Thursday, February 4, 2010

नसीम अख्‍तर की कविताओं के बहाने


नसीम अख्‍तर की कविताओं के बहाने से मैं कुछ ऐसा कहना चाहता हूं, जो मेरे मन में वर्षों से दबा है। मुझे याद है अपना वो समय जब मैंने कविताएं लिखना शुरू किया था। यह समय था अस्‍सी के दशक का। होशंगाबाद जैसे कस्‍बे में नई कविता पर बात करने वाले दो-चार लोग ही थे। कविता पर टिप्‍पणी करने या एक उस्‍ताद की तरह सलाह देने वालों का तो दूर दूर तक नामों निशान नहीं था। तब जानी मानी पत्रिका पहल के संपादक ज्ञानरंजन जी से अपनी एक कविता के सिलसिले में छह माह तक लंबी बहस चली थी। यह एक पूरी अलग कहानी है। बहरहाल मैंने महसूस किया कि अगर नवोदित लेखकों को कोई ठीक से सलाह देने वाला हो तो उनकी प्रतिभा निखरकर सामने आती है। मैंने अपने तई यह बीड़ा उठाया। मेरे संपर्क में जो साथी आए या जिन्‍होंने मुझसे सलाह मांगी, उन्‍हें मैंने दी। इसमें कोई शक नहीं कि जितना मुझे आता था उतना मैंने उन्‍हें बताया। यह जो ‘आता था’ वह मैं अपने अनुभव से सीख रहा था और अब भी सीख रहा हूं।

Wednesday, January 13, 2010

खुशी उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि तितली: रस्किन बॉण्ड

( यह लेख मुझे http://apkikhabar.blogspot.com पर पढ़ने को मिला। रस्किन बॉण्ड् ऐसे रचनाकार हैं,जिनका लेखन दिल की गहराईयों तक उतर जाता है। उनके इस छोटे से लेख को मैं जितनी बार पढ़ता हूं,मुझे वह नए अर्थ देता है,नई उर्जा देता है। मैं यहां उसका संपादित अंश दे रहा हूं।)

खुशी उतनी ही दुर्लभ है, जितनी कि तितली। हमेशा खुशी के पीछे-पीछे नहीं भागना चाहिए। अगर आप शांत, स्थिर बैठे रहेंगे तो हो सकता है कि वह आपके पास आए और चुपचाप आपकी हथेलियों पर बैठ जाए। लेकिन सिर्फ थोड़े समय के लिए। उन छोटे-छोटे कीमती लम्हों को बचाकर रखना चाहिए क्योंकि वे बार-बार लौटकर नहीं आते।

Tuesday, December 29, 2009

केवल पढ़ें नहीं कुछ लिखें भी

14नवम्‍बर,2009 को मैंने एक जन्‍मदिन ऐसा भी शीर्षक से एक पोस्‍ट प्रकाशित की थी। यह एक नन्‍हीं बच्‍ची शुभि सक्‍सेना की कविताओं की पुस्‍तक के बारे में थी। इन कविताओं के चित्र भी शुभि ने ही बनाए थे। पर उस समय मैं ये चित्र नहीं दे पाया था। शुभि के पापा हर्ष सक्‍सेना ने अब इस पुस्‍तक के अंदर के कुछ पन्‍नों के चित्र भेजे हैं। तो अब आप शुभि की कुछ और कविताएं उसके चित्रों के साथ पढ़ें। और केवल पढ़ें ही नहीं कुछ लिखें भी। मेरा मतलब है टिप्‍पणी लिखें ताकि शुभि के साथ-साथ मेरा उत्‍साहवर्धन भी हो। शुक्रिया।  

Monday, December 14, 2009

गैस त्रा-सदी यानी न बीतने वाली सदी

भोपाल गैस त्रासदी को देखते ही देखते 25 साल गुजर गए। गैस त्रासदी से जुड़ी जितनी बातें हैं उससे कहीं अधिक उससे जुड़ी यादें हैं। मैं उन दिनों होशंगाबाद में था। पिताजी की पोस्टिंग भोपाल में रेल्‍वे में कंट्रोलर के पद पर थी। कंट्रोल आफिस भोपाल स्‍टेशन से लगा हुआ था। वे रोज भोपाल आना-जाना करते थे। उन्‍हीं दिनों मेरी दादी की तबीयत बहुत खराब थी। कुछ ऐसा संयोग बना कि 2 दिसम्‍बर 1984 की उस रात पिताजी भोपाल नहीं गए। उनके स्‍थान पर जिन सज्‍जन ने मोर्चा संभाला, वे इस त्रासदी का शिकार हो गए। वे ही नहीं उस रात भोपाल रेल्‍वे स्‍टेशन पर जितने लोगों की डयूटी थी उनमें से अधिकांश अब नहीं हैं। हम आज भी उस दिन को याद करके सिहर उठते हैं।

