा और बंदी स्‍वागत में अपने भाव उस पर लिखकर व्‍यक्‍त कर रहा था। सच मानो तो मुझे भी वहां चिपके हुए राजेश उत्‍साही मुझसे ज्‍यादा अच्‍छे लगे। धन्‍यवाद राकेश भाई। लोगों ने क्‍या लिखा वह अलग कहानी है।

बंगलौर पहुंचकर मैंने पहली छुट्टी मिलते ही अपने ब्‍लाग को सक्रिय करने का काम किया। यह बनाया तो दो साल पहले था,पर ज्‍यादा कुछ किया नहीं था। तो सबसे पहले फोटो डालने की सूझी। तो यही इकलौता फोटो मेरे पास साफ्ट कापी के रूप में था। संयोग से यहां बंगलौर में मेरे पास जो सिस्‍टम है, उसमें फोटोशॉप नहीं है। मुझे भी फोटो को छोटा-बड़ा करने की ज्‍यादा तकनीक नहीं मालूम। जब पहली बार ब्‍लाग पर फोटो आया तो मुझे ही लगा कि यह तो कुछ ज्‍यादा-ही बड़ा हो गया है। सब प्रयास कर लिए,फिर सोचा अभी ऐसे ही जाने दो बाद में देखेंगे।

अब सोचता हूं देखना क्‍या है, आप लोग तो देख ही रहे हैं। तो देखते रहिए, हम तो ऐसे ही हैं भैय्या।
राजेश उत्‍साही

धूप के तेवर

तीखे धूप के तेवर हुए
गमछे गले के जेवर हुए

जेठ की तपन अभी बाकी
दिवस चैत्र के देवर हुए

चिटकती धूप में कहां पानी
सड़क पर खेल सेसर हुए

प्‍यास का मन अत़ृप्‍त रहा
सुराही-घड़े सब सेवर हुए

देह नदी बही कुछ इस तरह
अपरिचित सुवास केसर हुए

मोहित हम जिन नक्‍श पर
रंग उन सबके पेवर हुए

अपने नीम की छांव भली
हाय ऐसे मौसम में बेघर हुए
राजेश उत्‍साही
सेसर=छल, सेवर=अधपके मिट्टी के बर्तन
पेवर=पीला