Saturday, November 14, 2009

एक जन्‍मदिन ऐसा भी


साल 2000 के अक्‍टूबर के दिन थे। एकलव्‍य का कार्यालय अरेरा कालोनी के ई-1/25 में था।  शाम के साढ़े सात बजे रहे थे। बाकी सब लोग जा चुके थे। मैं रोज की तरह अपने काम में व्‍यस्‍त था। मैंने अपने कमरे के दरवाजे पर एक मधुर और विनम्र आवाज सुनी,’क्‍या हम अंदर आ सकते हैं।‘ मैंने देखा एक उम्रदराज पुरूष और महिला वहां खड़े हैं। मैंने कहा आइए और अभिवादन के साथ उन्‍हें बैठने का इशारा किया।

औपचारिक बातचीत के बाद उन्‍होंने आने का मकसद बताया। वे थे प्रेम सक्‍सेना और उनकी पत्‍नी श्रीमती शंकुलता सक्‍सेना। प्रेमजी बीएचईएल से सेवानिवृत हैं और शंकुतला जी कार्मेल कान्‍वेट स्‍कूल में अध्‍यापिका थीं। अब वे भी सेवानिवृत हो गई हैं।

Sunday, November 8, 2009

अलविदा बिस्‍वास साहब !

हिमांशु बिस्‍वास यानी एचके बिस्‍वास यानी बिस्‍वास साहब यानी बाबा नहीं रहे। 7 नवम्‍बर की सुबह भोपाल से कार्तिक ने मोबाइल पर यह सूचना दी। 6 नवम्‍बर की रात लगभग दस बजे से साढ़े दस बजे के बीच उन्‍होंने आखिरी सांस ली। पिछले कुछ समय से वे बीमार चल रहे थे। इस 20 नवम्‍बर को वे 86 साल पूरे करके 87 वें वर्ष में प्रवेश करते।

1980 के आसपास वे भोपाल के भारत हैवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड से वे प्रिटिंग मैनेजर के पद से सेवानिवृत हुए थे। स्‍क्रीन प्रिटिंग उनका शौक भी था और आय का साधन भी। वे घर में ही विजिटिंग कार्ड बनाया करते थे। बस उसी सिलसिले में एक दिन घूमते हुए एकलव्‍य, भोपाल के कार्यालय जा पहुंचे। तब एकलव्‍य अरेरा कालोनी के ई-1 में अर्जुन तरण पुष्‍कर के सामने 208 में होता था। एकलव्‍य में किसी ने विजिटिंग कार्ड  बनवाने में रूचि नहीं दिखाई। पर हां, बिस्‍वास साहब में जरूर दिखाई। उन दिनों यानी 1985 में चकमक पत्रिका निकालने की तैयारी चल रही थी। चकमक के प्रशासनिक कामों खासकर वितरण और मार्केटिंग के  लिए एक अनुभवी व्‍यक्ति की जरूरत थी। बस वे भी चकमक का हिस्‍सा हो गए। 

Wednesday, October 14, 2009

नाजिम हिकमत की कविताएं

बंगलौर आकर मैंने अपने ब्‍लाग गुल्‍लक को सक्रिय करने की कोशिश की। गुल्‍लक के मार्फत ही एक नए दोस्‍त  मिले दिनेश श्रीनेत। यहां वनइंडिया के हिन्‍दी पोर्टल के संपादक थे। थे इसलिए कह रहा हूं कि इस महीने की पहली तारीख को ही उन्‍होंने कानपुर में जागरण में नई जिम्‍मेदारी संभाल ली है। वहां भी उन्‍हें हिन्‍दी पोर्टल पर ही काम करना है। दिनेश ने ही मुझे इस बात के लिए उकसाया कि मैं वनइंडिया के लिए शिक्षा के मुद्दों पर जनसंवाद में लिखूं। मैंने लिखा और अब भी लिख रहा हूं।

एक दिन दिनेश अपने घर ले गए थे। उनके घर की दिलचस्‍प यात्रा के बारे में मैंने अपने दूसरे ब्‍लाग यायावरी में लिखा है। वहां उनकी किताबों की अलमारी में मुझे ऐसी बहुत सी किताबें दिखीं,जिन्‍हें मैं पढ़ना चाहता था। एक किताब मैं साथ ले आया। यह है बीसवीं सदी के महान क्रांतिकारी तुर्की कवि नाजिम हिकमत की कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘देखेंगे उजले दिन’। कविताओं का चयन और अनुवाद सुरेश सलिल जी ने किया है। यह संग्रह 2003 में मेधा बुक्‍स से प्रकाशित हुआ है। संग्रह में तिरपन कविताओं के साथ नाजिम हिकमत का विस्‍तृत परिचय भी है। 

Monday, September 14, 2009

शिक्षा की खलनायिका : दो और टिप्‍पणियां

इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि शिक्षक समुदाय को नीचा दिखाया जाए। उद्देश्‍य केवल यह है कि हम सब इस बात के प्रति संवेदनशील रहे हैं कि शिक्षा प्राप्‍त करने वाले बच्‍चों के कोमल मन पर कौन सी बातें चोट पहुंचाती हैं। विडम्‍बना यह है कि ये चोट जीवन भर सालती है। मेरी यह टिप्‍पणी जनसंवाद में प्रसारित हुई थी। प्रतिक्रिया में वहां मारीशस से मधु गजाधर एक टिप्‍पणी आई थी जिसे मैं जनसंवाद से साभार प्रस्‍तुत कर रहा हूं। दूसरी टिप्‍पणी मेरे मेल बाक्‍स में आई है,जिसे भोपाल की पारुल बत्रा ने भेजा है। संयोग कुछ ऐसा है कि पारुल के पिता गुरवचनसिंह स्‍वयं एक शिक्षक हैं। फिर भी पारुल ने यह आवश्‍यक समझा कि वह थोथे आदर्श को छोड़कर एक कड़वे सच को सामने रखे। पारुल ने अपने स्‍कूल का नाम भी लिखा था। लेकिन मैंने उसे हटा दिया है। क्‍योंकि यह किसी स्‍कूल विशेष की बात नहीं है,यह एक ऐसी समस्‍या है जो कहीं भी हो सकती है।

Sunday, September 6, 2009

असंवेदनशीलता : शिक्षा की खलनायिका

इस शिक्षक दिवस पर हर बार की तरह मुझे मेरे वे शिक्षक एक बार फिर याद आए जिनकी दी हुई शिक्षा की बदौलत मैं यहां तक पहुंचा। पर ये शिक्षक केवल स्‍कूल में नहीं थे। स्‍कूल के बाद और उसके बाहर की दुनिया में मैंने बहुत कुछ जाने अनजाने कई सारे लोगों से सीखा। वे सब मेरे शिक्षक हैं। सबको मेरा प्रणाम। कभी विस्‍तार से इनके बारे में जरूर लिखूंगा।

Tuesday, August 18, 2009

बिन नाम सब सून : राजेश उत्साही

शेक्सपीयर ने कहा था कि ‘नाम में क्या रखा है।’ सवाल वास्तव में यही है कि आपने उसमें रखा क्या है। अगर कुछ नहीं रखा है तो कुछ नहीं दिखेगा। सच तो यह कि हम हर किसी को नाम से ही तो याद करते हैं। आजकल तो नाम का ही दाम है। मैं नई जगह, नए लोगों के बीच आया हूं। हर कोई जानना चाहता है कि मेरा यह नाम कैसे बना,किसने रखा। पहले भी लोग मुझसे पूछते रहे हैं। मैं बताता भी रहा हूं। मैंने सोचा एक नाम पुराण भी हो जाए। लेकिन जब बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।

Sunday, July 26, 2009

शुक्रिया,यह दुनिया दी।

कुछ वर्षों पहले राजश्री प्रोडक्‍शन की एक फिल्‍म आई थी 'हम साथ-साथ हैं।' इसमें एक गीत है ‘ये तो सच है कि भगवान है, है मगर फिर भी अनजान हैं, धरती पर रूप मां-बाप का उस विधाता की पहचान है’ यह गीत जब भी कानों में उतरता है मेरी आंखों से खारा समुद्र बहने को हो आता है। आप कहेंगे मैं बहुत भावुक हूं। सच है,पर इतना भी नहीं कि हर वक्‍त नमकीन पानी पीता रहूं। सच तो यह है कि मैं जिन्‍दगी में बहुत कम बार रोया हूं। मेरा खारापन बहुत मुश्किल से निकलता है। पर पता नहीं इस गीत में क्‍या खूबी है कि यह मेरी आंखों में ज्‍वार ला देता है। शायद एक तो इसमें मां-बाप की तस्‍वीर इस तरह खींची गई है कि अतिश्‍योक्ति प्रतीत होते हुए भी वह हकीकत लगती है। दूसरे संगीतकार राम-लक्ष्‍मण की कंपोजिंग ऐसी है कि सीधे दिल में जाती है। हरिहरन और उनके साथियों ने भी इसे ऐसे भक्ति भाव से गाया है कि मन सम्‍मोहित हो जाता है। वे शब्‍द भी बहुत महत्‍वपूर्ण हैं जिन्‍हें रवीन्‍द्र रावल ने चुनकर जमाया है।

Sunday, July 19, 2009

किस्से आलू,मिर्ची,चाय जी के

जून के तपते दिनों में जयपुर में था। वहां दो लगातार दिन दिगन्तर और संधान संस्थाओं में जाना हुआ। दोनों ही संस्था एं शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही हैं। दिगन्तर में शिक्षकों की एक कार्यशाला चल रही थी। उसमें लगभग 30 शिक्षक भाग ले रहे थे। अपना परिचय देने के क्रम में मैंने पूछा कि कितने शिक्षकों ने आलू,मिर्ची,चाय जी गीत गाया है। 15 ऐसे शिक्षक थे जो इस गीत को गाते रहे हैं। हालांकि वे यह नहीं जानते थे कि इसका लेखक कौन है। फिर भी मुझे इस बात की खुशी थी कि मेरा लिखा गीत यहां गाया जा रहा है।

Monday, July 6, 2009

दिन बचपन के

बचपन के दिन कुछ इस तरह याद आएं
कहीं से टूटे खिलौने जैसे बच्‍चे ढूंढ लाएं

रेल के खेल की कूकू, खेलना पहाड़-पानी
कभी गिल्‍ली-डंडा, कभी बेबात शर्त लगाएं

खेल वो आती-पाती, मिट्टी का घर-घूला
बरसती धूप में ,जब तब अंटियां चटकाएं

दादी की कहानी, सरासर गप्‍प नानी की
जब बाबूजी डांट दें,तो गा लोरी मां सुलाएं

सर्द हवा के मौसम को, बांधकर मफलर से
सूरज की तलाश में, दिन भर दांत बजाएं

गड़गड़ाहट बादलों की,कागज़ की कश्तियां
राह चलते पानी में बेमतलब पैर छपछपाएं

बेबात पेड़ों पर चढ़ना, वो कूदना डालियों पर
फूट जाएं कभी घुटने, तो कभी दांत तोड़ लाएं

नीम की मीठी निबोली,सावन के वो झूले
पेंग लें ऊंची गुईंयां, जम के हम झुलाएं

घुटना टेक ही सही, या खड़े रहें बेंच पर
पन्‍ने फाड़कर कापी से, हवाई जहाज बनाएं

वो छुप-छुप के देखना, निहारना उसको
रहना मोड़ पर,निकल के जब स्‍कूल जाएं

काश अगर हो कहीं बैंक अपने बचपन का
चलो उत्‍साही कुछ और लम्‍हे निकाल लाएं

*राजेश उत्‍साही

Wednesday, June 24, 2009

सालगिरह याद रखने के सत्रहसौ साठ बहाने


23 जून से दो दिन पहले हमेशा बड़ा दिन रहा है सबके लिए। बच्‍चों को पाठ्यपुस्‍तकों में पढ़ाया जाता है कि 21 जून  का दिन साल में सबसे बड़ा या लंबा होता है। यानी सूरज देर में डूबता है। पर मेरे लिए तो   23 जून और भी बड़ा दिन है।  इस दिन मेरी शादी जो हुई थी। इतना ही नहीं संयोग से छोटे भाई अनिल की शादी भी रानी के साथ आज के ही दिन हुई थी। आज मेरी शादी की चौबीसवीं सालगिरह है।

पर मुझे समझ ही नहीं आ रहा कि इस सालगिरह को मैं कैसे याद रखूं। क्‍या इसलिए याद रखूं कि चौबीस सालों में पहला मौका है जब मैं पत्‍नी नीमा के साथ नहीं हूं।(यहां फोटो में उनके साथ हूं।) अपने घर में नहीं हूं। क्‍या इसलिए याद रखूं कि इस महत्‍वपूर्ण दिन का सूरज बंगलौर में निकला,आसमान में वह दिल्‍ली में चढ़ा और रूद्रपुर के रास्‍ते में मुरादाबाद के आसपास अस्‍त हुआ। या शायद इसलिए भी याद रखा जा सकता है कि आज की रात में रूद्रपुर के उत्‍तराखंड ग्राम्‍य विकास संस्‍थान के प्रशिक्षण केन्‍द्र में गुजारूंगा।

Saturday, June 13, 2009

दास्‍तान दाढ़ी की


बंगलौर आया तो दिनचर्या पूरी बदल गई। सुबह उठकर रोजमर्रा के कामों से निपटकर साढ़े आठ बजे तक दफ्तर पहुंचने की जल्‍दी। उधर शाम को छह बजे दफ्तर से निकलने पर खरामा-खरामा कदमों से घर पहुंचना। साथी जो कुछ भी खाना बना रहे हों, उनकी मदद करना। खाना और बस एफएम रेडियो या विविध भारती सुनते हुए सो जाना।

सुबह उठकर फिर वही क्रम। इस क्रम में शुरू के दिनों में जो शामिल था, वह था दाढ़ी बनाना। कई बार दाढ़ी बनाने का समय ही नहीं होता । एक दिन साथ रह रहे निराग ने उकसाया। अरे आप रोज-रोज समय क्‍यों बरबाद करते हैं। आप तो दाढ़ी बढ़ाईए। आप पर फबेगी। फिर आप तो कवि हैं। आपको दाढ़ी रखनी चाहिए। उसके तर्कों में दम नहीं था।

Saturday, June 6, 2009

जिन्‍दगी बिखरा कथानक हो गई

कभी - कभी कोई चेहरा, कोई घटना, कोई बात इस तरह दिल को छू जाती है कि ताउम्र पीछा नहीं छोड़ती। बात 1975 के आसपास की है। तब मैं ग्‍यारहवीं का विद्यार्थी था। इटारसी में रहता था। कविताएं लिखना शुरू कर चुका था। कादम्बिनी पत्रिका का एक कालम था जिसमें उभरते रचनाकारों की कविताएं प्रकाशित होती थीं। मैं यह कालम बहुत ध्‍यान से पढ़ता था। किसी एक अंक में इस कालम में प्रज्ञा तिवारी की एक कविता प्रकाशित हुई। उसकी चार पंक्तियों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। वे चार पंक्तियां मैंने अपनी कविता की कॉपी के पहले पन्‍ने पर लिख लीं। वे आज भी लिखीं हैं। ज्‍यों – ज्‍यों दिन बीतते जा रहे हैं, ये पंक्तियां महत्‍वपूर्ण होती जा रही हैं। प्रज्ञा मध्‍यप्रदेश में गाडरवारा या नरसिहंपुर में किसी एक जगह की थीं। पता नहीं वे अब कहां हैं पर उनकी ये चार पंक्तियां हमेशा मेरे साथ हैं-

लक्ष्य तो दृढ़ थे आरम्‍भ से ही
पर हर घटना अचानक हो गई
कहां तक समेंटे हम पृष्‍ठ इसके
जिन्‍दगी बिखरा कथानक हो गई

चार पंक्तियों से याद आया कि ऐसी ही चार और पंक्तियां हैं जो मुझे हमेशा याद रहती हैं। गाहे बगाहे ये बहुत काम भी आती हैं। ये चार पंक्तियां मशहूर गीतकार इंदीवर की हैं-

कोई न कोई तो हर एक में कमी है
थोड़ा - थोड़ा हरजाई हर आदमी है
जैसा हूं वैसा ही स्‍वीकार कर लो
वरना किसी दूसरे से प्‍यार कर लो

Sunday, May 24, 2009

शरद बिल्‍लौरे की याद

मेरी कहानी
उस संगमरमरी पत्‍थर की कहानी है
लोग खूबसूरत कहने के बावजूद
जिसे पत्‍थर कहते हैं।

उस काली चटटान की कहानी है
सख्‍त होने के बावजूद
कोमल पौधे जिसके सीने पर अपनी जड़ें जमाए रहते हैं।


कविता की ये पंक्तियां शरद बिल्‍लौरे की कविता मेरी कहानी की हैं। शरद अब हमारे बीच में नहीं हैं। 19 अक्‍टूबर 1955 को रहटगांव जिला होशंगाबाद,मप्र में जन्‍में शरद का 3 मई 1980 को दुखद निधन हो गया था। मैं 1982 में प्रगतिशील लेखक संघ की होशंगाबाद इकाई का सचिव था। शरद बिल्‍लौरे का कविता संग्रह ‘तय तो यही हुआ था’ प्रगतिशील लेखक संघ ने ही प्रकाशित किया था। सचमुच शरद भाई की कविताएं इतनी सहज और सरल थीं कि लगता जैसे वे पढ़ने वाले ने स्‍वयं लिखीं हों। मैं भी उनसे बहुत प्रभावित था। इस हद तक कि उनके इस संग्रह की कविताओं को आधार बनाकर मैंने श्रद्धांजलि स्‍वरूप एक कविता लिखी थी ‘तुम मुझ में जिंदा हो।‘ जब हरदा में प्रगतिशील लेखक संघ का संभागीय सम्‍मेलन हुआ तो उसमें होशंगाबाद के उभरते हुए कवियों की कविताओं का एक सायक्‍लोस्‍टाइल संग्रह होशंगाबाद इकाई की ओर से जारी किया था। इसका संग्रह का नाम शरद भाई के संग्रह की अंतिम कविता ‘तुम मुझे उगने तो दो’ के नाम पर रखा था। पिछले दिनों शरद कोकास के ब्‍लाग पर शरद बिल्‍लौर का जिक्र देखकर उनकी कविताओं की बहुत याद आई। खासकर यात्रा पर लिखी गई कविताओं की। मैं आज खुद जब अपने शहर भोपाल से बाहर बंगलौर में हूं,तब मुझे इन कविताओं को बार-बार पढ़ने का मन हुआ।

Wednesday, May 13, 2009

राजेश उत्‍साही की दो और ग़ज़लें

।।एक।।
कशमकश से जिन्‍दगी की न डर जाएं
जो मन को भली लगे वही डगर जाएं

गुजरना उम्र का है, बहना नदी का
डरना है क्‍या, बस धार में उतर जाएं

शूलों की चुभन हो, या फूलों की नाजुकी
अपना तो काम है कि नई सहर लाएं

तूफान में घिर गया है जिनका सफीना
कुछ पल कश्‍ती पे मेरी वो ठहर जाएं

रुकी रुकी-सी क्‍यों हो मोड़ पर तमन्‍नाओ
मान भी जाओ इस मुकाम से गुजर जाएं

अक्‍स का है क्‍या,माटी का है यह पुतला
कहो तो राख बनके फिजां में बिखर जाएं


बाजार में बैठे हो तो खरीदार भी मिलेंगे
जिन्‍हें लुटने का है डर, वो अपने घर जाएं

इल्‍जाम अगर सिर है,चुप नहीं मुनासिब
चाहे जां रहे सलामत या कि मर जाएं

थामे रहिए उत्‍साही हौसले का दामन
जाने कौन से पल प्‍यार से संवर जाएं
*राजेश उत्‍साही

।। दो।।


पुण्‍य बहुत किए हैं,चंद पाप कर लें
कुछ सजाए काबिल कुछ माफ कर लें


निम्‍न दर्जे के हैं हम फकत आदमी
भले मानस की छवि मन से साफ कर लें


कर लीं सबने बहुत दुआएं मेरे वास्‍ते
बरबादी के लिए अब हवन-जाप कर लें

सीने पर हैं कई कसीदे, तमगे टंगे हुए
वक्‍त का तकाजा, आलोचना आप कर लें


मुमकिन नहीं है,हर वक्‍त रहें आदरणीय
है अगर वरदान तो इसी क्षण शाप कर लें


नज़रों में बहुत ऊपर रहा हूं श्रीमान की
अब कदमों में ही कहीं मेरा ग्राफ कर लें


वक्‍त के आने तक सूख न जाएं आंसू
मेरे नाम पर भी दो क्षण विलाप कर लें

बिगड़ेंगे ये संबंध तो जाने कब सुधरें
छोड़ें गिले-शिकवे,भरत-मिलाप कर लें

मुदृदत से, कुछ बात नहीं की आपने
इसी बहाने उत्‍साही से संलाप कर लें
*राजेश उत्‍साही

Saturday, May 9, 2009

बंगलौर : एक

कनार्टक राज्‍य परिवहन की
बस नम्‍बर के-4 एम 1455
रूट न 341 सी का
कंडक्‍टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना

हे प्रभु
नायकनहल्‍ली से मोरीगेट की
आज कम से कम दस
सवारियां देना
ताकि दिन भर का
चाय का खर्चा निकल आए

और हां
करना कुछ ऐसा कि
नायकनहल्‍ली मंदिर के
कोने पे
वो दाढ़ी वाला
चूक जाए बस

दाढ़ी वाला
मांगता है टिकट
बहकाता है और लोगों को भी
न खुद बचाता है पैसा
न बचाने देता है मुझे

पता नहीं कैसा
सिरफिरा है
तीन रुपए का सफर
पांच रुपए की टिकट लेकर
करता है

हे प्रभु
इस सिरफिरे को
थोड़ी अक्‍ल दो
और मुझे कम से कम
दस सवारी

बस नम्‍बर
के-4 एम 1455
रूट नम्‍बर 341 सी का
कंडक्‍टर
डयूटी पर निकलने से पहले
माथे पर तिलक लगाकर
भगवान के सामने रोज करता
है प्रार्थना
0 राजेश उत्‍साही

Sunday, May 3, 2009

राजेश उत्‍साही की ग़ज़लें

वो जब भी मुस्‍कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा


अपनी एक ग़ज़ल का यह शेर मुझे हमेशा से बहुत पसंद रहा है। आज मैंने इसमें एक परिवर्तन किया है। पहली लाइन का पहला शब्‍द पहले कोई था, मैंने उसे अब वो कर दिया है। तो 2000 के आसपास की ये दो ग़ज़लें और प्रस्‍तुत हैं। आज इन्‍हें फिर से पढ़ा, कहीं-कहीं कुछ बदला भी है। पिछले हफ्ते ग़ज़ल के एक ब्‍लाग को भी इन्‍हें भेजा था। पर वहां से न तो खत आया न ही खता बताई ।

।। एक।।

सब कहते हैं गजब की जान रखते हो
बहरों की बस्‍ती में इक जुबान रखते हो

धीमे स्‍वर में कहूं या तेज आवाज़ में
सबको पता है तुम क्‍या स्‍थान रखते हो

जो खताएं हों तुम्‍हारी तो हज़ारों माफ
हमारी एक पे, सर आसमान रखते हो

मुदृदत से दबे कुचले हुए थे हम यहां
उठे, तो पूछते हैं क्‍यों तूफान रखते हो

तुम्‍हारा वजूद है, हमारे खून से,पसीने से
जान पड़ता नहीं, हमारा ध्‍यान रखते हो

सहने के दिन गए, न धीरज रखा जाएगा
सम्‍हालो तिजोरी, जहां अपने प्रान रखते हो

अभिव्‍यक्ति की कलम में सच्‍चाई की मार है
पता है कि तुम तलवार-ए-म्‍यान रखते हो

उत्‍साही है जमाने में,याद जमाने को रहेगा
लाख बरबादी के क्‍यों न अरमान रखते हो

*राजेश उत्‍साही


।।दो।।
बारिश की सड़कों पर आईना देखा
पथराई-सी आंख में आईना देखा

भीड़ में खोजते रहे अक्‍स जिसका
पाया जो तन्‍हा,माथे पे पसीना देखा

जो आया,जाएगा इक तयशुदा दिन
इससे अलहदा चलन अभी ना देखा

मौसम बदलते हैं,बदलती हैं अदाएं
दौर आतंक का बारह महीना देखा

जब भी हुआ,करीबे-मंजिल का गुमां
किनारे पे डूबता अपना सफीना देखा

मस्जिद-मंदिर से नहीं रहे बावस्‍ता
प्‍यार के हरफों में काशी-मदीना देखा

वो जब भी मुस्‍कराया है देखकर मुझको
शख्सियत का अपनी नया मायना देखा

*राजेश उत्‍साही